________________
न्याय-दीपिका
प्रत्यक्षादिककी तरह स्मृति अविसंवादी है- विसंवाद रहित है, इसलिए भी वह प्रमाण है। क्योंकि स्मरण करके यथास्थान रक्खी हुई वस्तुनों को ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होने वाले व्यक्ति को स्मरण के विषय (पदार्थ) में विसंवाद – भूल जाना या प्रत्यत्र प्रवृत्ति करना 5 नहीं होता । जहाँ विसंवाद होता है वह प्रत्यक्षाभास की तरह स्मरणाभास है। उसे हम प्रमाण नहीं मानते। इस तरह स्मरण नामका पृथक प्रमाण है, यह सिख हुमा ।
१७६
प्रत्यभिज्ञान का लक्षण और उसके भेदों का निरूपण
अनुभव और स्मरणपूर्वक होने वाले जोड़रूप ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान 10 कहते हैं। 'यह' का उल्लेख करने वाला ज्ञान अनुभव है और 'वह' कर उल्लेख ज्ञान स्मरण है। इन दोनों से पैदा होने वाला तथा पूर्व और उत्तर अवस्थाओं में वर्तमान एकस्व सादृश्य और वैलक्षण्य प्राविको विषय करने वाला जो जोड़रूप ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञान
r
है, ऐसा समझना चाहिए। जैसे वही 15 गवय ( जङ्गली पशुविशेष) होता है, इत्यादिक प्रत्यभिज्ञान के उदाहरण हैं ।
यह जिनदत्त है, गो के समान गाय से भिन्न भैसा होता है,
यहाँ पहले उदाहरण में, जिनदत को पूर्व और उत्तर अवस्था श्रोंमें रहने वालो एकता प्रत्यभिज्ञान का विषय है । इसीको एकत्वप्रत्यभिज्ञान कहते हैं। दूसरे उदाहरण में, पहले अनुभव को हुई
20 गाय को लेकर गवय में रहने वाली सदृशता प्रत्यभिज्ञान का विषय है । इस प्रकार के ज्ञान को साबुश्यप्रत्यभिज्ञान कहते है। तीसरे उदाहरण में, पहले अनुभव की हुई गाय को लेकर भंसा में रहने वाली विसदृशता प्रत्यभिज्ञान का शिष्य है। इस तरह का ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहलाता है । इसी प्रकार और भी प्रत्यभिज्ञान के 25 भेव अपने अनुभव से स्वयं विचार लेना चाहिये। इन सभी प्रत्य
सावुइय