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प्रस्तावना
पदमें सन्नहित है। अकलङ्कदेवने' उसका वैसा विवरण भी किया है। और विद्यानन्दने' तो उसे स्पष्टतः हेतुलक्षणका ही प्रतिपादक कहा है। प्रकलङ्कके पहिले एक पात्रकारी या पात्रस्वामी नाम के प्रसिद्ध नारा भी हो गये हैं जिन्होंने श्रेष्यका कदन करनेके लिए 'त्रिलक्षगकरधन' नामक ग्रन्थ रचा है और हेतुका एकमात्र 'अन्यषानुपपन्नत्व लक्षण स्थिर किया है। उनके उत्तरवर्ती सिखसेन' प्रकला, वीरसेन', कुमारनन्दि, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र, वादिराज, वादिदेवमूरि और हेमचन्द्र आदि सभी जनतार्किकोंने अन्यथानुपपन्नाव (अविनाभाथ) को ही हेतुका लक्षण होनेका सबलताके साथ समर्थन किया है । वस्तुतः अविनाभाव ही हेतुकी गमतामें प्रयोजक है 1 नवाञ्चय तो गुप्त एवं गानिनाभावका ही विस्तार हैं । इतना ही नहीं दोनों अव्यापक भी हैं। कृत्तिकोदयादि हेतु पक्षधर्म नहीं है फिर भी अविनाभाव रहनेसे गमक देखे जाते हैं। आ० वर्मभूषणने भी रूप्य और पाचरूप्यकी सोपपत्तिक आलोचना करके 'प्रन्ययानुपपन्नत्वं' को ही हेतुलक्षण सिद्ध किया है और निम्न दो कारिकाभोंके द्वारा अपने वक्तव्यको पुष्ट किया है :
१ "सपक्षेणैव साध्यस्य साधादित्यनेन हेतोस्त्रलमण्यम्, अविरोधात् इत्यन्यथानुपपसि च दर्शयता केवलस्य विलक्षणस्यासाघनत्वमुक्तं तत्पुत्रत्वादिवत् । एकलक्षणस्य तु गमकस्वं "नित्यत्वकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते" इति बहुलमन्यथानुपपत्तेरेव समाश्रयणात् ।- मष्टाः पापामी० का० १०६ । २ "भगवन्तो हि हेतुलक्षणमेव प्रकाशयन्ति, स्याद्वादस्य प्रकाशितत्यात् ।"--मष्टस• पृ० २८६ । ३ सिद्धसेनने 'अन्यथा. नुपपन्नत्व' को 'मन्यथानुपपन्नत्वं हेतोलक्षणमीरितम्' (न्यायवाका० २१) शब्दों द्वारा वोहराया है मौर 'इरितम्' शब्दका प्रयोग करके उसको प्रसिद्धि एवं अनुसरण स्थापित किया है । ४ देखो, षषला. पु०१३, पृ० २४६ ।