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न्याय-दीपिका
'प्रविसंवादि पदको भी रखा है। य पद कुमारिस तथा पमंकीति से माये हुए मालूम होते हैं। क्योंकि उनके प्रमाणलक्षणोंमें वे पहलेसे ही विहित है । प्रकल देवके उत्सरवर्ती माणिक्यनन्दिने प्रकलङ्कदेवके 'प्रन विगत' पदके स्थानमें कुमारिलोक्त 'अपूर्वार्थ' और पारमा' पद स्थानमें समन्तभदोस्त 'स्व' पदका निवेश करके 'स्वापूर्थि' जैसा एक पद बना लिया है और 'दमवसायास्मक' पदको ज्योंका त्यों अपनाकर 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं शान' यह प्रमाणसामान्यका लक्षण प्रकट किया है। विद्यानन्दने यद्यपि संक्षेपमें 'सम्यग्जान' को प्रमाण कहा है' और पीछे उसे 'स्वार्थव्यवसायात्मक' सिद्ध किया है, अकलङ्क तथा माणिक्यनन्दिकी तरह स्पष्ट तौर पर 'अनधिगस' या 'मपूर्व' विशेषण उन्होंने नहीं दिया, तथापि सम्परज्ञानको अनधिगतार्थविषयक या अपूर्वार्थविषयक मानना उन्हें प्रनिष्ट नहीं है उन्होंने जो अपूर्वार्थका खण्डन किया है। यह कुमारिलके सर्वथा 'अपूर्वार्थ' का खण्डन है । कथंचिद् अपूर्थि तो उन्हें मभिप्रेत है । प्रकलदेवकी तरह स्मृत्यादि प्रमाणोंमें मपूर्थिता
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"प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्" प्रष्टश का० ३६ । २ "स्वापूर्षिव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।',—परीक्षाम. १-१ । ३ "सम्पमानं प्रमाणम्"-प्रमागपरी० पृष्ट ५१ । ४ "किं पुनः सम्यरमान ? मभिधीयते-स्वार्थव्यवसामात्मकं सम्यशानं सम्यम्मानस्वात..."
-प्रमाणप० पृ० ५३ । ५ "तत्स्वार्थव्यवसायात्मकशानं मानमितीयता लक्षणेन गतार्थत्वात् व्यर्थमन्मद्विशेषणम् ॥"-तस्वायत्रलो. पृ० १७४ ।
६ "सकलदेशकालव्याप्तसाध्यासाधनसम्बदोहापोहलक्षणो हि तर्क: प्रमाणयितव्यः, तस्य कयाञ्चिपूर्वार्थत्वात् ।" "नचंतद् गृहीतग्रहणादप्रमाणमिति शमनीयम्, तस्य कथाञ्चिदपूर्थित्वात् । न हि तद्विषयभूतमेकं दव्यं स्मृतिप्रत्यक्षग्राह्य मेन तत्र प्रवर्तमान प्रत्यभिज्ञानं गृहीतग्राहि मन्येत तद्गृहीतातीलबर्तमानविवर्ततादात्म्यात् दध्यस्य कञ्चिदपूर्वाप