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न्याय-दीपिका
सरल मार्ग बना दिया। दर्शनान्तरों में प्रसिद्ध उपमानादिकको भी परोक्षमे ही अन्तर्भाव होनेका स्पष्ट निर्देशा उनके बादमें होने वाले पूज्यपादने कर दिया । अकलंकदेवने उसी मार्गपर चलकर परोक्ष-प्रमाणके भदोंको स्पष्ट संख्या बतलाते हुए उनकी सयुक्तिक सिद्धि को और प्रत्यकका लक्षण प्रणयन किया। प्रागे तो परोक्षप्रमाणोंके सम्बन्धमें उमास्वाति और
प्रकलङ्कने जो दिशा निर्धारित की उसीपर सब जनताकिक अनिरुद्ध • रूपसे चले हैं । प्रकलङ्कदेवके सामने भी एक प्रश्न उपस्थित हुअा। वह यह कि लोकमें तो इन्द्रियाश्रित ज्ञानको प्रत्यक्ष माना जाता है पर जनदर्शन उसे परोक्ष कहता है, मह लोकविरोध कमा ? इसका समाधान उन्होंने बड़े स्पष्ट और प्राञ्जल शन्दोंमें दिया है । वे कहते है'—प्रत्यक्ष दो प्रकारका है-- १ सांव्यवहारिक और २ मुख्य । लोकमें जिस इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षको प्रत्यक्ष कहा जाता है वह व्यवहारसे तथा देशत, बैशन होनेसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके रूपमें जनोंको इष्ट है। अत: कोई लोकविरोध नहीं है। अकल के इस बहुमुखी प्रतिभाके समाधानने सबको चकित किया। फ़िर तो जैन तर्कगंधकारोंने इसे बड़े भादरके साथ एक स्वरसे स्वीकार किया और अपने अपने ग्रन्थों में अपनाया । इस तरह मूत्रकार उमास्वातिने जो प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद निर्धारित किये थे उन्हें ही जैनतार्किकाने परिपुष्ट और समर्थित किया है ! यहाँ यह
१ "उमानार्थापत्त्मादीनामत्रवान्तर्भावात् ।" "मस उपमानागमादीनामबान्तर्भाव:'- सर्वार्थसिद्धि पृ० ६४ ।
२ "ज्ञानमाद्यं मतिः संजा चिन्ता चाभिनिबोधिकम् । प्राङ्नामयोजनात् शेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् ।।"-लघीयका ११ । "परोक शेषविज्ञानं प्रमाणे इति संग्रहः"— लघीय. का. ३ । ३ "प्रत्यक्षं विशदं शान मुरूपसंव्यवहारत:"-लषीय का० ३१