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न्याय-दीपिका गया है कि पास्त्रके पादि, मध्य प्रौर पन्तमें बिनेन्द्रका मुषस्तवररूप मङ्गलका कथन करनेसे समस्त विघ्न उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार सूर्योदयसे समस्त अन्यका : इसके साथ ही तीने साना गान करनेका पृथक् पृथक् फल भी निर्दिष्ट किया है मोर लिखा है कि शास्त्र के माविमें मङ्गल करनेसे शिष्य सरलतासे शास्त्रक पारगामी मनते हैं। मध्यमें मङ्गल करनेसे निर्विघ्न विद्या प्राप्ति होती है पोर अन्तमें मङ्गल करनेसे विद्या-फलकी प्राप्ति होती हैं । इस प्रकार जनपरम्पराके दिगम्बर साहित्यमें शास्त्र में मङ्गल करनेका सुस्पष्ट उपदेश मिसता है । श्वेताम्बर भागम साहित्यमें भी मङ्गलका विधान पाया जाता है । दशवकालिकनियुक्ति ( गा० २ ) में त्रिविध मंगल करनेका निर्देश है। विशेषावश्यकमाण्य ( गा० १२-१४ ) में मंगलके प्रयोजनोंमें विघ्नविनाश मौर महाविद्याकी प्राप्तको बतलाते हुए आदि मंगलका निविघ्नरूपसे शास्त्रका पारंगत होना, मध्यमंगलका निविघ्नतया शास्त्र-समाप्ति की कामना और अन्त्यमंगलका शिष्य-अशिष्यों में शास्त्र-परम्पराका पाद रहना प्रयोजन बतलाया गया है। वृहत्कल्प-भाष्य ( गा० २० ) में मंगलके विघ्नविनाशके साथ शिष्य में शास्त्रके प्रति श्रद्धाका होना आदि प्रनेक प्रयोजन गिनाये गये हैं। हिन्दी अनुवादके प्रारम्भमें यह कहा ही
१ 'सत्यादि-मज्भ अवसाणएसु जिणतोत्तमंगसुचारो। ___णासइ णिस्सेसाई विघाइं रवि व तिमिराई ।।'-ति०प० १-३१ ।, २ 'पढ़ने मंगलवयणे सिस्सा सत्यस्स पारगा होति । मझिम्मे गीविघं विज्जा विमा फलं चरिमे ।।
-तिलो० ५० १.२६ । पबला १.१-२, पृ. ४० । ३ यद्यपि 'कषायपाहुर' मोर 'चुणिसूत्र के प्रारम्भमें मंगल नहीं किया है तथाहि वहाँ मंगल न करने का कारण यह है कि उन्हें स्वयं मंगल रूप मान लिया गया है।