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________________ १२ न्याय-दीपिका इधर जब मैं सन् १९४३ के अप्रेसमें वीरसेवामन्दिरमें पाया तो दूसरे साहित्यिक कार्योंमें प्रवृत्त रहनेसे एक वर्ष तक तो उसमें कुछ भी योग नहीं दे पाया। इसके बाद उसे पुन: प्रारम्भ किया मोर संस्थाफे कार्यसे बचे समयमें उसे बढ़ाता गया। मान्यवर मुख्तार सा. ने इसे मालूम करके प्रसन्नता प्रकट करते हुए उसे बोरसेवामन्दिर ग्रन्थमालासे प्रकाशित करनेका विचार प्रदर्शित किया। मैंने उन्हें अपनी सहमति दे दी । और तबसे (लगभग ८. ६ माहसे) अधिकांशत: इसीमें अपना पूरा योग दिया । कई रात्रियोंके तो एक-एक दो-दो भी बज गये । इस तरह जिस महत्वपूर्ण एवं सुन्दर कृति के प्रति मेरा भारम्भसे सहर मनुराम और माकर्षण रहा है उसे उसके अनुरूपमें प्रस्तुत करते हुए मुझे नही प्रसन्नता होती है। संशोधन को कठिनाइयो___ साहिस्थिक एवं ग़म्बत गावक पाना है । मुनि पुति दोनों ही तरहकी प्रतियोंमें कैसी और कितनी यक्षुधियां रहती हैं। पौर उनके संशोधनमें उन्हें कितना श्रम और शक्ति लगानी पड़ती है । किसने ही ऐसे स्थल पाते हैं जहाँ पाठ बुटित रहते हैं और जिनके मिलाने में दिमाग थककर हैरान हो जाता है। इसी बातका कुछ अनुभव मुझे भी प्रस्तुत न्यायदीपिकाके सम्पादन में हुमा है। यपि न्यायदीपिकाके, भनेक संस्करण हो चुके और एक सम्बे अरसेसे उसका पठन-पाठन है पर उसमें जो त्रुटित पाठ और अशुद्धियां चलो पा रही हैं उनका सुधार नहीं हो सका । यहाँ मैं सिर्फ कुछ त्रुटित पाठों को बता देना चाहता हूँ जिससे पाठकोंको मेरा कथन असत्य प्रतीत नहीं होगा मुद्रित प्रतियों के छूटे हुए पाठ पृ. ३६ पं० ४ 'सर्वतो वैशद्यापारमाधिक प्रत्यक्षं' (का.प्र.) पृ० ६३ पं० ४ ‘अन्यभावे च धूमानुपलम्भे' (सभी प्रतियोंमें) पृ० ६४ पं. ५ 'सर्वोपसंहारक्तीमपि'
SR No.090311
Book TitleNyayadipika
Original Sutra AuthorDharmbhushan Yati
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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