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________________ १४ न्याय-दीपिका का फल कह कर उन्हें ही प्रमाण माना है' । क्योंकि बौद्धदर्शनमें प्रमाण मौर फल भी भिन्न नहीं हैं भोर जो अज्ञाताप्रकाश रूप ही हैं। घमंकीत्तिने अविसंवादि पद और लगाकर दिग्नाग के ही लसग को प्रायः परित किया है। तत्वसंग्रहकार शान्तरक्षितने' सारूप्य और योग्यताको प्रमाण वर्णित किया है जो एक प्रकारसे दिग्नाग और धर्मकीसिके प्रमालसामान्यलक्षणका ही पर्यवसितार्थ है । इस तरह बौदोंके यहाँ स्वसंवेदी मशातार्थजापक भविसंवादि शानको प्रमाण कहा गया है । जन परम्परामें सर्व प्रथम स्वामी समन्तभद्र' और मा०सिद्धसेनने प्रमाणका सामान्यलक्षण निर्दिष्ट किया है और उसमें स्वपरावभासक, ज्ञान तथा बाधयिजित ये तीन विशेषण दिये हैं। भारतीय दाशिनिकोंमें समन्तभद्र ही प्रथम दार्शनिक हैं जिन्होंने स्पष्टतया प्रमाणके सामान्यलक्षणमें एयरपमासक' पप रखा हपछानियादी बौद्धमाशानको 'स्वरूपस्य स्वतो गतेः' कहकर स्वसंवेदी प्रकट किया है परन्तु ताकिक रूप देकर विशेषरूपसे प्रमाणके लक्षणमें 'स्व' पदका निवेश समन्तभद्रका ही स्वोपन जान पड़ता है। क्योंकि उनके पहले वैसा प्रमाणलक्षण देखनेमें नहीं पाता । समन्तभद्र ने प्रमाणसामान्यकर लक्षण 'युगपत्सर्वमासितत्त्वज्ञान' भी किया है जो उपर्युक्त लक्षणमें ही पर्यवसित है दर्शनशास्त्रोंके अध्ययनसे ऐसा मालूम होता है 'प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्' मदि जिसके द्वारा प्रमिति ( परिच्छित्तिविशेष ) हो वह प्रमाण है' इस अर्थमें १ "स्वसंवित्तिः फल पात्र तद्रूपादर्थनिश्चयः । विषयाकार एवास्य प्रमाण तेन मीयते ।।"-प्रमाणसमु. १.१० । २ "प्रमाणमविसंवादि जानम्","प्रमाणवा० २-१ । ३ "विषयाषिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते। स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा।।"-सस्वसं० का १३४ । ४ "स्वपरावभासकं यया प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्"- स्वयम्भू० का. ६३ । ५.प्रमाणं स्वपराभासि शान शायविवर्जितम्।"--माया का१
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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