________________
न्याय-दीपिका
होता है । अर्थात् ये ईसाकी १४ वीं सदीने उत्तटाचं पोर १५वीं सदौके प्रयम पादके विद्वान् हैं। ___ डा० के० बी० पाठक और मुख्तार सा इन्हें शकसं० १३०७ (ई० १३८५)का विद्वान् बतलाते हैं जो विजयनगरके पूर्वोक्त शिलालेख २० २ के अनुसार सामान्यता ठीक है । परन्तु उपर्युक्त विशेष विद्यारसे ई० १४१८ तक इनको उत्तरावधि निश्चित होती है । सा सतीशचन्द्र विद्या भूषण 'हिस्टरी ग्राफ दि मिडियावल स्कूल ऑफ इंडियन लॉजिक' में इन्हें १६०० A. D. का विद्वान् सूचित करने है । पर वह ठीक नहीं है । जैसा कि उपयुक्त विवचनस प्रकट है । मुख्तारसा० ने भी उनके इस समयको गलत ठहराया है।
आचार्य धर्मभूषणके प्रभाव एवं व्यक्तित्वमूचक जो उल्लेख मिलते हैं, उनसे मालूम होता है कि वे अपने समय के सबसे बड़े प्रभावक और व्यक्तित्वशाली जैनगुरु थे। प्रथम देवराय, जिन्हें राजाधिराजपरमेश्वर की उपाधि श्री, धर्मभूषणके चरणों में मस्तक झुकाया करते थे। एमावतीयस्ती के शासनलेख्नमें उन्हें बड़ा विद्वान् एवं वक्ता प्रकट किया गया है : साथ में मुनियों और राजाओंसे पूजित बतलाया है। इन्होंने विजयनगर के राजघराने में जैनधर्मकी अतिशय प्रभावनाकी है। मैं तो समझता हूँ कि इस राजघराने में जैनधर्मकी महती प्रतिष्ठा हुई उसका विशेष श्रेय इन्हीं मभिनव धर्मभूषणजीको है जिनकी विद्वत्ता और प्रभावकं सब कायल थे। इससे स्पष्ट है कि ग्रंथकार असाधारण प्रभावशाली व्यक्ति थे ।
जैनधर्मको प्रभावना करना उनके जीवन का बत था ही, किन्तु ग्रंथरचनाकार्य भी उन्होंने अपनी अनोखी शक्ति और विद्वत्ताका बहुत ही सुन्दर उपयोग किया है । अाज हमें उनकी एक ही अमर रचना प्राप्त है
और वह अकेली यही प्रस्तुत न्यायदीपिका है। जो जैनन्यायके वाङ्मय में अपना विशिष्ट स्थान रखे हुए है और ग्रन्थकारको घवलकीतिको प्रक्षुण्ण १-२ स्वामी समन्तभद गृ. १२६ । ३-४देखो मिडियावल जैनिज्म' २६६