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गुसरा प्रकाश
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वापसे उत्पन्न होने वाले तथा मूत्तिक द्रव्य मात्रको विषय करने वाले शान को अवधि ज्ञान कहते हैं। मनःपर्ययज्ञानावरण और वोर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुये और दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जाननेवाले ज्ञान को मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। मतिज्ञान की तरह प्रधि और मनःपर्ययज्ञान के भी भेद और प्रभेव है, उन्हें तत्त्वार्थ- 5 राबवात्तिक और श्लोकवात्तिकभाष्य से जानना चाहिये।
समस्त वक्ष्यों और उनकी समस्त पर्यायों को जानने वाले जान को सफल प्रत्यक्ष कहते हैं। यह सकल प्रत्यक्ष ज्ञानावरग मावि धातियाकों के सम्पूर्ण नाश से उत्पन्न केवलज्ञान ही है। क्योंकि “समस्त तुम्यों और समस्त पर्यायों में केवल जान की प्रवृत्ति है' सा तत्त्वार्थ- 10 सूत्र का उपवेश है।
इस प्रकार अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों मान सब तरह से स्पष्ट होने के कारण पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। सब सरह से स्पष्ट इसलिये हैं कि ये मात्र आत्मा की अपेक्षा लेकर उत्पन्न होते हैं-इन्द्रियादिक पर पदार्थ की अपेक्षा नहीं लेते।
15 शङ्काकेवलज्ञान को पारमायिक कहना ठीक है, परन्तु अवधि और मनःपर्यय को पारमार्थिक कहना ठीक नहीं है । कारण, वे दोनों विकल (एकदेश) प्ररपक्ष हैं ? __ समाधान --- नहीं; सफसपना और विकलपना यहाँ विषय को अपेक्षा से है, स्वरूपतः नहीं। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- 20 चूंकि केवलज्ञान समस्त द्रव्यों और पार्यों को विषय करने वाला है, इसलिये वह सकल प्रत्यक्ष कहा जाता है। परन्तु अषि और मनःपर्यय कुछ पदार्थों को विषय करते हैं, इसलिये वे विकल कहे जाते हैं। लेकिन इतने से उनमें पारमार्थिकता को हानि नहीं होती। क्योंकि पारमार्थिकता का कारण सकलाविषपता नहीं है-पूर्व 25