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न्याय-दीपिका
रद्दा मालूम नहीं होता । हाँ, उनका पत्रिरूप हेतुलक्षण प्रषिक एवं मुख्य प्रसिद्ध इसीजिये उसांक जान है।
बौद्ध विद्वान धर्मकीर्तिने 'अपरे' शब्दोंके साथ, जिसका श्रचंटने' 'नैयायिक और मीमांसकों आदि अर्थ किया है। हेतुकी पंचलक्षणों के साथ ज्ञातत्वको मिलाकर बड़लक्षण मान्यता का भी उल्लेख किया है। यध्यपि यह षड्लक्षणवाली मान्यता न तो नैयायिकों के यहाँ उपलब्ध होती है और न मीमांसकों के यहाँ हो पाई जाती है फिर भी सम्भव है कि प्रचंट के सामने किसी नैयायिक या मीमांसकादिका हेतुको षड्लक्षण माननेका पक्ष रहा हो और जिसका उल्लेख उन्होंने किया है। यह भी सम्भव है कि प्राचीन नैयायिकोंने जो ज्ञायमान लिङ्गको भर माट्टोंने ज्ञातिता को अनुमिति कारण माना है और जिसकी प्रालोचना विश्वनाथ पंचाननने" की है उसीका उल्लेख श्रचंटने किया हो ।
एकलक्षणकी मान्यता प्रसन्दिग्वरूपसे जैन विद्वानोंकी है, जो अविनाभाव या अन्यथानुपपत्तिरूप है और कल देवके भी पहिले से चली आ रही है। उसका मूल सम्भवतः समन्तभद्रस्वामीके 'सममेव साध्यस्य साम्यदविरोधितः' ( प्राप्तमी० का० १०६ ) इस वाक्यके 'अविशेषत:
१ "पलक्षणो हेतुरित्यपरे नयायिकमीमांसकादयो मन्यन्ते । कानि पुनः षड्रूपाणि हेतोस्तैरिष्यन्ते इत्याह श्रीणि वैतानि पक्षषमन्वियव्यतिरेकास्पाणि, तथा भवाधितविषयत्वं चतुर्थं रूपम् तथा विवक्षितंकसंख्यत्वं म्हपान्तरं तथा ज्ञातत्वं च ज्ञानविषयत्वं च न ज्ञातो हेतुः स्वसत्तामात्रेण गमको युक्त इति ।"- हेतुवि० पृ० ६८ हेतुवि० टी० पृ० २०५ । २ " प्राचीनास्तु व्याप्यत्वेन जायमानं लिङ्गमनुमितिकरणमिति वदन्ति । तद्दूषयति मनुमायां जायमानं लिङ्ग तु करणं न हि ।" - सि० ० मु० पृ० ५० | "भाट्टानां मते ज्ञानमतीन्द्रियम् । ज्ञानजन्या ज्ञातता प्रत्यक्षा तथा ज्ञानमनुमीयते ।" - सि० मु० पृ० ११६ ।