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________________ १९२ न्याय-दीपिका वीतराग कथा में और विजिगीषुकथा में अनुमिति उत्पन्न नहीं होती, ऐसा यायिकों का मानना है । पर उनका यह मानना विधापूर्ण है। याक पोतदानया में शिष्यों के अभिप्राय को लेकर अधिक भी अवश्य बोले जा सकते हैं । 5 परन्तु विजिगीषुकथा में प्रतिज्ञा और हेतुरूए दो ही अवयव बोलना पर्याप्त है, अन्य अवयवों का बोलना वहां अनावश्यक है। इसका खुलासा इस प्रकार है वादी और प्रतिवादी में अपने पक्ष को स्थापित करने के लिए जीत-हार होने तक जो परस्पर {प्रापस) में वचनप्रवृत्ति (चर्चा) 0 होती है वह विजिगीषुकथा कहलाती है। और गुरु तथा शिष्यों में प्रथया रागद्वेष रहित विशेष विद्वानों में तत्त्व ( यस्सुस्वरूप ) के निर्णय होने तक जो आपस में चर्चा की जाती है वह वीतरागकपा है । इनमें विजिगीषुकया को वाद कहते हैं। कोई (गैयायिक) वीत. रागकयर को भी वार कहते हैं। पर वह स्वग्रहमान्य हो है, क्योंकि 5 लोक में गुरु-शिष्य प्रारि को सौम्यचर्चा को याद ( शास्त्रार्थ ) नहीं कहा जाता। हो, हार-जीत को चर्चा को अवश्य बाद कहा जाता है। जैसे स्वामी समन्तभद्राचार्य ने सभी एकान्तवादियों को बाद में जोत लिया। अर्थात्-विजिगीषुकथा में उन्हें विजित कर लिया। और उस याद में परार्थानुमान वाक्य के प्रतिमा और हेतु ये दो ही ) अवयव कार्यकारी हैं। उदाहरणादिक नहीं। इसका भी स्पष्टीकरण इस प्रकार है–सबसे पहले लिङ्गवचनरूप हेतु प्रवश्य होना चाहिये, क्योंदि लिङ्ग का शान न हो, तो अनुमिति ही उत्पन्न नहीं हो सकती है। इसी प्रकार पक्ष-वचनरूप प्रतिज्ञा का भी होना आवश्यक है। नहीं तो, अपने इष्ट साध्य का किसी प्राचारविशेष में निश्चय नहीं । होने पर साध्य के सन्देह वाले प्रोता को अनुमिति पैसा नहीं हो
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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