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________________ s का उन्होंने स्पष्टतया समर्थन किया है। सामान्यतया प्रमाणलक्षण में पूर्व पदको न रखनेका तात्पर्य यह है कि प्रत्यक्ष तो अपुर्वाग्राही होता ही है और अनुमानादि प्रत्यक्ष से गृहीत धर्मांशोंमें प्रवृत्त होनेसे अपूर्वाचंग्राहक सिद्ध हो जाते हैं । यदि विद्यानन्द को स्मृत्यादिक मपूर्वार्धविषयक इष्ट न होते तो उनकी प्रमाणता में प्रयोजक अपूर्वार्थताको वे कदापि न बतलाते । इससे स्पष्ट है कि विद्यानन्द भी प्रमाणको अपूवर्थिग्राहो मानते हैं । इस तरह समन्तभद्र और प्रकलङ्कदेव का प्रमाणसामान्यलक्षण ही उत्तरवर्ती जैन तार्किकोंके लिए श्रावार हुआ है ! भा० घर्मभूषणने न्यायदीपिका में विद्यानन्दके द्वारा स्वीकृत 'सम्यग्ज्ञानत्व' रूप प्रमाणके सामान्यलक्षणको ही अपनाया है और उसे अपनी पूर्वपरम्परानुसार सविकल्पक अगृहीतग्राही एवं स्वार्थव्यवसायात्मक सिद्ध किया है तथा धर्मकीति प्रभाकर भट्ट और नैयायिकोंके प्रमाणसामान्यलक्षणों की प्रालोचना को है । ५. धारावाहिक ज्ञान दार्शनिक प्रन्थों में धारावाहिक ज्ञानोंके प्रामाण्य और अप्रमाण्य की विस्तृत चर्चा पायी जाती है। न्याय-वैशेषिक पौर मीमांसक उन्हें प्रमाण मानते हैं। पर उनकी प्रमाणताका समर्थन वे अलग-अलग ढंगसे करते हैं। न्याय-वैशेषिका कहना है कि उनसे परिच्छित्ति होती है और लोकमें वे प्रमाण भी माने जाते हैं। अतः वे गृहीतग्राही होने पर भी त्वेsपि प्रत्यभिज्ञातस्य तद्विषयस्य नाप्रमाणत्वं लैंगिकादेरप्यप्रमाणत्वप्रसंगात् । तस्यापि सर्वथैवा पूर्वार्थत्वासिद्धेः ।" - प्रमाणप० पृ०७०। "स्मृतिः प्रमाणान्तरमुक्तं नचासावप्रमाणमेव सवादकत्वात् कथञ्चन पूर्वार्थसाहित्यात् प्रमाण१० पृ० ६७ । " गृहीतग्रहणात्तर्कोऽप्रमाण मिति चेत्र । तस्यापूर्वार्थवेदित्वादुपयोग विशेषतः ।। " - तत्वाश्लो० पृ० ११५ । १ " अनधिगतार्थग्रन्तृत्वं च धारावाहिकज्ञानानामधिगतगोचराणां J प्रस्तावना -
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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