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________________ प्रस्तावना उनमें प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वीकार किया है। क्षणभेददष्टा (योगी) की अपेक्षासे प्रमाणता और भणभेद अदृष्टा व्यावहारिक पुरुषों को अपेक्षासे अप्रमाणता वणित की है। अनपरम्पराके श्वेताम्बर ताकिकोंने धारावाहिक शानों को प्रायः प्रमाण ही माना है उन्हें अप्रमाण नहीं कहा है। किन्तु अकलङ्क पोर उनके उत्तरवर्ती सभी दिगम्बर प्राचार्याने अप्रमाण बतलाया है । और इसीलिए प्रमाणके लक्षणमें अनधिगत या अपूर्वार्थ विशेषण दिया है । विद्यानन्दका कुछ भुकाय अवश्य उन्हें प्रमाण कहनेका प्रतीत होता है। परन्तु जब वे सर्वथा अपूर्वार्धत्वका विरोध करके कथंचित् अपूर्वार्थ स्वीकार कर लेते हैं तब यही मालूम होता है कि उन्हें भी धारावाहिक ज्ञानोंमें अप्रामाण्य इष्ट है । दूसरे, उन्होंने परिच्छत्तिविशेषके अभाव में जिस प्रकार प्रमाणसम्लव स्वीकार नहीं किया है। उसी प्रकार प्रमितिविशेषके प्रभावमें धारावाहिक ज्ञानोंको अप्रमाण माननेकामी उनका अभिप्राय स्पस्ट मालूम होता है। अतः धारावाहिक ज्ञानोंसे यदि प्रमितिविशेष उत्पन्न नहीं होती है इति प्रमाणसंप्लववादी दर्शयन्नाह पूर्वप्रत्यक्षेण इत्यादि । एतत् परिहरति -तद् यदि प्रतिक्षणं क्षणविवेकशिनोऽधिकृत्योच्यते तदा भिन्नोपयोगितया प्रथक् प्रामाण्यात् नानेकान्तः। अथ सर्वपदार्थव्वेकस्वाध्यवसाथिन: सांव्यवहारिकान् पुरुषानभिप्रत्योच्यते तदा सकतमेव नीलसन्तानमेकमर्थ स्थिररूपं तत्साध्या चार्थक्रियामेकात्मिका मध्यवस्यन्तीति प्रामाण्यमप्पुत्तरेषामनिष्टमेवेति कुतोऽनेकान्तः ?" हेतुनिन्थ्टी० लि. पृ० ३१ । १ "गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति । तन्न लोके न शास्त्रष विजाति प्रमाणताम् ॥'-तत्त्वार्थश्लो० पृ० १५४ । २ "उपयोगविशेषस्याभावे प्रमाणसमानवस्यानम्युपगमात् । सति हि प्रतिपतुरुपयोगविशेषे देशादिविशेषसमवधानादागमात्प्रतिपन्नमपि हिरण्यरेतसं स पुनरुनुमाना. प्रतिपित्सते ।"--प्रष्टस० पृ. ४ ।
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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