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________________ न्याय-दीपिका अनुमानमें शेष तोनका अन्तर्भाव हो जानेका कथन किया है। प्रशस्तपादने भी अपने वैशेषिकदर्शनानुसार प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो ही प्रमाणोंका समर्थन करते हुए उल्लिखित प्रमाणोंका इन्हीं में अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। प्रसिद्धिके आधार पर इतना और कहा जा सकता है कि पाठ प्रम मा यतः स व रागाना है । कहा, प्रमाणको अनेकभेदरूप प्रारम्भसे ही माना जा रहा है और प्रत्येक दर्शनकारने कमसे कम प्रमाण माननेका प्रयत्न किया है तथा शेष प्रमाणोंको उसी अपनी स्वीकृत प्रमाणसंख्या में ही अन्तर्भाव करनेका समर्थन किया है । यही कारण है कि सात, छह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रमाणवादी दार्शनिक जगतमें आविर्भूत हुए हैं। एक ऐसाभी मत रहा जो सात प्रमाण मानता श्रा' 1 छह प्रमाण माननेवाले जैमिनी अथवा भाट्ट, पांच प्रमाण माननेवाले प्राभाकर, चार प्रमाण कहनेवाले नैयायिक, तीन प्रमाण माननेवाले सांस्य, दो प्रमाण स्वीकृत करनेवाले वैशेषिक मौर बौद्ध तथा एक प्रमाण माननेवाले चार्वाक तो माज भी दर्शन शास्त्रकी चर्चाक विषय बने हुए हैं। जैनदर्शनके सामने भी यह प्रश्न था कि वह कितने प्रमाण मानता है ? यद्यपि मत्यादि पौच जानोंको सम्यग्ज्ञान या प्रमाण माननेकी परंपरा प्रति सुप्राचीनकालसे ही प्रागमोंमें निबद्ध और मौखिक रूपसे सुरक्षित चली आ रही थी, पर जेनेतरोंके लिए वह अलोकिक जैसी प्रतीत होती थी-उसका दर्शनान्तरीय प्रमाणनिरूपण से मेल नहीं खाता था। इस १ "न चतुष्ट्वमैतिह्मार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात् ।"-यायसू. २-२-१ । "शब्द ऐतियानर्थान्तरभावादनुमानार्थापसिसम्भवाभावानर्यान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः ।"-म्पायसू० २-२-२। २ देखो, प्रशस्तपावभाज्य पृ० १०६-१११ ।
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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