Book Title: Dharmik Vahivat Vichar
Author(s): Chandrashekharvijay
Publisher: Kamal Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 धार्मिक वहीवट विचार জু, জাঙ্গালিয়জী MerersawsARINA कमल प्रकाशन ट्रस्ट Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मविषयक कुल चौदह क्षेत्रोंकी शास्त्रीय व्यवस्थाका सविस्तर बोध करानेवाली पुस्तक 20009009080899000000000mm m mmmmmmmmm mmwwwwanm000000000RROOOOOOOOOOR धार्मिक वहीवट विचार 1866666660000000RRARAMMAawwwIMARATuuuuuuu000008888888888888880 लेखक : पं. चन्द्रशेखरविजयजी संपादक : मुनिश्री दिव्यवल्लभविजयजी म. सा. : परिमार्जक : 955006 (1) पूज्यपाद गच्छाधिपति आ. देव श्रीमद् जयघोषसूरीश्वरजी | म. साहब (2) आ. देव श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. साहब (3) आ. देव श्रीमद् हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म. साहब (4) पं. श्री जयसुंदरविजयजी गणिवर अनुवादक (हिंदी) प्रा. कान्तिभाई ए. याज्ञिक एम.ए., एम.एड्, साहित्यरत (निवृत्त : गूजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद) कमल प्रकाशन ट्रस्ट Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्वस्तिक ग्रन्थमाला, पुष्प 16 प्रकाशक :कमल प्रकाशन ट्रस्ट जीवतलाल प्रतापशी संस्कृतिभवन ज़वेरीवाड, रिलीफ रोड, अहमदाबाट फोन : 5355823 . 5356033 लेखक-परिचय : सिद्धान्त महोदधि, सच्चारित्र चूडामा. स्व. पूज्यपाद आ. भगवंत श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजा साहबके विनेय पं. श्री चन्द्रशेखरविजयजी प्रथम संस्करण : प्रतियाँ 2000 द्वितीय संस्करण . : प्रतियाँ 3000 / गुजराती प्रतियाँ तृतीय संस्करण : प्रतियाँ 5000 चतुर्थ संस्करण : प्रतियाँ 2000 वि. सं. 2052 ता. 1-10-1996 888888888888 REEEEEP 3888 8888888888888888888888888888888888 मूल्य रू. 35-00 लेसर टाईप सेटिंग : शाईन आर्ट कोम्प्युग्राफिक्स राजनगर, पालडी, अहमदाबाद-७ टे. नं. 6639232 33333333338 मुद्रक : भगवती ऑफसेट १५/सी, बंसीधर एस्टेट, बारडोलपुरा, अहमदाबाद Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L: प्रकाशकीय - 'स्वस्तिक 'ग्रंथमाला के संदर्भमें पूज्यपाद पंन्यास चन्द्रशेखरविजयजी की लघु पुस्तिकाओंकी इस श्रेणीका हम प्रकाशन कर रहे हैं / आजपर्यन्त, हमने पूज्यपादश्रीके दोसौंसे अधिक पुस्तकोंका प्रकाशन किया है / जो सज्जन दो हजार रूपयोंका दान करेंगे, उनका नाम (ग्रंथमाला श्रेणीके पुस्तकोंको छोडकर) सभी, किताबोंमें, प्रकाशित करेंगे और उन्हें हमारा प्रकाशन भेंट स्वरूप भेजते रहेंटो / / इस योजनाका आपलाभ उठायें, ऐसी आकांक्षाके सोथ, कमल प्रकाशन ट्रेस्ट जी. प्र. संस्कृतिभवन, 2777, निशापोल, रिलीफ रोड, अहमदाबाद - 1 (गुजरात) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / 'दूसरे संस्करणका लेखकीय' |- प्रतिवर्ष पर्युषण पर्वाधिराजकी आराधना करानेके लिए गाँव गाँव परिभ्रमण करनेवाले युवकोंके लिए इस पुस्तकका लेखनकार्य मैंने किया है / इसका मनन करनेसे जैन संघोंमें धार्मिक संचालनके बारेमें उठनेवाले प्रश्नोंका समाधान युवक लोग आसानीसे दे सके, यही मेराउद्देश mainamaAML देवद्रव्य, गुरुद्रव्य आदिके संबंधमें वि. सं. 2044 में अहमदाबादमें | संपन्न मुनि संमेलनमें परमार्श कर जो शास्त्रीय निर्णय लिये गये थे, उनका भी इस पुस्तकमें उल्लेख किया गया है / इस पुस्तक का अब दूसरा संस्करण प्रकाशित हो रहा है / इस नवसंस्करण को विशिष्ट कोटिका परिमार्जित स्वरूप पूजनीय आचार्यभगवंतादिने दिया है / प्रथमावृत्तिमें मेरा कहीं कुछ शरतचूक हुआ हो तो उसका भी, उन भगवंतोने अर्थक परिश्रम लेकर परिमार्जन कर दिया है / अतः उनके उस अथक परिश्रमके लिए बहुत अनुगृहीत हूँ / इस पुस्तकमें जो भी विधान किये गये हैं वे शास्त्राधार पर ही किये गये हैं / फिर भी किसी विधानके सामने किसीको असंतोष उत्पन्न हो तो उसके बारेमें हमसे पूछताछ करें, बादमें ही कोई निर्णय करें, ऐसी हमारी प्रार्थना है / / इस पुस्तकका अति कठिन संपादन कार्य, मेरे शिष्यरत्न मुनिश्री | दिव्यवल्लभविजयजीने सुंदर ढंगसे, अथक परिश्रमकर पूरा किया है / उसके लिए वे मेरे सदा स्मरणीय बने रहेंगे। . प्रान्ते, जिनाज्ञाविरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो, उसके लिए || मैं अन्तःकरणसे मिच्छा मि दुक्कडम् चाहता हूँ / विरार ता. 15-1-95 गुरुपादपद्ररेणु, 2051, पौ.शु. 14 पं. चन्द्रशेखरविजय Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - महत्त्वकी सूचना इस दूसरे संस्करणमें, प्रथम संस्करणके समग्र कलेवरका अनेक प्रकारसे नूतन संस्कार-परिष्कार भी करनेसे, प्रथम संस्करणकी अपेक्षा यह दूसरा संस्करण अधिकतर पुष्ट और प्रामाणिक बन पाया है, यह खुशी की बात है / अतः प्रथम संस्करण जिनके पास हो, वे सभी पाठक इस दूसरे संस्करण के अनुसार, प्रथम संस्करण में परिमार्जन कर लें, जिससे कहीं गैरसमझ पैदा होनेका अवकाश न रहे / तीसरे संस्करण निमित्त लेखकीय : . इस पुस्तकके दो संस्करणोंकी हजारों प्रतियाँ, हाथोंहाथ बिक जाने के कारण तीसरा संस्करण (अधिक संख्यामें) प्रकाशित किया गया है / हमारे विरुद्ध भारी होहल्ल मचाया गया है / शास्त्रके नाम पर केवल संघर्ष करनेकी नीतिका यहाँ दर्शन हो रहा है / हमारे पास कई शास्त्रपाठ हस्तामलकवत् हैं / उत्सूत्र भाषणका हमारे उपर किया गिया आरोप बिलकुल निराधार है / जिनका भूतकाल भी अनेक संघर्ष उपस्थित करनेमें ही गुजरा हो, उनके लिए इससे ज्यादा लिखना उचित महसूस नहीं होता / - Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका खंड प्रथम (1) धार्मिक द्रव्यका संचालन करनेकी योग्यता धर्मस्थानोंमें ट्रस्टी कौन बन सके ? ट्रस्ट और ट्रस्टीमंडल चौदहक्षेत्रोंका विवरण जिनप्रतिमा और जिनमंदिर (1 + 2) जिनागम (3) साधु - साध्वी ( 4 - 5) श्रावक - श्राविका (6 - 7) : पौषधशाला (उपाश्रय) (8) पाठशाला (9) आयंबिल विभाग (10) कालकृत विभाग (11) निश्राकृत विभाग (12) अनुकंपा विभाग (13) जीवदया विभाग (14) . सामान्य सूचन (3) खंड दूसरा चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी जिनमूर्ति और जिनमंदिर ( 1 + 2) प्रश्नोत्तरी प्र. 1 जिन प्रतिमा किससे बनायी जाय ? कितनी बड़ी बनायी जाय ? 57 * प्र. 2 संगमरमर लानेकी विधि कैसी है ? . प्र. 3 प्रतिमाजी ग्रीवामें खंडित हो तो क्या करें ? प्र. 4 जिनप्रतिमा विदेश ली जा सकती है ? प्र. 5 अपने पासवाली प्रतिमाएँ, नकरा ग्रहण कर दूसरोंको. दी जाय ? 58 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. 6 नयी प्रतिमाओं के निर्माणके बजाय, अपूज पुरानी प्रतिमाजीकी प्रतिष्ठा करना उचित नहीं ? प्र. 7 खतरनाक स्थानोंमें से जिनबिम्बोंका सुरक्षित स्थान पर प्रस्थापन नहीं करना चाहिए ? प्र. 8 'स्वप्नद्रव्यकी आमदनी देवद्रव्यमें ही ली जाय / ' इस बात का शास्त्राधार क्या है ? ... 9 देवद्रव्यसे वेतन लेनेवाले पूजारीके पास श्रमण अपना काम करा सकते हैं ? प्र. 10 पूजारी और मुनीम, जब 'आपखुद' बनते हों तो क्या करें ? प्र. 11 देरासरके भंडारके चावल, बादाम आदि पूजारीको देने ही चाहिए ? . प्र. 12 देरासरजीमें समर्पित फल नैवेद्यका क्या किया जाय ? प्र. 13 देरासरमें समर्पित बादामको बिक्री होनेके बाद, अनजानमें पुनः समर्पित करनेमें दोष लगता है ? प्र. 14 आर्थिक स्थिति अच्छी न हो तो देरासरके केसरादिसे पूजा हो सकती है ? प्र. 15. तीर्थरक्षाके कार्यमें देवद्रव्यकी रकमका उपयोग हो सकता है ? प्र. 16 देरासरमें होनेवाली आभूषणोंकी चोरीके बारेमें क्या करें ? * प्र. 17 गरीबों के लिए देवद्रव्यका उपयोग किया जाय ? प्र. 18 अनीति के धनोपार्जनमें से निर्मित जिनमंदिरो में तेज आ पायेगा ? . प्र. 19 देरासरके निर्माणके लिए साधारणमें से जमीन खरीदी जाय या देवद्रव्यमें से ? प्र. 20 अखंडदीप शास्त्रीय है ? प्र. 21 देवद्रव्यको रकम, दूसरे विभागमें उपयोगमें ली जाने पर कितना व्याज दिया जाय ? प्र. 22 आरतीमें या स्नात्रपूजामें रखी गयी रकम किसे प्राप्त हो ? प्र. 23 घरदेरासरकी प्रतिमाजी अधिकाधिक कितने ईंचकी हो सके ? . 68 प्र. 24 घरदेरासरकी आयमें से घरदेरासरकी सामग्री लायी जा सकती Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. 25 घरदेरासरके चावल, बादाम आदिका क्या किया जाय ? 69 प्र. 26 देवद्रव्य पर सरचार्ज लगाकर, उस रकमको साधारणमें ली जाय ? 69 प्र. 27 देवद्रव्यकी रकम साधारणादि विभागमें उपयुक्त हो गयी हो तो क्या किया जाय ? प्र. 28 एम. सी. आदिके भय से घरदेरासर क्या नहि बनाया जाय ? 71 प्र. 29 घरदेरासर बनानेमें कौन सी सावधानियाँ रखनी चाहिए ? 72 प्र. 30 कोई स्वद्रव्यसे देरासर बनाना चाहे तो उतनी रकम किसी संघमें साधारण विभागमें देकर, उस उस संघके पाससे देवद्रव्य लेकर जिनालय बनाया जा सके ? प्र. 31 देवद्रव्यको रकम बैंकमें रखने की अपेक्षा, उस रकम से जमीन न ली जाय ? प्र. 32 देवद्रव्यमेंसे साधारण विभाग लोन लेकर जमीनकी खरीदी करे और जमीन बेचकर व्याजके साथ देवद्रव्य वापस लौटायें और . मुनाफा साधारण विभागमें ले तो, योग्य है ? प्र. 33 अष्टप्रकारी पूजाके अनुष्ठानका खर्च निकालनेके लिये व्यक्तिके पाससे केसरादि तथा साधर्मिक भक्तिका नकरा लिया जा सकता है ? 75 प्र. 34 देरासरमें प्रतिदिन बुलाये जानेवाले अष्टप्रकारी पूजा के चढावे की रकमका उपयोग कहाँ किया जाय ? प्र. 35 पूजामें शुद्ध रेशमी वस्त्र या शुद्ध कस्तूरीका , उपयोग किया जाय ? 76 , प्र. 36 विशिष्ट दिवसोंमें कोई स्वद्रव्यको रूपये सौकी आंगी कराये, उसकी अपेक्षा देवद्रव्यमेंसे भारी आंगी की जाय ? प्र. 37 भगवान की अपेक्षा, देव-देवी का महत्त्व बढ जाय, वह योग्य है ? प्र. 38 शिखरकी ध्वजाकी वंशपरंपरागत बोली बोले या प्रतिवर्ष ? प्र. 39 देरासरजीमें इलेक्ट्रिक लाइट-पंखे लगाये जा सकते हैं ? प्र. 40 साधारणविभाग की आय करने के लिए देरासरजी के अंदर या बाहर पद्मावती आदि की स्थापना की जाय ? प्र. 41 स्नात्रपूजाके लिए श्रीफल प्रतिदिन ताजा समर्पित करना चाहिए ? 80 प्र. 42 देरासरमें काचकाम, भंडार, सिंहासन आदिका खर्च देवद्रव्यमें से लिया जाय ? 76 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. 43 देरासर और उपाश्रयआदिका मुनीम या नौकर एक हो तो क्या करें ? प्र. 44 कुमारपालकी आरतीके प्रसंग में सभी पात्रोंकी रकम कहाँ जाय ? प्र. 45 देवद्रव्यमेंसे देरासरके इलेक्ट्रिक लाइट, माइक आदिका खर्च निकाला जाय ? प्र. 46 माणिभद्रजीकी स्थापना देरासरके किसी गवाक्षमें की जाय ? प्र. 47 शिल्प-शास्त्रका अभ्यास मुनिलोगोंको करना न चाहिए ? प्र. 48 द्वारोद्घाटनका घी किस विभागमें जमा हो ? प्र. 49 देरासरजीमें भूलसे दवा आदि लेकर जाय तो क्या करें ? प्र. 50 देरासरजीमें घडी आदि रखना योग्य है ? प्र. 51 परमात्माको आभूषणोंकी क्या आवश्यकता है ? प्र. 52 जिनप्रतिमाका निर्माण करना और प्रतिष्ठा करना, इन दोनों में ...... क्या फर्क . है ? .. प्र. 53 स्वप्नद्रव्य विषयमें कोई शास्त्रपाठ न होने पर भी विवाद क्यों हैं ? प्र. 54 'जिनभक्ति साधारण' और 'कल्पित देवद्रव्य में फर्क क्या है ? प्र. 55 दिगंबर या सनातनियोंके पाससे वापस हस्तगत किये जिनमंदिरका जीर्णोद्धार किस द्रव्यमेंसे किया जाय ? प्र. 56 केवल मोहसे देवद्रव्यको रकमको ट्रस्टी बैंकमें रख सकते हैं ? 87 प्र. 57 अखिल भारतीय स्तर पर जीर्णोद्धारका कार्य व्यवस्थित न हो सके ? प्र.. 58 जिनप्रतिमाको रकमका उपयोग जीर्णोद्धारमें किया जाय . तो उपरके विभागको रकमका निम्न विभागमें खर्च करनेका दोष लगेगा ? प्र. 59 देवद्रव्यको रकम, जीर्णोद्धारके बजाय 'हाई-वे' पर हो रहे तीर्थोमें लगाना, उचित माना जाय ? 89 - प्र.. 60 पू. हरिभद्रसूरिजी आदि द्वारा किये गये देवद्रव्यके तीन उपविभागोंका .. अमल किसी भी संघमें क्यों नहीं हो रहा ? Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. 61 स्वप्नद्रव्य, उपधानकी माला आदिमेंसे पूजारी को वेतन आदि दिया जाय तो अमुक देवद्रव्यमेंसे दिये जानेवाले वेतनका नुकसान दूर न हो जाय ? . प्र. 62 प्रतिष्ठाका चढ़ावा बोलनेवाला व्यक्ति संघको बिना सूचना दिये, दूसरी जगह जीर्णोद्धारमें रकमका उपयोग कर सकता है ? ... प्र. 63 - संमेलनके देवद्रव्यके प्रस्तावसे, स्वद्रव्यसे जिनपूजा गौण हो जाती है, तो क्या किया जाय ? प्र. 64 द्रव्यसप्ततिका आदिके आधार पर कई लोग, 'स्वद्रव्यसे ही / जिनपूजा हो' ऐसा आग्रह रखते हैं, उसकी स्पष्टता क्या है ? प्र. 65 देवद्रव्य, गुरुद्रव्य आदि विभागोमें अलग अलग प्ररूपणाओंमें उलझन होती है, तो क्या करें ? 66 देवद्रव्यको रकममेंसे पूजाकी सामग्री, पूजारीका वेतन आदि किया जाय ? प्र. 67 'कम वेतन के कारण अपोषणसे पीडित पूजारीको देवद्रव्यमें से वेतन दिया जाय ? प्र. 68 धनका कहाँ उपयोग करनेसे अधिक लाभ होगा ? देरासरमें या जीवदयामें ? . जिनागम (3) प्रश्नोत्तरी प्र. 69 एक ही मंजूषामें ज्ञानपूजन और गुरुपूजनके विभाग हो तो गलती न होगी ? प्र. 70 ज्ञानविभागकी रकम का श्रेष्ठ उपयोग कौनसा है ? प्र. 71 लहिएके अभावमें 'झेरोक्स' आदिसे आगमोंका मुद्रण हो / सकता है ? प्र. 72 जिनागमोंकी रक्षाका ठोस उपाय क्या है ? प्र. 73 ज्ञानविभागकी रकमसे खरीदी गयी किताबें श्रावक पढ़ सकते हैं ? प्र. 74 ज्ञान विभागकी रकममेंसे उपाश्रयके पाट, बैठक, साधुको उपधि आदि रखने के लिए आलमारियाँ लायी जायें ? प्र. 75 अखबार, मेगेजीन, पत्रिकाएँ आदिके निष्कासनके उपाय कौनसे 98 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. 76 अस्तव्यस्त ज्ञानभंडारोंको एक जगह एकत्र कर देखभाल की जा सके ? प्र. 77 वर्तमानकालीन महात्माओंके जीवन चरित्र ज्ञान विभागमें से छपवाये जायें ? प्र. 78 ज्ञानविभागको सारी रकम एकत्र कर उसका श्रेष्ठ उपयोग क्या हो सकता है ? प्र. 79 ज्ञानविभागमेंसे अजैन लहिए तैयार करनेका खर्च निकाल सके क्या ? प्र. 80 ज्ञान विभागमेंसे किस प्रकारका प्रकाशन साधु-साध्वी करा सकतें हैं ? . प्र. 81 अजैन व्यक्तिको ‘पंडित' बनानेके लिए ज्ञान विभागको रकमका उपयोग किया जाय ? प्र. 82 ज्ञान विभागमेंसे बनाये ज्ञान भंडारमें पुस्तकपठन या साधु-साध्वी गौचरी कर सकते हैं ? साधु - साध्वी (4 + 5) प्रश्रोत्तरी प्र. 83 गुरुके चरणोंमें पैसों द्वारा पूजन, गुरूको कम्बल वहोरानेका . घी किस विभागमें जमा किया जाय ? - प्र. 84 कालधर्मविषयक उछामनीको रकम किस विभागमें ली जाय ? - प्र. 85 गुरु-वैयावच्चको रकममेंसे गुरुकी कौनसी वैयावच्च हो :- सकती हैं ? .. प्र. 86 वैयावच्चकी रकम गरीबोंको अस्पताल आदिमें दी जाय ? और इस रकममें से लायी गयी चीजें, गुरु महाराज गृहस्थोंको दे सकते हैं ? प्र. 87 . जिन गाँवो में वैयावच्चको रकम न हो, वे खर्च किसमें से करें ? प्र. 88 साध्विजियोंके लिए शीलरक्षा विषयमें विहारमें रखे गये मनुष्यका वेतन वैयावच्चमेंसे दिया जा सकता है ? प्र. 89 वृद्ध साध्विजियोंके लिए खरीदे जानेवाले फ्लैट उचित हैं ? प्र. 90 वैयावच्चको रकमके उपयोगके लिए शास्त्रपाठ और परंपरा दोनों प्राप्त हो तो क्या किया जाय ? 105 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. 91 कई साधु-साध्वियाँ, अंगत निजी उपाश्रयों में स्थिर वास करते हैं / तो वे शिथिल हो न जाय, उस भयसे क्रियोद्धारकी आवश्यकता महसूस नहीं होती ? 108 प्र. 92 वर्तमानकालमें गुरुमंदिर बनाना क्या उचित है ? .. 110 प्र, 93 बिना जैनके गाँवमें गुरुवैयावच्चमेंसे रसोईघर चलाये जायें ? ' प्र. 94 वृद्ध साध्विजीयोंके लिए क्या वृद्धाश्रम बनाने चाहिए ? 111 श्रावक-श्राविका (6 + 7) प्रश्रोत्तरी प्र. 95 पीडित श्रावकोंको आर्थिक सहायता देनेके बाद, उनके द्वारा धार्मिक संचालन आदि कराया न जाय ? प्र. 96 सबसे अधिक दान साधर्मिक विभागमें करना न चाहिए ? प्र. 97 सात क्षेत्रोंके साधारण विभागमेंसे अथवा श्रावक-श्राविका विभागमेंसे स्वामी-वात्सल्य संपन्न किया जाय ? प्र. 98 मुमुक्षुकी दीक्षाके उपकरणोंकी रकम कहाँ जमा हो ? प्र. 99 साधर्मिकके लिए देवद्रव्यको रकममेंसे किराये की चालियाँ-निवास आदि बनाया जाय ? प्र. 100 बिना जैनके गाँवों में, जैन परिवारोंका निवास आवश्यक नहीं हैं ? प्र. 101 जैनोंको अधिक सहायक बननेके लिए श्रीमंतोंको उपदेश दिया न जाय ? प्र. 102 'योग्य'के बदले 'बनावटी' साधर्मिक दगा देते हैं, तो क्या करना ? प्र. 103 ‘साधर्मिक-भक्ति' का उपदेश विशेष रूपसे श्रमणलोग दे नहीं सकते ? प्र. 104 धर्मकार्यमें लाखों रूपयोंका खर्च करनेवाले, अपने साधर्मिकोंकी उपेक्षा करते हैं, वह उचित है ? पौषधशाला (8) प्रश्रोत्तरी प्र. 105 वैयावच्चमेंसे विहारमें निर्जन स्थानमें बनाये उपाश्रयोंमें आवश्यक बालदी आदि चीजें लायी जायें ? प्र. 106 उपाश्रयके निभावके लिए साधुके उपाश्रयमें बहनोंके फोटों की योजना उचित है ? * . 118 12 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 प्र. 107 उपाश्रयका, लग्नकी बाडी रूपमें साधारणकी आय करनेमें उपयोग किया जाय, यह उचित है ? 118 प्र. 108 उपाश्रयकी देखभालके लिए रखे गये जैनको साधर्मिक विभागमें से वेतन दिया जाय ? पाठशाला - प्रश्रोत्तरी (9) प्र. 109 टी. वी. आदि के झंझावातमें पाठशालाएँ टूटी हैं, क्या किया जाय ? प्र. 110 देवदेवताके भंडारमेंसे पाठशालाके लिए रकमका उपयोग किया जाय ? 120 प्र. 111 पाठशालाके लिए ज्ञान विभागमेंसे किताबें खरीदी जायँ ? 120 प्र. 112 पाठशालाका खर्च निकालनेके लिए भेंट कूपनोंकी योजना बनायी जाय ? 121 प्र. 113 पाठशालामें भी स्कूल की तरह फीस ली जाय ? - प्र. 114 जैनधर्मको प्रधानता देनेवाले स्कूल, कालिज आदिकी .. . जरूरत है ? प्र. 115 पाठशालाका खर्च निकालनेके लिए, बारह मासके चढ़ावे बोल कर बोर्ड रखा जाय ? आयंबिल विभाग (10) प्रश्रोत्तरी प्र. 116 आयंबिलशालामें बची रसोई गरीब आदिको दी जाय ? 123 प्र. 117 घरमें आयंबिल करनेके बजाय आयंबिल विभाग क्या - योग्य है ? प्र. 118 आयंबिल विभागको रकम, साधर्मिक, पाठशाला आदिमें उपयोगमें लायी जाय ? .. कालकृत विभाग और निश्राकृत विभाग (11 + 12) प्रश्नोत्तरी प्र. 119 कालंकृत और निश्राकृत विभागोंकी रकमका उपयोग - देवद्रव्यादिमें किया जाय ? . अनुकंपा विभाग (13) प्रश्नोत्तरी प्र. 120 रथयात्रादि वरयात्राके पीछे रही अनुकंपाकी गाडीके खर्चकी रकम किस विभागमेंसे ली जाय ? 124 प्र. 121 गरीबोंके लिए खिचडीघर, छाशकेन्द्र आदि खोले जायँ, यह . उचित होगा ? (Ys 123 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 130 131 प्र. 122 पर्युषणमें वीरको वस्त्रदान प्रसंग पर गरीबोंको वस्त्रादि देनेसे ... शासनप्रभावना न होगी ? प्र. 123 हेय और उपादेय अनुकंपा कौन कौन सी है ? प्र. 124 साधर्मिक विभाग या साधारण विभागमेंसे अजैन गरीबोंकी - अनुकंपा की जाय ? जीवदया (14) प्रश्नोत्तरी प्र. 125 पांजरापोलमें होनेवाली जीवदया उचित है ? प्र. 126 जीवदयाके किस्सोंमें अजैन वकीलोंको जीवदयामेंसे रकम दी जाय ? प्र. 127 पर्युषण पर्व पर कत्लखानेमेंसे जीवोंको छुडानेमें जीवहिंसा या जीवदया होगी ? प्र. 128 जीवदया और अनुकंपाकी रकम बैंकमें रखी जाय ? .. प्र. 129 वर्तमान पांजरापोलोंके लिए आपका क्या अभिप्राय है ? प्र. 130 गोबरगेस प्लान्ट विषयमें आपका क्या अभिप्राय है ? प्र. 131 जीवदयाकी रकमका श्रेष्ठ उपयोग कहाँ हो सकता है ? 133 प्र. 132 जीवदयाके रूपयोंको अनुकंपामें लिये जा सकते हैं ? 134 प्र. 133 घरमें माँ-बाप आदिको त्रस्त बनाये रखनेवाला व्यक्ति, जीवदयामें रकम लिखवाये, वह उचित है ? 134 प्र. 134 उछामनी बोलनेके बाद व्यक्तिकी भावना और परिस्थिति बदल जाय तो क्या किया जाय ? प्र. 135 उछामनीकी रकम कितनी समयमर्यादामें जमा करा देनी चाहिए ? 136 प्र. 136 पांजरापोल संस्थाका मुख्य उद्देश क्या है ? . 136 __सामान्य प्रश्रोत्तरी प्र. 137 कायमी तिथिके व्याजमेंसे कार्य न होता हो तो क्या किया जाय ? प्र. 138 अनीति आदि बुरे कार्यों द्वारा प्राप्त धनका धर्मके क्षेत्रोमें उपयोग हो सके ? ... 137 प्र. 139 साधारण विभाग और शुभ (सर्वसाधारण) विभागमें कौनसा फर्क है ? प्र. 140 शुभ विभागमें (या सर्व साधारणमें) आमदनी एकत्र करनेके 135 140 14 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 141 41 141 142 142 142 143 "उपाय क्या है ? प्र. 141 साधारण विभागमें या शुभ विभागमें आय करने के लिए सिनेमा-थियेटर वगैरह बनाये जा सकते हैं ? प्र. 142 संघका धार्मिक संचालन महात्माको बताना न चाहिए ? प्र. 143 देवताके भंडारकी, आरति आदिकी उछामनीकी रकम कहाँ जमा हो ? प्र. 144 साधारणकी आय करनेके लिए बारह मासके बारह श्रावकोंको श्रेष्ठी पद दिया न जाय ? प्र. 145 देरासरमें साधारण विभागका भंडार रखा जाय ? प्र. 146 नवकारशी, स्वामी-वात्सल्यकी बोलीकी बची रकम कहाँ जमा हो ? . . प्र. 147 साधारण विभागकी आयके आसान रास्ते कौनसे हैं ? प्र. 148 सात क्षेत्रोंका विभाजन प्रत्येक विभागमें किस प्रकार किया जाय ? प्र. 149 साधर्मिकोंके निभावके लिए कोई व्यवस्थित योजना बनायी नहीं जा सकती ? ट्रस्टीके विषयमें प्रश्रोत्तरी प्र. 150 इस पुस्तकमें किये निर्देशानुसार ट्रस्टियोंमें ट्रस्टी बननेकी योग्यता . कितने लोगोंमें है ? / प्र.. 151 जैनबैंक विषयमें आपका क्या अभिप्राय है ? 'प्र. 152 ट्रस्टी बननेवालोंको द्रव्य-सप्ततिका आदि ग्रंथोंका अभ्यास करना न चाहिए ? ... प्र. 153 शास्त्रके ज्ञाता आदि गुणवान व्यक्ति ट्रस्टी न बनने चाहिए ? प्र. 154 ट्रस्टियोंमें मतभेद होने पर कहाँ जाय ? गीतार्थ गुरुके पास या चेरिटी कमिश्नरके पास ? . प्र. 155 कमिश्नर और सखावती ट्रस्ट में बी. सी. व्यक्तिको रखनेके बारेमें क्या करना चाहिए ? खण्ड तीसरा परिशिष्ट - 1 (1) वि. सं. 2044 के देवद्रव्य व्यवस्थाके संमेलनीय प्रस्ताव क्रमांक - 13 पर चिंतन - पं. चन्द्रशेखरविजयजी प्रस्ताव (2) वि. सं. 2044 के गुरुद्रव्य व्यवस्थाके संमेलनीय प्रस्ताव . 15 pp 146 148 148 151 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 169 . 185 क्रमांक - 14 पर चिंतन - पं. चन्द्रशेखरविजयजी (3) वि. सं. २०४४के संमेलनीय प्रस्तावक्रमांक - 17 पर चिंतन - जिनपूजा निमित्त श्रावकोंको मार्गदर्शन - पं. चन्द्रशेखरविजयजी 178 परिशिष्ट - 2 . (1) देवद्रव्यविषयक प्रस्ताव पर चिंतन - गणि श्री अभयशेखरविजयजी (2) गुरुद्रव्य (श्राद्धजित कल्पकी 68 वी गाथाका रहस्यार्थ) पर विचार - गणि श्री अभयशेखरविजयजी परिशिष्ट - 3 देवद्रव्यसे जिनपूजादि किया जाय, उसके बारेमें स्वर्गस्थ महागीतार्थोके अभिप्राय (1) पूज्यपाद आ. भ. प्रेमसूरि म. सा. का पू. जंबूसूरिजी म. परका पत्रक्रमांक - 1 (2) पूज्यपाद आ. भ. प्रेमसूरि म. सा. का पू. जंबूसूरिजी म. परका पत्रक्रमांक - 2 पूज्यपाद आचार्य भगवंत श्री प्रेमसूरीश्वरजी म. सा. का, पू. पं. हिमांशु विजयजी म. सा. परका पत्र ___ पू. पंन्यासजी भद्रंकर विजयजी म. सा: का पूज्यपाद / प्रेमसूरिजी म. सा. परका पत्रक्रमांक - 1 पू. पन्यासजी भद्रंकर विजयजी म. सा. का पूज्यपाद प्रेमसूरिजी म. सा. परका पत्रक्रमांक - 2 (6) प. पंन्यासजी भद्रंकर विजयजी म. सा. का पूज्यपाद प्रेमसूरिजी म. सा. परका पत्रक्रमांक - 3 (7) पू. पं. कनकविजयजी आदि म. सा. का पूज्यपाद आ. भ. प्रेमसूरिजी परका पत्र (8) पू. प्रेमसूरिजी म. सा. पर कनक वि. म. सा. का पत्र 255 (9) पू. प्रेमसूरिजी म. पर पू. कनकवि. म. सा. का पत्र क्रमांक 3 257 (10) पूज्यपाद प्रेमसूरिजी म. साहबने 'मध्यस्थ बोर्ड' को 259 (11) मोतीशा ट्रस्ट द्वारा किये गये प्रस्ताव 267 परिशिष्ट- 4 परिशिष्ट - 5 परिशिष्ट - 6 (5) 250 253 271 276 290 16 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. 2044 में अहमदाबादमें संपन्न मुनि संमेलनमें उपस्थित रहे गीतार्थ आचार्योंकी उपस्थितिमें सर्वानुमतसे हुए देवद्रव्य और गुरुद्रव्यविषयक प्रस्तावोंके तीन महत्त्वके मुद्दे 832868800300000 हम अनेक शास्त्राधारोंके साथ मानते हैं कि : (1) देवद्रव्यादिसे कोई जैन जिनपूजा करे तो वह देवद्रव्य-भक्षण करनेका पापभागी बनता है, ऐसी विपक्षकी मान्यता गलत है / (विपक्षकी .. वैसी ही मान्यता है / ) (2) स्वप्न, उपधानादिकी बोलीसे प्राप्त धन (कल्पित देवद्रव्य) मेंसे देरासरके पूजारीको वेतन दिया जाय, पूजाकी सारी सामग्री भी लायी जा सकती है / (विपक्षका मत निषेधमें है / ) | (3) गुरुपूजनकी रकम, जीर्णोद्धारकी तरह साधु 17 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावच्चमें उपयोगमें लायी जा सकेगी / (विपक्षका मत निषेधमें है / ) ... याद रहे : देवद्रव्य और गुरुद्रव्यके जो निर्णय हमारे द्वारा घोषित किये गये हैं, वे निर्णय केवल हमारी बुद्धिसे किये नहीं हैं, लेकिन वे निर्णय वि. सं. २०४४में संपन्न हुए संमेलनके आचार्योंने अनेक शास्त्राधारोंके साथ किये हैं / उन्होंने उस विषयमें सर्वानुमतसे किये प्रस्तावोंके स्वरूपमें हैं / यदि उन निर्णयों को 'उत्सूत्र' कहने हों तो उन सभी आचार्योंको "उत्सूत्रभाषी' कहने होंगे / उन्हें 'मिथ्यात्वी' कहने होंगे / ऐसा कथन पक्षपरस्तीसे प्रेरित मालूम होता हैं / केवल स्वयं सुगुरु और शेष सभी कुगुरु - ऐसा प्रतिपादन करना, वह शायद इतिहासकी प्रथम घटना होगी / Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावधान ! 'शक्तिसंपन्न जैनोंको स्वद्रव्यसे जिनपूजा करनी चाहिए।' यह हमारा सनातन-शाश्वत जोशीला प्रचार है / इसीलिए तपोवनके सभी बालक हमेशा स्वद्रव्यसे जिनपूजा करते हैं / लेकिन सावधान ! ___उससे कोई यह कहे कि देवद्रव्यसे पूजा करनेमें देवद्रव्यके भक्षणका पाप लगता है तो पू. पाद रामचन्द्रसूरीश्वरजी म. साहबके अनुयायियोंकी वह बात को किसी भी प्रकारका शास्त्रपाठ नहीं मिलता। उससे विरुद्ध देवद्रव्यमेंसे भी पूजादि हो सके और पूजारीको वेतनादि | दिया जाय, ऐसे सैंकडोंकी तादादमें शास्त्रपाठ मिलते हैं। उपरान्त, हमारे स्वर्गीय गुरुदेव - पू. पाद कमलसूरीश्वरजी म. सा., | पू. पाद लब्धिसूरीश्वरजी म. सा., (खंभात, 1976 का संमेलन) तथा पूज्यपाद सागरानंदसूरीश्वरजी म. सा.(आगम ज्योत), पूज्यपाद प्रेमसूरीश्वरजी | म. सा., पू. पाद पं. भद्रंकर विजयजी म. सा., पू. पाद रविचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा., पू. पाद कनकचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा., पू. पाद जंबूसूरीश्वरजी म. सा., आदि अनेक महापुरुषों द्वारा लिखे गये पत्रोंमें इस बातका जोरोंसे समर्थन किया गया है। फिर भी, इस विषय पर होहल्ला मचाना, 2044 के संमेलनीय आचार्योंको 'उत्सूत्र भाषी' घोषित करना, उन्हें 'कुगुरु' कहना, यह सब कितना उचित कहा जाय ! स्वयं ही शास्त्रोंके ज्ञाता है, शेष अन्य सभी बुद्धिहीन हैं, ऐसा विचार बिलकुल अस्थान पर हैं। श्री संघके भाई-बहन, अच्छी तरह समझ लें कि हमारी ओरसे घोषित की जा रही सारी बातें शास्त्रीय हैं / शत प्रतिशत यथार्थ हैं / शास्त्रको अग्रसर कर संघर्ष ही करनेकी उनकी मनोवृत्ति हो तो, | उसके निवारणका हमारे पास कोई उपाय नहीं है / Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानवीर ! दूसरे तपोवनमें आपका औदार्य बताएँ ! रू. एक लाख (प्रतिवर्ष 33 हजार रूपये)का दान देकर तपोवनके | प्रवेशद्वारके सामने खड़े किये जानेवाले विराट संगमरमर पर जीवनदाताके रूपमें आपका नाम सुवर्णाक्षरोमें लिखायें / __आपका दान कलम ८०-जी अनुसार करमुक्त रहेगा / जीवनजागृति ट्रस्ट 'के नाम आपका चेक या ड्राफ्टं नीचे लिखे पर भेजें : जी. प्र. संस्कृति भवन, 2777, निशा पोल, रिलीफ रोड, अहमदाबाद - 380 001. . | साबरमतीके पास खड़ा किया दूसरा तपोवन ) (1) कक्षा 5, 6, 7 का जून 1994 से प्रारंभ (2) प्रत्येक कक्षामें पचास बालक (3) प्रवेशशुल्क वार्षिक दस हजार रूपये (बालक में तेजस्विता होगी तो इस रकमको कम की जायेगी / ) शुल्क दो हफ्तोमें लिया जायेगा / अन्तिम परीक्षामें न्यूनतम 65% गुण (5) प्रवेश परीक्षा (45 मिनट की) में उत्तीर्ण होने पर ही प्रवेश दिया जायेगा / (6) गुजराती माध्यमकी यह शाला है, फिर भी बच्चोंके अंग्रेजी विषयके प्रति पूरा ध्यान दिया जाता है / दस रूपये प्रवेश फार्म भरकर नीति-नियमावली निम्न पत्तेसे आज ही प्राप्त करें / बादमें जब 'प्रवेश परीक्षा' के लिए आपको बुलाये जाय, तब शीघ्र उपस्थित हो / पता :- जी. प्र. संस्कृतिभवन 2777, निशा पोल, झवेरीवाड, रिलीफ रोड, अहमदाबाद - 1. - - Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खंड "धार्मिक द्रव्यके संचालन करनेकी योग्यता" ____ जो धर्मके प्रति निष्ठावान हो, जिसने न्यायपूर्वक धनोपार्जन किया हो, सात व्यसनोंका पूर्णतया त्यागी हो, जो लोगोंमें आदरणीय हो, अभिजात और उच्चकुलोत्पन्न हो, दाता हो, प्रतिदिन जिनपूजा करता हो, धैर्यवान हो, गुरुजनोंका पूजक-आराधक हो, शुश्रूषा आदि बुद्धिके आठों गुणोंसे संपन्न हो; दयालु हो, नीतिमान हो, सदाचारी हो, नीतिपूर्ण शास्त्रोक्त चैत्य-द्रव्यादिकी वृद्धिके मार्गोका ज्ञाता हो, जो शास्त्राज्ञाओंका (यथासंभव) पालक और चुस्त समर्थक हो, अपने गुणस्थान अनुसार शास्त्रोक्त आचरणका कर्ता हो, वह पुण्यात्मा सज्जन ही धार्मिक द्रव्यके संचालनके लिए सक्षम अधिकारी ____ जो अजैन हो, (जैन-श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन) व्यवसायमें कभी दिवालिया बना हो, व्यवसायमें जिसकी प्रतिष्ठा न हो, आर्यनीतिसे विरुद्ध दाणचोरी आदि बुरे व्यवसायोंमें फँसा हो, जिसने कारावास भोगा हो, जो परस्त्रीगामी हो, जो चोरीमें गिरफ्तार हुआ हो, जिसे अन्य व्यवस्था-संचालन संस्थाओंमेंसे निलंबित किया हो, जो हिसाबनामां लिखना सीखा न हो, जो धनलोभी हो, भोगलंपट हो, व्यवसायमें बिना सोचे-समझे बुरे साहस करता धा.व.-1 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार हो, वह आत्मा संचालनके अयोग्य माना जाता है / शास्त्रनीतिके प्रति पूरी निष्ठाके साथ संचालन करनेवाला पुण्यात्मा सद्गतिगामी यावत् मोक्ष-प्रापक बन पाता है / उससे विरुद्ध आचरण करनेवाला आत्मा दुर्गतिगामी बनता है / एकाध पैसेकी भी गलती करनेवालेको भारी कर्मोंका बंधन होता है / उसमें भी जो आत्मा अज्ञात रूपसे भी देवद्रव्यकों नुकसान पहुंचाये या उसका भक्षक बने, उसके लिए तो दीर्घकालपर्यन्त सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति स्वप्नवत् बन जाती है / शायद उनकी भवयात्रा अनंतकालकी हो जाती है / __ कहा है कि, धर्मद्रव्यके किसी भी विभागमें कुसंचालन करनेवाला आत्मा, दारिद्यका शिकार होता है, रोगिष्ट बनता है, अपयशका भागी बनता है / उसके कुलका सर्वनाश होता है / धर्मद्रव्यके रक्षण-भक्षणके इन गुणदोषोंको समझकर संचालकको चाहिए कि पूरी सावधानीके साथ संचालन करें / __ - धर्मस्थानोंमें ट्रस्टी कौन हो सकता है ? - शास्त्रकार परमर्षियों फरमाते है कि एक देरासर बांधनेसे दाताओंको जितनी पुण्य-उपलब्धि होती है, उससे अधिक कईगुनी पुण्य-प्राप्ति, देरासरके निर्माणकार्य और व्यवस्थामें सहायक लोग प्रास करते हैं / इससे ज्ञात होगा कि धर्मसंस्थाओंके शास्त्रीयनीतिका प्रमाणित संचालनका मूल्य, शास्त्रकार, परमर्षियोंने कितना ऊँचा माना है ! ___ वास्तवमें तो पूजारियोंकी आवश्यकता ही न थी; क्योंकि श्रावक और श्राविकाएँ, देरासरमें प्रात:कालमें ही काजा लेना आदिसे प्रारंभकर सारी क्रियाएँ कर लेते थे / भगवानके सही पूजारी तो श्रावक-श्राविका ही होने चाहिए / परमात्माकी पूजा, वेतनभोगी नौकर-सेवक, उचित ढंगसे थोडे ही कर पायेंगे ? उस प्रकार वेतनभोगी मुनिमोंकी भी पहले आवश्यकता न थी / जिनकी संतानें दूकान-व्यवसाय आदिके संचालनमें सक्षम हो गये हों, ऐसे महाशय निवृत्त होकर धर्मस्थानोंके हिसाब-किताब लिखना-देखना या अन्य कार्यवाही करनेकी मानद सेवा करते ही थे / यदि आज भी निवृत्त गृहस्थ एक एक संस्थाका कामकाज सम्हाल लें तो मुनीमोंकी आवश्यकता बिलकुल न रहे; लेकिन एक अत्यंत कटुसत्य यह है कि. गृहस्थोंकी रुचि, बडी तेजीसे धर्ममेंसे कम होने लगी है और इसी कारण धर्मसे संबद्ध धर्मस्थानोंके Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक द्रव्यके संचालन करनेकी योग्यता लिए कुछ त्याग करनेकी भावना प्रतिदिन लुप्त होती जा रही है / तीर्थोकी रक्षा करने जैसे अतिगंभीर मामलोंमें भी जब साधओंको शरीक होना पडे, तब ज्ञात होगा कि वर्तमानकालीन गृहस्थवर्ग, निम्नातिनिम्न निष्क्रियता और नीरसताकी कक्षा तक पहुँच गया है / ___अब तक तो मैंने केवल कटु परिस्थितिका ही वर्णन किया है, अब इस प्रकरणमें, धर्मस्थानोंमें जो ट्रस्टी बने हों उनका जीवन और विचार किस प्रकारके होने चाहिए, उसके कतिपय मुद्दे यहां पेश करता हूँ / वर्तमान समयमें आजकल ट्रस्टी बने लोगोंमें कई मुद्दोंकी अनुपस्थिति देखकर पारावार उद्वेग होता है / (1) ट्रस्टी युगानुसारी न होना चाहिए, बल्कि वह धर्मशास्त्रसूचित आज्ञाओंके प्रति वफादार-संनिष्ठ होना चाहिए / कमसे कम स्वयं जिस धर्मस्थानका ट्रस्टी हो, उस धर्मस्थानमें और उस धर्मस्थानमें की जानेवाली धर्मक्रियाओंमें, युगानुसारी किसी भी स्वार्थी प्रवृत्तिको कभी भी प्रविष्ट होने न दे / जैसे, स्वामीवात्सल्यके भोजनमें रात्रिभोजनको स्थान न हो, बर्फ का उपयोग न हो, द्विदल सेवन न किया जाय और जूठन छोडा न जाय / संभव हो तो उस धर्मस्थानके सभ्योंसे हृदयस्पर्शी प्रार्थनाएँ करे, जिससे नवरात्रि के गरबा, जन्माष्टमीका जुआ, तीर्थस्थानोंमें होनेवाली आशातनाएँ, अभक्ष्य और अपेय पदार्थोंका निर्बध सेवन, और चलचित्रोंकी विचित्र रागरागिनियोंके आधार पर गायेजानेवाले धार्मिक गीतोंका प्रसारण आदि पर प्रतिबंध हो / स्वयं भी उसका अमल करे / ... (2) स्वयं जिस ट्रस्टका ट्रस्टी हो, उस ट्रस्टका खाता (हिसाबनामा) जिस बैंकमें हो, वहाँ अपना खाता शुरु न करे / यदि ऐसा होगा तो उस बैंकमें जमा की गयी धर्मादा रकमों पर, बैंक मेनेजर उसे क्रेडिट रकम व्यवसायमें लग़ानेके लिए दे, जिससे परोक्ष रूपसे वह दोषित हो / * (3) जो उछामनी-बोलीकी घोषणा की जाय, उसकी रकम तत्काल जमा करनी चाहिए और भाद्रपद कृष्ण-पंचमी अथवा दीपावली जैसा कम मुदतका दिन निश्चित करना चाहिए, जिससे पहले दूसरोंके सभी खाताबहियोंकी रकम पूरी जमा हो जाय और उसकी पूर्तिके लिए ट्रस्टी स्वयं दाताओंके घर जाकर भी रकम जमा करानेकी बारबार प्रार्थनाएँ भी करता Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 धार्मिक-वहीवट विचार (4) ट्रस्टीके उपर कमसे कम एक सत्साधु भी गुरुके रूपमें स्वीकृत हो, जिसका मार्गदर्शन पाते रहनेसे संचालनकार्यमें किसी भी प्रकारकी गलतीकी संभावना न हो / (5) ट्रस्टी बारह व्रतधारी श्रावक होना चाहिए / कमसे कम एकाध व्रतका पालन उसे करना चाहिए / ऐसा हो न सके तो उसका जीवन दो समयके प्रतिक्रमणसे लेकर अनेक अनुष्ठानोंसे भरापूर होना चाहिए / यह भी संभव न हो तो नवकारशीका पच्चक्खाण, रात्रिभोजन और कंदमूलका त्याग, चलचित्र, टी.वी. जैसी सैक्स द्रश्योंवाली वस्तुओंका त्याग और जिनपूजा, इन पांच नियमोंका तो उसे पालन करना ही चाहिए / यदी ट्रस्टी जिनपूजा भी करता न हो तो देरासरमें चलती आशातनाओं और असुविधाओंका पता कौन लगायेगा ? (6) ट्रस्टी यथाशक्य जिनवाणी श्रवण और गुरूवंदना अवश्य करता हो / (7) ट्रस्टी प्रतिदिन कमसे कम एक घंटा ट्रस्टके कार्यालय आकरबैठता हो / सभी खाताबहियोंका ध्यानसे निरीक्षण करे, और सारा काम मुनीमके विश्वास न छोडे / (8) ट्रस्टी बननेसे पहले उसे गुरुके पास भव-आलोचना कर लेनी चाहिए / उसका प्रायश्चित्त वहन करना चाहिए और पश्चाद्वर्ती जीवन अत्यंत सदाचारी सज्जनसा होना चाहिए / विशेषतः भोजन और ब्रह्मचर्यके विषयमें उसके प्रति कोई उँगुली उठा न पाये ऐसी कक्षा बनानी चाहिए / शराब, माँस, व्यभिचार, जुआ और हिंसक व्यवसायोंका त्यागी हो / इन बातोंमें कुछ भी कहनेकी आवश्यकता ही न हो / (9) शास्त्रनीति अनुसार संचालन करनेके लिए तद्विषयक संपूर्ण मार्गदर्शन देनेवाले 'द्रव्यसप्ततिका' नामक शास्त्रका मननपूर्वक पठन करना चाहिए / उसके आधार पर ही सप्तक्षेत्र और अनुकंपा आदिकी व्यवस्था करनी चाहिए / संचालनमें देवद्रव्यको रकममें 60 प्रतिशत देवद्रव्यमें और 40 प्रतिशत साधारणमें अथवा तो उस रकम पर साधारणमें विभाजित करनेके लिए सरचार्ज होना न चाहिए / यदि उसके संचालनके साधारण बहीमें आमदनी न हो तो (1) केसरसुखड आदि और पूजारियोंके वेतन आदि बातोंकी वर्ष में एक बार भाद्रपद शुक्लप्रतिपदा जैसे दिन पर उछामनियों बुलवाकर आमदनी एकत्र करनी चाहिए / और Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक द्रव्यके संचालन करनेकी योग्यता दाताओं के नामों के साथ एक विज्ञापनबोर्ड, बारह मास तक, देरासरके बाहर रखने की घोषणा करनी चाहिए / (2) अथवा तो, साधारण बहीखातेमें प्रतिवर्ष रू. 36,000का खर्च है, तो उस निधिके एकत्रीकरणके लिए प्रति एक तिथि सौ रूपये, ऐसी 360 तिथियोंकी सूचि, प्रतिगृह घूमघूमकर तैयार करनी चाहिए / उसका विज्ञापन बोर्ड, योग्य स्थलो पर लगाना चाहिए और प्रतिवर्ष उन दाताओंसे उनकी दानतिथि पुनः निश्चित करनेके लिए प्रार्थना करनी चाहिए / प्रायः कोई भी इन्कार नहीं करेगा, फिर भी यदी किसीका इन्कार हो तो उस तिथिके स्थान पर दूसरे दाताको खोजकर, उस बोर्ड पर केवल पुराने दाताका नाम निकालकर उस स्थान पर नये दाताका नामोल्लेख कराना चाहिए / इस.प्रकार कायमी निधिके बदले एक एक वर्षकी योजना करना अधिक लाभप्रद होगी जहां अनेक निधि-फंड जमा होते हैं, वहाँ गरबड होनेमें भी देर नहीं लगती / (10) ट्रस्टी अत्यंत पापभीरु होना चाहिए / अपने संचालनके समय एक नये पैसेकी भी गोलमाल न हो उसकी सावधानी रखे और अनजाने में हुई गलतीके प्रायश्चित्तके रूपमें प्रतिवर्ष तत्तद् विभागमें अमुक रकम जमा करे / (11) नौकर, पूजारी, मुनीम जैसे कार्यकर्ताओंके प्रति सहानुभूति रखे और मानवतापूर्ण व्यवहार करे / उनके कार्योंकी कद्रदानी करे / अधिकतर काम करानेकी और उचित वेतन न देनेकी जो शोषणपद्धति कई धर्मस्थानोमें जमी हुई है, वह तिरस्करणीय है / .. (12) भवितव्यताके योगानुयोगसे किसी न किसी समय संघमें संघर्ष तो होगा ही / अतः पहलेसे ही ट्रस्टीयों द्वारा सर्वानुमतिसे किसी सुगुरुको ऐसे क्लेशों-संघर्षों के केवल निवारण हेतु लिखित ठराव द्वारा रख लेना चाहिए, जिससे बारबार अदालतोंमें जानेकी मुसीबतें पैदा न हों / .. नहीं, किसी भी महात्माका लवादनामा ट्रस्टमें दर्ज होना ही न चाहिए / ___(13) अपने क्षेत्रमें संयमशील साधु आ पाये उसके लिए अत्यंत जागृति और सक्रियता, प्रत्येक ट्रस्टीको रखनी चाहिए / (14) उपर निर्दिष्ट 'द्रव्यसप्ततिका' 'श्राद्धविधि' 'धर्मसंग्रह' आदि ग्रंथोंके आधार पर, उसे अपने ट्रस्टका संपूर्णतया शास्त्रीय नीति अनुसार संविधान बनाना चाहिए / वह संविधान बहुमत आधारित न बन पाये, उसके लिए Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार महेनत करें / सरकारी कानून अनुसार कदाच चुनावके तत्त्व को संमिलित करना पड़े तो भी चुनाव दिखावेके रूपमें मर्यादित हो और वास्तवमें तो अच्छे व्यवस्थापकोंकी नियुक्ति हो जाय ऐसा करनेके लिए अच्छे विचार, संघ समक्ष पेश करें और उसके मुताबिक उन्हें कार्यान्वित करे / बहुमतवाद जहाँ प्रवेश कर पाता है, वहाँ सर्वनाशका बोलबाला हो जाता है, इस बातका पक्का खयाल ट्रस्टीके दिमागमें बैठा होना चाहिए / .. (15) आमदानीकी रकमोंका विनियोग यथाशक्य शास्त्रीय नीतिके अनुसार यथाशीघ्र कर देना चाहिए / सविशेष तो उन्हें चाहिए कि देवद्रव्यकी रकम जीर्णोद्धार आदि कार्योंमें भिजवा देनी चाहिए और जीवदयाके निमित्त प्राप्त रकमोंको तत्तत्स्थानोंमें भिजवा देनी चाहिए / देवद्रव्यकी रकम तो कामधेनु गाय जैसी है / अतः देवद्रव्यमें नयी आमदानी तो बनी ही रहेगी / तदुपरांत यदि जीवदया निमित्त रकमोंको जमा रखी जाय तो, वह रकम जीवोंको अंतराय करने बदल पापबंधका कारण बन जाती है / (16) ट्रस्टीके लिए यदि किसी समय देरासर या. उपाश्रय आदि निर्माण करनेका प्रसंग उपस्थित हो तो तन्निमित्त नोंध यथाशक्य साधारण बहीमें ही करनी चाहिए / जिससे किसी कारण उस नोंधमें बढावा हो तो, उस रकमका उपयोग, देरासर या उपाश्रयके निभाव फंडके रूपमें भी किया जा सकेगा / पहलेसे ही इसकी स्पष्टता हो जानी चाहिए / . (17) ट्रस्टी का आचरण वैसा होना चाहिए जिससे महावीरदेव द्वारा स्थापित शासन दृढ बने ! अपने किसी पक्षका, स्वयंका अथवा अपने सगे सबंधियोंको लाभ हो, यह ध्येय न रखे / विशेषतः नयी पेढीकी रक्षाके लिए उसे यह प्रयत्न करना चाहिए / (18) ट्रस्टीके दिलमें धर्मशासन दृढतासे जमा हुआ होना चाहिए / ऐसा ट्रस्टी मौका आने पर राजकाजमें भी शामिल हो जाय; क्योंकि अब ऐसा विकट समय आ रहा है कि धर्मरक्षा करनेके लिए राज्यकक्षामें अपने स्वधर्मीजनोंके सिवा कोई सहायक बनेगा नहीं / वास्तवमें तो बहुमतआधारित चुनावलक्षी लोकशासन ही खतरेमें है / अतः वर्तमानकालमें तो 'जैसेके साथ वैसे'का व्यवहार किये बिना कोई चारा ही नहीं रहा / हृदयमें पूर्णरूपसे जिनशासनको समाविष्ट करनेवाले आत्मा चुनाव में विजेता बनकर संसदमें, राज्यसभामें, विधानसभामें, म्युनिसिपालिटीमें या Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक द्रव्यके संचालन करनेकी योग्यता ग्रामपंचायतमें पदारूढ बनेंगे तो अपने धर्मके पांच-पंद्रह कामकाज वे अवश्य कर पायेंगे / भले ही वे अकेले होंगे, लेकिन उसकी बुलंदी आवाज, जब अनेकों कानों तक पहुंचेगी, तब कई लोग उन्हें साथ देंगे / हाँ, वे राजकीय पक्ष कत्लखाने आदिकी किसी पापी योजनाको कार्यान्वित करना चाहे तो, वह उसका सख्त विरोध अथवा वोकआउट करे, जिससे ऐसे बुरे प्रस्तावके अनुमोदनका पाप न लगे / . (19) अपने जन्मदिवस पर ट्रस्टीको साधर्मिक भक्ति करनी चाहिए, साधारण बहीमें अच्छी रकमकी भेंट करनी चाहिए और पाठशालाको बल मिले ऐसे दान देने चाहिए / उतना ही नहीं लेकिन गाँवके अगुओं और संघके सदस्योंके जन्मदिवसोंकी यादी-सूचि बना रखनी चाहिए और जिसका जिस तिथिके रोज जन्मदिन हो, तब उसके घर पहुँचकर अथवा लग्गतिथि या लग्नप्रसंग पर उन उन व्यक्तियोंके घर पहुँचकर नि:संकोच अपनी संस्थामें रकम भेंट करने के लिए प्रार्थनाके साथ हाथ फैलायें / यदि ऐसा होगा तो बहुत-सी रकम साधारण बही आदिके लिए प्राप्त होगी / पाठशालाओंको पर्याप्त प्रोत्साहन मिलेगा / और पाँजरापोलोंको काफी सहायता मिलेगी और उसके कारण देवद्रव्यका भक्षण रूकेगा एवं झूठे बिल-वाउचर बनानेकी प्रवृत्ति रूकेगी / (20) ट्रस्टी प्राथमिक कक्षाके जैन तत्त्वज्ञानका ज्ञाता होना चाहिए / कमसे कम उसे दो प्रतिक्रमणसूत्र और उनके अर्थोंकी जानकारी . होनी चाहिए / यथासंभव दो समयका प्रतिक्रमण, वह सभीके साथ करता हो / (21) ट्रस्टी हमेशा परमात्मास्थापित जैनसंघको ही प्रधानता दें / शास्त्राज्ञाओंसे विरुद्ध विचार और आचरण करनेवाले अमान्य, अस्वीकृत तथाकथित मंडलोंकी जल्द प्रधानता न दें / ऐसे मंडलोंसे जैनसंघको पारावार नुकसान होता रहा है / (22) ट्रस्टी निर्भय, खुद्दार होना चाहिए / अपने संघ या धार्मिक ट्रस्ट पर आनेवाले किसी भी आक्रमणका वह गभराये बिना मुकाबला करें / कपर्दी मंत्री, रामला बारोट, बहादुरसिंहजी, लालभाई सेठ, शान्तिदास सेठ, खुशालचंद सेठ, वखतचंद सेठ जैसा वह मर्द हो और उनमेंसे प्रेरणा पाता हो / Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार (23) सुसाधुओंका वह बहुमान करता हो और सूक्ष्मतासे निरीक्षण करने पर, जिनमें अक्षम्य शिथिलता दृष्टिगोचर हो, उसकी उपेक्षा करें, विनयपूर्वक एकान्तमें गंभीरतासे ऐसे साधुओंको सीख भी देता हो और उनकी माता बनकर यथाशक्य उनका जीवन सुमधुर बन पाये, उसके लिए हर तरहकी कुरबानी करनेके लिए भी तत्पर हो / ट्रस्ट और ट्रस्टीमंडल ट्रस्ट दो प्रकारके होते हैं / रीलिजियस, और चेरिटेबल / अर्थात् धार्मिक और सार्वजनिक / अमुक विशिष्ट धर्मके ट्रस्टको धार्मिक ट्रस्ट कहते हैं, जब कि मानवतापूर्ण सार्वजनिक कार्योंके लिए. बने ट्रस्टको चेरिटेबल ट्रस्ट कहे जाते हैं / कर्णपरंपरितज्ञानानुसार थोडी-सी भी वार्षिक आमदनी हो ऐसी संस्था को अनिवार्य रूपसे ट्रस्टकी रचना करनी पडती है / उसका 'चेरिटी कमिश्नर' के कार्यालयमें पंजीकरण कराकर ट्रस्ट रजिस्टर क्रमांक लेना पडता हैं / ट्रस्टका संविधान-उद्देश, आदिसे युक्त होना चाहिए / यदि ऐसा ट्रस्ट धार्मिक हो तो उसके दाताओंको आयकरमेंसे मुक्ति देनेवाली 80-जी क्रमांकवाली कलमका लाभ नहीं मिलता / सार्वजनिक-दानी ट्रस्टके दाताओंको इसका लाभ मिलता है / अत: 80-जीका लाभ प्राप्त करनेके लिए ट्रस्टको सार्वजनिक बनानेके लिए, ट्रस्टीमंडल सर्वप्रथम प्राथमिकता देता है। लेकिन इस लाभके विरुद्ध सबसे बड़ा गैरलाभ यह है कि ऐसे ट्रस्टको ‘सभीके लिए' खुला रखना पडता है / उसमें सभ्योकों सभी प्रकारके अधिकार प्राप्त होते हैं / अत एव देरासर आदिके जो-जो भी ट्रस्ट कार्यरत हों, उन्हें 'सार्वजनिक ट्रस्टोंमें' परिवर्तित करने के लिये लालायित नहीं होना चाहिए / भले ही उसके दाताओंको 80-जी नियमके लाभ प्राप्त न होते हों / वर्तमानकालमें इस नियमका लाभ प्राप्त हो उसके लिए पांजरापोलोंके स्थान पर गौशालाएँ खडी करना जीवदयाप्रेमी प्राथमिकता देते हैं / गौशाला यानी गायके दूधका व्यापार द्वारा मुनाफा करनेवाली संस्था / इस संस्थामें भंड, हिरन, बकरियां आदिके प्रति जीवदयाका अवकाश नहीं रहता / सरकारकी करमुक्ति देनेवाले नियमके लालचमें जीवदयाप्रेमी लोग भंड आदि जानवरोंके प्रति दया दिखाने में निष्ठुर बने रहते हैं / यह उचित नहीं; बल्कि सरासर गलत है / जो लोग सर्व जीवोंके प्रति दयाके समर्थक-अनुमोदक हैं, उन्हें तो चाहिए कि वे Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक द्रव्यके संचालन करनेकी योग्यता जानवरोंके लिए पांजरापोलकी संस्था जारी करें / चाहे उसके दाताओंको 80-जी कलमका लाभ प्राप्त न होता हो और उसके कारण दानलाभ ज्यादा न हो / ऐसी स्थितिमें दाताओंके पास बारबार जाना पड़ेगा बाकी पांजरापोलोंकी स्थापनाके लिए पैसे तो मिल ही पायेंगे / सभी जीवों प्रति दयाका भाव व्यक्त किया जाय और करमुक्तिका भी लाभ प्राप्त हो, इस प्रकार दोनों ओरसे फायदा उठानेके लिए कतिपय लोग, 'गौशाला और पांजरापोल' जैसा नाम रखकर ट्रस्ट भी बनाते हैं / _ किसी भी ट्रस्टके संविधानमें ट्रस्टीमंडलकी नियुक्तिमें चुनावप्रथाको स्थान न दिया जाय / मद्रास वरिष्ठ अदालतका थोडे वर्षोंके पहले एक आदेश घोषित हुआ था / उसमें सूचित किया गया है कि - 'धार्मिक या सार्वजनिक ट्रस्टोंमें चुनावप्रथाको कार्यान्वित न करें; क्योंकि चुनावप्रथा कई टंटो-फिसादोंकी जड़ है / धर्मस्थानोंमें झगडोंका प्रवेश होना न चाहिए / ' चुनावप्रथा द्वारा ट्रस्टी निर्वाचित हों, उसके बजाय, प्रथम ट्रस्ट-डीड हों, उसी समय उसमें कायमी ट्रस्टीओके रूपमें नाम रख देने चाहिए / यदि किसी ट्रस्टीकी मृत्यु हो या राजीनामा पेश कर दे, तो बाकी ट्रस्टी मिलकर उस स्थान नये ट्रस्टीकी नियुक्ति, संभव हो तो सर्वानुमतिसे, अन्यथा दो-तीन ट्रस्टियोंके बहुमतसे कर दें / . लेकिन इसमें एक खतरा है ही / आरंभमें 'अच्छे-भले' समझकर लिये गये कायमी ट्रस्टीलोगोंमें, यदि कोई विचित्र स्वभावका नटखट घूस पेठा तो बडी मुसीबत पेदा हो जाय / हमेशा परेशानी पैदा करनेवाले आदमीके साथ काम निपटाना मुश्किल होता है / ___इस वजहसे कायमी ट्रस्टीवाली प्रथाको ट्रस्टके संविधानमें दाखिल न करे, लेकिन पाँच साल पूरा होनेके बाद ट्रस्टीमंडलके कोई दो ट्रस्टी, बारीबारीसे प्रतिवर्ष इस्तीफा देते रहे, ऐसा संविधानमें उल्लेख करें / हां, जो अच्छी तरह संचालन करते हौं, ऐसे ट्रस्टियोंकी पुन:सेवाकी आवश्यकता महसूस होने पर - उनकी निवृत्ति ट्रस्टके हितमें उपयुक्त न हो - तो उनको इस्तीफाका स्वीकार कर, तुरंत ही उन्हीं दोको पुनः ट्रस्टीके रूपमें नियुक्त 'करनेकी (एक या दो बार, उससे ज्यादा नहीं) व्यवस्था करनी चाहिए / अच्छे-भले ट्रस्टियोंका भले ही बहुमत हो, लेकिन एकाध ट्रस्टी जड़ . या नटखट घुस गया तो बहुमतको भी तबाह कर देता है / जरा भी काम Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार करने नहीं देता / बार बार चेरिटी कमिश्नरसे शिकायत करता रहता है / ऐसी परिस्थितिमें सारे अच्छे ट्रस्टी, उकताकर राजीनामा पेश करते अतः ट्रस्टीमंडलकी प्रथम पसंदगी पूरे सोचविचारके बाद ट्रस्टके प्रणेताको करनी चाहिए / ऐसे लोंगोको दूर हटानेके लिए ही, पाँच साल पूरे होने पर, दो-दो ट्रस्टियोंकी अनिवार्य निवृत्तिके नियमका ट्रस्ट-डीडमें समावेश करना चाहिए / ट्रस्टी कौन बन पाये, उसका उल्लेख पहले हो चुका है / अतः यहाँ उसका पुनरावर्तन करना उचित नहीं / ट्रस्टके ट्रस्टियोंकी पसंदगी के समान, गंभीर बात ट्रस्टके उद्देश निश्चित करनेकी है; क्योंकि उद्देश निश्चित हो जाने पर, बादमें उसमें कोई परिवर्तन करना मुश्किल बन जाता है / ट्रस्टके संविधानके नियम, भारत सरकारके ट्रस्ट विषयक संविधानके साथ संगत न हों तो उन्हें चेरिटी कमिशनर आदि भविष्यमें विवाद उपस्थित होने पर, फैसला देते समय, ट्रस्टके संविधानके नियमोंको मान्य नहीं रखते / उदाहरणार्थ, भारतीय संविधानमें ट्रस्टोंके किसी भी निर्णयको ट्रस्टियोंके बहुमतसे लेनेका निर्णय घोषित किया गया है / . अब कोई ट्रस्टीमंडल, जैनशास्त्रोंसे विरुद्ध निर्णय, भारी बहमतसे करे - ज्ञानबहीकी रकम स्कूलमें देनेका निर्णय करे - तो क्या किया जाय ? इस समय किसी व्यक्तिका - मुनिराज या, सद्गृहस्थका - वीटोपावर (लवादनामा) ट्रस्ट-डीडमें समाविष्ट किया गया हो और उस सत्ताके आधार पर वह व्यक्ति अपना मत, उस निर्णयके विरुद्ध दे तो चेरिटी कमिशनर, ऐसे लवादनिर्णयको मान्य रखनेके लिए प्रतिबद्ध नहीं है / वे तो बहुमतके निर्णयको ही मान्य रखेंगे / इस प्रकार लवादनामाका कोई अर्थ नहीं रहता अथवा भारतीय संविधान में धार्मिक स्वातंत्र्यकी(पच्चीसवीं) कलम है, उसके बल पर प्रत्येक धर्मको, उसके शास्त्रानुसार आचरण करनेकी स्वतंत्रता दी गयी है / इस मुद्देके आधार पर 'द्रव्यसप्ततिका' आदि जैन शास्त्रविरुद्ध जानेवाले किसी भी निर्णयका उदा. ज्ञानबहीकी रकमका शालामें दान करनेका निर्णय - अवश्य पडकारा जा सकता है / अन्यथा 'लवाद' आदि बातोंका उपयोग तो, समुचा ट्रस्टीमंडल नियमानुसार कार्य करता हो तो ही होता है / ऐकाध भी ट्रस्टी यदि नटखटपन करे तो लवादकी सत्ता निरर्थक बन पाती है / अतः मुनि-महात्माओंको लवादके रूपमें किसी भी ट्रस्टमें अपना नाम दर्ज करानेकी संमति देना, हितावह नहीं है / उपरान्त यदि उसी महात्माका Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक द्रव्यके संचालन करनेकी योग्यता शिष्य उत्तराधिकारी, उनकी अनुपस्थितिमें लवाद बनकर बैठ जाय, तब उसका जीवन यदि सुचारु न हो तो, उस नए लवादका होनेका संभव है / अत: संत, मुनि, महात्मा लोग अपनी लवादी किसी भी ट्रस्टमें न रखे, वो हि योग्य है / अन्ततः तो सब कुछ भवितव्यताके अनुसार ही होनेवाला है, इस बातको कोई भूल न जाय / यद्यपि प्रत्यक्ष रूपमें तो ट्रस्टके मालिककी तरह ट्रस्टीलोगोंका आचरण होता है, लेकिन सही मालिक तो चेरिटी कमिशनर ही बन बैठा है, क्योंकि कई बातों-कार्योंके लिए उनकी अनुमति अनिवार्य होती है / जबकि वास्तव में तो ट्रस्टके संचालनके विषयमें गीतार्थ जैनाचार्यसे ही मार्गदर्शन लेना चाहिए / वे शास्त्रनीतिको नजरमें स्खकर ही उत्तर देंगे / जैनाचार्यके साथ संबंध हो, तब तीर्थंकर-देवके साथ संबंध जुडता है और चेरिटी कमिशनरके साथ संबंध जुड़े तो वेटिकन प्रदेशके ईसाई धर्मगुरु पोपके साथ संबंध जुड़ा माना जाता है / चेरिटी कमिशनरके विभागके कानून देशी-विदेशी गोरे लोगों द्वारा किये गये हैं और गोरे लोगोंके धर्मगुरु पोप हैं / - हाय ! कैसी कमनसीबी है कि आज जैनाचार्य उपेक्षित बन बैठे हैं / व्यवस्थित-आयोजनबद्ध तरिकोंसे उनकी सत्ताकी कटौती की गयी है / जैनधर्मके अनुयायीओंका यह बडा अध:पतन है कि उनका संबंध : तारक-उद्धारक तीर्थंकर देवके बदले पोपके साथ जुड़ा हुआ है / ट्रस्टीलोग ट्रस्टकी संपत्तिके स्वयं मालिक हों, उस प्रकार संचालन करते हैं / उन्हें संपत्ति पर ऐसी खतरनाक ममता रहती है कि उचित अवसरों पर, उचित स्थानोंके लिए रकमोंका सदुपयोग कर नहीं पाते / रकमके एकत्रीकरणजमावृद्धिके कई इहलौकिक एवं पारलौकिक नुकसान प्रत्यक्ष होने पर भी, अपने घरकी संपत्तिकी तरह, इतनी ही मूर्छा ट्रस्टकी संपत्ति पर भी रखते हैं / बैंकोमें जमा होनेवाली रकमोंका उपयोग घोर घातक कार्योमें होता है, यह जानते हुए भी, वे ट्रस्टी, संपत्ति के मोहसे मुक्त नहीं हो पाते / एक समय आयेगा कि भारत सरकार, एक ही कानूनके आधार पर सारी संपत्ति बटोरकर बैठ जायेगी / उसके 'बान्ड' देकर सारी मिलकत को ऐंठकर जायेगी / उस समय वे सभी ट्रस्टीलोग, कितने सारे पापोंका सहभागी होंगे ! यदि कोई आदमी धार्मिक ट्रस्टका संविधानका गठन करना चाहता हो तो, उसे तीन बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए : (1) वह संविधान शास्त्र, नीतिसे अबाधित हो / (इसके लिए वे गीतार्थ गुरुका मार्गदर्शन Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार प्राप्त करें / ) (2) उसमें चौदह क्षेत्रोंके संचालनकी नीति-रीति स्पष्ट रूपसे निर्दिष्ट कर, (इस पुस्तकमें उस विषयका समावेश किया गया है / ) उसीके अनुसार ट्रस्टीलोग संचालन करें / उसके विरुद्ध होकर सर्वानुमत या भारी बहुमतसे भी कोई निर्णय न ले सके, ऐसा स्पष्ट आदेश उल्लिखित होना चाहिए / (3) ट्रस्टी होनेके लिए चुनाव प्रथाके स्थान पर पूवोक्त दो प्रथाओंमेंसे किसी एक प्रथा निश्चित करें / ट्रस्टियोंकी संख्या जो शास्त्रीय नीति-नियमोंके ज्ञाता हैं और सख्त काम करनेके लिए तत्पर हों, उन्हें ही ट्रस्टीके रूपमें नियुक्त करने चाहिए / अमीरी, सत्ता या दानमें दी गयी भारी रकम, ये सारी बातें ट्रस्टी होनेकी योग्यता न हो / ट्रस्टी यथाशक्य थोडी संख्यामें हों / अधिक ट्रस्टी ज्यादा नुकसान करते हैं / व्यर्थकी माथापच्ची करते हैं / : ट्रस्टी बनानेकी संख्याकी व्यवस्था भले ही इक्कीस तककी रखी जाय, परन्तु ट्रस्टी तो 3, 5 या 7 ही रखें / बादमें योग्य व्यक्ति मिलने पर ही समावेश करें / एकी रकमका ट्रस्टीगण, टाई (समान मत प्राप्त हो) आ पडे तब प्रमुखका निर्णायक (कास्टिंग) मत, कोरम आदि बाबतोंकी जानकारी किसी ज्ञाताके पाससे समझ लें / प्रत्येक ट्रस्टमें अनुशासक करनेवाले आचार्य को मार्गदर्शक रूपमें स्वीकृत करें / जिससे शास्त्रविरुद्ध कोई भी काम कभी भी होता हो तो रोक पाये / वे 'ऐसा करो', वैसा न कहे, लेकिन 'एसा न करो, यह शास्त्रविरुद्ध है' ऐसा जरूर सूचित करें / आचार्यके एसे सूचन पर ट्रस्टीलोग गंभीरतासे ध्यान दें / Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण (चौदह क्षेत्रोंका विवरण) (2) साधारण खाता शुभ (सर्वसाधारण) खाता (7 क्षेत्र) (14 क्षेत्र) 1. जिनप्रतिमा 8. पौषधशाला (उपाश्रय) 2. जिनमन्दिर 9. पाठशाला 3. जिनागम 10. आयंलिब खाता 4. साधु 11. निश्राकृत खाता 5. साध्वी . 12. कालकृत खाता 6. श्रावक 13. अनुकंपा खाता 7. श्राविका 14. जीवदया खाता जिनप्रतिमा और जिनमंदिर (1 + 2) .. जिनप्रतिमाके निमित्त जो भी धनागम हो उसे देवद्रव्य कहते हैं / उसका उपयोग जिनप्रतिमाओंके उभारमें किया जाय ।जिस जिनबिम्ब अंजनशलाका करनी हो, उस जिनबिम्बके उभारनेसे उछामनी हो की उस रकममें से नयी जिनप्रतिमाओंका उभार किया जाय / आँगी, मुकुट आदि बनाया जा सके / प्रतिमाओंका लेप किया जाय / चक्षु, टीका आदि लगाया जा सके / . जिनमंदिरमें या उसके बाहर कहीं भी परमात्माके भक्ति को निमित्त बनाकर जो भेट या प्रतिष्ठा, अंजनशलाका, केसरादि पूजा, आरती, रथयात्राकी रथके लिए तथा स्वप्नोंकी उछामनी, उपधानकी माल, संघमाल आदिकी उछामनी आदिका जो चढावा हो, वह सारा देवद्रव्य कहा जाय / इस रकमका उपयोग (1) जिनमंदिरोंके जीर्णोद्धार में एवं नूतन जिनमंदिरों के निर्माण में तथा जिनमंदिर के उपकरण, केसर-चंदनादि पूजन-सामग्री, पूजारीका वेतन, जिनमंदिरका संचालन आदि जिनभक्तिके सर्व कार्योंमें किया जाय / लेकिन शक्तिसंपन्न आत्माओंको धनम का दोषनिवारण करनेके लिए, स्वद्रव्यसे इस लाभप्राप्तिका ध्येय निश्चित रूपसे रखना चाहिए / (2) जिनालय या जिनप्रतिमाकी सुरक्षादिके लिए अदालती कार्यवाही करनेमें वकील (अजैन) आदिको फिस देना आदिमें हो सके / गुरखा आदि पहरेगीरके लिए किया जाय / Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. धार्मिक-वहीवट विचार इस जिनप्रतिमा और जिनमंदिरके दो खातोंकी रकम, देवद्रव्य कही जाती है / ऐसा शास्त्रीय नियम है कि सात क्षेत्रोमें, उपरवालें क्षेत्रकी रकम नीचेके क्षेत्रमें जा नहीं सकती, लेकिन नीचेके क्षेत्रोंकी रकम, उपरवालें क्षेत्रोमें उपयोगमें ली जा सकती है / (यहाँ साधु - साध्वीका तथा श्रावक-श्राविका का एक-एक क्षेत्र समझना चाहिए / ) इस नियमके अनुसार तो पहले जिनप्रतिमा के क्षेत्रकी रकम, दूसरे जिनमंदिर क्षेत्रमें उपयोगमें लायी न जा सके; परन्तु हालमें प्राय; सभी जैनाचार्य, इन दो क्षेत्रों के देवद्रव्यको एक ही खातेका देवद्रव्य समझने लगे हैं अथवा उस प्रकार अमल किया जा रहा हो तो, विरोध नहीं करते / देवद्रव्यके तीन प्रकार संबोधप्रकरण आदि ग्रन्थोमें देवद्रव्यके तीन विभाग बताये गये हैं :(1) पूजा देवद्रव्य (2) निर्माल्य देवद्रव्य (3) कल्पित देवद्रव्य पूजा देवद्रव्य जिनेश्वरदेवके देहकी पूजाके लिए, प्राप्त होनेवाला धन पूजा देवद्रव्य कहा जाता है / जिनप्रतिमाके देहकी केसर आदिसे होनेवाली पूजा-निमित्त यह द्रव्य है किन्तु वह वृद्धिंगत हो तो प्रभुजीके गेह (मंदिर)में उसका उपयोग किया जाय वह स्वाभाविक है / इस प्रकार जिनके देहके अंग और अग्रपूजाके लिए और वृद्धिबढावा होने पर जिनमंदिरके जिर्णोद्धार (और नूतन मंदिरके निर्माण)में इस द्रव्यका विनियोग किया जाय, यह बात निश्चित हुई / निर्माल्य देवद्रव्य प्रभुजीके अंगसे उतारे गये वरख आदिके विक्रयसे जो रकम प्राप्त हो, उसे निर्माल्य देवद्रव्यके खातेमें जमा की जाय / यह बरख आदि चीजें थोडे ही समयमें दुर्वासित होने लगते हैं, अतः उन्हें 'विगन्धि' द्रव्य माने जाते हैं। प्रभुजीके समक्ष रखे गये बादाम आदि पदार्थ दुर्गंधपूर्ण नहीं बनते, लेकिन वे ही पदार्थ उतारनेके बाद पुनः अर्पण नहीं किये जा सकते, अत: उन्हे अविगन्धि निर्माल्य देवद्रव्य कहे जाते हैं / उनके विक्रयसे मिलनेवाली रकम निर्माल्य देवद्रव्यके खातेमें जमा की जाय / Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण इस रकममेंसे जिनके अंगोके आभूषण आदि बनाये जा सके; लेकिन जिनपूजाके साधन आदिकी खरीदी नहीं की जा सकती है / हां, इस रकममें बढावा हो तो, उसका उपयोग जिनमंदिरके जीर्णोद्धार आदिमें किया जा सकता है / कल्पित (चरित ) देवद्रव्य जिनमंदिके निभावके लिए कल्पित (कायमी निधि) तथा जिनभक्ति निमित्त जो भी उछामनी आदि शास्त्रीय विधि-रीति की जाय, उससे उत्पन्न जो द्रव्य हो, उसे कल्पित देवद्रव्य कहा जाता है / भूतकालमें सुश्रावक, स्वद्रव्यसे जिनमंदिरोंका निर्माण करते थे। उस समय वे लोग जिनमंदिरके चौकीदारको वेतन, अष्टप्रकारी पूजाकी सामग्रीकी तमाम चीजें नियमित उपलब्ध होती रहे, उसके लिए दानवीर निभावरूपमें रकम दानमें देते थे / जो कायमी बनी रहती और उसके व्याजमें मंदिरका निर्वाह (निभाव) हमेशाके लिए चलता रहता था / यह रकम कल्पित देवद्रव्यमें जमा होती है। . उपरान्त, हालमें भी परंपरा अनुसार सैंकडों वर्षों से प्रचलित स्वप्न, संघमालअंजनशलाका, प्रतिष्ठादि, आरती, मंगलदीप, प्रथम प्रक्षालपूजा, केसरपूजा, पुष्पपूजा आदिकी उछामनी, उपाधानकी मालकी उछामनी, नकरा, नाण के नकरे आदि सभीका समावेश, कल्पित देवद्रव्यमें होता है; क्योंकि ये सारी उछामनियाँ भी जिनभक्ति निमित्त श्रावकों द्वारा आचारमें लायी गयी हैं। . इससे हम यह कह सकते हैं की स्वप्नादिककी उछामनी या उपाधानकी मालकी रकम देवद्रव्य तो है ही, लेकिन वह देवद्रव्य अर्थात् पूजा (अष्टप्रकारी पूजाके वार्षिक चढावे आदि स्वरूप) या निर्माल्य देवद्रव्य नहीं, परन्तु कल्पित देवद्रव्य है / इस रकमका उपयोग देरासरजीके सभी खर्चों में किया जा सकता है / अत एव इस कल्पित देवद्रव्यको देवकुं साधारण माना गया है / " इस कल्पित देवद्रव्यकी रकममेंसे (अजैन) पूजारीको वेतन दिया जा सके। उपरान्त, अष्टप्रकारी पूजाकी सामग्री भी ला सकते हैं और आभूषण भी बनाये सकते हैं। यद्यपि वर्तमानमें ऐसे तीन विभाग (तीन थैलीयाँ) कहीं भी रखे हुए जान नहीं पडते / हाल तो देवद्रव्यकी एक ही थेली रखकर जिनभक्तिके लिए उपयोग किया जाता है। लेकिन, इससे तो निर्माल्य देवद्रव्यको रकममेंसे भी जिनपूजा होनेकी Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '16 - धार्मिक-वहीवट विचार संभावना बढ़ जाती है / जिसका शास्त्रकारोंने निषेध किया है / अतः ऐसी तीन थैलियाँ निश्चित की जायँ और कल्पित देवद्रव्यमेंसे पूजारीको वेतन दिया जाय, जिनपूजाकी सामग्री लाए तो शास्त्रव्यवस्थाका पालन-आचरण बना रहे / - यहाँ एक बात अवश्य ध्यानमें रखें कि देवद्रव्य या कल्पित देवद्रव्यमें कोई जिनपूजा करे तो, वह एकान्त पापका भागी बनता है, ऐसा कहा नहीं जा सकता है। ___क्योंकि, पूजा देवद्रव्य, पूजाका ही खाता है / उपरान्त, कल्पित देवद्रव्य भी व्यापक बनकर पूजा करनेकी रकम लेनेकी अनुमति देता ही है / इस प्रकार पूजा करनेमें एकान्त पापका भागी नहीं बनता / प्रभुभक्ति करनेके लिये देवद्रव्यकी रकममेंसे पूजादि कार्य न कर, स्वद्रव्यका उपयोग कर पूजा करें तो धनमूर्छा उतारने का सबसे बडा लाभ उन्हें सविशेष प्राप्त होता है / उपरान्त, स्वद्रव्यकी जिनपूजामें भावोल्लासकी वृद्धिका भी संभव विशेष रहता है। __यदि देवद्रव्यमेंसे देरासरका निर्माण हो सकता है और उसका सुखी भक्त उपयोग कर सकते हैं तो उसी देवद्रव्यमेंसे देरासरजीमें बिराजमान परमात्माकी पूजादिविधि क्यों न हो सके ? उसमें पापबंधका संभव ही कहाँ ? . जिनपूजा करनेकी सामग्री, गाँवके या बाहर गाँवसे आये जैनोंको यथासमय उचितढंगसे प्राप्त होती रहे, उसके लिए 'जिनभक्ति साधारण भंडार' स्थापित कर, उस पर-द्रव्यसे वे लोग जिनपूजा कर सके और उसमें यदि दोष द्रष्टिगोचर न होता ही तो स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनेका एकान्त आग्रह क्यों रखा जाय? ___ 'द्रव्य सप्ततिका' ग्रंथमें 'श्रावकों को स्वद्रव्यसे ही पूजा करनी चाहिए।' ऐसा जो उल्लेख किया गया हे वह घर देरासरके मालिक श्रावकके लिए ही है / वहाँ उसीका विषय है / उसमें ऐसा जिक्र किया गया है कि 'गृहदेरासरमें रखे गये चावल, फल आदि द्वारा संघदेरासरमें वह श्रावक पूजा नहीं कर सकता; क्योंकि वैसा करने पर, लोंगो द्वारा उसे अनावश्यक मान-संमान प्राप्त होनेकी संभावना है / (यहाँ देवद्रव्यसे पूजा करनेका दोष लगने की बातका तो जिक्र नहीं किया गया / ) ऐसा अनावश्यक मान प्राप्त न हो, उसके लिए, उसे बडे देरासरमें स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए। इस प्रकार उस पाठका मनन किया जाय तो स्पष्ट होगा कि स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनेका सभी श्रावक-श्राविकाओंके लिए शास्त्रवेत्ताओंका आत्यन्तिक Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण - आग्रह नहीं है। जब तीनों प्रकारके देवद्रव्यसे जिनपूजा (पूजारूप, आभूषण चढानेके स्वरूप, अजैन पूजारीको वेतनादि देनेके रूपमें)हो सकती है, तब स्वद्रव्यसे ही - देवद्रव्यसे नहीं और परद्रव्यसे भी नहीं-पूजा करनेका या वेतन देनेका आत्यन्तिक आग्रह रखना, यह उचित मालूम नहीं होता / यहाँ एक बात का ख्याल रखें कि गुरखा, पूजारी, वकील आदिको जिस देवद्रव्यसे वतन देनेकी बात कही है वह, केवल 'अजैन' हो, उन्हींसे संबद्ध है / जैन यदि देवद्रव्यका स्वीकार करेंगे तो, उन्हें मानसिक त्रास होगा / उससे उनकी परिणति निष्ठुर हो जायेगी और परिणतिकी रक्षा करना, यह तो सबसे बडा धर्म है। . वर्तमानकालीन जैनाचार्यों के लिए इस प्रकारका निर्णय लेनेका और आचरण कराने का समय हो गया है कि देवद्रव्यके तीन विभागों का संचालन व्यवस्थित करें। बिना अवधारण, देवद्रव्य संभवित नहीं। _. 'द्रव्यसप्ततिका' ग्रन्थ (दूसरी गाथा) में बताया गया है कि देवको समर्पित करनेके लिए कल्पित द्रव्य आदि वस्तुएँ तभी देवद्रव्य मानी जायेगी, जब उसका संकल्प द्रढ हो, सामान्य स्तरका न हो / 'यह धन या नैवेद्यमैं देवको समर्पित करने के लिए बना रहा हुँ / ' ऐसा संकल्प सामान्य स्तरका है / द्रढसंकल्प तो तभी कहा जाय, जबकि उसमें गर्भित या स्पष्ट रूपसे स्व-उपभोगका निषेध किया गया है / 'मैं अपने लिए इस वस्तुका विनियोग नहीं करूंगा।' ऐसे नकारात्मक अभिगमपूर्वक देवसमर्पित करने का जो संकल्प किया जाय, उसे द्रढसंकल्प कहा जाता है / केवल सामान्य संकल्पवाली वस्तु, देवद्रव्यकी चीज नहीं बन पाती / ___ मृग नामक श्रावकने अपनी घरवालीसे तीर्थयात्राके समय स्थान-स्थान पर भगवानको समर्पित करनेके लिए नैवेद्य तैयार करनेके लिए कहा / नैवेद्य तैयार हो गया / उसी समय कोई मुनिमहाराज घर पर वहोरने आ पहुँचे / उन्हें उस नैवेद्य को वहोराया / मुनि और वह विप्र श्रावक, दोनों स्वर्गमें गये / इस नैवेद्यमें सामान्य संकल्प था, लेकिन स्वयं उसका उपयोग नहीं * करना, ऐसा गर्भित संकल्प जरा भी नहीं था / अत: वह देवद्रव्य न बन पाया, इसी लिए वे मुनि और विप्र श्रावक दुर्गति प्राप्त न हुए / इससे यह समझ लें की आंगीमें चढानेके लिए दिये जानेवाले हीरोंके हार धा.व.-२ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____धार्मिक-वहीवट विचार आदि चीजें, प्रभुको चढाने मात्रसे देवद्रव्य नहीं बन जाता / उपरान्त, देरासरमें जाते समय, जेबमें गलतीसे कोई दवा आदि चीजें रह जाय तो वे देवद्रव्य होकर उपयोग करनेमें निषिद्ध-त्याज्य नहीं बन जातीं / फिर भी, व्यवहारशुद्धिके लिए उनका उपयोग करना उचित नहीं। ' संघ हस्तकके रथयात्रादि वरघोडोंमें रथमें बैठना, भगवानकी पालकी उठाना, भगवानकी स्थापना करना, सारथि बनना, चम्मर लेकर बैठना आदि जिनभक्ति निमित्त उछामनी, तथा हाथी, घोडागाडी आदि मूसल (सांबेला) संबंधी उछामनियोंमें से रथ, पालकी आदिके नकरे एवं बेंड और हाथी, घोडागाडी आदि उन उन विभिन्न सांबेलों (मूसलों)का खर्च कर सकते हैं / बाकी बची रकम देवद्रव्यमें जमा की जाय / लेकिन वरघोडेमें आगमकी गाडी या ज्ञान के निमित्त होनेवाली उछामनियोंमेंसे तत्संबंधी गाडी आदिका खर्च बाद कर, बाकी बची रकम ज्ञान खातेमें जमा करानी चाहिए / उपरान्त, कुमारपाल राजा, शालिभद्र, विक्रमराजा, कनक श्री (धर्मचक्र तपमें), जावडशा आदि बनकर हाथी, घोडागाडी आदिमें बैठने की उछामनियोंमेंसे भी तत्संबंधी खर्च बादकर बाकी रकम श्रावक-श्राविका क्षेत्रमें अथवा साधारण (सात क्षेत्र) खातेमें उपयोगमें ली जा सकती है। हाँ, कुमारपाल महाराजाकी आरतीसे संबद्ध (उनके महामंत्री, सेनापति आदि) उछामनी का सारा द्रव्य, देवद्रव्यमें जमा किया जाय, लेकिन उस कुमारपाल आदिके ललाटमें तिलक करनेका घी, सात क्षेत्रके साधारणमें लिया जाय / जिनप्रतिमा और जिनमंदिर (1 + 2) जिस मूर्ति की अंजनशलाका हुई नहीं, उसकी अंजनशलाका कराने के लिए जो घीकी बोली हो, उसे जिनप्रतिमा खातेमें जमा किया जाय / इस रकमका उपयोग नयी जिनप्रतिमाको भरानेमें किया जाय तथा लेप, आभूषण और पूजा की सामग्री आदिमें किया जाय / पहले के जमाने में जिनमंदिरोंका निर्माण श्रीमंत लोग प्रायःस्वद्रव्यसे ही करते थे, लेकिन आज इस खातेमें आनेवाली देवद्रव्यकी रकम नूतन जिनमंदिरोमें भी बिना विरोध उपयोगमें लायी जा रही है / इस प्रकारमें हालमें स्वद्रव्यके बजाय देवद्रव्य से भी मंदिर बन रहे हैं और सभी उनमें पूजा-पाठादि करते हैं / अगर देवद्रव्य से बने जिनमंदिरोंमें पूजा हो सकती है तो जिनेश्वरदेवकी पूजा स्वद्र्व्यसे ही करनी चाहिए, ऐसे आत्यन्तिक आग्रह को क्यों माना जाय? यदि परद्रव्य से निकलनेवाले Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण शिखरजी आदि संघ, स्वामी वात्सल्य, आयंबिल खातोंका निर्माण आदिमें तत्तद् धर्माचरण हो सकता है तो स्वद्रव्यसे ही जिनपूजाका आग्रह आत्यन्तिक रूपसे क्यों किया जाय?' निश्चयनय' तो ऐसे किसी प्रकारके भेद को ध्यानमें न लेकर, धर्मात्मा के ह्यदयमें प्रफुल्लित भावको ही कार्यसाधक मानता है / (सविशेष जानकारीके लिए इस ग्रन्थके परिशिष्ट-२' को देख लें / ) जिनमंदिरको भेटमें प्राप्त खेत, मकान, मकानका किराया आदिकी रकम, सूद-कर्जकी रकम आदि, केसरपूजादि अष्टप्रकारी पूजाके चढावेकी रकम, प्रतिष्ठाअंजनशलाकादिके चढावेकी रकम, रथयात्राके वरघोडेकी विविध चढावेकी रकम स्वपकी बोली, उपधानकी माल, संघमाल आदिके उछामनियाँ, ऊतरे हुए वरख चावल, बादाम आदिकी बिक्रीसे प्राप्त रकम, पंचकल्याणकोंके उत्सवोंके चढावेकी रकम आदि देवद्रव्य कहा जाता है / यहाँ इतना सविशेष समझ लें, रथयात्राके वरघोडेके साथ हाथी, घोडा, सांबेला आदिकी उछामनीकी रकम (उसमेंसे सांबेला का खर्च निपटाया जा सकता है / ) देवद्रव्यके खातेमें जमा हो, लेकिन उसमें जो विशेष कनकश्री बनना, 45 आगमकी गाड़ी रखना आदि वस्तुएँ हों तो उनकी उछामनीकी रकम क्रमशः श्रावक खातेमें या ज्ञानखातेमें जमा हो / , देवद्रव्य के तीन प्रकार हैं / पूजा देवद्रव्य : अष्ट प्रकारकी पूजाकी वार्षिक उछामनीकी रकम अथवा पूजा निमित्त भेंटमें आयी रकम या पूजाके पदार्थ / निर्माल्य देवद्रव्य : वरख आदि उतारे पदार्थ एवं चावल, फल, नैवेद्य आदिकी बिक्रीसे प्राप्त रकम / __कल्पित देवद्रव्य : निभावके लिए कल्पित कायमी निधि स्वरूप रकम तथा स्वप्नका चढावा, उपधान के मालकी, संघमालकी, वरघोडेकी उछामनी आदिकी रकम / . (1) पूजा देवद्रव्य से परमात्माकी तमाम प्रकारकी पूजा हो सकती है / आँगी, आभूषण आदि प्रभुनिमित्त सभी कार्यों में उपयोग किया जाय / (2) निर्माल्य देवद्रव्यकी रकम, प्रभुजीके अंगके आभूषण, चक्षु, टीका आदिके उपयोगमें ली जा सकती है / जीर्णोद्धार एवं नूतन मंदिर निर्माणकार्यमें उपयोग किया जाय / प्रभुजीकी अंगपूजामें (पूजा देवद्रव्यकी तरह) उपयोगमें न ली जाय / जहाँ पूजाके द्रव्यसे या कल्पित देवद्रव्यसे निर्वाह न हो सकता हो; वहाँ अक्षतादि निर्माल्य द्रव्यसे भी पूजा हो सकती है / Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 धार्मिक-वहीवट विचार (3) कल्पित देवद्रव्यकी रकम, जिनप्रतिमा और जिनमंदिरविषयक तमाम कार्य, केसरादि लाना, अजैन गुरखा, पूजारीको वेतन देना, दियाबत्तीका खर्च निकालना आदि उपयोगमें ली जा सकती है / हाँ, इस खातेकी रकम, जीर्णोद्धार, नूतन जिनमंदिर के निर्माणमें उपयोगमें ली जा सकती है ।हालके संचालकके अंतर्गत देवद्रव्यके ऐसे तीन प्रकार निश्चित नहीं किये गये हैं / देवद्रव्यकी एक ही थैली रखी जाती है / यह विषय शास्त्रसंगत है या नहीं, यह निश्चित करना गीतार्थ आचार्य भगवंतोका काम है / हमारे स्वर्गीय तरणतारणहार गुरुदेव श्रीमद् महान गीतार्थ आचार्य भगवंत पूज्यपादप्रेमसूरीश्वरजी म.सा.इसे संगत मानते न थे। संबोधप्रकरण' (ले. पू. हरिभद्र सूरीश्वरजी : रचनासमय छठवी शताब्दी) में इस तीन प्रकारोंका सविस्तर विवरण दिया गया है / हाल जो द्रव्य देवकुं साधारणं कहा जाता है, उसका भी यथायोग्य पूजा या कल्पित देवद्रव्यमें समावेश हुआ है, ऐसा समझें / जिनमंदिररक्षा या तीर्थरक्षाके लिए अदालतोमें मुकद्दमें दर्ज कराना। साहित्यप्रचार करना, कार्यालयके लिए मकानकी व्यवस्था करना, चौकीदारके रूपमें गुरखोंको नियुक्त करना आदि जो काम उचित मालूम हों, उनके लिए देवद्रव्यकी रकमका उपयोग करें / इतना अवश्य ध्यानमें रखें कि यह रकम केवल अजैन वकील, गुरखा आदिको ही दी जाय / उपरान्त, उसका अमर्याद-निरंकुश उपयोग होने न पाये / श्रावकके स्वयंके उपभोगमें न आ पाये उसकी सावधानी रखें / भूतकालमें जो श्रीमंत, देरासरका निर्माण करते, वे देरासरकी कायमी निर्वाहव्यवस्था भी शक्य करते थे / इस प्रकार जिनालय के निर्वाह के लिए दिया गया द्रव्य, संकल्पित देवद्रव्य कहा जाता था। जिनपूजादि कार्यों में उसके उपयोगका विरोध करनेवाले भी, इसी प्रकारका 'जिनभक्ति साधारण' नामसे भंडार तो देरासरोंमें स्थापित करते ही है / यह रकम परद्रव्य अथवा कल्पित एसा देवद्रव्य ही है / उसके द्वारा जैन प्रभुभक्ति आदि करें, उसमें उन्हें कोई आपत्ति नहीं / (आश्चर्यकी बात यह है कि इतना होने पर भी वे स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनेका ऐसा एकान्तिक आग्रह रखते हैं कि परद्रव्यादिसे जिनपूजा हो ही नहीं सकती ! यह वदतो-व्याघात नहीं हैं ?) हाँ, यदि कोई स्वद्रव्य से पूजादि करे तो उसे अपनी धनमूर्छा उतारनेका बड़ा अलभ्य अवसर प्राप्त हो, यह निश्चित है / वैसा मौका, शक्ति-सामर्थ्य होने पर भी स्वद्रव्यसे पूजा न करनेवाले को प्राप्त नहीं होता / परन्तु उससे ऐसा न कहा जाय कि शक्तिमान व्यक्ति परद्रव्यादि से पूजा करे तो उसका अहित ही हो / Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण मंदिरोके निमित्त देवद्रव्य, यह सामान्यतः सर्वोत्कृष्ट खाता है, क्योंकि उस रकममेंसे जीर्णोद्धारादि होने पर, उसका आयुष्य बढ जाता है / परमात्मभक्तिसे अगणित गणोंका विकास होता है / हेवान इन्सान बनता है / इन्सान भगवान बनता है।किसी भी धर्मकी संस्कृति, उसके मंदिरोके आसपास घिरी रहती है / बालकक्षाके जीवोंके विकास के लिए परमात्माकी मूर्तिका आलंबन अत्यन्त जरूरी है / यदि मूर्ति है, तो संस्कृति है / यदि संस्कृति है, तो प्रजा है / . यदि प्रजा है , तो देश है / आठ कर्मों में सबसे ज्यादा खतरनाक मोहनीय कर्मका खात्मा देवगुरुकी भक्तिसे ही होता है / उस कर्म के कमजोर होने पर शेष सभी कर्म कमजोर होते हैं / इस प्रकार कर्मक्षय होने पर, जीव शिव बन पाता है / ऐसे असंख्य लाभोंके कारण, जिनमंदिर अत्यन्त आवश्यक वस्तु बन जाती है। इसी लिए अधिकतर मंदिर निर्माण और जीर्णोद्धार कार्य अनवरत चलते रहते हैं / अरबों रूपयोंके प्राचीन मंदिरोंकी मरामत बारबार करते रहना पडे, उसके लिए जैन संघको करोडों रूपयोंकी आवश्यकता बनी रहती है / जब तक देवद्रव्यकी व्यवस्था अत्यन्त सख्तीसे अनुशासनपूर्वक बनी रहेगी तब तक जिनमंदिरोंके लिए प्रतिवर्ष करोडों रूपयोंकी आमदनी सुलभ बनी रहेगी। - ज्ञानी पुरूषोंने देवद्रव्यकी व्यवस्थाको, इसी कारण 'अत्यन्त सुद्रढ बनाकर, एक पैसेके भक्षण या दुरूपयोगको अति भयानक कर्मोंके बन्धनकै रूपमें वर्णित कर, समग्र जैन संघ उपर -जीवमात्र उपर- असीम उपकार किया है / यदि देवसंबंधित उछामनियोंको धनके बजाय नवकार, सामायिक, मौन आदिके माध्यमसे बुलाने की छुट्टी दे दी होती तो देवद्रव्यखातेमें तेज रफ्तार से बहता संपत्तिका प्रवाह मंदगतिवाला हो जाता / / . बेशक धनके माध्यमकी उछामनी होनेके कारण मध्यम या गरीब वर्गके आदमी, विशेष लाभ उठा नहीं पाते, परन्तु वे उसकी अनुमोदना कर लाभ पा सकते हैं / शील, तप और भावनामक उत्तरोत्तर श्रेष्ठतर तीन धर्मोका साक्षात् पालन-सेवन कर के भी अधिकतम स्वहित साध सकते हैं। धनदान नामक एक ही धर्म है, जिसका सेवन केवल श्रीमंत कर सकते Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार हैं / उनके लिए शील, तप, आदि तो कष्टदायक बन जायें / तो उनके लिए उनका आत्महित करनेवाले दानधर्मकी व्यवस्था क्यों रखी न जाय / जिससे उनकी संभवित दुर्गतिकी संभवितता कम हो सके / श्रीमंतोको दान-धर्म सेवन लाभ प्राप्त हो और मंदिरोंके जीर्णोद्धारादिके लिए आवश्यक करोडों रूपयोंका प्रवाह अनवरत बहता रहे-इन दो लाभोंको नजरके सामने रखते हुए, मध्यम या गरीब वर्गके जैनोंको, उछामनीके धनके माध्यमका कदापि विरोध नहीं करना चाहिए। ___ अजैन मंदिरोंकी अपेक्षा, जैन मंदिरोंकी सुचारु संचालन आदिके मूलमें देवद्रव्यकी सख्त व्यवस्था ही मूल कारण है / देलवाडाके जिनमंदिरोंको लगातार दो घंटो तक गहराईसे पं. नहेरुने देखकर मुलाकाती-पुस्तिकामें तद्विषयक प्रशस्ति भी वे लिख न पाये; क्योंकि शब्दकोषका कोई भी उत्कृष्ट शब्द, प्रशिस्तका पूरा खयाल दे सके ऐसा न था / अन्तमें कोरी जगह छोडकर अपने हस्ताक्षर कर उन्होंने. विजिटबुक बंध करवा दी थी। ट्रस्टियोंकी मोहदशा के कारण, ट्रस्टों में जमा देवद्रव्यकी लाखों रूपयोंकी रकम देखकर, वर्तमानकालीन बुद्धिवादी वर्ग उसके बारेमें अंटसंट अभिप्राय दे रहा है / वास्तवमें ट्रस्टीलोगों को इस मोहदशा का त्याग कर सारी संपत्तिको जहां-जहां आवश्यकता हो, वहाँ देते रहना चाहिए / देवद्रव्यके दस अरब रूपये भी कम पड़े इतने सारे जीर्णोद्धारादिके काम समुचे भारतमें चल रहे हैं। ___ दाताने जिस हेतु से रकमका दान किया हो, उससे अलग हेतु के लिए दानकी रकमका उपयोग किया नहीं जा सकता, ऐसा चेरिटी कमिशनरका कानून भी ' कस्तूरबानिधिमें जमा इक्यावन लाख रूपयोंका उपयोग बंगालमें पडे भयानक सूखे के समय मानवोंको बचानेके लिए किया जाय, ऐसा आग्रह गांधीजीको किया गया, तब गांधीजीने उसका साफ इन्कार इसी कारणसे किया था / अलबत्त, अपनी प्रचंड भाग्ये के कारण, सुखाग्रस्त लोंगो के लिए एकबडा अलग निधिका निर्माण, उन्होंने चंद दिनोमें कर दिया था / जिनागम (3) ___ पहले आगम आदि ग्रन्थ कण्ठस्थ होते थे / परंपरया सूत्रोंके पाठ चलते रहते / साधुओंको लिखनेकी मना थी / लेकिन विषमकालके कारण आगमों Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण आदिका विस्मरण होने लगा / परिणाम स्वरूप ज्ञानको नष्ट होनेसे बचानेके लिए पुस्तकस्थ करना पडा / तबसे ग्रन्थस्थ ज्ञानकी सुरक्षाके लिए द्रव्यकी जरूरत महसूस होने लगी। प्राचीन समयमें जैन साधु-साध्वियोंको गृहस्थ-पंडित आदिके पास अध्ययन करनेका प्रसंग उपस्थित न होता था; इतना ही नहीं अध्येताके लिए प्रायश्चित्त की भी सूचना थी / लेकिन विषम समयमें शास्त्र-संमत न होने पर भी सुविहित आचरण स्वरूपमें व्याकरण, न्याय, दर्शन आदि शास्त्रोंके अध्ययनके लिए पंडितोंकी आवश्यकता महसूस हुई, तबसे ज्ञानद्रव्यकी सविशेष जरूरत रही / जिनागम-जिनवाणी-सिद्धान्तोंके अलावा शासनका संभव नहीं / अतः जिनागमों-शास्त्रोंकी रक्षाके लिए एवं पढलिखकर विद्वान साधु-साध्वी भी व्युत्पन्न हों, उसके लिए ज्ञानद्रव्यकी अत्यंत आवश्यकता उचित मानी जाय / इस प्रकार यह द्रव्य भी शासनमें अतिपवित्र और महत्त्वका है। देवद्रव्यही तरह जिनागम आदि धमग्रन्थों के लेखन, रक्षण, आदिके लिए, ज्ञानद्रव्य भी अतिप्रवित्र द्रव्य है / ज्ञानपूजन, ज्ञानविषयक उछामनियां, कहीं कहीं हो रही ज्ञानकी अष्ट प्रकारी पूजा, कल्पसूत्र आदि सूत्रों की बोली-वाचना, प्रतिक्रमणके सूत्रोंकी बोली, दीक्षा या , पद-प्रदान प्रसंगकी नवकारवाली पोथी और सापडेकी उछामनी, ज्ञानखातेमें मिलनेवाली भेंटकी रकम आदि ज्ञानद्रव्य कहा जाता है / इसमेंसे आगमों, शास्त्रों और साधु-साध्वियोंके अध्ययन-उपयोगी ग्रन्थादिको लिखाना-छपवाना आदि ... काम किया जाय, साधु-साध्विोयों को पढानेवाले अजैन पंडितोंको वेतन और पुरस्कार आदि दे सकते हैं / ज्ञानभंडारोंका निर्माण किया जाय / ज्ञानमंदिर बनाये जा सकते हैं / (जिनमें साधु-साध्वियां, संथारा या गोचरी, पानी आदिकी कोई क्रिया कर न पाये / ) ज्ञान खातेमें (अर्थात् पाठशाला आदि) भेंटकी रकममेंसे जैन पंडितको भी वेतन-पुरस्कार दिया जाय / पाठशालाके बच्चोंके लिए, अध्ययनार्थ धार्मिक पुस्तकोंकी खरीदी की जाय / (ज्ञान खातेमें कोई दाता इस हेतुसे दान दे कि मैं यह रकम चतुर्विध संघमें सम्यग्ज्ञानके प्रसारके लिए उपयोग करने के लिए भेंट रूपमें देता हूँ / ' ऐसे स्थल पर उसकी स्पष्टता करनी चाहिए / ) यदि ज्ञानभंडारके या श्रमणोंकी पुस्तकोंका सम्यक् ज्ञानाभ्यासके लिए Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 धार्मिक-वहीवट विचार श्रावक-श्राविकाएँ उपयोग करें तो, वे ज्ञानखातेमें भेंटके रूपमें कुछ रकम दें तो वह उचित होगा। श्रमण नवकारवाली आदि जो चीजें अपनी निश्रामें न लें, तो उन्हें गृहस्थोंको तात्कालिक सदुपयोगके लिए अवश्य दें / अपने बच्चोंके लिए चलती पाठशालाके धार्मिक ग्रंथोंके लिए अथवा पाठशालाके पंडितके वेतन की रकम, साधु-साध्विके निमित्त ज्ञानखातेमेंसे ली नहीं जा सकती / ज्ञानखातेकी रकमका उपयोग, साधुसाध्वियोंके अध्ययन-अध्यापन कार्यो में किया जा सकता है / श्रावकोंके लिए तो इस रकमका उपयोग नहीं हो सकता ।स्कूल आदिके तथाकथित व्यावहारिक शिक्षण में तो इस रकमका उपयोग कदापि नहीं हो सकता। ज्ञानपूजन, प्रतिक्रमणादिमें सूत्रोकी बोली, ज्ञानकी अष्टप्रकारी पूजाकी उछामनी, बारसासूत्र आदिके चढावे की रकम, दीक्षार्थी भाईबहनकी दीक्षा के उपकरण : पोथी नवकारवाली, सापडाकी उछामनी की रकम, पदस्थ बननेवाले महात्माओंके यन्त्र, पट, नवकारवाली आदिकी उछामनी की रकम, ज्ञानपंचमीके दिन संपन्न होनेवाली ज्ञानकी रचना पर रखी जानेवाली रकम इस खातेमें जमा की जाय / - ज्ञान खातेकी रकममेंसे ज्ञानभंडारका मकान कबाट, ग्रंथ आदिकी खरीदी की जाय / (ऐसे ज्ञानभंडारके मकान में साधु-साध्वीजीका थोडे समयके लिए भी निवास नहीं हो सकता / ) साधु-साध्विीजीके अध्ययन के लिए उपयुक्त हो ऐसे तमाम प्रकारके स्व-पर दर्शनके ग्रन्थोंकी खरीदी की जाय / उनका पूरा उपयोग हो जाने पर उन्हें ज्ञानभंडारमें रखे जायँ / उनके अजैन पंडितोंका वेतन, पुरुस्कार इस खातेमेसे दिया जाय / जैनधर्मके उपर मान पैदा हो,जिनशासनके नव तत्त्वोंके प्रति आदर उत्पन्न हो, वैसा साहित्य अजैन कौमके विशिष्टं कक्षाके लोंगोंको, ज्ञानखाते की रकममें से दिया जाय / श्रुतका लेखन, मुद्रण आदि कार्य इस खातेकी रकममेंसे किया जाय / पाठशालामें पढनेवाले बालक, बालिकाएँ आदिके लिए जरूरी पुस्तकें इस खातेमेसे.ला नहीं सकते / उन किताबोंकी व्यवस्था, उनके वालिद लोंगोको करनी चाहिए / पाठशालाके पंडितोंका वेतन आदि भी इसमें से दिया न जाय / जिन किताबोंके ढेर के ढ़ेर पड़े रहते हैं / जैसे तैसे लोगों को भेंट के रूपमें दे देनी पडती हैं ऐसी स्तवनादिकी किताबें, इस खातेकी रकमसे छपवानी उचित नहीं Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण ज्ञान खातेकी रकमसे वेतन पानेवाले अजैन पंडितोंके पास एक मिनटका भी दुर्व्यय करनेमें, उन साधु-साध्वियोंको रकमके दुरूपयोग करने का दोष लगता है / अत एव महोत्सवादिके कारणवश बारबार पंडितोंको छुट्टी देना उचित नहीं है ज्ञानखातेकी रकम, स्कूल, कालिज, उसकी किताबें, नोटबुकें आदिमें खर्ची न जाय / क्योंकि वह सम्यग्ज्ञान नहीं है / आजका शिक्षण तो महामिथ्यात्वका पोषक बन पड़ा है। ज्ञानखातेके रकमकी आलमारियोंका उपयोग साधुलोग किताबें रखनेके लिए कर सकते हैं, लेकिन उनमें उपधि आदि रख नहीं सकते / ज्ञानखातेमें प्राप्त व्यक्तिगत भेंटकी रकममें से जैनपंडित को भी वेतन-पुरस्कार दिया जाय / पाठशाला के बच्चोंके अध्ययनके लिए किताबें खरीदी जा सकती her . . 'साधु-साध्वी (4 + 5) सात क्षेत्रोंके अंतर्गत इन दो खातोंको परस्पर संमिलित मानकर एक समझ लें / इस खातेमें आनेवाली वस्तुएँ गुरुद्रव्य मानी जाती हैं / - गुरुद्रव्यके तीन प्रकार हैं / जिन चीजोंका (गुरुद्रव्य) कपडे, पातरे, गोचरीपानी आदि वस्तु साधु-साध्वी अपनी अधिकारकी समझ भोगने के लिए उपयोग करते हैं, उन्हें भोगार्ह गुरुद्रव्य कहा जाता है / जिन द्रव्यों-चीजोंको गुरुचरणोंमें पूजनके रूपमें रखी जाये, गहूंलीमें रखी जायें (यदि परंपरागत पूजारी का लागा हो तो उसे दिया जाय) मुनियोको वहोरानेकी कम्बल आदिका चढावा किया जाय, ऐसा धन, जिसे साधु-साध्वियाँ अपनी मालिकीका समझकर उपभोगमें नहीं लेते, उसे पूजार्ह गुरुद्रव्य कहा जाता है / . यद्यपि साधु-साध्वियोंको धनादिकी आवश्यकता नहीं होती, अत: उन्हें धन समर्पित किया न जाय, जिससे वह गुरुद्रव्य बने, ऐसा प्रश्न ही नहीं ऊठता / परन्तु विक्रम आदि राजाओंने गुरुको धन समर्पित किया है और श्राद्धजीत कल्प (गाथा ६८)में ऐसे धनादिका उपभोग करनेवाले व्यक्तिको होनेवाले प्रायश्चित्तका जिक्र करते हुए, उस धनादिका 'गुरुद्रव्य में समावेश किया है, अत: उस धनादिको पूजार्ह * . गुरुद्रव्यके रूपमें निःसंकोच कहा जा सकता है / ऐसे द्रव्यका साक्षात् उपभोग गुरुदेव नहीं करते, अत: उसे भोगार्ह गुरुद्रव्य कहा नहीं जा सकता / Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार . तीसरा गुरुद्रव्य, लूंछन क्रिया-प्रयुक्त है / हाथमें धन रखकर उस हाथको तीन बार गुरु भगवंतके सामने गोलाकारमें (आवर्तरूपमें) घुमाएँ और बादमें चरणोंमें उस धनको समर्पित कर दे, उसे लूंछनरूप गुरुद्रव्य कहा जाता है / ___धनस्वरूपमें गुरुचरणोंमें रखे गये पूजार्ह गुरुद्रव्यका उपयोग कहाँ हो सके ? इस प्रश्नका जवाब यह है कि 'श्राद्धजितकल्प' गाथा 68 में ऐसे गुरुद्रव्यको चोरी करनेवाले के लिए जो प्रायश्चित्त बताया गया है, उसमें यह सूचित किया है कि ऐसे चोरे हुए धनको साधुओंकी वैयावच्च करनवाले वैद्यको वस्त्रादि दान रूपमें अर्पित करें अथवा बंदी के रूपमें गिरफ्तार हुए साधुकी मुक्तिके लिए खर्चे / यह पाठ स्पष्ट सूचित करता है कि पूजार्ह गुरुद्रव्यका उपयोग गुरु-वैयावच्च खातेमें हो सकता है। उपरान्त, द्रव्य-सप्ततिका' ग्रन्थमें इस द्रव्यका उपयोग, गौरवार्ह स्थानमें एवं जीर्णोद्धार तथा नव्य चैत्यकरणादिमें करने के लिए कहा है / साधु-साध्वी गौरवाह स्थानरूप है, अत: उपरान्त यहाँ आदि शब्दसे वैयावच्च खाता ऐसा समझें, क्योंकि वह गौरवाह स्थान है / यदि यहाँ, आदि' शब्दसे केवलं देवद्रव्य लिया जाय तो 'श्राद्धजित कल्प'के प्रायश्चित्त पाठके साथ विरोध उपस्थित हो। . उपरान्त विक्रमराजा आदिने गुरुचरणोंमें अर्पित द्रव्यका उपयोग जीर्णोद्धारमें या अन्य महात्माओं द्वारा साधारणके खातेमें या गरीबोंको ऋणमुक्त करानेके कार्यमें किया था, ऐसे अनेक शास्त्रपाठ हैं / उपरान्त आग्रामें उपाध्याय यशोविजयजी म० के चरणोमें समर्पित रूपयोंका उपयोग,शालाके बच्चोंको किताबें ला देनेमें करनेका आदेश दिया है / यदि गुरुद्रव्य केवल देवद्रव्यमें उपयुक्त बनता हो तो, ये द्रष्टान्त सुसंगत कैसे बन पाते ? इन सारी बातों से ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि गुरुद्रव्य, साधु-वैयावच्चों उपयुक्त हो, यही विहित है / उसे केवल देवद्रव्यमें ले जानेकी बात जीर्णोद्धारादिके द्रष्टान्तों से अत्र-तत्र चालू हुई हो, तो उसका कोई बाध नहीं; क्योंकि निम्नस्थानके द्रव्यका, उपरिस्थानमें आवश्यकतानुसार उपयोग किया जाय तो, उसमें शास्त्रबाध नहीं है। आज दोनों प्रकारके व्यवहार चलते हुए द्रष्टिगोचर होते हैं / कई समुदायके साधु गुरुद्रव्यको वैयावच्च खातेमें ले जाने को कहते हैं, जबकि कई साधु देवद्रव्य खातेमें लेना सूचित करते है / Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण 27 लूंछनपूर्वकका जो गुरुद्रव्य है, उसका समावेश साधु-वैयावच्चमें किया जाय, यह बात उपरके दोनों प्रकारके समुदायोंको सर्वमान्य है / लूंछनसे प्राप्त गुरुद्रव्य, पौषधशालाके निर्माणकार्यमें भी उपयोगमें लाया जा सकता है / साधु - साध्वी ( 4 ) (5) यहाँ साधु-साध्वीके रूपमें श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन साधु-साध्वीको समझें / उनकी वैयावच्च करनेमें इस खाते की रकमका उपयोग किया जा सकता सामान्यतः साधु-साध्वियोंकी इस प्रकारकी सारी वैयावच्च, श्रावकों द्वारा स्वयं और स्वद्रव्यसे करनी चाहिए, फिर भी आवश्यकता पड़ने पर साधुसाध्वियोंकी वैयावच्चमें, उनके स्वास्थ्यकी देखभाल रखने की सारी बातोंमें औषध, डाक्टर, जाँचनेकी.फीस, अनुपान, वृद्धावस्थामें डोली, डोलीवालेका वेतन, रहनेकी व्यवस्था आदि उनकी आवश्यक चीजें पातरा, ओघो, कपडे, कामली आदि, उपरके सभी कामोंमे इस खातेकी रकमका विनियोग किया जा सकता है / नहीं, कतिपय साध केवल मौजशौकके लिए विविध चीजोंकी अपेक्षा रखते हैं, ऐसी चीजें इस खातेकी रकममें से लायी न जायँ / इस खातेकी रकमको किसीभी प्रकारके गृहस्थोंकी बीमारी आदिमें उपयोगमें लायी नहीं जा सकती / अनाथाश्रम आदिमें इस रकमका दान श्री संघ कर नहीं सकता / ___ इस रकम पर पूरा अंकुश, श्रीसंघकी संचालन समिति का रहेगा / साधुलोग, उस रकमको अपने अधिकारमें ले नहीं सकते / उससे उनके पाँचवे व्रतको हानि पहुँचेगी / उपरान्त, अन्य भी कई दूषण पेदा हो सकते हैं / वैयावच्च खातेमें मिलनेवाली भेंटकी रकम, दीक्षार्थी भाईबहन के कपडे, आदि उपकरणोंकी उछामनी की रकम, गुरुचरणोंमें रखी जानेवाली रकम, महात्माओंको कामली वहोरानेके चढावेकी रकम आदि इस खातेमें जमा की जाय / ___ यद्यपि इस सारे गुरुद्रव्यको परंपरा आधार पर देवद्रव्यमें जमा करनेके लिए . कई लोग कहते हैं / उनके मतानुसार गुरुचरणोंमें रखी गयी रकम तथा महात्माओंको कामली वहोरानेके चढावे की रकम देवद्रव्यमें जमा की जाय; . लेकिन 'द्रव्यसप्ततिका' ग्रन्थमें सूचित गौरवार्ह स्थानमें वैयावच्चका समावेश होनेसे अथवा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 धार्मिक-वहीवट विचार गुरुद्रव्यका उपभोग करनेवालेको दिये जानेवाले प्रायश्रित्तविषयक श्राध्यजितकल्पके' पाठको देखते हुए सारी रकम साधु-वैयावच्चके खातेमें जमा करना शास्त्रसंमत मालूम होता है। साधु-वैयावच्च खातेमें जमा रकमका उपयोग, उपर निर्दिष्ट साधु-वैयावच्चके कार्योंमें किया जा सकता है / गुरुपूजनसे प्राप्त होनेवाली वैयावच्च खाते की रकममें से साधुके उदरमें जानेवाले पदार्थों की वैयावच्च न हो, ऐसा कई महात्माओंका मानना है / कई, कालधर्मकी उछामनीकी रकमको (खाने के सिवा का) गुरुवैयावच्चमें ले जाने का सूचन करते हैं / कभीकभार इस रकमका उपयोग जीवदया-के खातेमें किया गया है / इस विषयमें विशिष्ट गीतार्थ जो आदेश दें, उसे प्रमाणभूत समझे। . ___मुनिके कालधर्म समय बोली जानेवाली अग्निसंस्कारादिकी उछामनीकी रकम सर्वसंमतिसे गुरुमंदिरमें तथा जिनभक्तिमें ली जाती है / ___ आजकाल गुरुमंदिरोंके निर्माणके बाद प्रायः उनकी देखभाल कोई नहीं करता / अत: यदि गुरुमंदिर बनाना ही हो तो ऐसा निर्माण करें कि जिसमें उस कालधर्म प्राप्त महात्माकी प्रतिमा हो और उसके साथ विशाल खंड हो, जिसमें साधु निवास कर सके, प्रवचनादि दे सके / कतिपय संसारी मातापिता, अपने शिक्षित पुत्र या पुत्रीको वैयावच्चमें भविष्यमें तकलीफ न हो, माँगना न पडे, उसके लिए वैयावच्चका ट्रस्ट बनाते हैं / उसके व्याजका उपयोग वैयावच्चमें करनेकी सुविधा रखते हैं / यह उचित नहीं है / इससे उन दीक्षितोंको उनके वालीदोंके ट्रस्टके प्रति मोह पेदा होगा / मालिकी हक्क भोगनेकी भावना पेदा होगी / उससे क्लेश पैदा होगा / जैनसंघ हमेशाके लिए सबकी सेवामें लगा रहा है / अतः ऐसे व्यक्तिगत हितोंका विचार वालीदोंको नहीं करना चाहिए / गुरुचरणोंमें अर्पित द्रव्य, अपनेवाले आदमीको दिलानेकी प्रवृत्ति मुनियों के लिए इच्छनीय नहीं / इस रकमका संचालक श्रीसंघ है, उसे ही यह द्रव्य सौंप देना चाहिए / यही बात ज्ञानपूजन की रकम की है / अरे, किसी भी प्रकारकी उछामनीके बारेमें भी यही नियम लागू होता है / अर्थात् जो उछामनी जिस संघके निमित्त बोली गयी हो, जो दान जिस संघमें लिखाया गया हो, वह वहीं जमा कराना चाहिए। किसी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण भी उटपटांग दलील द्वारा अन्यत्र उस रकमको जमा कराना, यह अव्यवस्थाका मूल है / इसमें तो कभी कभी दाता स्वयं रकम जमा करानेमेंसे कतरा जायेगा, ऐसा संभव है / हाँ, यदि उस संघका संचालन शास्त्रशुद्ध न हो, तो उस समय गीतार्थ आचार्य भगवंतकी आज्ञानुसार कार्य करें / इसके अलावा अन्यत्र रकमका उपयोग करना, बिलकुल उचित नहीं है / घरदेरासरकी आमदनी भी, घरमालिक मात्र संघदेरासरमें - जिस संघमें स्वयं सदस्य हो उसी संघदेरासरमें दे दे वही उचित है / स्वयं उसका संचालन नहीं कर सकता / ___ आजकल तो कहीं कहीं नयी हवा चल रही है, कि लिखाया हुआ दान चाहे उतनी यादें दिलायी जायँ तो भी उस क्षेत्रमें दिया न जाय / इसी कारण ऐसी रकमों को निपटारा कर देना पडता है / भारतमें यह रोग वायरसकी तरह फैल पडा है / कहाँ वह मन्त्री पेथड, जिसने रकम जमा न हो, तब तक अन्न-जलका त्याग कर रखा था ! कहाँ आजकलके विपरीत बुद्धिवाले जीव ! कई लोग देरीसे रकम तो जमा करवाते हैं; लेकिन व्याज भरपाई नहीं करते / ऐसे लोगोंको व्याज भक्षण करनेका महादोष लगता है / पापभीरु आत्मालोग ऐसे दोषके भागी न बन पाये उसके लिए तत्काल- रकमकी घोषणा करने के बाद दो-चार घंटोमें ही रकम जमा करवा देते हैं। श्रावक-श्राविका (6 + 7) इन दो क्षेत्रोंको साधर्मिक क्षेत्र' ऐसे एक नाममें संलग्न करें / इस खातेमें भेंट स्वरूप आयी रकम अथवा शालिभद्र आदि बननेके चढावेकी रकमें, आरती उतारनेके लिए कुमारपाल आदि बननेवालेको तिलक करनेका चढावा (कुमारपाल आदि बनकर आरती उतारने का घी देवद्रव्य कहा जाता है / ) कुमारपालको आरती न उतारनी हो तो, वह द्रव्य साधारणमें जा सकता है / नूतनवर्ष आदि शुभदिनोंमें पेढी खोलनेका, मुनीम बननेका, या पहली पहुँच फाडनेका चढावा, प्रतिष्ठा आदिकी पत्रिकामें नाम लिखितंका नाम लिखानेका चढावा, मणिभद्रादिके भंडारमें भेंटरूप प्राप्त रकम (मणिभद्रकी प्रतिमा या गोख देवद्रव्यमें से निर्मित्त न हुए हों तो) दीक्षार्थीको तिलक करने की चढ़ावे की, दीक्षा की वरयात्रा के (बिना रथकी) विविध चढ़ावे, दीक्षार्थीको प्रथम वायणा करानेका या कामली आदि देनेके चढ़ावे, चतुर्थ व्रत या बारह व्रतधारीको तिलकके चढ़ावे आदिकी रकम साधर्मिक खातेमें एकत्र की जाय / Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 धार्मिक-वहीवट विचार . इस रकमका उपयोग श्रावक-श्राविकाओंकी भक्तिमें,उनकी विषम परिस्थितिमें सहायक बननेमें, उन्हें धर्ममें द्रढीभूत करनेमें किया जाय / ये अन्तिम दो खाते होने के कारण, पूर्वोक्त नियमानुसार, उपरके पाँचों क्षेत्रोंमें इन क्षेत्रोंकी रकमका उपयोग किया जाय / लेकिन दीनदुःखियोंकी अनुकंपामें या अबोल प्राणियोंकी जीवदयामें इस रकमका उपयोग किया नहीं जाता है / सामान्यतः जिस खातेका द्रव्य हो, उस द्रव्यको उपयोग उसी खातेके कामों में किया जाय वो उचित है, यहाँ, कभी आवश्यकता पड़ने पर उपरके खातेके कार्योंके लिए, नीचेकी खातेकी रकमका उपयोग (नीचे जरूरत न हो तब) किया जाय; लेकिन उपरकी रकमका उपयोग नीचेके लिए कभी न किया जाय / यद्यपि नवकारशी, पुष्प-चूनरी आदिके चढावे करनेके बाद भोजनसमारंभमें या आयंबील खातेमें सीरा-रोटे आदि शेष बचा हो तो, उसका उपयोग गरीबोंके लिए किया जाय / उसमें कोई दोष नहीं होता। इस क्षेत्रकी रकमका उपयोग पौषधशाला, आयंबीलखाता एवं पाठशालामें किया जा सकता है - क्योंकि इन तीन क्षेत्रोंमें श्रावक-श्राविकाओंकी, धर्मदान द्वारा भक्ति की जाती है / सात क्षेत्रोमें महत्त्वपूर्ण क्षेत्र श्राविका जैनधर्ममें सात क्षेत्ररूपी जैनधर्मकी संपत्ति बतायी गयी है / उनके नाम निम्नानुसार हैं : (1) जिनमूर्ति (2) जिनमंदिर (3) जिनागम (4) साधु (5) साध्वी (6) श्रावक (7) श्राविका. अपेक्षानुसार प्रत्येक उपर-उपरके क्षेत्र बढे-चढे हैं / परन्तु एक अपेक्षागत अत्यंत गौरवास्पद क्षेत्र है श्राविकाक्षेत्र, जो अन्तिमक्षेत्र है / यहाँ जिसे, श्राविका' के रूपमें पेश करना चाहता हूँ, वह या तो अनुपमा है, या मयणा है, या आर्यरक्षित, चाँगो, संप्रति आदिकी माता है / ऐसी जो श्राविका हो, उसके पर सातों क्षेत्रोंकी रखवालीका उत्तरदायित्व है / देखिए, जिनमूर्ति और जिनमंदिरके जो तीर्थंकरदेव है, उनकी जन्मदात्री त्रिशला वामा, शिवा या मरुदेवा आदि श्रेष्ठ श्राविकाएँ ही हैं न ! (उनके सिवा तमाम जिनेश्वरोंका इस भूलोक पर आगमन ही असंभवित होता / ) तीसरा जो जिनागम स्वरूप सम्यग्ज्ञान है, उसका सार जो मन्त्राधिराज नवकार Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण है, उसका पाठ सर्वप्रथम तो माता-श्राविका ही तमाम संतोनोंको पढाती हैं / उपरान्त, वही अपनी संतोनोंको आवश्यक सूत्रपाठ का ज्ञान कराती है (पूर्वकालमें) / वही साधु और साध्वी नामक दो खातोंकी उत्तम सेवा-शुश्रूषादि करती है / अपनी संतानोंको वही साधु या साध्वी स्वरूप दिलाती है / घरमें जो पुरुषगण है - पति या बच्चे - उन्हें, वही श्रावक या श्राविका बनाती है / कार्येषु मन्त्री' उस उक्ति अनुसार श्रावककी सही मार्गदर्शिका भी श्राविका ही जिनदास सेठकी आर्थिक स्थिति कमजोर हुई तब, उन्हें चोरी ही करनी हो तो, अमुक सेठके मालसामानकी चोरी करने जाना-चोरीके मालको उसके मालिक के घर ही अमानतके रूपमें रखना आदि तमाम काम कुंजदेवी श्राविकाने ही किया न था ? कितनी भारी सफलता उसमें प्राप्त की थी? माया कपटसे जिस श्रावक-कन्याके साथ बौद्धधर्मी युवान शादी कर बैठा, उसके समुचे परिवारको श्रावक बनानेकी कठिन कार्यवाही उस श्राविकावधूने ही पार उतारी थी। संताने स्वच्छंदी बनीं और चलचित्रोंकी आदी बनी तो अठुमकी सजा भुगतकर माता-श्राविकाने उन्हें उन्मार्गगामी होनेसे बचा ली थीं / ... मेडकोंकी कत्ल करके डाक्टर बनने चले पुत्रको गरीब श्राविका-माताने . चुनौतीके साथ कहा "आटा पीसकर कडी महेनत कर बेटा ! तुझे पढाया है / खिलापीलाकर बड़ा किया है, अब भी तेरी माताके बाहुमें बल है और हृदयमें हिंमत है कि आजीवन तुझे खिलाऊंगी, लेकिन डाक्टरके हिंसाजनित व्यवसायमें तो नहीं ही जाने दूंगी'' पुत्रको इस चुनौतीके सामने झुकना ही पडा। . अरे, जिनशासन की महाश्राविका नागिलाको हमे कैसे भलें ? जिसने मनसे पतित हुए पति-साधुको घरमें प्रवेश करनेसे रोका था / उपदेश देकर गाँवकी सीमासे ही वापस लौटाकर भूतपूर्व पतिको जिनशासनके अभूतपूर्व मुनिवरमें परिवर्तित किया ! ___ जिनशासनको स्वीकृत श्राविकाने रत्रकंकण जैसे युगल स्वरूपमें अवतरित दो पुत्रोंको तालाबमें डूब जानेसे एक साथ गँवाये तो भी आँखोंमेंसे एक बूंद न उमड़ी / ललाट पर दो अंगुलियाँ रखकर केवल इतना ही कहकर मनके साथ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 धार्मिक-वहीवट विचार * समाधान कर लिया कि लेन-देन पूरी हुई, अब शोक किस बात का?' जगडूसाहकी पत्नीकी अद्भुत कथा कहूँ / एक बार कई सौदागरोंने अपने जहाजोंमें भरी-पडी मोमकी ईंटों सेठको मुफ्तके भावसे रख लेनेके लिए हठाग्रह किया / बात ऐसी थी कि ईंटोंका मालिक कोई सेठ था / इन ईंटोंको उसने भारतमें भेज दी और थोड़े समयमें ही परदेशमें उसका अवसान हो गया / नाविकोंके सर पर इन ईंटोका उत्तरदायित्त्व आ पड़ा, अतः उन्होंने दयालु सेठको ये सारी ईंटे दुराग्रह कर दे दी। माल घर आँगनमें उतरा / जगडूसाहकी पत्नी श्राविकाने मोमके बने इस हिंसक मालको घरमें रखनसे साफ इन्कार कर दिया / अतः उस मालको हवेली से बाहर ओटे पर रखा गया / पत्नी महाश्राविका थी / शेठ को ऐसे मालका स्वीकार करनेके उपलक्ष्यमें कठोर उपालंभ दिया / साथ ही साथ अबोलव्रत धारण किया / चौमासेके चार मास गुजर गये / फागुन आइ / ग्रीष्म शुरू हुआ / असह्य गरमीके कारण, मोमकी दिखायी पडनेवाली सारी ईंटोंके मोम बना उपली स्तर (प्लास्टर) पीघला / तमाम ईंटें सोनेकी थी / सर्वत्र समाचार फैल. गये / श्राविकाने अबोलव्रत छोडा / सेठको कंसारका मिष्ट भोजन कराया ।मुनियोंको सेठ वहोरने ले गये / पनिहारी स्त्रीके सिर पर पानी के लगातार दो-तीन मटके होने पर भी वह सावधान रहती है / आनंदघनजीने एक स्थान पर कहा है कि - 'चितडं गागरीयामांय' जिनशासनकी श्राविकाके सर पर जिनमूर्ति, जिनमंदिर आदि सात खातोंकी छः गगरियाँ हैं / यदि श्राविका जरा भी असावधानी, बरते-मनसे जरा भी बुराई सोचे या तनसे गलत काम कर बैठे तो उसके सर पर रही सारी गगरियाँ हिलडोल उठे / कुछ गगरिया गिर भी पडे / 'श्राविका' यदि पूरे अर्थमें घरकी श्राविका बनी रहे तो हर घरमें प्रकाश लहर उठे, पश्चिमका अंधकार घरके किसी भी कोनेमें घुस न पाये / पश्चिमकी माता और भारतीय प्रजाकी मातामें उत्तर-दक्षिण ध्रुव-सा अन्तर है / पश्चिमकी माता तुरतके जन्मे बच्चेको बारह घंटेके बाद अलगसे कमरेमें सुलाती है / चाहे उतना रोने पर भी साथ में नहीं रखती / माँ-बापसे अलग रहनेकी तालीम उसे बारह घंटोके बाद शुरुसे ही दी जाती है / / Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 चौदह क्षेत्रोंका विवरण भारत की माता इतनी कठोर नहीं बन पाती / हाँ, नौकरी पर जाते समय, बच्चे-बच्चीको पालना घर' (घोडियाघर)में या नौकरानियों के पास तो जरूर छोड जाती है। भारतीय प्रजाकी माँ और जिनशासनकी श्राविका स्वरूप माँमें और ज्यादा अन्तर है। जिनशासन की श्राविका माँ संतानको गोदमें उठाकर सुबह जिनालय दर्शनार्थ लेकर जाती है / दोपहर साध्वीजियाँ से मिलती है / बच्चेका जीवनको धर्मके संस्कारोंसे समृद्ध-संपन्न बनाने के काम बचपन से ही करती है / माँ, (बाप) मित्र और शिक्षक पर तो हमारे चारित्रगठनका मुख्य आधार रहा पवनंजयको, मित्र प्रहसितने गलत निर्णय करनेसे रोका था / पिता चणकने, पुत्र चाणक्यको राजा होनेसे रोकनेके लिए (राजेश्वरी अर्थात् नरकेश्वरी ऐसी समझसे) राजलक्ष्मी देनेवाले दाँतको, लोहके साधनसे घिस डाला था। हिटलरके वामन शिक्षकने, हिटलरके दिमागमें यहूदियोंके संहारक बननेका विषबीज बचपनसे ही बो दिया था / इसी कारण हिटलरने अपने आयुष्यकालमें 60 लाख यहूदियोंकी कत्ल करवा दी थी। क्षीरकदंबक पाठकको पता चला कि अपना पुत्र-जिसका वह स्वयं शिक्षक भी है-नरकगतिमें जानेवाला है / उसे संसारके प्रति वैराग्यभाव उत्पन्न हुआ और उसने उसी समय संन्यास ले लिया / पुत्रको शराब पीनेका या मांसाहार करनेका सिखानेवाली माँ भी कई हैं; लेकिन ऐसी माँको माँ नहीं कही जाती / फिर श्राविका तो कैसे करें ? .. पिता-श्रावक के बारेमें भी यही समझे / / पुत्रने देरासर जानेका- थोडा दगा होनेसे छोड दिया / पिता चुस्त श्रावक थे। उन्हें आघात लगा / मृत्युशय्या पर पडा / अन्तिम दिवस ! अन्तिम घंटा ! पुत्रका हृदयपरिवर्तन हुआ / पिताका मोत मधुर बन गया / उद्धार हो गया / ___ अजैनोंमें योगराजका प्रसंग आता है / पुत्रोंकी गलतियोंके कारण, पिता ... योगराजको चिता पर सोकर अग्निस्नान करना पड़ा / चाँपराजवाले लुटेरेका प्रसंग याद आ रहा है / वह छोटा था तब उसकी माता - के साथ, उसके पिताने दोपहरके समय कामुकतापूर्ण छेडछाड की थी / माताने था.व.-३ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 'धार्मिक-वहीवट विचार महसूस किया कि इस छेडछाडको बेटेने देख ली है / हाय ! वह कैसा कामी बनेगा / इस कल्पनासे माताने जीभ कुचलकर आत्महत्या की / इडरनरेशने युवराजसे कहा - 'तुमने प्रजाकी एक बच्ची पर बलात्कार किया है / तुम्हें सजाके रूपमें जहरका कटोरा पीना पड़ेगा / यदि तुम उसके लिए तैयार नहीं हो तो तुम्हारा पिता इस कटोरेको पी जायेगा / ' बेटेने कटोरा पी लिया / कैसे महान पिता थे ! श्रावक-श्राविका (6) + (7) . श्रावक-श्राविका खातेको साधार्मिक खाता कह सकते हैं / इस क्षेत्रमें भेंटमें मिलनेवाली रकम दीक्षार्थीको अन्तिम तिलककर वर्षीदानकी वरयात्राके चढानेवाली बोली की रकम, उपधाननी माला पहननेवाले भाईबहनोंको तिलक करने की बोलीकी रकम, जिनभक्ति महोत्सवकी पत्रिकामें आमंत्रककी बोलीकी रकम, माणिभद्रादि देवोके भंडारकी रकम (मणिभद्रकी प्रतिमा या गोखलादि देवद्रव्यमेंसे निर्मित न हुआ हो तो), साधारण खाते की वार्षिक 360 तिथि-योजनाकी रकम, नूतनवर्षके दिन संघकी मंजूषाका ताला खोलना, उस दिन मुनीम बनना, उस दिन मुनीमको टीका करना, कामली ओढाना, पेढीमें काजा निकालना पहले दानकी पहुँच फाडना, दीक्षार्थी (बिना रथकी) की वरयात्राकी उछामनियाँकी रकम, कुमारपालकी आरतीका लाभ लेनेवालेको तिलक करने की बोलीकी रकम, शालिभद्रादिके कथागीतोंमें शालिभद्र, भद्रामाता, क्षेणिक महाराजा आदि बननेकी उछामनीकी रकम, दीक्षार्थीकी घडी, कंगन आदि आभूषणोंकी उछामनीसे प्राप्त रकम, शत्रुजय तीर्थके उद्धारक भरतचक्री, जावडशा, कर्माशाह आदि रूपमें वरयात्रामें बैठनेका लाभ प्राप्त करने की उछामनीकी रकम, उन्हें तिलक करनेके चढ़ावेकी रकम आदि इस खातेमें जमा की जाय / / इस खातेकी रकमका उपयोग दुःखी श्रावक-श्राविकाओं के लाभार्थ किया जाय / श्रावक-श्राविकाओंकी तमाम प्रकारकी सेवामें भी हो सके। सात क्षेत्रोंमें यह अन्तिम होनेसे, इस खातेकी रकमका उपयोग, उसके उपरी तमाम क्षेत्रोंमें किया जाय / नहीं, उसके नीचे के अनुकंपा, जीवदयाके खातोंमें न किया जाय / ऐसा महसस होता है कि पौषधशाला आयंबिलखाता और पाठशालामें भी इस खाते की रकमका उपयोग किया जाय / यदि उस रकमको केवल दु:खी श्रावक Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण श्राविकाओंके लिए ही मर्यादित न रखा हो तो / प्रत्येक संघको चाहिए कि वह साधारण खाता और शुभखाता अवश्य रखे / वे उसके लिए हितावह हैं / ___ साधारण अर्थात् उस खातेकी रकम केवल सात क्षेत्रोंमें ही उपयोगमें लायी जाय / उपरान्त आयंबील खातादि पाँच खाते भी श्रावक-श्राविकाके विभागमें समाविष्ट होते हैं, अतः उनमें भी उपयोग किया जा सकता है / __ जबकि शुभ खातेमें सातके साथ दूसरे- उपाश्रय, आयंबिल शाला, पाठशाला, अनुकंपा, जीवदया आदि सात खातोंका समावेश भी होता है / इस प्रकार चौदह खातोंमें इस रकमका उपयोग किया जाय / ___ इस शुभ खाते को (सर्वसाधारण) धार्मिक खाता भी कहा जा सकता है / अत: लग्नादिकी बाडी, गद्दे, बरतन आदिमें इस रकमका उपयोग किया नहीं जा सकता / स्कूल, कालिज, अस्पताल आदिमें भी दिया न जाय / क्योंकि वहाँका शिक्षण और तालीम आर्यावर्तकी संस्कृतिके भंजक हैं / आजका तथाकथित शिक्षण धर्महीन है / अस्पतालोंकी औषधियाँ-दवाइयाँ बहुधा पशुहिंसा, मानवहिंसा आदि पर आधारित हैं / महाहिंसा, महाअनर्थ आदिके पोषक कार्यों में दान करना शास्त्रनिषिद्ध है ।अत एव श्रावक लोग सूखा (दुष्काल) आदि विशेष कारणोंके अलावा, सामान्य संयोगोंमें वाव, कूओं, तालाब आदिके कार्य नहीं कर सकते / पौषधशाला (उपाश्रय) (8) . सात धार्मिक क्षेत्रोंका मिलाजुला एक क्षेत्र उसे साधारण क्षेत्र कहा जाता है। चौदह धार्मिक क्षेत्रोंका बना क्षेत्र शुभखाता(सर्वसाधारणक्षेत्र)के नाम प्रसिद्ध है जिसे धार्मिक खाता भी कहा जाता है / इसमें पूर्वोक्त जिनप्रतिमा आदि सात क्षेत्रोंका . समावेश होता. है : (8) पौषधशाला (उपाश्रय) (9) पाठशाला (10) आयंबिल खाता (11) कालकृत (12) निश्राकृत (13) अनुकंपा (14) जीवदया Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार . साधु-साध्वीजी भगवंतोंके निवासीके लिए विशेषरूपसे यदि कोई स्थल. बनाया जाय तो वह 'आधाकर्मी' स्थल कहा जाता है / जिसमें साधु-साध्वी लोग निवास करें तो आधाकर्मादिका दोष लगता है / विहारके मार्गमें तो ऐसे आधाकर्मी उपाश्रयोंके निर्माण होते है। उन्हें अनिवार्य अपवादरूपमें समझें / श्रावक-श्राविकाएँ अपने सामायिक, पौषध आदि करनेके लिए, जिस भवन का निर्माण करे, उसमें विहार निमित्त आये अथवा चातुर्मासकी भावनावाले साधुसाध्वीजी संघकी संमतिसे निवास करें / इस पौषधशालाके लिए तख्ती आदि योजना द्वारा जो दान प्राप्त हुआ हो, उसका उपयोग पौषधशालामें किया जाय / यदि दानकी रकममें बढावा होता हो तो अन्य पौषधशालामें भी उपयोग किया जाय / पौषधशालाके निभाव आदिमें भी उपयोग किया जाय / सात क्षेत्र रूप साधारणमें भी किया जाय / उस पौषधशालाकी पाट, फोटो आदिको उस पौषधशालाके ही एक भागरूप समझकर, उसके निमित्त प्राप्त दान या चढावे की रकमके बढावे का उपयोग पौषधशालामें किया जाय। / श्रावक-श्राविकाएँ, अपनी सामायिक, पौषधादि धार्मिक, प्रवृत्तियोंके लिए, जिस मकानका निर्माण करे, उसे 'पौषधशाला' कहते हैं / सामान्य रूपसे वह स्थान देरासरके समीप (उप) होता है / पौषधशालाको उपाश्रय भी कहा जाता है / श्रावकोंकी अनुज्ञा लेकर ऐसे स्थानोंमें संसारत्यागी विहार करते करते निवास करते हैं / विनंती करने पर, अनुकूलता हो तो चातुर्मास भी करते हैं / ___ इस स्थानको खास साधु-साध्वीजियोंके लिए ही बनाया जाय तो वह गोचरीकी तरह आधाकर्मी बनकर. वह स्थान, उनके उतरने के लिए बिलकुल अयोग्य बन जाय / कहीं देवद्रव्य लगाकर उपाश्रय बनाया जाता है / यह बहुत अनिच्छनीय है / पुण्यशाली मुनिलोग उपदेश देकर उस उपाश्रयके देवद्रव्यको रकम बजारू सूदके साथ वापस जमा करा देनी चाहिए / वे उसे नजरअंदाज नहीं कर सकते / ऐसे उपाश्रयमें यदि मुनियोंको निवास करना ही पडे तो उतने समयका किराया - जाहिरातके साथ - उस संघके देवद्रव्य खातेमें जमा कराना चाहिए / यदि वह संघ, उपाश्रय निमित्त उपयोगमें लाये गये देवद्रव्यकी, रकमको जमा न करवा पाये तो वह मुनि अन्य सुखी-संपन्न लोंगो से अपील करें / तख्तीयोजना, फोटो-योजना आदि उचित मार्गदर्शन देकर उपाश्रयको देवद्रव्यसे मुक्त करना चाहिए। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण 37 ऐसे समय जमा करानेकी देवद्रव्यकी कुल रकम कितनी निश्चित करें, तन्निमित्त विविध मार्गोंकी जानकारी पुण्यशाली महात्माओंको होनी चाहिए / उसमें संघशक्तिका भी ख्याल रखना चाहिए / अपनी गीतार्थताका कुशलसे उपयोग करके रकम निश्चित करनेका उसे पूरा अधिकार है / किसी भी तरह, बिना आत्मवंचना किये संघको जल्दसे जल्द देवद्रव्यके कर्जमेंसे मुक्त करना चाहिए / मान लें कि देवद्रव्यकी लेनी निकलनेवाली रकम का व्याज गिना जाय तो बहुत बड़ी रकम हो जाय / दूसरी ओर उस मकानकी वर्तमान किंमत आँकी जाय तो वह उतनी बडी न हो तो - दूसरा विकल्प अपनाकर गीतार्थताका उपयोग कर, उस उपाश्रयको कर्जमुक्त करना चाहिए / मानो कि अज्ञानके कारण, दो लाख रूपये देवद्रव्यके खातेमेंसे लेकर उसमें से उपाश्रय बनाया / उसे दस साल हो गये / व्याजके साथ अब उसकी किंमत आठ लाख हो गयी; लेकिन किंमतका अंदाजा निकालने पर उसकी किंमत पंद्रह लाखकी होती है / भले...., ऐसे समय क्या निर्णय करे, यह गीतार्थके हाथोंकी बात है / उस संघकी स्थिति आदिका विचार करना पड़े / उपरान्त, दस सालका घसाई खर्च (वर्षके पाँच प्रतिशतके अंदाज से) बाद कर, किंमत घट की जा सकती है / इस काम को पूरा करनेके लिए, उस स्थान पर, अधिक समय गुजारना पडे, * तो मुनिलोग वहाँ ठहर जायें / क्योंकि इस कार्यको करनेवाले मुनिलोग (निःस्पृही, निःस्वार्थी, निष्कामी) अधिकतम पुण्यानुबंधी पुण्यके साझेदार बनते हैं / ... उपाश्रय बाँधने के लिए तख्ती योजना आदि द्वारा प्राप्त होनेवाली भेंटकी रकम, * उपाश्रयकी पाट आदिकी नामकरणविधिकी रकम, उपाश्रयके उद्घाटनप्रसंग पर प्रमुख आदिको तिलक करनेके, श्रीफल देनेके इत्यादि चढावोंकी रकम, उपाश्रयके नीचे यदि दूकान निकाली गयीं हों तो उनके किरायेकी रकम इस खातेंमें जमा की जाय ।इस रकमका उपयोग उपाश्रयके बाँधकाममें एवं उपाश्रयमें आवश्यक कबाट'. आलमारी, टेबल, परात आदिकी खरीदीमें किया जाय / ___उपाश्रय आदि किसीभी प्रकार के मकानों के उपर मुख्य नामकरण योजनाका दान, पूरे बांधकाम के साठ प्रतिशत न्यूनातिन्यून रखना चाहिए / वह रकम बड़ी हो और दाता प्राप्त न होता हो, तो प्रतीक्षा की जाय / ऐसे धार्मिक बाँधकामोंका जो निर्वाह (नौकरको वेतन, गरखा, रीपेरींगकार्य आदि) करना होता है, उसका फंड भी तुरत ' बना देना चाहिए। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार - 'निर्वाह फंड प्रथम, बाँधकामखर्च फंड बादमें' इस सूत्रको जो कार्यान्वित करते हैं, वे कभी मुसीबतमें फँसते नहीं / कायमी आमदानी बनी रहे, उसके लिए उपाश्रयके मकानमें शादी, शादी निमित्त भोजनसमारंभ आदि सामाजिक कार्य (साधुलोग न हो, उस समयमें भी) नहीं करने चाहिए / इसके कारण, उपाश्रयमें उत्पन्न हुए पवित्र-शुभ आन्दोलनों (Waves)में बिखराव आ जाता है / यह ऐसा भारी नुकसान है कि उसके सामने वार्षिक दस-बीस हजार रूपयोंकी आमदनी किसी गिनतीमें नहीं / ____ आज भी स्वामी-वात्सल्य आदि धार्मिक भोजनसमारंभ शास्त्रीय नियमानुसारका -रात्रिभोजनत्याग, कंदमूल - अभक्ष्य भक्षण त्याग आदि - पालन करके हो सकते हैं / लेकिन लग्नादि निमित्त भोजनसमारंभ तो हो ही नहीं सकते / सालभरमें इनेगिने दिनोंमें दिल्हीके संसद गृहमें राजनीतिक कार्य होते हैं। वहाँ शेष दिनोंमें भारी आमदनी होनेकी संभावना होने पर भी लनादि कार्यों के लिए संसदगृह कभी किराये पर दिया नहीं जाता / हर बातको केवल रूपयों से तौलनी नहीं चाहिए / वस्तुका गौरव बना रहे, पवित्रता बनी रहे, यह भी एक बड़ा भारी धन ही है। - उपाश्रय बाँधकाम ऐसा होना चाहिए कि जिसमें संयमजीवनका पालन अच्छी तरह हो सके उपरान्त जीवदयाका कार्य भी हो सके उपरान्त आराधकोंकी समाधि भी व्यवस्थित हो पाये, जिसके कारण साधु-साध्विजीयोंके संयमी जीवनको जरा भी बाधा पहुँचे, ऐसा कुछ भी काम वहाँ न हो पाये / (इस विषयमें शहरी श्रावकों द्वारा भारी उपेक्षा की जा रही है / ) उदा० जीवजन्तु द्रष्टिगोचर हों ऐसे रंगकी टाइल्स बैठाई जाय / जमीन पर बैठनेवाले श्रोताओंको भी व्याख्यान-श्रवणादिके समय, पवनकी सुविधा मिलती रहे, उतनी नीची खिडकियाँ लगानी चाहिए / दीवारोमें ही आलमारियाँ लगायी जायँ, जिससे खंडमें अलग जगह रूकी न रहे / घड़े आदिको रखनेके लिए मालिये बनाये जायँ / प्रमार्जन कर सके ऐसा खिडकियाँ और दरवाजे बनाये जाय / (स्लाईडिंगखिसकनेवाली खिडकियाँ जडी न जायँ ) वाड़ा तहखानेमें बनाया जाय, उसके मैलेको विसर्जन करते समय, जिनशासनकी अवहेलना न हो, उसकी सावधानीके साथ अन्दर ही व्यवस्था की जाय ।आसपासके लोगोंको नाराजगी न हो ऐसे मातरं, पानी परठनेके लिए खूली जगहकी अनुकूलता हो / कुल बाँधकामकी आधी जगह, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण 39 पिछवाडेमें खुली छोड़ दी जाय, जो खुले वाडेके रूपमें उपयोगमें ली जा सके / वाडे रेत न बिछाई जाय, जिससे वहाँ जीवोंका उपद्रव हो न सके / मातरा परठनेकी जगहमें आठ-दस फूट गहरा गड्ढा बनाया जाय, जिसको ईंट-माटी-कोयला इत्यादिसे भर कर उपर रेती बछायी जाय, इससे 6' x 6' की छोटी जगहमें भी एकसाथ बीस बालटी जितना पानी आसानी से - जयनापूर्वक परठ सके / चौमासेमें कई न हो, घास उग न पाये, उसके लिए पहले से सावधानीपूर्वक बरते / दक्षिणपश्चिमका पवन चलता रहे ऐसी खिडकियाँ हों, जिससे स्वाध्यायी, तपस्वी साधुओंको सुविधा मिले / एकाध रूम-खंड गारमिट्टी से लिपा हो, जहाँ बीमार साधु रह सके / चारों ओर गृहस्थ लोगोंके घर ऐसे न आ पाये हों जहाँसे सब कुछ दिखाई पड़े / उपर-नीचे गृहस्थोंका निवास न हो, यह इच्छनीय है / दो से अधिक द्वार बाहर निकलने के लिए न हों / आवश्यकतानुसार ही रूम बनाये गये हों, बाकी बडे खंड हो / पंखों आदिका फिटींग न किया हो। बरसातके झोंकोंसे भीतरी जगह गिलीगिली न हो जाती है / लकडीमें दीमक न लगे, उसकी पहले से ही व्यवस्था की गयी हो / विजातीय (साधु या साध्वी) के लिए दूसरा उपाश्रय उपर या नीचे के मजले पर न हो तथा स्वतंत्ररूपमें अति निकटमें भी न हो, खिडकियाँ ऐसी बनी हों, जिससे उस ओर नजर तक न जाय / पाठशाला (9) .. बच्चों आदिको धार्मिक शिक्षा और संस्कारोंकी प्राप्ति हो, उसके लिए कई दशकोंसे पाठशालाएँ, चालू की गयी हैं / इस क्षेत्रको प्राप्त हुआ दान इसी क्षेत्रके लिए उपयोगमें लाया जाय / इस दानमेंसे पंडितजीको (जैनको भी) वेतन दिया जाय / बच्चोंके लिए धार्मिक पुस्तकें खरीदी जायें / उनको प्रोत्साहनके लिए प्रभावना आदि भी दी जाय / पूर्वे सूचित किया गया है वैसे ज्ञानखातेकी रकममें से पाठशालाका मकान खरीदा नहीं जा सकता और बच्चों के लिए किताबें भी खरीदी नहीं जा सकतीं / पाठशालाके मकानमें धार्मिक प्रवृत्तिके सिवा अन्य कोई प्रवृत्तिको स्थान न दिया . जाय / पहले तो घरकी संस्कारी और शिक्षित माँ ही पाठशाला थी / सभीको गाथाएँ देती / धार्मिक कथाएँ सुनाती / अपूर्व संस्कारसिंचन करती / उपरान्त, विशिष्ट Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार संस्कार एवं उच्चकक्षाके विशिष्ट अध्ययनके लिए साधु भगवंतोके पाससे भी शिक्षा ली जाती थी। अब वह बात गयीगुजरी बन गयी, इसी लिए पाठशालाएँ चालू हुई हैं / धार्मिक शिक्षक रूपमें व्यवसाय करनेके लिए, बहुत कम लोग तत्पर होते हैं / अतः ऐसा मालूम होता है कि दस सालके बाद, यह नैया डूब जाय तो कोई आश्चर्य न होगा ।इसी लिए तपोवनोंका आयोजन किया गया है / वहाँ धार्मिक शिक्षा एवं उत्तम संस्कारोंका सिंचन किया जा रहा है / लेकिन इसके संस्करणके लिए वालीदोंको विशेष रुचि न होने के कारण, तपोवनोंमें व्यावहारिक शिक्षण और अन्य कतिपय खेलकूद आदिके आकर्षण रखनेकी मजबूरी आ पड़ी है / जिससे बडी तादादमें बच्चे प्रवेश के लिए आ धमकते हैं / जिससे भावि पीढीको धार्मिक शिक्षा और संस्कार देने की महेच्छा शतशः पूर्ण हो रही है। ___पाठशालाके मकानके लिए प्राप्त दान, बच्चोंको प्रभावना द्वारा पढ़नेमें ज्यादा उतेजित करने के लिए प्राप्त रकम आदि पाठशाला खातेमें जमा हो / उसके निभावके लिए 360 तिथियोंकी योजना बनायी जा सकती है। प्रभावनाके जोरदार आकर्षणके सिवा पाठशालाएँ चल नहीं सकतीं / इसमें शिक्षकोंका भी गौरवपूर्ण बहुमान एव भारी वेतन-मंहगाई भत्थे के साथ सतत बढते हुए वेतन-का भी समावेश हो जाता है / यह अत्यंत आवश्यक है / बलवत्तर प्रभावना-रूपये स्वरूपमें, तीर्थादिकी यात्राके प्रवास स्वरूपमें, वस्तुओंकी भेंट रूपमें, यदि कुछ दिया जाय तो, टी.वी., वीडियो और स्कूल के लेसन-ट्यूशनके होमवर्ककी भी ऐसीतैसी कर बच्चे पाठशालामें पढनेके घंस आते ___ अन्यत्र भारी रकम खर्चनेके बदले इस क्षेत्रमें इसके निमित्त बड़ी रकमका दान करते रहनेके लिए सभी श्रीमंतोसे मेरी नम्र प्रार्थना है / पाठशाला खातेमें प्राप्त रकमका उपयोग पाठशालाके मकानमें, पुस्तकोंकी खरीदीमें, पंडितजीके वेतनमें, प्रभावनामें किया जा सकता है। पाठशालामें हमेशाके लिए बच्चे आते रहे, उसके लिए मध्यम वर्गके लोगोंको आकृष्ट करे, ऐसी योजना है / पढते हुए विद्यार्थियोंको बारहमासी नोट, कवर, बोलपेन, कलर बोक्ष, कंपास इत्यादि चीजोंका मुफ्त वितरण किया जाय / इससे भी कई बच्चे पाठशालामें घुसते रहेंगे और सम्यग्ज्ञान प्राप्त करेंगे। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण 49 आयंबिल खाता (10) वास्तवमें तो घरघरमें आयंलिब होते रहने चाहिए, जिसके कई लाभ हैं; लेकिन हालमें तो सैकडों आयंबिल खाते हो गये / खैर... इस निमित्त प्राप्त रकम, इसी खातेमें उपयोगमें लायी जाय / रकम भेंट स्वरूपमें प्राप्त हो या तिथि रूपमें प्राप्त हो सकती है / आयंबिल करनेवाले प्रत्येक भाई-बहन को यथाशक्ति अपनी ओरसे दान करना चाहिए। जैसे आधुनिक माताएँ पंचप्रतिक्रमणादिके प्रति रुचि नहीं रखतीं, अत: घरमें संतानोंके लिए पाठशालाएँ नहीं चला पाती / परिणामतः पाठशलाएँ जगह-जगह पर होने लगीं वैसे आयंबिलकी रसोई पकाकर आयंबिल करनेकी घरमें अनुकूलता नहीं रहती / उसके प्रत्याघात स्वरूपमें आयंबिल खाते उत्पन्ना-खड़े हुए / घरघर जब माता आदि आयंबिल करतीं, तब उसकी विविध सामग्रीको खाते खाते नन्हेंमुन्ने बच्चे भी आयंबिल करना सीख जाते / घर पर आयंबिल हो तो उबला हुआ पानी भी साधुओंको सहज रूपसे मिल पाता था / ___ अब यह सब आयंबिल खातेमें गया है / घरमेंसे आयंबिलके संस्कारों का लाभ नामशेष हो गया / पानीके लिए चले आनेवाले पूजनीय श्रमण-श्रमणीयोंके पुनीत कदम भी गये / कई बार आयंबिलखातेमें जो पानी उबलता है, वह कच्चा होता है / उसमें भी कच्चे पानीका स्पर्श और संबंध होता रहता है / नौकरशाहीमें घरकी श्राविका जैसी दिलचस्पीकी आशा-अपेक्षा नहीं रख सकते / कच्चे उबाले पानी के नित्यसेवनसे श्रमणसंस्थाके ललाटका संयमतेज कमजोर होने लगे तो उसमें आश्चर्य क्या ? 50-100 घरोंके गाँवोंमें ‘कायमी' आयंबिल खाते होते हैं / प्रतिदिन मुश्किल से दो-पाँच आयंबिल हो पाते हैं, लेकिन उसके लिए स्टाफ तो पूरा सज्ज रखना पडता है / इस प्रकार आयंबिलकी एक-एक थाली महंगी हो जाती है / उपरान्त देखभाल करनेवाला योग्य पात्र न हो तो बेहद चोरी, भ्रष्टाचार आदि भी होते मेरी द्रष्टिसे छोटे नगरोंमें चैत्र और आश्विन मासकी शाश्वती 'ओळी' के लिए मर्यादित ही सामूहिक आयंबिलका अनुष्ठान रखना चाहिए / आयंबिल खातेमें जो दान लिया जाय, उसे साधर्मिक भक्तिके खातेमें जमा किया जाय, केवल आयंबिल की सुविधाके लिए नहीं / अतः जिन जैनोंकी आर्थिक Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार स्थिति अतिशय गिरी हुई हो, उनकी साधर्मिक भक्ति आयंबिल खाते के अंदर की जा सकती है / आखिरमें बची-खुची रसोईमें थोडा बघार (छोंक) आदि कर, रोटि पर घी चुपडकर भी उनकी भक्ति की जा सकती है / इस प्रकार जीवनमें उपर उठकर करोडपति बने एक सज्जन, अपना अधिकधिकदान भारतभरके आयंबिल खातेमें और ओळियोंके आयंबिलके अनुष्ठानमें आजीवन देते थे / ___आयंबिल खातेको भेंटके रूपमें अथवा तिथि योजनासे दान प्राप्त होता है / उस रकमका उपयोग, आयंबिल खातेके मकानके निर्माणमें या जैनोंको आयंबिल करानेमें, उनके नौकरोंको वेतन देनेमें किया जाय / ' ___आयंबिल खातेके एक मात्र संकल्पसे प्राप्त रकमका उपयोग, अन्य किसी खातेके काममें नहीं किया जा सकता / यदि रकममें वृद्धि होती रहे तो अन्य स्थल पर चलते आयंबिल खातोंमें दे देनी चाहिए। .. कालकृत खाता (11) अक्षयतृतीया, पौषदशमी, संवत्सरी आदिके समय, तत्तत्समयानुसार पारणा आदि हो, उसके निमित्त प्राप्त दान या चढ़ावेकी रकम, इस खातेमें जमा हो / दाताके दानके उद्देश्यसे विरुद्ध कोई कार्य किया न जाय / ___ संभव हो तो ऐसी तिथियोंके दान को कायमी 'के रूपमें स्वीकारनेके बजाय, प्रतिवर्ष स्वीकार किया जाय तो उचित होगा / इससे बढ़ती हुई महँगाई के साथ मुकाबला किया जा सकें / कायमी बडी-भारी रकम बैंकमें रखनेसे उस रकमका हिंसादि कार्यो में होनेवाले घातक-विनाशक उपयोगको टाल न सके / जहाँ शक्य हो वहाँ हर जगह कायमी तिथि योजना टालनेकी कोशिष करें / ज्ञानपंचमी, पौषदसमी, अक्षयतृतीया, चतुर्दशीका पौषध, संवत्सरी पर्व आदि दिवसोंको (कालको) ध्यानमें रखकर, उसके पारणे, मिठाई का भार, प्रभावना, आंगी, पूजा आदिके लिए जिस रकमका दान मिले, या तिथिका अंकन किया जाय, उस रकमको इस खातेमें जमा ली जाय / दाता के उद्देश अनुसार उस रकमका उपयोग इसी खातेमें किया जाय, अन्यत्र कहीं नहीं / यदि एक-एक अलग वर्षकी तिथिके लिए ही रकम ली जाय तो बैंकमें कायमके लिए रकम जमाकर, उसके द्वारा हिंसक कार्य होनेके बड़े भारी दोष लगनेसे बचा जा सकता है / कायमी तिथिका दान लेनेसे इस दोषके भागी अवश्य बनते हैं / इस बीतको गौरसे सोच लें / Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण निश्राकृत खाता (12) स्वामीवात्सल्य, नवकारशी, पोसाती का भार आदिका निश्रा (आधार) लेकर जो रकम प्राप्त हो उसे इस खातेमें जमा की जाय / यहाँ बाकी सारी बातें कालकृत अनुसार समझी जायँ / उपधान, छ'री पालित संघ, स्वामीवात्सल्य, उजमना आदि विशिष्ट अनुष्ठानकी निश्रा लेकर दी जानेवाली रकम इस खातेमें जमा की जाय / इस रकमका उपयोग, दाताकी भावना के अनुसार ही, उसी कार्यमें किया जाय, अन्यत्र कहीं नहीं। यहाँ एक बातको प्रत्येक संघके व्यवस्थापकों-संचालनकोंको ध्यानमें रखनी होगी कि दाता जो अनुष्ठान कराना चाहता है, उसके खर्चकी पूरी रकम उन्हें देनी चाहिए / एक लाख रूपयोंका खर्च हो और पचास हजार रूपये ही दे / बाकी रकम की जिम्मेवारी संघके सर पर थोप दे / आधी रकममें अपना नाम उस अनुष्ठानके प्रणेताके रूपमें घोषित कराए., यह उचित नहीं है / यदि दाता शक्तिसंपन्न हो तो उसे पूरी रकम चूका देनी चाहिए / हाँ, यह शक्य है कि कम नकरा आदिसे अनुष्ठानके आयोजकका लाभ लिया हो तो उस रूपमें घोषणा कर ले सकता है / . इतना ही नहीं, लेकिन यदि छ'री पालित संघ निकालना चाहे तो अनुकंपा और जीवदया के लिए भी अलग रकमकी व्यवस्था करनी चाहिए / किसी भी धार्मिक अनुष्ठानके साथ, इन दो कार्यों को अवश्य करें / ऐसा होने पर अजैन भी जैनोंके धर्मकी भरपेट प्रशंसा-सराहना करेंगे / ऐसा होनेसे उनमें आगामी भवमें जैनधर्मकी प्राप्तिके बीजका निक्षेपण होगा / वर्तमान समयमें बी.सी.लोगोंके लिए सत्ता भुगतनेका समय आ पडा है, तब तो अठारहों वर्गोंकी अनुकंपाके आयोजन बारबार करना होगा / अन्यथा, धर्मानुष्ठानोंके ठाठमाटको देखकर वह वर्ग चौंक उठेगा / भयंकर शोरगुल मचायेगा / खतरनाक हमले करेगा / उनके दिल जीतनेका विचार श्रावक नहीं करेगा तो और कौन करेगा? . जिसमें स्त्री-पुरुष कई दिनों तक साथ साथ रहते हैं ऐसे उपधान या संघोंमें संचालक मर्यादापालनमें पूरे अनुशासन से काम ले / जिससे कोई अनिच्छनीय घटना घटित न हो। विधिका अपालन और सर्वत्र जयणा बिनाका धर्म, इसे धर्म नहीं कहते / Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार बहुतसी मुक्तियोंवाला धर्म फुगावा बन जाता है / उससे धर्मक्षेत्रकी लम्बाई-चौडाई बढ़ती मालूम होगी; लेकिन धर्मकी आधारभूत गहराई द्रष्टिगोचर न होगी। फुगावा अर्थात् शरीर पर जमा हुआ वृद्धिंगत मेद / उससे केवल तराजूका वजन बढता है, लेकिन शक्तिमें बढावा नहीं होता / शक्ति रक्तसे बढ़ती है / प्रस्तुतमें इस बात को समझें / अल्प लेकिन विधि, जयणावाला शुद्धधर्म ही बडा धर्म है। ___ पौने लीटर पानीसे मिश्रित पाँव लीटर दूधवाले, एक लीटर सफेद प्रवाहीकी अपेक्षा, शुद्ध दूध के पाँव लीटर प्रवाहीमें ज्यादा शक्ति रहती है / ____ यदि दाता पूरी उदारता को काममें लाना न चाहता हो तो उसकी धनमूर्छा उतारनेके लिए उपदेशक लोग पूरी कोशिश करें / अविधि, अनादर, संघ उपर अतिशय दबाव आदि द्वारा आरंभित तथाकथित धर्मानुष्ठानोंमें कोई तेज-प्रभाव दीख नहीं पड़ता / आखिरमें वह अशुद्धि कहीं न कहीं अवरोधक बनती है और उद्वेग, अशान्ति या निष्फलताकी निमित्त बनती है / श्रमणलोग भी, अक्षम्य अविधिसे पूर्ण अनुष्ठान करते रहकर, प्रतिष्ठाकी भूखमेंसे उत्पन्न होनेवाले मोहका त्याग करना होगा / ऐसे अनुष्ठानोंकी आमदनीमें श्रमणलोग कोई शर्ते या अपना हकहिस्सा न रखें / शर्त रखनेवाले श्रमणोंकी निश्रामें इन अनुष्ठानोंका आयोजन श्रावकोंको नहि करना चाहिए / अनुष्ठानोंकी पूरी सफलता केवल श्रावकोंकी उदारतासे प्राप्त नहीं होती; उसके सामने श्रमणोंका अत्यंत उच्च नि:स्पृहतापूर्ण चरित्रबल भी जुड़ा चाहिए / हाँ, उसमें यदि व्याख्यानशक्ति शामिल हो तो, वह अनुष्ठान अत्यन्त यशस्वी बन पाता है / स्वामीवात्सल्यमें अभक्ष्य, अपेयत्याग, रात्रिभोजनत्याग आदि नियमोंका बराबर पालन होना चाहिए / छरी पालित संघमें संघपतियोंसे लेकर तमाम यात्रीलोगोंको छ'रीपालन उचित ढंगसे करना चाहिए / __इस प्रकार प्रत्येक अनुष्ठान पूरी विधियुक्त और जयणायुक्त-शास्त्रनिर्दिष्ट होना चाहिए / यदि उटपुंटांग ढंगसे, धनिकोंकी युगवादी रीतरसमों से धर्मानुष्ठान होते रहेंगे तो, नयी पीढी के लोग, ऐसे उटपटांग अनुष्ठानोंको ही 'सही' धर्मानुष्ठान मानकर, उन्हींकी परंपरा चलायेंगे / ऐसा न हो उसके लिए अशास्त्रीय अनुष्ठानोंके आयोजनोको, संपूर्णतया शास्त्रीय बनाने के लिए गीतार्थ गुरुओंका अधिकाधिक प्रयत्न होना चाहिये / यदि वैसा संभव न हो तो, स्वयं वह अनुष्ठानमेंसे अलग हो जाय / Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण 45 - - अनुकंपा खाता (13) दीन, दुःखी अजैन लोगोंकी द्रव्यदया या भावदया करनेके लिए, जो रकम दान रूपमें प्राप्त हो, उसका उपयोग इस खातेमें किया जाय / अनुकंपाकी इस रकमको, उसके नीचेके जीवदयाके खातेमें उपयोगमें ली जाय, परन्तु अन्यत्र कहीं भी उपरके किसी खातेमें ली न जाय / जैन साधर्मिक, भक्तिके पात्र कहे जाते हैं / जबकि अजैन अनुकंपाके पात्र कहे जाते हैं / भक्तिके पात्र जीवकी अनुकंपा की न जाय, अनुकंपाके पात्र जीवकी, भक्ति की न जाय / ___अजैन पंडितों आदिकी अनुकंपा की न जाय, भक्ति भी न हो, परंतु औचित्य किया जाय, वह यथायोग्य किया जाय, पुरस्कार भी दिया जाय / प्रत्येक स्थान पर शुभ अनुबंधका विचार करे / यदि उसमें समावेश होता हो तभी अनुकंपा या भक्ति करनी चाहिए / अन्यथा विवश होकर औचित्यपूर्वक काम निपटाना चाहिए / वर्तमान अस्पताल और स्कूल, तन-मनको बरबाद करनेवाले हैं। वहाँ गर्भाधान और गर्भपात भी होते हैं / वहाँ विकृतियाँका-अण्डे, मछलियोंके प्रोटिन, विटामिनों आदि-शिक्षण दिया जाता है / उनका बाजार तैयार किया जाता है / वहाँ धर्मका तो स्थान ही नहीं / दीनदुःखी अजैनोंके प्रति करुणा बताना वह अनुकंपा है / जैन धर्मने अनुकंपा-दानका कहीं निषेध नहीं किया / मरणासन्न कसाईकी भी यदी संभव हो तो अनुकंपा करें, जीवित होकर वह पशुओंकी कत्ल करेगा, अत: मरने दो, ऐसी कल्पना तक जैन नहीं कर सकता ।उसे जीवीत रखकर-उपकारके भार नीचे दबनेके बाद उस व्यवसायको छोडने के लिए समझा सकते हैं। . वर्तमानकालमें मानवसर्जित गरीबी बडी मात्रामें फैली हुई है / आसमान फट पड़ा है / कितनोंके प्रति अनुकंपा करेंगें ? एसा न सोचें, डूबते पचास आदमियोंमेंसे, तैराक जितनोंको बचा पाये उतना लाभ ही है, सभीको तो बचा नहीं पाते / अनुकंपा दूसरेको बचाने की अपेक्षा अपने 'करुणा' नामक गुणको बचानेके लिए करनी है / एक स्थान पर भी ऐसी करूणा की जायेगी तो विकसित वह गुण गर्भपात, . लग्नविच्छेद, नौकरोंका शोषण, माता-पिता को त्रास आदि दोषोंका सेवन होनेसे बचा पायेगा। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार गुण-हिंसा तो सबसे बढी हिंसा है / छोटीसी भी प्राणिदया गुणहिंसाको रोकती है / ये प्राणदयाका नक्कर फायदा है / जैनधर्मके किसी भी धार्मिक अनुष्ठानमें अनुकंपा शामिल होनी चाहिए / जिससे अजैन लोगोंको भी जैन धर्मके प्रति मान पैदा होता है / जैनधर्म की प्रशंसा, उन्हें आगामी भवमें जैनकुलमें जन्मदात्री सिद्ध होती है / इस प्रकार बिना धर्मपरिवर्तन कराये, जैनोंकी संख्या वृद्धि होती रहेती है / . कुल खर्चके हिसाबमेंसे अनुकंपाके लिए योग्य रकम निर्धारित * करनी चाहिए / जैन धर्मकी निन्दा न हो, उसके लिए भी जैनलोगोंको अपना औचित्य समझकर, अनुकंपाके कार्य करते रहना चाहिए / गरीबोंके लिए गरमीमें छाशकेन्द्र, जाडे में कम्बलवितरण पोलियो केम्प, जयपुर फूट केम्प, नेत्रयज्ञ, खिचडी घर, सस्ते अनाजकी दूकानें, मुफ्त अन्नवितरण, स्कूलकी पुस्तकोंका वितरण, मुफ्तमें गृहदान, धंधा रोजगारकी व्यवस्था, त्योहारके दिनोंमें मिष्टान्न भोजन अथवा अनाथाश्रम आदिमें भोजनदान आदि बहुत अनुकंपा कार्य किये जा सकते हैं। बेशक गरीबीके कारणोंको ही दूर करना, यह सबसे बड़ी और सही अनुकंपा है / उपर्युक्त अनुकंपा तो, गरीबी के कारणोंको दूर करने के प्रति उपेक्षावाली हो तो केवल मलमपट्टी जैसी है / फिर भी उस बातको मनमें जीवित रख कर अनुकंपा करें, क्योंकि स्थूलबुद्धिके जीव तो तत्काल दया की अपेक्षा-आशा रखते हैं / अत: उसके सिवा कोई चारा नहीं रहता / अन्यथा शक्तिमान जैनोंको तो गरीबी, बेकारी, बीमारी और महेंगाईके कारणरूप यन्त्रवाद, मेकोलेशिक्षण, हुंडियामणकी लालच आदिको दूर करने के लिए प्रयत्न करने चाहिए / इन बातोंने समग्र भारतीय प्रजाको बीमार, बिस्मार, भिखारी, बरबाद और सत्त्वहीन बना दीया है / ये बातें यादि दर न की जायँ तो गरीबों को अन्नदान, औषधदान, धनदान आदि हास्यास्पद बन जाती हैं / फिर भी इसके करनेके सिवा और कोई चारा नहीं है / अतः कुवृष्टिन्यायानुसार भी इस कामको करें / अन्यथा जैन धर्मकी भारी निंदा होगी / ज्ञानी लोगोंने इस निंदाको भारी पाप बताया है / फौडेके दर्दीके लिये दोनों काम किये जायँ / फोडों पर मलमपट्टी लगायी जाय, साथ ही भीतरमें उपद्रव करनेवाले रक्तविकारको जडमूलसे दूर करना चाहिए / दीनदुःखीयोंके प्रति अनुकंपा, द्रव्य अनुकंपा हो सकती है और भाव अनुकंपा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 चौदह क्षेत्रोंका विवरण भी हो सकती है / भाव अनुकंपा लक्षके साथ की जानेवाली द्रव्य अनुकंपा निःशंक श्रेष्ठ मानी जाती है / फिर भी, अकेली द्रव्यानुकंपा ही हो पाती हों तो औचित्यनिमित्त उसे भी करें / जिनशासनकी अवहेलनाके निवारणार्थ भी कभी कभी द्रव्य अनुकंपा करनी पडती है / फिर भी महा-समारंभको उत्पन्न करनेवाली अनुकंपा तो 'औचित्य से भी हो नहीं सकती / अनुकंपाके कार्यों के लिए जो रकम प्राप्त हो, उसे इस खातेमें जमा की जाय / दीनदुःखी लोगोंके लिए इस रकमका उपयोग किया जाय / उनके दुःख दूर किया जायँ / संभव हो तो उनके व्यसनादि दोषोंको भी दूर करानेका लाभ लें / उन्हें धार्मिक भी बनाएँ। ऐसी दया तब न की जाय, कि जिसके परिणाम स्वरूप भारी निर्दयता उत्पन्न होती हो, संस्कृतिका सर्वनाश होता हो, अनेकोंको हानि पहुँचती हो / अतः अनुकंपाका कार्य दुधारी तलवार जैसा है / कभी अनुकंपाकी बुद्धिसे अनुकंपाके नाम पर गर्भपातादि हिंसक प्रवृत्तिओंका पोषण किया जाय तो बड़े कर्मबंध होनेकी संभावना उपस्थित होती है / अस्तु / ___ वर्तमान समयमें धार्मिकताके साथ मानवताको (और राष्ट्रीयताको) भी प्रशिक्षित करनेकी आवश्यकता है / प्रत्येक मानवतावादी धार्मिकतापूर्ण होना चाहिए / प्रत्येक धार्मिक मानवतासे भरापूरा होना चाहिए; नहीं तो भरबाजारमें उसकी धार्मिकताको निन्दा हुए बिना नहीं रहेती / ___ 'कल्पसूत्र सुबोधिका की टीकामें कहा है कि "धर्म तो नदीतट पर उत्पन्न पौधे जैसा है / यदी नदीमें अनुकंपारुपी जल ही सूख गया हो तो, वे पौधे कहां तक टिके रहेंगे?" श्रमण भगवान महावीरदेवकी जैसी करुणाका सभीको स्पर्श होना चाहिए / उन्होंने गरीब विप्रको कैसा वस्त्रदान किया था और संगमदेवको कैसा अश्रुदान किया था ? _ 'अनुकंपा यह धर्म नहीं' - ऐसे भ्रममें धर्मी लोग फँस न जायें, उसके लिए प्रत्येक तारक तीर्थंकरदेवके आत्मा, दीक्षाग्रहण करने से पूर्व एक वर्ष तक रोज अपार दान, दीनदुःखियोंको करते हैं / Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार जीवदया खाता (14) मूक प्राणियोंको कत्लमेंसे बचानेके कामसे लेकर उन्हें चारा देने तकके कार्य तथा उनकी रक्षा के लिए उठाये जानेवाले आन्दोलन या प्रचारकार्य तथा उनके लाभार्थ किये जानेवाले अदालती मुकद्दमे आदि जीवदयाके कार्य माने जायँ / पशुओंको मरणान्त कष्टमेंसे बचाने रूप अभयदानमें जीवदयाकी रकमका उपयोग होता था, परन्तु अब तो उपर निर्दिष्ट कार्योंको भी प्रधानता दी जाय, यह देशकाल अनुसार अधिक आवश्यक मालूम होता है / बैंकोंमें जमा होनेवाली रकम, हिंसक कार्यों में ही खर्ची जाती है, अतः यथासंभव कायमी तिथियोजनाका अमल न करें / उपरान्त जीव मरते हों या चारा इत्यादिके अभावमें बिलखते हों तब जीवदयाकी पूंजी बैंकमें रखी न जाय / उससे उन जीवोंकी उपेक्षाजनित हिंसाका पाप लगता है / अत: जीवदयाकी रकम एक दिन के लिए भी बैंकमें जमा रखना उचित नहीं / जहाँ आवश्यक हो, पांजरापोल आदिमें तुरंत भिजवा देनी चाहिए / उस रकमको बैंकमें कायम रखकर उसके व्याजमेंसे जीवदयाका कार्य करनेकी भावनावाले लोग, जैनधर्मके तत्त्वोंकी पूरी-सही पहचान नहीं कर पाये, ऐसा मानना होगा / तो शक्य हो तो कायमी रकम रखकर, व्याज, सूदका उपयोग करनेकी शर्त पर, दान देनेके बजाय तात्कालिक खर्च हो जाय उस प्रकार दान करनेका विवेक करना चाहिए / लेकिन कहीं संयोगवश इस शर्त पर कोई बड़ी रकम दे, तो उस प्रकार भी कार्य करें / __मूक पशु-पक्षी आदिके प्रति जो दया, उसे जीवदया कहते हैं / इस खातेमें भेंट स्वरूप प्राप्त रकम यहाँ जमा कि जाय और उसका खर्च जीवदयाके कार्यों में, उसके आवश्यक मकानों के निर्माण आदिमें किया जाय / जीवदयाका सबसे बड़ा काम, ऐसे जीवोंको अभयदान होनेसे, सामान्यतः जीवोंको कत्लखानेसे छुडानेकी ओर सभी लोगोंका ध्यान ज्यादा होता है / यह बात सही है / लेकिन इसके साथ पांजरापोलोंके प्रति भी ध्यान दिया जाय / हाँ, पांजरापोल, महाजनोंकी सीधी देखभालके नीचे रहे; नौकरशाहीको सोंपी जाय तो जीव अधभूखे रहकर तडप-तडपकर मर जायें / इन पांजरापोल संस्थानोंके पीछे सबसे बडा भयस्थान यह है / यह संस्था हमेशा पैसे खानेवाली-खर्चीली संस्था Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंका विवरण है / वह कभी आमदनी करने-करानेवाली संस्था नहीं है / अतः प्रतिदिन खर्चके लिए हजारों रूपये तैयार रखने पडते हैं / संनिष्ठ कार्यकर भी, फंड एकत्र करते करते थक जायँ / इसी कारण जानवरोंको कम चारा देने पर वे भूखे रहकर आखिर मृत्युके शरण होते हैं / ऐसा न हो उसकी सावधानी कार्यवाहकोंको रखनी चाहिए / __पांजरापोलमें आमदनी हो, उसके लिए दूधार गायोंकी गौशाला बनाने की इच्छा संचालक कभी न करें / ऐसा होने पर भेड-बकरियाँ, भंड, हिरन, साँप आदिकी रक्षा करनेकी संपूर्णतया उपेक्षा होगी / जैनोंका महाजन ऐसा पक्षीय विचार कभी न करें / अलग गौशाला खोलनी हो तो बात अलग है / ___इतना शक्य होगा कि पांजरापोलों के पास यदि फाजिल जमीन हो तो उसका बीड हो सकता है / उसमें घासचारका उत्पादन किया जाय, जिससे होनेवाली आमदनीसे पांजरापोलको निभानेमें खूब उपयोगी सिद्ध हो / शायद हमेशाके लिए पांजरापोल स्वावलंबी बन जाय / / बीमार होनेवाले जानवरोंके लिए, प्रत्येक पांजरापोलके पास पशु-डाक्टर होना अत्यंत आवश्यक है / जानवरोंकी अच्छीसे अच्छी चिकित्साका ज्ञान उसे होना जरूरी है। कमजोर जानवर जैसे तगडे होते जाय वैसे बोन्ड लेकर पूर्णतया विश्वासके साथ अच्छे किसानोंको उन्हें सौंप दिये जायँ, तो उतनी जिम्मेवारी कम हो और नये जानवरको लेनेकी क्षमता भी प्राप्त हो / . भारत सरकार ऐसी पांजरापोलको लंबे अरसे तक सहायता देकर जीने देगी या नहीं? यह समस्या है / महाजनोंके अलावा, यह उत्तरदायित्व निभाना किसी के लिए भी संभव नहीं। ___अल्पसंख्यक जैनकौम, भारतकी सुखीसंपन्न कौम है तो उसके दो कारण हैं.। पांजरापोलोंमें नि:स्वार्थभावसे प्राणीरक्षा और मंदिर-मंदिरमें भारी संख्यामें जिनेश्वर देवकी पूंजा। जीवदया, जिनशासनकी कुलदेवी है / अनुकंपाकी रकममें वृद्धि हो तो, उसका उपयोग जीवदयामें किया जाय, लेकिन जीवदया रकम अनुकंपामें उपयुक्त नहीं हो सकती; क्योंकि 'मानव' बड़ा है / जानवर साधारण है / छोटोंकी रक्ष बडोंको करनी चाहिए / जो धार्मिक द्रव्यका संचालक बने, उसे इन सभी बातोंका गहराई से अभ्यास करना चाहिए। बा.व.-४ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार 2000000000000000000000000000000000000000000 सामान्य सूचनाएं (3) (1) हमने देखा कि धार्मिक द्रव्यके कुल चौदह क्षेत्र हैं / इसके उपरान्त जो भी संस्था या जो भी प्रवृत्ति साक्षात् या परंपरया धर्मको या धर्म संस्कृति को द्रढ़ीभूत करनेका काम करती हो, उसे भी धार्मिक क्षेत्रमें मानी जाय / उससे विरुद्ध यह भी समझें कि कामचलाऊं रूपमें जिसा प्रवृत्तिमें अनुकंपा या धर्म दीख पडता हो, परंतु उसके परिणाममें बडा भारी अहित होता हुआ द्रष्टिगोचर होता हो तो वैसी प्रवृत्तिको 'धार्मिक' मानी न जाय / फिर भी यदि वैसी प्रवृत्तिमें धर्मप्रेमी जीव दान न करें तो लोगोंमें जैनधर्मकी निंदा होनेकी भारी संभावना उपस्थित होनेकी स्थिति हो तो, उस निंदाके निवारणके लिए औचित्य समझकर, उसमें रकम जमा करा दे / यथाशक्य इस बातको स्पष्ट भी करें / वर्तमान युगमें ऐसी कई सारी प्रवृत्तियाँ चलती हैं, जिनमें मानवसेवाका विज्ञापन किया जाता है / परन्तु सारी प्रवृत्तियाँ लंबे अरसेमें समुची मानवजातिको नुकसान पहुँचाती हैं / आर्यसंस्कृतिके मूलभूत तत्त्वों पर कुठारघात करती है / प्रजाकीय जीवनपद्धतिको तहस-नहस करनेवाली होती है / धर्मप्रेमी जीवोंको कभी-कुवृष्टि न्याय-पागल के साथ पागल बनकर-स्वरक्षा, धर्मरक्षा आदि करनेके रूपमें सहारा लेना पडता है / कभी अनिच्छनीय-अनिवार्य ऐसे अधर्मोंका सेवन करनेसे ही यदि धर्म या संस्कृति टिकते हो तो वैसा भी करना पडता है / ऐसे समय धर्मप्रेमी जीवोंको, ऐसे तत्त्वको अनिवार्य अनिष्ट समझकर निभाना या विस्तृत करना पडाता है / ऐसी बातोंको बराबर समझनेके लिए धर्मप्रेमी लोगोंको, कहीं भी दान करनेसे पहले, गीतार्थ गुरुका मार्गदर्शन लेना आवश्यक है, जिससे कहीं गलतकार्य न हो। (2) यदि संभव हो तो देरासर, पौषधशाला आदि जो भी निर्माणकार्य करने हों, या उबले पानी, आंगी आदिकी तिथियाँ लिखानी हो, वे तमाम-शुभ (सर्वसाधारण) खातेमें लिखानेकी बात दाताके पास रखें और विज्ञापित करें कि, "आप अपना दान शुभ (सर्वसाधारण) खातेमें दें। हम आपकी भावनाके अनुसार काम करेंगे; लेकिन उस कामके पूरे होनेके बाद, जो रकम बचेगी, उसे हम शुभ (सर्वसाधारण) खातेमें जमा रखकर - जब जिस धार्मिक खातेमें आवश्यक हो, वहाँ उपयोग करेंगे / यदि इसमें आपकी संमति हो, यदि आपका ऐसा संकल्प हो तो आपका दान हम शुभ (सर्वसाधारण) खातेमें जमा करें / " . इस प्रकार दान जमा करनेमें कई लाभ हैं / मान लें कि एक दाताने इस प्रकार Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य सूचनाएँ देरासर बनानेकी भावना (मात्र भावना)से दस लाख रूपये शुभ (सर्वसाधारण) खातेमें दान देनेके संकल्पसे दिये / और श्रीसंघ इस रकममेंसे यथासंभव देरासर आदि बनाये, ऐसी भावना प्रदर्शित करता है / श्री संघ इस रकममेंसे देरासरका निर्माण करं, उसके लिए लोनरूपमें रकम देवद्रव्यके खातेमें दे / जब प्रतिष्ठा हो तब जो आमदनी हो, उसमें से उस लोनकी रकम शुभ (सर्वसाधारण) खातेमें वापस जमा कर दें / इसी प्रकार इस रकममेंसे अब संघ उपाश्रय बनायें / उसमें तख्ती योजनासे जो दान प्राप्त हो, उस रकममेंसे लोन शुभ (सर्वसाधारण) खातेमें जमा करें / इस प्रकार अनेक कार्य संपन्न होते रहें / यदि दाता इस प्रकार दान देते रहें, तो संघके कई काम संपन्न होते जायें / एक बातका ध्यान रखें कि इस प्रकार जो रकम जमा हो, उसे साधारण खातेमें जमा न कर,शुभ (सर्वसाधारण) खातेमें ही जमा करें / साधारण खातेकी रकम मात्र सात क्षेत्रोंमें ही उपयोगमें लायी जाय; जब कि शुभ (सर्वसाधारण) खातेकी रकम, तमाम धार्मिक कार्यों में उपयोगमें ली जाय / (नहीं, सामाजिक कार्यों में उसका उपयोग न किया जाय / लग्नकी बाडीके लिए गद्दे लाना, बरतन बसाना आदि कामोंमें उसका उपयोग न करें / ) एक स्थान पर देरासर, उपाश्रय दोनोंका निर्माण करना हो तो, उसके निमित्त प्राप्त रकम शुभ (सर्वसाधारण) खातेमें रखकर, उसमेंसे देरासर बनानेकी लोन दे / प्रतिष्ठा समयकी आमदनी होने पर, लोनकी रकम शुभ (सर्वसाधारण) खातेमें जमा करें / बादमें उसी रकममेंसे उपाश्रयका निर्माण किया जाय / (3) वास्तवमें तो समुची धार्मिक द्रव्योंकी रकम वर्तमान सरकारी बैंकोंमें रखना उचित नहीं, क्योंकि इस रकमका अधिकाधिक उपयोग सरकार मच्छीमारी, कत्लखाने, उद्योगे (कर्मादानका भयंकर और हिंसक व्यवसाय कि जो मानवजातिको बेकार, गरीब और बीमार बनाकर बरबाद करनेका काम करता हैं / ) में ही करती हैं / हमारे देवद्रव्य आदिकी रकमको सरकार ऐसे कार्यों में उपयोग करे, यह जरा भी उचित नहीं। ___यदि हम अपने गरीब साधर्मिक भाईओंको व्यवसाय करनेके लिए देवद्रव्यादिकी रकम, लोनके रूपमें, अच्छा सूद लेकर दें तो उसकी देवद्रव्यकी रकमके उपयोग करने की सूग दूर हो जाय / उसकी परिणति निष्ठुर हो जाय / अतः हम धार्मिक जीवोंको भी देवद्रव्यकी रकम देते नहीं / तो अब प्रश्न यह उठता है कि हिंसा करनेवाली बैंकोंको ऐसी पवित्र रकम कैसे दे सकते हैं ? लेकिन बड़ी कमनसीबी बात है कि प्रत्येक धार्मिक संस्थाको अपना ट्रस्ट बनाना और सरकारमें Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार (चेरिटी कमिशनरके कार्यालयमें) पंजीकृत कराना फरजियात है और ऐसे रजिस्टर पंजीकृत ट्रस्टोंकी रकम सरकारी बैंकों और सरकारमान्य कुछ कंपनियों में जमा करना फरजियात होनेसे सारी रकम बैंक आदिमें रखनी पड़ती है। इस प्रकार साहुकारोंको ऐसी रकम कर्जके रूपमें दी नहीं जाती / उपरान्त, अब तो उसमें भी खतरा बन रहा है; क्योंकि किसी भी समय समृद्ध पीढियाँ भी ऊठ जाती है - अदृश्य हो जाती हैं / जो खानगी सहकारी बैंक होती हैं, उन्हें सरकारी मान्यता तो मिलती है / अत: यदि जैनलोगोंकी ऐसी बैंक शुरू हों तो उनमें धार्मिक द्रव्यकी रकम रखी जा सके / ऐसा होनेसे हिंसक कार्यों में इस रकमका दुरुपयोग होनेकी संभावना न रहे / लेकिन लाख रूपयोंका सवाल तो यह है कि यदि ये सहकारी बैंक भी दिवाला निकाले तो सारी रकम गँवानी पडे / जब तक ऐसे सहकारी बैंकोंके नियामक सज्जन लोग हों, तब तक तो समस्या नहीं बन पाती; लेकिन नये चुनावमें नये पीढी के लोग पदारूढ हो और उनकी सज्जनता शंकास्पद हो, तो पैसे गँवाने की संभावना ज्यादा रहती है। सरकारी बैंकोंमें ऐसा भयस्थान नहीं होता / अत एव सहकारी जैन बैंकोंमें भी. धार्मिक द्रव्योंकी रकम जमा करनेका साहस धार्मिकं ट्रस्टोंके ट्रस्टी नहीं करते / इस प्रकार रकम जमा करानेके चारों ओर के द्वार बंध होनेसे, केवल सरकारी बैंकोंमें ही रकम जमा करनेके लिए विवशता होती है और ऐसा होने पर देवद्रव्यकी संपत्ति, मच्छीमारी, नर्मदा-बाँध, उद्योग आदि अति हिंसक कार्यों में उपयोगमें लायी जाती है / यह अत्यन्त आघातजनक घटना है। ___ अब क्या किया जाय ? इसका एक ही श्रेष्ठ उपाय है कि जितना शक्य हो, उतना जिस-तिस रकमका, जिस-तिस कार्यों में उपयोग कर दिया जाय / देवद्रव्यकी सारी रकम जीर्णोद्धारके या नूतन जैनमंदिर - निर्माणके कार्यों में उपयोगमें ली जाय / जीवदयाकी सारी रकम, उसी खातेमें भेज दी जाय / इस प्रकार इन दो खातोंकी रकमको शून्य कर दें / देवद्रव्यका खाता तो कामधेनु गाय-सा है / जब जितनी चाहे, उतनी रकम मिलनेवाली ही है / उसकी आमदानी भी लगातार बनी रहती है / देवद्रव्यादिकी रकमको (जीवदयाकी नहीं) सोने-चांदीके रूपमें ही जमा रखें / भले ही उसका सूद न मिले; लेकिन हिंसक मार्गों द्वारा सूद लेने पर रोकथाम लगे / उपरान्त, सोना आदिकी किंमत हमेशा बढती ही रहेगी; अत: उसमें द्रव्यहानिकी कोई गुंजाईश ही नहीं / Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य सूचनाएँ अब तो जो शेष खाते बचे हैं, वे केवल उन खातोंकी रकमोंके सूद पर ही निभते हों तो कि उन रकमोंको बिना उपाय बैंकमें जमा रखें / __इसमें भी तिथि-योजना वर्ष-वर्षकी यदि बनायी जाय-कायमी तिथि योजना न बनायी जाय तो- तन्निमित्त बडी बडी रकमोंको बैंकोंमें जमा रखनेका महापाप न हो पायें / प्रति वर्ष तिथियोजना बनाने का फायदा भी है, क्योंकि लगातार बढती रहती महँगाई ध्यानमें रखकर प्रतिवर्षकी तिथि योजनाका आँक बदल सकते हैं / कायमी तिथियोजनामें महँगाईके सामने, उसके पर प्राप्त होनेवाला सूद कम मिलनेसे संघ मुसीबतमें फँसता है / संक्षेपमें, अनिवार्य रूपसे जिस खातेकी जो रकम हो, उसीको बैंकमें जमा रखे, शेष सारी रकमका तत्तद् विषयोमें उपयोग कर देनेसे हिंसाका पाप कम हो जायेगा / उदारताके अभावमें देवद्रव्यको रकम, अन्य देरासरमें भेंट (दान) के रूप में न दें सकें तो लोनरूपमें भी दें / उन जिनालयोंकी प्रतिष्ठाकी आमदनी होने पर लोन भरपाई हो जाने पर तुरत दूसरे किसी जिनालयमें लोनके रूपमें दे दी जाय / इस प्रकार भी बैंकमें तो रखी ही न जाय / इस परसे यह बात समझ लें कि कोई भी श्रीमंत जैन, 10-20 लाख रूपयोंका ट्रस्ट बनाकर, उसके व्याजमेंसे-अपनी गैरहाजिरीमें भी भविष्यके धार्मिक कार्य चलते रहे, ऐसा करना वर्तमान परिस्थितिमें उचित नहीं है / 10-20 लाख रूपयोंका यदि सदुपयोग करना ही है तो तत्काल उपयोग किया जाय / अन्यथा बैंकमें जमा होनेवाले उन रूपयोंका उपयोग, तुरत मच्छीमारी आदिमें होने लगेगा / उससे महादोष कितना भारी उत्पन्न होगा कि उसके बदले में सूदकी रकमके सदुपयोगसे उत्पन्न लाभ मामूली बन जायेगा। यद्यपि यह बहुत शक्य नहीं फिर भी बता दूँ कि यदि अपने गाँवमें कोई बैंक अपना स्वतंत्र मकान बनाना चाहे तो उसमें देवद्रव्यकी रकम जमा की जाय / बैंक लोन दे , उसे किरायेके रूपमें पूरी भरपाई करनेके बाद, किरायेसे जो आमदनी हो, उसे देवद्रव्यके खातेमें जमा की जाय / - और यदि ऐसा मकान, उपाश्रयके लिए एकत्रित की गयी रकममेंसे बनवाया जाय तो उसमें संभव हो तो एक विभाग बैंकको किराये पर दे देनेसे, लोनकी रकम किराये से चूकता कर देने के बाद, जो किराया मिलता रहे, (बैंकोका किराया हमेशा ज्यादा मिलता हैं और नियमित होता है / ) उसका उपयोग, उपाश्रयके खर्च के लिए किया जाय / यद्यपि इसमें भी दोष है; लेकिन हिंसक कार्यों में देवद्रव्यकी रकम Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार प्रत्यक्षरूपमें सहायक बने, उस महादोषमेंसे यहाँ मुक्ति मिलती है। - भूतकालमें धार्मिक खातोंकी आमदनीकी रकम सज्जन साहुकारोंके पास सूद पर रखी जाती थी, लेकिन उस रकमके सामने उतनी ही रकमके गहने या सोनाचांदी, उस साहुकारके पास से संघ रख लेता था / यदि दुर्भाग्यवश साहुकारकी पीढी कमजोर हो या दिवाला निकाले तो अमानत की चीजोंका उपयोग कर संघ अपनी रकम प्राप्त कर लेता था / लेकिन यदि इस प्रकार कोई पीढी प्राप्त न हो तो, संघ उस रकममें वृद्धिबढावा करने की बात पर रोक लगाकर उस पूंजीको अपने पास ही रखता था / सोनाचांदीके रूपमें संग्रह कर लेता था / धार्मिक द्रव्यमें बढौतरी करनी ही चाहिए; लेकिन उसमें यदि पूंजीकी सलामती न हो अथवा अगर अन्यायी रीति-नीतिसे बढौतरी होती हो तो, वैसा न किया जाय / साहुकार दो प्रतिशत सूद दे और कोई कसाई, दाणचोर आदि पांच प्रतिशत सुद दे तो भी उसे रकम दी न जाय; क्योंकि उनके व्यावसायिक स्तर अधमाधम योग्य नीति-रीतिसे धार्मिक द्रव्यमें वृद्धि करना, उसे प्रत्येक श्रावकका प्रथम पुण्यजनक कर्तव्य माना गया है / . (4) जिस ट्रस्टीका व्यापार संबद्ध खाता जिस बैकमें हो, उस बैकमें वह ट्रस्टी अपने धार्मिक ट्रस्टका खाता न खुलवाये / यदि ऐसा होगा तो बैंक मेनेजर उस आदमीको धार्मिक ट्रस्टकी रकम पर-साख पर- व्यवसायमें ऊँची रकम देनेके लिए तत्पर रहेगा / ऐसा होनेसे उस ट्रस्टीको धार्मिक द्रव्यका लाभ उठानेका दोष लगेगा। आज कई लोग, समृद्ध ट्रस्टोंमें ट्रस्टी बनने के लिए दोडादोड़ कर रहे है, उसका मुख्य कारण यह बात है / दिवाला निकालनेवाले ट्रस्टों और कर्ज के बोझवाले ट्रस्टोंके ट्रस्टी बननेमें क्यों कोई दिलचस्पी नहीं दिखलाता ? (5) सामान्यतया सबसे श्रेष्ठ पुण्यबंधका खाता देवद्रव्यका खाता माना गया है; लेकिन यदि वह खाता समृद्ध हो और अन्य खाते में पैसोंकी अत्यंत आवश्यकता हो तो उस खातेमें दान करना यही उत्तम पुण्यबंधका जनक बनता है / पिताजीके पाँव दु:खते न हों और सरमें बेहद दर्द होता हो तो उस समय प्रतिदिन पाँव दबाकर सो जानेकी भावनावाले पुत्रको चाहिए कि उस दिन सर दबाकर सोये / उसीमें उसकी Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य सूचनाएँ सही पितृभक्ति मानी जायेगी। ___ अत: मैंने पहले सूचित किया है वैसे यदि शुभ (सर्वसाधारण) या आखिर साधारण खातेमें रकमका दान किया जाय तो, उस रकमकी जिस समय जिस खातेमें आवश्यकता हो, वहाँ उपयोग किया जाय / तीर्थयात्रा पर जानेवाले लोग, इस बातका ख्याल रखते हुए, उन उन तीर्थस्थलोंके सर्वसाधारण खातोंमें रकम जमा करें, यह मुझे बहुत उचित लगता है। उसके बाद दूसरे स्थान पर वहाँके कार्यकर्तागणके पुरस्कारफंडमें अच्छीखासी रकम जमा कराये, जिससे कार्यकर्तागण, गरीबी, महँगाई आदि आरामसे मुकाबला कर सके / भंडार आदिकी चीजोंकी चोरी करनेकी वृत्ति ही पैदा न होगी। (6) विद्वान व्याख्यानकार और संयमचुस्त मुनिराज, यथासमय दानधर्मके लिए गृहस्थोंके एसी प्रभावक उपदेशना दे जिससे उनकी धनमूर्छा एक साथ उतर जाय / वे बड़ी रकमोंका लिखानेके लिए तत्पर हो जायँ / ऐसे अवसर पर उन लोगोंको देवद्रव्यके घाटेको योग्य सूदके साथ पूरा कर देनेकी प्रेरणा देनी चाहिए / अशास्त्रीय मार्ग : (1) दस आनी देवद्रव्य, छह आना साधारण (2) सरचार्ज (3) किसी प्रिमियर शोका आयोजन आदिको-त्याज्य कराना चाहिए / ऐसे पुण्यशाली मुनिलोग सूदको वर्ण्य न करा दें / उनका उपदेश धनमूर्छाका जहर निकाल सके तो उसका पूरा लाभ उन्हें उठाना चाहिए / जिन संघोंको ऐसे पुण्यशाली, संयमशील महात्मा प्राप्त नहीं होते, उन्हें पूर्वोक्त अशास्त्रीय मार्ग अपनानेकी संभावना उठानी पडती है, जो बिलकुल उचित नहीं / (7) आज धार्मिक (रिलिजिअिस) या सार्वजनिक (चेरिटेबल) माने जानेवाले ट्रस्ट और उनकी संपत्ति- परका संघका आधिपत्य हटाकर चेरिटी कमिशनर (सरकार) मालिक बन गया है / उनको बिना पूछे ट्रस्टीलोग कोई विशेष कार्यवाही कर नहीं पाते / भगवान के हारको भगवान के मुकुटमें परिवर्तन करना हो तो भी उसकी मंजूरी लेनी पड़ती है / इसीसे स्पष्ट होता है कि मालिक वह है, श्री संघ नहीं / भूतपूर्व आयर कमिशनने अपने अहवालमें विज्ञापित किया है कि "केवल पूजाविधि आपकी इच्छानुवर्ती, बाकी मूर्ति, माला, मंदिर आदि सब कुछ सरकारकी मालिकियत / पूजा विधि आप लोग अपनी विधि अनुसार कर सकते हैं; लेकिन मूर्ति आदिमें हमसे बिना पूछे कोई भी परिवर्तन नहीं कर सकते / " हेरिटेजके नाम पर बम्बईमें शान्तिनाथ जिनालयका जीर्णोद्धार भी रुकवा / . दिया है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार यह केसी खतरनाक घटना है ? लेकिन निरुत्साही हुए श्री जैनसंघने बिन खास कोइ प्रतिकार किये बिना इस घटना को स्वीकार लिया है / __अब भविष्यमें प्रत्येक ट्रस्टमें हरिजनो आदिको कुल ट्रस्टी-संख्याके 1/3 के हरिजनों आदिको फरजियात रखनेका और प्रत्येक ट्रस्ट में एक सरकारी कक्षाके अधिकारीको नियुक्त करनेका कानून आ रहा है / श्री संघ अपना मनवाञ्छित कोई भी काम न कर पाये, उसके लिए यह सरकारी अधिकारी देखभाल करेगा / हरिजन आदि स्तरके ट्रस्टी प्रत्येक मंदिरको सार्वजनिक बनानेकी कोशिश करेगें। ___ यदि इस परिस्थितिका सुसंगठित होकर श्रावक संघ यदि प्रतिकार नहीं करंगा तो धर्मके इन स्थानोंकी शास्त्रीय पद्धतिका निर्वाह करना असंभव होगा / ऐसा होने पर धर्मकी आराधनाएँ शिथिल हो पायेंगी; बंध होने लगेगी। भारत सरकारका संविधान बिनसांप्रदायिकताका समर्थक है / अत: भारतीय प्रजाको निधर्मी (नास्तिक) बनानेकी ओर ही उसका हर कदम हो, यह स्वाभाविक है; लेकिन धर्मी लोंगोको उसका विरोध करना ही चाहिए न ? ऐसे समयकी संभावना है कि मंदिरोंकी समृद्धिका उपयोग सार्वजनिक कार्यो -हिंसक, विलासप्रेरक आदिमें- करनेके लिए विवश बनाया जाय / उस समय श्री संघके अग्रणी जैनाचार्य सकल संघको आदेश दें कि, “अब जैनमंदिरके भंडारों में पैसे डालना बंद कर दो / सारी उछामनियाँकी बोलियाँ रूकवा दो / '" क्या ऐसी परिस्थिति तक जाना पडेगा? वास्तवमें तो आजसे ही ऐसी अशास्त्रीय बातों के विरुद्ध आवाज उठानेका काम शुरू कर देना चाहिए / ऐसे वातावरणको देखकर कहनेके लिए दिल होता है कि मंदिरों में पत्थर और प्रतिमाके सिवा किसी भी चीजको- मूल्यवान आभूषण, चांदीके भंडार, चांदीके रथ आदि-अब नहीं रखना चाहिए / आधी रातको कोई चोर आये, तो उसे कुछ भी हाथ न लगे, ऐसी स्थितिका सर्जन इच्छनीय है / यदि ऐसा न हुआ तो, या तो चोर, या पूजारी, या मुनीम या अन्तमें सरकार, सारी मिलकतको चट कर जायेंगे, ऐसा मुझे लगता है। यदि पिछडे-कमजोर वर्गोंकी सत्ताका भय आनेवाला ही हो तो संपत्तिका एकत्रीकरण न होने देना, यही एक मात्र तात्कालिक उपाय मुझे अत्यंत उचित लगता है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5698885604565668 द्वितीय खंड "चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्रोत्तरी" -जिनमर्ति और जिनमंदिर ( 1 + 2) प्रश्रोत्तरी प्रश्न : (1) जिन प्रतिमा किसमेंसे बनायी जाय ? कितने प्रमाणकी बनायी जाय ? कौन बना सकता है ? उत्तर : रत्नकी, हीरेकी, पाषाणकी, पंचधातुकी, रेत तककी भी जिनप्रतिमा बना सकते हैं / प्रत्येक श्रावक उपकारी भगवंतकी प्रतिमा अवश्य बनायें / जिसकी जितनी आर्थिक पहुँच, उतनी बनायें / अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ भगवंतकी प्रतिमा, राजा रावणके दूतोंने बनवायी थी / नदीकी रेतमें से (वालुकासे) बनायी थी / कमसे कम एक अंगुल प्रमाणकी और आगे बढकर बहुत बडी किन्तु विषम अंगुलकी बनायी जाय / प्रश्न : ( 2 ) संगमरमर लानेकी विधि कैसी है ? उत्तर : ‘पोडशक' ग्रंथमें इस विधिका वर्णन किया गया है / संक्षिप्तमें . न्यायोपार्जित द्रव्यका उपयोग करें / कारीगरोंको खुश रखे / खानके अधिष्ठाता की आज्ञा पानेके लिए तप, पाषाण पूजा आदि किया जाय / उस गाँवके लोंगोंको प्रीतिदान करें आदि / _ 'नैगमनयसे' तो सूचित किया जाता है कि वह संगमरमरका पत्थर भी प्रतिमा ही है, अत: बहुमान सह पाषाण लाना चाहिये / / प्रश्न : (3) प्रतिमाजी गलेसे खंडित होने पर क्या किया जाय ? .. उत्तर : क्रियाकारक को बुलाकर उस प्रतिमामेंसे प्राण-प्रतिष्ठादि वापस खींच लेनेकी विधि कराकर उसका विधिपूर्वक नदी या समुद्रकी जलराशिमें विसर्जन कराये / पंचधातुकी प्रतिमा पर पुजारी लोग जब पूरी ताकत से वालाकुंची घिसते हैं, तब उनके नाक, कान आदि धीरे धीरे निर्मूल हो जाते हैं / ऐसी स्थितिमें प्रतिमा पूजनीय नहीं रह पाती / उसका विधिवत् विसर्जन करना चाहिए / अत एव यथासंभव . वालाकुंचीका उपयोग न करे तो अच्छा है / संगमरमरकी प्रतिमामें कहीं दरार होनेसे या गलेके सिवा किसी अंगका खंडन Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार होने से उसके विसर्जन करनेकी आवश्यकता नहीं; क्योंकि लेप या ओपसे भी उस भागकी संधि हो जाती है / उसमें भी यदि प्रतिमा विशिष्ट प्रभावशाली हो अथवा उसके उपर तीर्थरक्षादि कार्यमें अदालती कार्यमें उपयुक्त हो, ऐसा सुंदर ऐतिहासिक लेख हो तो, उसका, उस हालतमें विसर्जन न कर, लेप लगवाकर उस अंगकी संधि द्वारा अखंड-सा बनाया जाय / नवखंडा (घोघा) पर्श्वनाथ भगवानके नव टुकडे हो गये थे / जिन्हें लेप द्वारा जुडे गये हैं / दीखने में भद्दे मालूम हो, उस ढंगसे खंडित हुए भगवानको सामान्यतः मूलनायकके रूपमें रखे न जाय / .. _ दूसरी बात यह है कि मूलनायक भगवंतको प्रतिष्ठित करने के बाद, हिल गये हो तो विधिपूर्वक महोत्सव के साथ पुनः प्रतिष्ठित कराने चाहिए (उसी पुण्यशाली के हाथ), लेकिन यदि उसके सिवाकी प्रतिमा हिल गयी हो तो सामान्य विधि से ही प्रतिष्ठित कर दें। प्रश्न : (4) जिनप्रतिमाको विदेश ले जा सकते हैं ? उत्तर : अभयकुमारने अनार्यदेशमें - राजकुमार आर्द्रको जिनप्रतिमा भेंटरूपमें भिजवायी थी / आज भी जिनप्रतिमा विदेश ले जा सकते है / लेकिन ले जानेकी पूरी विधिका पालन किया जाय / विदेशमें उसकी प्रतिष्ठाविधि भी की जा सकती है (अंजनशलाका विधि तो भारतमें ही किसी विशेष्ट जैनाचार्यके पास ही कराएँ / ) अब यदि विदेशमें उस प्रतिमाकी नित्यपूजा आदि होने की कायमी संभावना न हो तो अंजनशलाका न कराकर, विदेश ले जाकर केवल अठारह अभिषेक कराकर, उस प्रतिमाको दर्शनके लिए रखें / उनकी वासक्षेपपूजा करनी हो तो - किसी भी समय हो सकती है, लेकिन अष्टप्रकारी पूजा नहीं हो सकती / / वास्तवमें तो विदेशमें जाकर धनोपार्जन करनेकी धनमें धर्म गँवानेकी स्थिति आती है / संतोनोंका भविष्य खतरनाक बनता है / अत: धर्मप्रेमीजनोंको तो विदेशका मोह छोडकर हमेशाके लिए स्वदेशमें आकर निवास करना चाहिए / जिससे जिनपूजादि आरामसे हो सके, सद्गुरुका लाभ प्राप्त हो, हितेच्छु मित्रोंकी संगति मिलें। स्वदेश, स्वदेश ही है / विदेशमें परायापन बना रहता है / किसी भी समय विदेशीशासन पहने कपड़ों के साथ निष्कासन करने पर जिनमंदिर पर खतरा बना रहेगा। प्रश्न : (5) अपने पासवाली प्रतिमा, नकरा लेकर किसीको दे सकते हैं ? उसमें दोष नहीं? Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी उत्तर : योग्य नकरा लेनेमें कोई आपत्ति नहीं / नकरेकी रकमको देवद्रव्यमें जमा करें / सचमुच तो प्रतिमा लेनेवाले व्यक्तिको चाहिए कि नकरेकी चिंता छोडकर, अंजलि भर भर धन देकर प्रतिमा लेनी चाहिए। प्रश्न : (6) नये देरासरों में नयी प्रतिमा तैयार कर प्रतिष्ठित करनेकी अपेक्षा, प्राचीन प्रतिमाकी -जिसकी शायद ही पूजा होती है - प्रतिष्ठा करना, यही उचित नहीं है ? नई प्रतिमाके निर्माणके कारण पुरानी प्रतिमा अपूज पड़ी रहती है ? उत्तर : भाई ! व्यक्तिकी भावना यदि नूतन प्रतिमाके लिए ही उमडती हो तो, उसे रोका नहीं जा सकता / नूतन जिनबिम्ब की अंजनशलाकाका लाभ प्राप्त हो, उनके पाँच कल्याणकोंकी मनौती-महोत्सव हजारों लोगोंके लिए दर्शनीय बन पड़े / उससे अनेक लोगोंको सम्यग्दर्शनादिका लाभ प्राप्त हो / नया बिम्ब कारीगरोंको मुँहमाँगे दाम देकर विधिवत् प्रतिमा निर्मित किया जाय तो बिम्ब अत्यंत आकर्षक और आह्लादक बननेकी पूरी संभावना है ।अत: इस बातका हठाग्रहपूर्वक विरोध न किया जाय / अन्यथा प्राचीन प्रतिमामें अनेक भूतकालीन महासंयमी जैनाचार्योंके शुभहस्तोंसे प्राणप्रतिष्ठा हुई हो, जिससे प्रतिमाके अधिष्ठायक जाग्रत हो... ये सारे लाभ भी कम नहीं हैं। ___ 'मूलशुद्धि प्रकरण' शास्त्रमें कहा है कि नवीन बिम्बकरणात सीदत्परकृतं बिम्बपूजनं बहुगुणम् / ' प्रश्न है उत्साहका.... जिसका जिसमें उल्लास / प्राचीन प्रतिमाएं यदि अपूज रहती हों, तो उसकी उपेक्षा न करें / उसके लिए धनवान प्रावकोंको सोचना चाहिए / अफसोस की बात यह है कि प्राचीन भव्य प्रतिमा अपने यहाँ शायद अपूज रहती हो, तो भी संचालक उसे अन्यत्र दे देनेके लिए तत्पर-उद्यत नहीं होते / ऐसा कटु अनुभव होनेके बाद विवश होकर नई प्रतिमाका निर्माण करना पड़ता है / प्राचीन जिनबिम्बों पर उन संघोंकी ऐसी गाढ श्रद्धा या लगन है कि उनकी भावनाका बंधन जुड़ा रहता है, अत: किसीके मांगने पर भी उसे नहीं देते / ऐसे समय क्या किया जाय? प्रश्न : (7) जिनबिम्बोंकी रक्षा मुश्किल बन पायी है ऐसे पंजाब आदि स्थलोंमेंसे जिनबिम्बोंको सुरक्षित स्थान पर रखने के लिए उनका उत्थापन क्यों किया न जाय? उत्तर : जरूर, विधिवत् उत्थापन अवश्य करें / जहाँ कहीं भी गाँवोंमें जैनोंकी आबादी बिलकुल रही न हो, पूजारीको पूजाका कर्तव्य सोंपा जाय तो, वह अतिशय अविधि-अशातना करता हो, मंदिरमें ही जुआ आदिकी अघटित प्रवृत्ति करता हो, Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 धार्मिक-वहीवट विचार वहाँसे भी जिनबिम्बोंका उत्थापन करना चाहिए और योग्य स्थान प्रतिष्ठित करने * चाहिए / ऐसे खाली हुए जिनमंदिरोंमें मूलनायक भगवानके स्थान पर मंगलमूर्ति या भगवंतका चित्र रख छोडे, जिससे उस मंदिरमें अजैन लोग हनुमानजी आदिको स्थापना कर उन मंदिरों पर अपना कब्जा न जमा पाये / देशकालके ऐसे आकस्मिक परिवर्तन आ पाते हैं कि पुनः उसी गाँवमें जैनोंकी आबादी शुरू हो जाय / ऐसी स्थितिमें उस जिनमंदिरोमें पुन:प्रतिष्ठा हो / पूर्ववत भव्यातिभव्यता पैदा हो / दूसरी ओर उस प्राचीन स्थलका पूरा ऐतिहासिक महत्त्व हो, राजनीतिक महत्त्व हो, अतः उत्थापन न कर, पूजा आदिकी उचित व्यवस्थ करें / प्रश्न :(८)स्वपद्रव्यकी आमदनी देवद्रव्यमें ही जमा करानी चाहिए, उस बातके लिए शास्त्रीय प्रमाण क्या हैं ? उत्तर : स्वप्र-उछामनि अन्तिम कुछ शताब्दियाँसे प्रचलित होनेसे उसके लिए कोई शास्त्रपाठकी संभावना नहीं है / फिर भी ‘परम्परानुसार एवं जो उछामनि ' 'देवके निमित्त हो उसे देवद्रव्य कहा जाय, ऐसा शास्त्रनियम है / ' तीर्थंकर देवकी माताओंको जो स्पष्ट चौदह स्वप्न द्रष्टिगोचर होते हैं, वे तीर्थंकर देवके निमित्त से आते हैं / अतः स्वप्रकी उछामनि देवद्रव्य बनती है। . - देवद्रव्यके तीन प्रकारमें किस स्वरूपका देवद्रव्य हो ? उस प्रश्नका उत्तर वि.सं. 2044 के वर्षमें संपन्न संमेलनमें गीतार्थ जैनाचार्योंने सर्वानुमतिसे ऐसा दिया है कि वह कल्पित देवद्रव्य माना जाता है / भूतकालमें ऐसी उछामनि थी नहीं; परन्तु अन्तिम दो शताब्दियोंमें यह प्रथा शुरू हुई / 'संबोधप्रकरण' ग्रंथमें पू. हरिभद्रसूरिजी महाराजाने कहा है कि 'जिनभक्ति निमित्त आचरण द्वारा प्राप्त देवद्रव्यको कल्पित देवद्रव्य कहा जाय / ' उस रकमका उपयोग उपर्युक्त बाबतोंके लिए हों एवं जीर्णोद्धारादिमें किया जाय / इस बातको महागीतार्थ जैनाचार्य पू.पाद श्रीमद् सागरानन्दसूरीश्वरजी म.सा. (सुरत आगम मंदिरके संविधान को देखें / ), हमारे तरणतारणहार गुरूदेव स्व. पू. पाद श्रीमद् प्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहब (वि.सं.२००७ के वर्षमें उनके द्वारा इसके निमित्त तैयार किये लेखको देखें / ) पू. पाद श्रीमद, रविचंद्रसूरीश्वरीजी म.सा (उनकी प्रश्नोत्तरी पढे) संमति देते है / इस कल्पित देवद्रव्यका दूसरा नाम 'जिनभक्ति साधारण' भी कहा जाय / इस Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी रकमका उपयोग सात क्षेत्रोंके साधारणमें कभी नहीं किया जा सकता / ये एक व्यवस्था है / कोई पुण्यात्मा बारह मासके केसरादि पदार्थ स्वयं ही दे दें अथवा पूजारी आदिको वेतन स्वयं (स्वद्रव्यसे) दे दें तो वह अत्यंत उत्तम माना जायेगा / इससे उस धनिक व्यक्तिको धनमुर्छा उतारनेका विशिष्ट लाभ प्राप्त होगा / उसका वर्धमान भावोल्लास विपुल पुण्यबंधका निमित्त बनेगा / कई जगह बारह मासके केसरादि चढावे घोषित किये जाते हैं / इस रकमको 'पूजादेवद्रव्य' कही जायेगी / यह पद्धति अच्छी है / ___ यद्यपि भूतकालमें गुरखे थे, लेकिन पूजारी क्वचित् ही थे / आज तो गुरखेका काम भी प्रायः पूजारी लोग ही निभाते हैं / भूतकालमें पूजानिमित्त सारा कामकाज तो श्रावक स्वयं कर लेते थे / और श्रावकाएँ, काजो निकालनेसे लेकर अंग लूछना, कटोरियाँ माँजना, आरती तैयार करना, रुईकी दियाबत्तियाँ बनाना आदि सारा काम करतीं। ___आज ऐसा काम करनेकी अनुकूलता श्रावक वर्गमें बहुधा दीख नहीं पड़ती / इन कामोंके लिए श्रावक लोग पूजारी रखने लगे हैं / भगवानसे संबद्ध सभी क्रियाओंको स्वयं करने से आशातनाका निवारण हो और परमात्माके प्रति भक्ति और बहुमान हो / अतः वास्तवमें तो श्रावकोंको ये सारे कार्य स्वयं ही करने चाहिए। प्रश्न : (9) देवद्रव्यका वेतन लेनेवाले पूजारीके पास साधु-साध्वीका काम कराया जाय ? ट्रस्टी अपने शाक-तरकारी लाना जैसे काम करा सकते उत्तर : कदापि नहीं / भारी दोष लगेगा / इस दोषमेंसे बचनेके लिए जो वेतन दिया जाय, उसके पचास प्रतिशत साफ साधारणका दिया जाय / जिससे साधुसाध्वीको देवद्रव्य संबंधित दोष न हो; लेकिन ऐसा करने पर भी गृहस्थी-ट्रस्टीलोग उसके पास निजी काम तो नहीं करा सकते / साधारणका द्रव्य वह धर्मादा द्रव्य है / उसका उपयोग श्रीमंत कैसे कर सकते हैं ? ____ प्रश्न : (10) पूजारी और मुनीमलोग देरासरके कर्ताहर्ता (दादा) बन पाये, ऐसी परिस्थिति खड़ी हो रही है, उसके बारेमें क्या किया जाय ? - उत्तर : यह बात बडे अंशमें सही है / हालमें ही एक जगह पर ट्रस्टीने पूजारीके दुराचरणके निमित्त उपालंभ दिया तो, वह, इतना आग-बबूला हो गया कि आरतीके लिए शामको मंदिर खोलकर, उसने एक जिनप्रतिमा पर डण्डा फटकारकर उसे चूर Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार चूर कर दी / दूसरी जगह इसी प्रकार क्रुद्ध हुए पूजारीने देरासरमें ही मलमूत्र किये / अन्यत्र ऐसी स्थितिमें गाँवके सारे पूजारियोंने हडताल कर दी, जहाँ अन्तमें ट्रस्टियोंको ही समाधान करना पड़ा। पूजारियोंके संगठन होने लगे है / संगठनवाले गाँवगाँव जाकर पूजारियोंको संगठन-सदस्य बनाते हैं / उनके द्वारा ऊँचे वेतन, आठ घंटोंका काम आदि माँगे रखवाते हैं / उनके पास हडताल कराते हैं / इस प्रकार अनेक प्रकारकी परेशानियाँ कराते हैं / जब इस प्रकारके संगठनोंका सहकार मिले, फिर पूजारी और मुनीम 'कर्ता-हर्ता' (दादा) क्यों न बने ? ___ ऐसी परिस्थितिमेंसे मुक्ति पाना हो तो पूजारियोंके जीवननिर्वाहमेंकोई तकलीफ न आये, उस प्रकार उनके वेतनके स्तर बढाये जायँ / उन्हें पी. एफ., ग्रेज्युइटीका लाभ, बोनस, वार्षिक निश्चित छुट्टियाँ आदि तमाम लाभ-कामदारवर्गको प्राप्य होते हैं वो दे देने चाहिए / यदि मानवको ऐसी सुविधाएँ प्राप्य करा दी जायें, उसके घरेलू लग्नादि महोत्सव और बीमारी आदिके प्रसंगोंमें उसके प्रति सौजन्य और औदार्यके व्यवहार किये जाय तो चोरी करनेसे लेकर तूफान करनेकी वृत्ति तकके प्रसंग उपस्थित न होंगे / संगठनवाले लाखकोशिशें करने पर भी उन्हें बहका नहीं पायेंगे। ___ ऐसा औदार्य दिखाया जाय और कानूनी ढंगसे मिलनेवाले लाभ उन्हें बराबर प्राप्त कराये जायँ, तो कोई आपत्ति न होगी / अन्यथा अल्प वेतन, बारबार अपमान, अधिकतमकार्यबोज आदि होंगे तो पूजारीकेवल आशातनाएँ ही नहीं करेगा, लेकिन उद्धत-उदंड बनेगा, चोर होगा, डकैत बनेगा / क्या नहीं होगा, यही प्रश्न है / यदि भूतकालकी तरह साराकाम श्रावक-श्राविकाओं द्वारा-ही कर लेनेकी व्यवस्थाको पुनर्जीवित कि जायँ तो उपरकी समस्या पैदा होनेका सवाल ही पैदा नहीं होगा / प्रश्न : (11) देरासरके भंडारके चावल, बादाम आदि पूजारीको दे देने ही चाहिए ? ____उत्तर : नहीं, यदि उसे पूरा वेतन दिया जाता हो, आँगी करने पर विशेष पुरस्कर दिया जाता हो तो चावल, बादाम आदिके विक्रय द्वारा उसकी आमदनीको देवद्रव्यके खातेमें जमा करनी चाहिए; लेकिन यदि वेतनके Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी रूपमें यह सब कुछ देकर नगद वेतन कम दिया जाता हो, परंपरागत रूपसे पूजारीका उन सारी चीजों पर अधिकार बना रहा हो, तो वे सारी चीजें उसे दे दी जाय / यहाँ उसकी भावनाका प्रश्न है / अधिकारकी बात है, अतः ऐसे स्थल पर देवद्रव्यकी आमदनी करनेका प्रश्न गौण मानना चाहिए / कई लोग कहते हैं कि यदि इस प्रकार फलादि पूजारीको दे देने पडे तो फल रखनेवाले भक्तको चाहिए कि उस फलकी बाजार किंमत जो हो, उतनी रकम भंडारेमें छोड दे / अर्थात् दो रूपयोंका फल रखे और दो रूपये नगद देवद्रव्यके भंडारमें छोडे, यह बात शोभनीय नहीं, क्योंकि इस प्रकार दुगुनी रकमका उपयोग करनेकी नौबत आने पर मध्यवर्गके कई लोग फलार्पण बंद कर देंगे / उपरान्त बिना फल रखे, बदलेमें दो रूपये रखनेकी बात भी उचित नहीं जंचती / फल रखने द्वारा जो भावोल्लास उत्पन्न -महसूस होता है, उसे रूपये रखकर पैदा नहीं किया जा सकता / उपरान्त फलपूजा नामशेष हो जाय / सारी बातोंका मूल्यांकन रूपये-आनोंमें न किया जाय / प्रश्न : (12) देरासरमें समर्पित फल-नैवेद्यका उपयोग किस प्रकार किया जाय ? उत्तर : यदि इन चीजों पर परंपरागतरूपमें पूजारीका अधिकार न हो तो, उन चीजोंकी बिक्रीकर, रकमको देवद्रव्यमें जमा कर दी जाय / __ कई बार इन चीजोंको पूजारी सहित अन्य अजैनलोगोंमें भी वितरित करनी पडती है / कभी कभी तीर्थरक्षादिके लिए अजैन लोगोंकी जरूरत बनी रहती है / ऐसे मौके पर ये चीजें प्रसादके रूपमें वितरितकी जायें / बड़े महोत्सवोंमें अनेक फलफलादि अर्पित होते हैं, यह जैनेतर लोगोंको भी दिया जाय जो वे प्रसन्न रहते है; और संभव है कि हमेशाके लिए वे लोग अभयवचन दें कि, 'चैनकी निंद लें / आपका मंदिर हमारा मंदिर है, उसे जरा भी नुकसान न पहुँचे, उसका सारा उत्तरदायित्व हमारे पर / ' - फलोंके विक्रय द्वारा देवद्रव्यकी जो रकम प्राप्त हो उसकी अपेक्षा . इस अभयवचनकी किंमत बहुत ज्यादा है / फलादिको बेचनेसे शायद वर्षभरमें पाँच-पचीस हजार रूपयोंकी आमदनी हो, लेकिन दूसरे पक्षमें चोरी हो Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार और लाखों रूपयोंके गहने चले जाएँ, तो परिणाममें बड़ा भारी नुकसान होगा / प्रश्न : (13) देरासरमें समर्पित बादाम आदिके विक्रय बाद, उसी बादामको उसी दूकानसे खरीदकर (अनजानेमें ) देरासरमें अर्पित करनेमें दोष होता है ? उत्तर : अनजाने में ऐसा होने पर दोष नहीं लगता / उपरान्त,. बादाम समर्पित करते समय जो भावोल्लास होगा, वह मुनाफा ज्यादा होगा / ___लेकिन ऐसा न हो, उसके लिए ऐसे समर्पित द्रव्य दूरके नगरोंमें -अजैनोंकी आबादीवाली दूकानोंमें- बेचने चाहिए / यथाशक्ति सावधानी रखें, यह हमारा कर्तव्य है .... अन्तमें तो भवितव्यता ही बलवती प्रश्न : (14) जिनकी आर्थिक स्थिति गिरी हुई हो, वे देरासरके केसरादिसे पूजा करें ? उत्तर : अवश्य, श्रावकोंके जीवनमें सम्यक्त्वके कार्यके स्थिरीकरणके लिए देरासरके केसरादि द्रव्योंकी व्यवस्था, स्थानिक जैनों एवं बाहरगाँवसे आये पूजासामग्रीके अभाववाले जैनों आदिके लिए ही होती है / ___ कल्पित देवद्रव्य या जिनभक्ति-साधारण लिए वह द्रव्य है, जिसका उपयोग इसमें किया जाता है / अत: देवद्रव्यसे या परद्रव्यसे पूजा न सकता / इसमें परिस्थिति निमित्त है / अथवा धनमूर्छा भी एककारण बन सकती है / ऐसी धर्मकीक्रिया करनेवाला पापबंध करेगा, ऐसा कहना उचित नहीं / धनमूर्छा उतारकर धनवान श्रावक स्वद्रव्यसे पूजा करे तो अवश्य वह विशिष्ट पुण्यप्राप्ति करता है, उसमें उसका भावोल्लास बढे, उसका भी उसे लाभ प्राप्त होता है / किन्तु ऐसा तो नहीं कह सकते कि, परद्रव्य या देवद्रव्यसे पूजा करनेवाले पापभागी होते हैं / ऐसा भी एकान्त हठाग्रह न किया जाय कि स्वद्रव्यसे ही पूजाकी जाय / परद्रव्य या देवद्रव्यसे पूजा करनेवालेको भी सम्यक्त्वकी निर्मलता आदि अनेक गुणोंका लाभ उसके उल्लासादिके प्रमाणमें मिलते हैं / शिखरजी आदिकी तीर्थयात्रा, उपधान तप, छ'री पालित संघ आदिके Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्रोत्तरी पीछे कई श्रीमंत स्वद्रव्यका उपयोग करते हैं / उनमें जो सैकडों धर्मीजन संमिलित होते हैं, उन्हें तो परद्रव्यसे ही धर्माचरण करना है / तो क्या इस प्रकारकी परद्रव्यसे की जानेवाली तीर्थयात्रादिसे पापबंधन होगा ? क्या उन यात्रिकोंका भावोल्लास, उन्हें सम्यग्दर्शन आदिकी भेंट नहीं देता ? स्वद्रव्यसे ही धर्माचरण करनेकी जो लोग बातें करतें हैं, वे ऐसे यात्रादि धर्मकार्योंके आयोजनकी प्रेरणा आदि क्यों करते हैं ? सभी जगह विवेकबुद्धिसे आचरण करना चाहिए / सेठकी स्वद्रव्यसे बनायी गयी रसोईको यदिसेठका नौकर, अत्यंत भावोल्लाससे मुनिको वहोरावे तो पुण्यबंध होगा या नहीं ? हिरन, बलदेव और रथकारका द्रष्टान्त यहाँ सोचना चाहिए / स्वद्रव्यसे एक सौ रूपयोंकी ही आँगी हो सके, ऐसी एक मनुष्यकी आर्थिक स्थिति हो तो क्या पूजा-देवद्रव्यकी या कल्पित देवद्रव्यको रकम जोडकर दो हजार रूपयोंकी आंगी नहीं कर सकता ? उससे दोष लगेगा ? अवश्य, व्यक्तिगत मनमानी इस प्रकार नहीं हो सकती, परन्तु श्रीसंघ अवश्य उस प्रकार देवद्रव्यका उचित सदुपयोग कर सकता है / प्रश्न : (15) तीर्थरक्षाके कार्यमें देवद्रव्यकी रकमका उपयोग किया जाय ? उत्तर : अवश्य, तीर्थरक्षा यह एक प्रकारको देवपूजा है, अतः अवश्य उपयोग किया जाय / इतना ध्यान अवश्य रखा जाय कि यह रकम अजैन वकीलों आदिको दी जाय / तीर्थरक्षाके प्रचार निमित्त साहित्यका खर्च भी देवद्रव्यमेंसे जरूरत होने पर किया जाय / यद्यपि साहित्यके लिए तो आज ज्ञानखातेकी रकम मिल सकती है / .' प्रश्न : (16) हालमें, देरासरके आभूषण आदि चीजोंकी चोरियाँ ज्यादा होने लगी हैं, क्या करें ? उत्तर : यदि चोरी पर पूरी रोकथाम लगा पाये ऐसी परिस्थितिका सर्जन कर पाये तो वह उत्तम है; अन्यथा यद्यपि आभूषणपूजा बंध नहींकी जा सकती, लेकिन विवश होकर (शत्रुजयकी यात्रा एक बार श्री संघ बंध करने के लिए विवश हुआ था / ) आभूषण बनाना बंद करे / आभूषणोके साथ साथ, भगवान (पंचधातुके) भी सोनाके बने समझकर धा.व.-५ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 धार्मिक-वहीवट विचार चुरा जाते हैं / बादमें आगमें गला दिये जाय, यह कैसी दुःखद आशातना है ! प्रतिदिन चोरी, छिनाझपटी बढ़ती रहेगी / पुलीसकी सुरक्षा प्राप्त न होगी / ऐसी स्थितिमें देरासर मध्यरात्रिमें भी खुला हो तो, चोर उसमें से कुछ भी प्राप्त न कर सके , ऐसी स्थितिमें देरासर रखा जाय / काश, इन सारी बातोंको बार बार, जगह-जगह पर समझाने पर भी, श्री संघोंका आभूषणमोह कम नहीं हो पाता / परंपरागत प्रणालीमेंसे. संचालक अलग नहीं हो पाते / आभूषणोंकी चोरी न होगी तो भी भारत सरकार अन्तमें एक ही कलम-कानूनके बलबूते पर अपने कब्जेमें कर लेगी तब ? यह भी बडी मुसीबत खड़ी ही है न ? प्रश्न : (17) क्या गरीब लोंगोके कल्याण निमित्त देवद्रव्यका उपयोग किया न जाय ? उत्तर : वर्तमान गरीबी, बेकारी, बीमारी, और महेंगाई कृत्रिम है / मानवसर्जित है / सारा आसमान फट पड़ा है, अरबों रूपयोंसे भी उसका हल नहीं हो पायेगा / दूसरी बात यह है कि धर्मक्षेत्रमें जिस हेतुकी पूर्तिके लिए जो रकम जमा हो, उसका उपयोग अन्य क्षेत्रोंमें किया नहीं जा सकता / कस्तूरबा फंडकी रकमका बंगालके दुष्कालमें राहतके लिए उपयोग करनेकी बात गांधीजीने काटकर, उसके लिए अलग बड़ा फंड एकत्र कराया था / अन्य उद्देशमें रकमका उपयोग करनेसे दाताके साथ विश्वासघात होता है / देवद्रव्यके खातेके पास केवल 20-25 करोड या 50 करोडकी रकम है / जैन श्रीमंतोंके पास अरबों रूपयोंकी संपत्ति है / बम्बईमें ही 100100 करोड रूपयोंके मालिक जैन श्रीमंत १००से अधिक हैं / मानवताकेकार्योमें, ये श्रीमंत लोग ही क्यों उदार नहि रहते है / उनकी भी नजर देवद्रवय पर क्यों पडती है ? उपरान्त, भारतमें ऐसे हजारों देरासर हैं, जिनके जिर्णोद्धारके लिए वर्तमान देवद्रव्यकी 50 करोडकी पूंजी, तिनकेके समान है / देवद्रव्यके खातेकी. रकम तो सर्वप्रथम जीर्णोद्धारमें ही उपयोगमें लायी जाय / / __ कई ट्रस्टीलोंग अपने ट्रस्टकी देवद्रव्य खातेकी लाखोकी रकम पर मोहान्ध बने हुए हैं / आवश्यकता पड़ने पर भी भिन्न भिन्न जिनालयोके Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी जिर्णोद्धारमें देते नहि / इसी लिये सबकी नजर पर यह देवद्रव्यकी रकम चड गइ है / गरीबोंकी सहायताके लिए तत्परताकी बात करनेवाले ये, बद्धिजीवी एवं स्वार्थीवर्गमें आदर-सम्मान पाते है / ऐसा जानकर कई लोग ऐसी बातोंको जान बूझकर चिकनाहटके साथ पेश करते हैं / अन्यथा उनकी हाथकी घडीके हीराजडित चेईनको भी मानवताके कार्यमें दान स्वरूपमें देनेके लिए जरा भी उद्यत नहीं / प्रश्न :- (18) अनीतिके धनसे निर्मित जिनमंदिरोंमें ओज-तेज उभरता है क्या ? उत्तर : बिल्कुल उभरे ही नहीं ऐसा तो नहीं कहा जा सकता / शास्त्रकारोंने किसी भी धार्मिककार्यमें नीतिसे अर्जित धनका उपयोग करनेका आग्रह किया है / लेकिन सावधान ! वर्तमानमें 'नीति'की व्याख्या कौन सी है ? यह लाख रूपयोंका सवाल बना पड़ा है / जिसे काला बाजार कहा जाता है, उससे उपार्जित धनको अनीतिका धन कहेंगे ? आयकरकी चोरी द्वारा एकत्रित धनको सचमुच चोरीका धन बतायेंगे ? ___ यह विषय अत्यंत शोचनीय है / प्रश्न :(19) देरासरके निर्माणके लिए ली जानेवाली जमीन, साधारण खातेकी रकमसे ली जाय या देवद्रव्यके खातेमेंसे ? उत्तर : जितनी जमीन पर देरासर निर्माण होनेवाला हो, उतनी जमीनकी खरीदी देवद्रव्यमेंसे की जाय / बाकी कम्पाउन्ड आदिके रूपमें आवश्यक जमीन साधारणमेंसे ही खरीदी जाय / क्योंकि वहाँ बैठकें आदिकी व्यवस्था कर गृहस्थलोग आराम फरमाएँ, बगीचा बनवाया जाय तो उसके फल गृहस्थ ले जाय, तो उस सबको देवद्रव्यकी जमीनमें निर्मित किया न जाय / प्रश्र : (20) अखंड दीप शास्त्रीय है ? उसका निर्वाहखर्च देवद्रव्यमें से किया जाय ? ___उत्तर : अखंड दीपका विशेष विधान नहीं है / धर्मीजन मंगलार्थ सामान्यतः दीप जलता रखते है / अतः यदि रखना ही हो तो, उसका निभाव स्वतन्त्र फंड करके या उसकी उछामनी द्वारा हो तो बहुत अच्छा रहेंगा / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 धार्मिक-वहीवट विचार प्रश्न : (21) देवद्रव्यकी रकम दूसरे किसी धार्मिक खातेमेंसे लानी हो तो कितने प्रतिशत सूद देना उचित कहा जाय ? . उत्तर : ऐसा करना उचित नहीं; क्योंकि उस रकमकी सुरक्षाकी विश्वसनीयता कहाँ ? संघमें संचालक बदलते रहतें है अथवा उनमें आपसी झगडे पैदा हो, नये संचालक सुधारकवृत्तिके हों तो, रकमकी अदायगी सूदके साथ पूरी न होनेकी संभावना है / ऐसा हो तो समुचे संघके सर पर बोजा आ पडे / अतः जब उपाश्रय आदिके निर्माणका प्रसंग उपस्थित हो तब देवद्रव्यकी रकम सूद पर न लेकर, गाँवके सुखी गृहस्थोंके पाससे बिना सूदकी पांच सालकी लोन लें / पाँच वर्षोंमें संचालक उस लोनकी अदायगी कर दें / उपाश्रय आदि तैयार होने पर मकान पर, खंडमें, रूमोंमें नामकरणकी योजना आदिके द्वारा रकम एकत्र कर, ली हुई लोनकी वापसी अदायदी कर दें / जब ऐसी बातकी जाती है, तब सामान्यतः सुखी गृहस्थ लोन देनेके लिए उत्साहित नहीं होते / क्योंकि उन्हें रकम वापस मिलनेके बारेमें संदेह बना रहेता है। काश, तो फिर ली गयी देवद्रव्यकी रकम भी वापस लौटानेके बारेमें संदेह न हो पाये ? क्यों खतरा मौल ले / / अन्यथा यदि रकमकी पूरी सूरक्षाकी विश्वनीयता हो तो बैंकमें देवद्रव्यकी रकम रखकर हिंसक कार्योमें (उद्योग, मच्छीमारी आदि) उसका उपयोग होने देना, उसकी अपेक्षा उपाश्रय आदिमें बैंकसे भी ज्यादा सूद देकर पूंजी लगाना उचित मालूम होता है / .. लेकिन लाख रूपयोंका सवाल उस रकमकी सुरक्षाका होनेसे, यह खतरा लेना इच्छनीय नहीं / प्रश्न : (22) आरती या स्नात्र पूजामें (बत्तीस कोडीके समय) समर्पित रकम कहाँ जमा हो ? देवद्रव्यमें या पूजारीके पास ? उत्तर : यदि उस प्रकारका परंपरागत अधिकार निश्चित हआ हो तो पूजारीको, अन्यथा देवद्रव्यमें, नये स्थापित संघोंमें देवद्रव्यमें ही ली जाय पूजारीका अधिकार न रखा जाय / प्रश्न : (23) घरदेरासरमें प्रतिमाजी कैसी और ज्यादा से ज्यादा कितने ईंचकी हो सके ? Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रों से संबद्ध प्रश्नोत्तरी उत्तर : घरके अंदर यदि देरासर हो तो उसमें पंचधातुकी ग्यारह इंच तकके प्रतिमा रखी जाय / किन्तु पाषाणकी न रखे / घरसे अलगपरिसरमें संघके लिए संघदेरासर बनाया जाय तो उसमें एकी संख्याकी पाषाणकी प्रतिमा रख सकते है / ___ कई लोग कहते है कि घरदेरासरमें भी 11 ईंच तकके पाषाणकी प्रतिमा रख सकते हैं / ऐसा कहीं कहीं द्रष्टिगोचर होता भी है / कहीं तो घरके अंदर आये घर देरासरमें 11 ईंचसे भी बडे-बहुत बडे - 31 ईंच ऊँचाईवाले भी पाषाणके भगवान भी द्रष्टिगोचर हुए हैं / (अहमदाबादमें) लेकिन वो अपवादस्वरूप है / प्रश्न : (24) घरदेरासरकी भंडारादिकी आमदनीको घरदेरासरकी सामग्री खरीदने में उपयोगमें लायी जा सकती है ? उत्तर : नहीं, बिल्कुल नहीं / स्वद्रव्यसे लानी चाहिए / भंडारादिकी आमदानीको, जहाँ शास्त्राज्ञा अनुसार संचालन होता हो और देवद्रव्यकी संग्रहवृत्ति होती न हो ऐसे संघ देरासरमें ही जमा करानी चाहिए / प्रश्न : (25) घरदेरासरमें अर्पित चावल, बादाम आदिकी व्यवस्था क्या करें ? उत्तर : उसकी बिक्री करके संघ- देरासरमें उस रकमको जमा कराये अथवा चावल आदिको संघदेरासरमें भिजवा दें / उन्हीं समर्पित हुए चावल, बादाम आदि पदार्थो द्वारा अथवा उसकी बिक्रीसे प्राप्त द्रव्यसे संघदेरासरमें, घरका मालिक अक्षत पुष्पादि किसी भी प्रकारकी पूजा नहीं कर सकता / ऐसा करने पर उसे जूठा यश प्राप्त हो कि वाह ! भाई कितने बडे उदार हैं कि देरासरमें अक्षतादिसे पूजा करनेके बाद पुनः बडे देरासरमें भी नये अक्षतादिसे पूजा करते है / इससे जूठा यश प्राप्त होनेका दोष लगता है, ऐसा 'द्रव्यसप्ततिका' ग्रन्थमें कहा है / यहाँ देवद्रव्यके भक्षणका दोष लगता है एसा नहीं कहा / प्रश्न : (26) देवद्रव्यकी उछामनी पर थोडा-सा सरचार्ज रखकर और उस रकमको साधारण खातेमें ली जाय, तो इस तरह साधारण खातेके घाटेको दूर किया न जाय ? उत्तर : बैंकमें जमा देवद्रव्यको रकम पर प्राप्त होनेवाले सूदको जैसे Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 . धार्मिक-वहीवट विचा साधारण खातेमें जमा नहीं लिया जाता, उसी प्रकार देवद्रव्य पर लगाया जानेवाला सरचार्ज भी साधारण खातेमें लिया नहीं जाता / ... जो लोग उछामनीकी बोली बोलते है, वे अमुक निश्चित रकम बोलनेका मनमें संकल्प करते हैं / उदा., एक हजार रूपयोंको बोलना चाहेगा, और चार रूपयोंका मण घी होगा तो, ढाई सौ मण तककी बोली बोलेगा इस प्रकार उसके एक हजार रूपये देवद्रव्यमें जमा होंगे / जो चार रूप पर एक रूपयेका सरचार्ज डाला गया होगा तो वह मणका भाव पाँच रूपयों हिसाबसे दोसौ मण घीकी बोली बोलेगा / ऐसा होने पर, देवद्रव्यमें उसने 800 रूपये जमा होंगे / इसमें दोसौ रूपयोंका देवद्रव्यको नुकसान होता है; अतः सरचार्ज लिया न जाय / सही बात यह है कि सरचार्ज, प्रिमियर शो आदि द्वारा साधारणमें या उपाश्रय आदिमें रकम एकत्र करनेवाले संघके जो धनिक सज्जन हैं, उनमें औदार्यकी कमी है, यह बात निश्चित होती है / इसके लिए यदि पुण्यशाली व्याख्यानकार धनमूर्छा उतारनेवाली वाणीका प्रभावशाली प्रवाह बहाएँ तो इतनी धनराशि इकठ्ठी हो जाय कि संचालकोंको सरचार्ज आदिका सहारा लेनेकी नौबत ही आने न पाये / उपरान्त, विशिष्ट व्याख्यानकार मुनिलोग साधारणखातेके घाटेवाले स्थलोमें साधारण फंडकी योजना मुख्यतया पेशकर उसीमें ही पर्याप्त रकम एकत्र हो जाय, ऐसा उपदेश देना चाहिए / यदि ऐसे समय भी देवद्रव्यके महत्त्वको मुख्य स्थान देकर, साधारणखातेकी उपेक्षा करनेके लिए समझाया जायेगा तो परिस्थिति ऐसी होगी कि साधारणमें हमेशा घाटा रहा तो देवद्रव्यमें हवाला डालकर देवद्रव्यका भक्षणका भयानक पाप जारी रहेगा / सूद भी जमा करानेकी जहाँ हैसियत न हो, वह संघ अपनी मूडी तो कैसे वापस कर पायेगा ? इसकी अपेक्षा तो साधारणखातेकी आमदानीके स्रोतों पर विशेष ध्यान देना चाहिए / प्रश्न : (27) देवद्रव्यकी रकमका उपयोग साधारणादि खातेमें हो गया हो तो क्या किया जाय ? उत्तर : यथाशीघ्र पूरे सूदके साथ उस रकमको उस खातेमें वापस जमा करा देनी चाहिए / देवद्रव्यके किसी भी प्रकारके भक्षणको अति भयानक कक्षाका पाप माना गया है / इसीकारण तो संकाश श्रावक अनंत संसारी बन गया / Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी देरासरके सुगंधित देव-निर्मित स्वस्तिकके चावलको शुभंकरसेठने खीर बनानेके लिए उठाये / उसके बदलेमें अपने बाटवाके तीन गुने चावल उन्होंने भंडारमें डाले / फिर भी वे शुद्ध नहीं हो पाये। उन चावलोंसे पकी खीर खानेके कारण शुभंकरसेठ अपने धंधे-व्यवसायमें बरबाद हो गया / जिस साधुको वह खीर वहोरायी, वह साधु भी संयमजीवनसे शिथिल हुआ / बादमें गुरुने वमन-विरेचन आदि उपायोंसे उसके पेटमेंसे उन चावलोंको निकलवा दिये और योग्य प्रायश्चित्त द्वारा संयमके मार्ग पर ला दिया / इन दुष्परिणामोंको दृष्टिगोचर करते हुए देवद्रव्यकी रकम या उसके सूदका जरा भी दुरुपयोग किया .न जाय, संचालको ऐसा होने न जो लोग उछामनीकी बोली बोलते हैं, उन्हें ध्यान देना चाहिए कि उछामनीकी रकम, जल्दसे जल्द जमा कर देनी चाहिए / यदि संघने मुद्दत (समयमर्यादा) निश्चित की हो, उससे पहले ही रकम जमा कर देनी चाहिए / अगर. समयमर्यादा बीत जानेके बाद जमा कराये तो सूदके साथ यथाशीघ्र जमा करा देनी चाहिए / प्रतिकूल परिस्थितिमें सूद भर न पाये तो मूडी जमा कर, सूद जमा करनेकी बातको भविष्य पर रखनी चाहिए / स्त्रियोंके गहने बेचकर भी देवद्रव्यकी रकम चूकता करनी ही चाहिए / खाने पीनेमें घी आदिका उपयोग बंद कर रकम बचाकर भी देवद्रव्यकी रकम जमा करा दें / ... प्रश्न :- (28) घरमें बहनोंको एम. सी.के कारण आशातनाका भयस्थान बना रहने पर, घरदेरासर बनाया जाय ? उत्तर :- व्यवहारमें तो प्रत्येक स्थान पर भय बना ही रहता है / खानेमें कब्जका, धंधेमें नुकसानका, प्रवासमें दुर्घटनाका आदि अनेक भय कहाँ बने नहीं रहते ? फिर भी उस भयको पारकर प्रत्येक मनुष्य साहस करता है ? __कब्ज न हो उसकी पूरी सावधानीके साथ सभी भोजन करते हैं। इस भयसे कभी कोई भोजन करना छोड नहीं देता / कपडोंमें जूका होनेका भय होने पर भी सावधानीके साथ कपडे पहने जाते हैं / चूकाके भयसे कोई वस्त्रोंका त्याग नहीं करता / Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 धार्मिक-वहीवट विचार एम. सी.वाली बहनें भी श्राविकाएँ हैं / उन्हें आशातनाका ख्याल है / अतः उन दिनोंमें वे पूरी सावधानी रखे तो, घरदेरासर करने में कोई आशातना न रहे / _ ऐसा कहनेवाले कई लोग घरमें देरासर करनेके प्रति अरुचि रखते हैं / उसके लिए उन्हें आशातनाका बहाना मिल जाता है / इस प्रकार घरमें भगवानका प्रवेश ही न हो पाये, यह क्या भगवानकी सबसे बडी आशातना नहीं ? घरमें सभी रह सके,केवल भगवान ही नहीं, अरेरेरे..... शायद कभी देरासरमें एम. सी. वाली स्त्री गलतीसे भी जा पहँचे. तो उसका निवारण है ? देरासरको दूधसे धोया जाय और गुरुके पास प्रायश्चित्त करें / इस प्रकार दोषनिवारण होता है / और परमात्माकी पूजा आदिके कई लाभ प्राप्त होते रहे / घरदेरासर हो तो, घरके सभी छोटे-बडे परमात्माकी पूजा, आरती, भावना आदि कर सके / दूरके देरासरमें सुबहके स्कूलवाले बच्चे, रविवारको भी मुसीबतसे जा पाते हैं / . घरदेरासरके अपार लाभोंको ध्यानमें रख, एम. सी.की आशातनाके बारेमें सावध रहकर, देरासर तो बनना ही चाहिए / नयी पीढीकी संतानोंको पश्चिमके खराब वातावरणसे बचानेका एक मात्र रास्ता है : "घरदेरासरमें उन सर्वकी जिनपूजा" / प्रश्न : (29) घरदेरासर बनानेमें किन सावधानियोंका ध्यान रखा जाय ? उत्तर :- (1) घरके किसी भी सभ्यकी राशि पर जो परमात्मा आते हो, उन्हें मूलनायकके रूपमें बिराजमान करे / (2) सामान्यतया पंचधातु आदि (पाषाणके अलावा) 11 ईंच तकके प्रभु होने चाहिए। (3) परमात्माके मुखके समक्ष, दक्षिण अथवा पश्चिम दिशा सामान्यतः होनी चाहिए / (4) परमात्माको जिस स्थान पर गद्दीनशीन किये हो उसके उपरके मजले पर किसीका पदस्पर्श होना नहीं चाहिए / नीचे या पासमें संडास या उसकी पाइपलाईन गुजरती न हो / (5) देरासरके भागमें कोई भी सांसारिककाम नहीं करना चाहिए / (6) आखिरमें एक आलमारी बनानी चाहिए / उसे Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्रोत्तरी दर्शन, पूजन सिवाके समयमें बंध रखा जाय, जिससे प्रभु दीख न पड़े / (7) रोज शाम आरती उतारनी चाहिए / (8) घरदेरासरमें शिल्पविषयक -लोहेका उपयोग न करना, दृष्टि मिलाना आदि-नियम लागू नहीं होते / (9) घरके सभी बाहर जानेवाले हों, पडोसी भी पूजा कर पाये ऐसी हालत न हो, तब उतने समयके लिए प्रभुको संघ देरासरमें स्थापित करें / पुनः घरमें लाते समय, सात नवकार गिनकर प्रवेश कराये (10) घर देरासरकी सारी वस्तुएँ चावल, वादाम, फल आदि, भंडारकी रकम आदि संघ देरासरमें भेज दिया जाय / (11) बहारके लोग पूजा करनेके लिए आये, ऐसी व्यवस्था करनी हो तो, देरासरकी सीडी या द्वार बिल्कुल अलगसे रखे, जिससे घरके लोगोंके साथ उनका संपर्क न हो / प्रश्न : (30) कोई पुण्यात्मा स्वद्रव्यमेंसे दस लाख रूपयोंका खर्च कर शिखरबंद जिनालय बनाने के लिए तत्पर है / इस जिनालयकी रकम, वह जहाँ जहाँ साधारण खातोंमें रकमकी आवश्यकता हो, वहाँ जमा कराये और उस संघके पाससे उतनी ही देवद्रव्यकी रकम प्राप्त करें और उस रकममेंसे देरासर बनाये तो उसमें कोई आपत्ति समजी जाय ? इससे दो लाभ उसे होंगे / देरासर बन पाये और अनेक संघोके साधारण खाते समृद्ध हो अथवा देवद्रव्यकी लोन भरपाई हो सके / उत्तर :- जिस दाताने जितना स्वद्रव्य देरासरमें लगानेका दृढ संकल्प किया हो, उतनी वह रकम देवद्रव्य बन पाती है / इस रकमको अन्य संघोंके साधारण खातोंमें जमा नहीं करा सकता, परंतु उसमें निश्चित संकल्पसे उपर रकम जाय : मानों दस लाखका संकल्प है, और देरासरका काम बढ़ जानेसे. या महँगाई बढ़नेसे बीस लाख तकके खर्च होनेकी संभावना हो तो, उपरकी रकमके जो दस लाख रूपये होंगे, उसमें उस दाताका देवद्रव्य खातेमें खर्च करनेका संकल्प न था, अतः इस साफ रकमको अन्य संघोंके साधारण खातोंमें दे सकता है / इसके बारेमें वे संघ उसे देवद्रव्यकी रकमकी बराबरी रकम या कम बहुत दे सकते हैं / उस रकमका उपयोग, अपने देरासरके बाकी रहे दस लाख रूपयोंके कामोंमें वह कर सकता है / लेकिन अब वह देरासर उसका निजी-स्वद्रव्यसे बना हुआ है, ऐसा दाता कह नहीं सकेंगे / उन्हें, अन्य संघो द्वारा दी हुई देवद्रव्यकी रकमोंकी . Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार तखती रूपमें नोंध देरासरके मुख्य स्थल पर रखनी होंगी, जिसे किसीको गैरसमझ न होने पाये / __ प्रश्न यह है कि क्या ऐसा किया जाय ? मुझे महसूस होता है कि उपर निर्दिष्ट परिस्थितिमें ऐसा करना उचित होगा / भले ही वह जिनालय स्वद्रव्य निर्मित न कहा जाय, लेकिन उसके बदलेमें अनेक संघोकी देवद्रव्यकी लोन भरपाई हो जानेका और साधारण खातेमेंसे संपन्न होनेवाले कार्य पर हो जानेका लाभ सर्वोत्कृष्ट है / अन्यथा ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर, तत्कालीन गीतार्थ गुरुके सामने सारी बातें पेश कर, उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करना ही अधिक उचित माना जाय / प्रश्न : (31) देवद्रव्यकी रकम बैंकमें जमा कराकर हिंसादिके कार्यमें उपयोग करानेकी अपेक्षा, उस रकमका उपयोग जमीनकी खरीदीमें करना उचित नहीं ? ___ उत्तर :- अवश्य उचित ही है, लेकिन उस जमीन पर देरासरका ही निर्माण होना चाहिए अथवा भविष्यमें भावोंमें बढौतरी हो और उस जमीनकी बिक्री करनी पडे तो उस रकमको देवद्रव्यके. खातेमें जमा करानी चाहिए / उपरान्त, जमीनकी बिक्री करना, अब बांये हाथका खेल नहीं रहा, चेरिटी कमिशनरकी मंजूरी लेनी पडती है, अखबारोमें विज्ञापन देना पड़ता है, ऐसी कई झंझटे हैं, जिनमें फँस जानेकी पूरी संभावना फिर भी, बैंकमें रकम रहे, उसकी अपेक्षा इस तरह हिंसाकी अनुमोदना न हो और बिक्री होने पर सूदसे भी ज्यादा रकम प्राप्त हो, ये लाभ तो है ही / लेकिन यह सब करनेकी अपेक्षा जहाँ जीर्णोद्वारादिमें रकमकी आवश्यकता हो, वहीं ट्रस्टी लोग रकम क्यों जमा न कराये ? उस रकमके प्रति बहुत ज्यादा ममता क्यों रखी जाय ? आँखोके सामने बैल भूखों मर रहा हो, फिर भी जीवदयाकी रकममेंसे उसे घास खरीदकर डाला न जाय ? रकमको केवल जमा ही रखी जाय, यह नितांत पागलपन ही है ! ऐसा ही इस विषयमें क्यों किया जाय ? Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी अरे, मोह हो तो भले बना रहे ! दान न करो / लेकिन जीर्णोद्धारादिके कार्योके लिए लोन तो दो / इस तरहसे भी ट्रस्टी लोग बैंकमें जमा रखनेके संभवित पापकर्मोंसे बचे रहेंगे / प्रश्न :- (32) देवद्रव्य खातेसे साधारण खाता लोन लेकर, कोई जमीन खरीदे और फिर ऊँचे भावसे बेचकर, देवद्रव्य का सूद के साथ लोन भरपाई कर, बाकी बची रकमको, साधारण खातेमें जमा कर सकता है ? उत्तर : नहीं, यह तो देवद्रव्यके खातेके साथ कानूनी भी धोखाबाजी होगी / इस प्रकार करनेसे देवद्रव्यको नुकसान पहुँचाया है / यह भी समझमें आता है कि ऐसा करनेके पीछे साधारण खातेको समृद्ध बनानेका मुख्य उद्देश होता है / लेकिन यदि ऐसा ही करना है तो, सुखी श्रीमंतोके पाससे लोन (सूद या बिना सूदकी) लेकर जमीन खरीदना चाहिये / उच्च दामसे जमीन बेचके श्रीमंतोको उनकी रकम सूदके साथ भरपाई करनी चाहिए और बाकीका नफा साधारण खाते में जमा करना चाहिये / फिर भी विशिष्ट कोटीके गीतार्थ महात्मा (इस बातके अनुभवी) जैसा कहे, वैसा करें / प्रश्न :- (33) संघ में बालजीव धर्म प्रवृत्तिमें शामिल हो, उस हेतुसे अष्टप्रकारी पूजा जैसा कोई अनुष्ठान रखा जाय और उसका खर्च (केसरादिका तथा साधर्मिक भक्तिका) निकालनेके लिए प्रत्येक व्यक्तिके पाससे नकरा लिया जाय / केवल मूलनायक भगवंतकी अष्टप्रकारी पूजाकी आठ उछामनी बुलायी जाय, तो उचित होगा ? उत्तर :- अष्टप्रकारी पूजा आदिमें केवल पूजाका ही नकरा आदि रखकर, आयोजन किया जाय तो वह रकम केवल पूजाकी सामग्री, पूजा मंडप आदिके खर्च में उपयोगमें ली जाय / बाकी बची रकमको देवद्रव्य खातेमें जमा करा दी जाय / जब अनेक व्यक्ति इकट्ठे होकर साधर्मिक भक्ति या प्रभावना आदिके साथ जिनभक्तिके अनुष्ठानका या महोत्सवका आयोजन करें और प्रत्येक व्यक्तिसे आयोजन खर्चके निमित्त एक हजार, पाँच हजार आदि रकम (नकरा) निश्चित्त कर ले और बादमें प्रत्येक आयोजकको एक भगवानको अभिषेक या अष्टप्रकारी पूजा आदिका लाभ, उसके दान अनुसार समर्पित किये जाय Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार तो कोई हानि नहीं / इस प्रकारके आयोजनोंकी रकम द्वारा साधर्मिक भक्ति, प्रभावना, मंडप रचना, पूजाकी सामग्री आदिका खर्च किया जाय / इसमें कोई हर्ज नहीं / ऐसे अनुष्ठानोंसे शासन-प्रभावना, देवद्रव्यमें अच्छी-खासी बढौतरी और अनेक जीवोंको सम्यग्दर्शनादि प्राप्त होनेके लाभ होते हैं / हालमें अंजनशलाका, प्रतिष्ठा महोत्सव या अन्य किसी महोत्सव निमित्त सिद्धचक्र पूजन, शान्ति-स्नात्र आदिके आदेश, नकरा या उछामनीके साथ दिये जाते हैं और उसमेंसे सिद्धचक्रपूजन या शान्ति- स्नात्रका प्रभावनाके साथ खर्च किया जाता है / इसका कारण यह है कि आदेश देते समय प्रभावनाके साथ पूजा आदिका खर्च अभिप्रेत होता है / संभव हो तो मूलनायक भगवंतकी पूजादिकी या अन्य महत्त्वके लाभके लिए बोलियाँ भी बोली जायँ तो उनके द्वारा देवद्रव्यमें वृद्धि होनेसे सोने में सुगंध जैसा होगा; लेकिन बोली बुलानेका मरजियात होना चाहिए / उपरान्त, बालजीव ऐसे अष्ठानोंमें संमिलित होकर अष्टप्रकारी पूजाके जाणकार होंगे, प्रभुभक्तिकी बाते सुनकर परमात्माके प्रति सद्भावनायुक्त बनेंगे / कई तो सदाके लिए अष्टप्रकारी पूजाके आग्रही बन जायेंगे / इस प्रकार भारी मात्रामें धर्मवृद्धि और शासन प्रभावनामें बढावा होगा / क्योंकि हर बातकी रूपयोंके साथ तुलना करनी नहीं चाहिए। प्रश्न :- (34) देरासरमें प्रतिदिन बुलाये जाते अष्टप्रकारी पूजा के चढावेकी रकम किस खातेमें जमा की जाय ? उत्तर :- इस रकमको देवद्रव्यके खातेमें- कल्पित देवद्रव्यके खातेमेंजमा की जाय / लेकिन बारह मासके केसर, पूजारी आदिके खर्चके निर्वाहके लिए जो फंड या चढावा हो, उसे भी देवद्रव्य खातेमें ही जमा किया जाय; लेकिन पूजा देवद्रव्यके विभागमें जमा हो / प्रश्न :- (35) पूजामें शुद्ध रेशमी वस्त्रोंका उपयोग किया जाता है और शुद्ध कस्तूरी आदिका उपयोग किया जाता है, वे प्रायः हिंसाजनित होते हैं / आजकल उसकी जोरोंकी चर्चा है, तो क्या किया जाय ? उत्तर :- भूतकालमें ये सब शुद्ध वस्तु पूजाके उपयोगमें लायी जाती थीं; लेकिन उस जमानेमें वे हिंसाजनित न थी / साहजिक रूममें मृत मृगके शरीरसे कस्तूरी प्राप्त होती थी / कोशेटेमेंसे जीव उसे चीरकर बाहर निकल Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी 77 जाता तब उस कोशेटोके तंतुओमेंसे रेशमी वस्त्र बनाया जाता था / अब इन सारी बातोंमें व्यावसायिक स्पर्धा आ चूकी है / अत: बड़ी मात्रामें व्यापार करनेके लिए ये सारी चीजें सहज स्वरूपमें नहीं मिल पाती / अतः जिन्दा प्राणियोंको खत्म कर पायी जाती हैं / खात्मा भी क्रूरतासे किया जाता यदि इस प्रकारसे प्राप्त चीजोंका धर्मकार्योंमें उपयोग होनेसे, अजैन लोग जैनधर्मकी आलोचना करें, तो इन चीजोंका उपयोग करनेमें सावधान रहे, उन जीवोंको दुर्लभबोधि बननेमें निमित्त न हो / ऐसी चीजोंसे भी किसीकी चित्तपरिणति (निश्चय) ज्यादा निर्मल होती हो तो भी उन्हें संभवित लोकनिंदा(व्यवहार)को लक्षमें लेनी चाहिए। साथ साथ सूती कपडोंके लिए भी खेतोमें और मिलोंके प्रोसेसिंग विभागमें कितनी हिंसा होती है, उसकी भी छानबीन करनी चाहिए / सूती और रेशमी कपडोंमें होने वाली पंचेन्द्रिय हिंसाकी तुलना कर, जिसमें हिंसा कम होती हो, उसका उपयोग करना उचित होगा / प्रश्न :- (36) विशिष्ट कक्षाके दीपोत्सवी जैसे बड़े भारी दिनों में खर्चीली आंगी की जाय तो कई जीव परमात्माके प्रति आकृष्ट होकर लीनता प्राप्त करें / अब यदि कोई सामान्य स्थितिका आदमी उस दिनकी सो रूपयोंकी सादी आंगी का लाभ प्राप्त करें तो स्वद्रव्य की सादी आँगी करे या देवद्रव्यकी रकम शामिल कर भारी रकमकी आँगी करें ? उत्तर :- दूसरे भाईयोंको भी इस लाभकार्यमें संमिलित कर स्वद्रव्यसे ही यदि आँगी हो पाये तो सुंदर होगा, अन्यथा श्री संघकी व्यवस्था पर पूजा या कल्पित देवद्रव्यकी रकम उपयोगमें लेकर भारी आँगी की जा सकती है / ऐसी आंगी शासन-प्रभावनाका और अनेक जीवोंके बोधिकी निमित्त हो सकती है / प्रश्न :- (37) भगवानकी अपेक्षा, देव-देवीकी महत्ता बढ़ जाय, वह उचित है ? उत्तर :- जरा भी नहीं / ये तो भगवानके दास हैं / अरे, दासोंके (साधु, श्रावक) भी दास हैं / उनका महत्त्व भगवानकी अपेक्षा यदि कोई Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 धार्मिक-वहीवट विचार बढ़ा दे तो, वह व्यक्ति भगवानकी घोर आशातना करता है / भगवानके सेवक भी, अपनी ऐसी भक्तिसे कभी प्रसन्न नहीं होते / उपरसे भगवानका मूल्य इस प्रकार घटानेवालोंके प्रति वे गुस्सेवाले होते हैं / ये तो उनका सम्यग्दर्शन है / भगवानके दास स्वरूप सम्यग्दृष्टि देवदेवियोंको भगवानके मंदिरमें जो बैठाये जाते हैं, वे परमात्माके भक्त हैं, इस गौरवके कारण उन्हें वह स्थान मिल पाया है, नहीं कि उनकी नवांग पूजा करनेके लिए / वे श्रावक जैसे ही प्रभुभक्त हैं / प्रभुभक्तोंको केवल ललाटमें तिलक किया जाता है, जैसे संघपूजनमें श्रावक-श्राविकाओंके ललाटमें तिलक किया जाय वैसे / जो लोग परमात्माकी अपेक्षा, उनका महत्त्व अधिक बढ़ाते हैं / उनकी आरती आदिका घी ज्यादा बोलते हैं; वे परमात्माकी सर्वहितकारी शक्तिमें विश्वास नहीं रखते / भगवान वीतराग होनेसे कुछ भी कर नहीं पाते, देवदेवियाँ ही रागयुक्त होनेसे भक्तों पर प्रसन्न होते हैं और सब कुछ मनचाहा प्राप्त करा देते है, ऐसी वैसे देव-भक्तोंकी मान्यताके मूलमें गैरसमज भरी पडी है / उनकी यह भारी अज्ञानता है / भगवंतोकी अचिन्त्य शक्तिका उन्हें जरा भी परिचय नहीं / ऐसे भक्त जैन संघमें परमात्माके प्रति आदर कम करानेमें अनजानेमें भी शामिल हुए हैं / प्रश्न :- (38) शिखरकी ध्वजाकी बोली वंशपरंपरागत बोली जाय यही अच्छी है या प्रतिवर्ष बोली जाय वह ठीक मानी जाय ? उत्तर :- हिंसादिकार्योमें रकमका उपयोग करनेवाली बैंकोमें देवद्रव्यके पैसे जमा न हो, ऐसा करना आवश्यक बना है। वारसागत बोलीमें बडी रकम प्राप्त होगी, लेकिन वह बैंकमें जमा हो / उसका सूद ही उपयोगमें लिया जाय, अतः उसकी अपेक्षा प्रतिवर्ष बोली, बोली जाय वह ठीक होगा; फिर भी इसका निर्णय, व्यक्तिगत संघ, देरासर आदिको ध्यानमें रखकर लेना चाहिए / प्रश्न :- (39) देरासरमें विद्युतके लाईट-पंखे इत्यादिका उपयोग किया जाना उचित है ? उत्तर : नहीं / उपयोग होना न चाहिए / गर्भगृहमें शुद्ध घीके दीप जलते हों / रंगमंडपमें नारियलके तैलके दीप जलते हों ऐसी परंपरा थी / ऐसे घीके दियोंसे दो लाभ थे / उसकी अप्रतिम सुगंध भक्तके दिलोदिमागको तरबतर कर देती थी, जिससे भक्तजन भक्तिरसमें सहजरूपसे भरपूर Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी हो जाता था / “उपरान्त, घीके दीयेसे दैवी तत्त्वोंका आकर्षण होनेका दूसरा लाभ था / इलेक्ट्रिक लाइटोंमें इन दोनों लाभोंका खात्मा हो जाता है / जहाँ ऐसी लाईटें हों, वहाँ देवोंका आगमन संभव है क्या ? उपरान्त, जहाँ इलेक्ट्रिसिटी उत्पन्न होती हो, वहाँ घोरातिघोर हिंसा होती है / दीप यदि प्रकाशके लिए होते तो उनके स्थान पर इलेक्ट्रिक लाईटोंसे प्रकाश ला . पाते, लेकिन ऐसा नहीं / आखिर, गर्भगृहमें तो घीके दीप, दो सन्ध्याओंके थोडे समयके लिए रखे जायँ / उसका आनन्द कोई निराला ही होता है / रंगमंडपमें मजबूरीसे लाईट रखनी पडे तो वह बहुत मंद रोशनीकी हो और उसके उपर कोई क्वोटिंग हो जिससे उडनेवाली जीव वहाँ पहुँच ही न पाये / अन्यथा. घोर हिंसा हो जायेगी / लाइटसे सस्तेपनकी खोज करने पर हमने भक्तिरसका पूरा वातावरण जमानेवाले दीपक दूर कर कितना नुकसान उठाया है ? उपरान्त, इलेक्ट्रिक दीयोंकी उग्र गरमीसे परमात्माका बिम्ब काला होता रहता है / भक्तोंकी , आँखें भी चकाचौंध होकर तन्मयता पैदा नहीं होती / प्रश्न :- (40) साधारण खातेकी आमदानी करनेके लिए देरासर के अंदर या बाहर पद्मावतीजी आदिकी प्रतिमा स्थापित की जाय ? वह साधर्मिक होनेके कारण उनके भंडारकी आमदानी साधारण खाते में जमा हो सके ऐसा होने पर इस पद्धतिसे देवद्रव्य और साधारण खातोंके घाटेका बारहमासी प्रश्न आसानीसे हल हो सके उत्तर : सम्यग्दृष्टि देव-देवियोंकी प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा, तीर्थरक्षा, शासन रक्षा, संघरक्षादिके लिए एवं क्षुद्र देवोंके उपद्रवोंके निवारणके लिए की जा सकती है; लेकिन साधारणकी आयके लिए ही की जाय, यह उचित नहीं . शास्त्रकार भगवंत, देवाधिदेवकी भक्तिके, मंदिरके सभीकार्योंके लिए कल्पित देवद्रव्यका उपयोग किया जाय, ऐसा जब सूचित करते हैं तब संघोंके सुचारु संचालनके लिए और साधारण खातेकी दैनिक समस्याका हल यह है कि परमात्माकी पूजा-भक्ति, आँगी, पूजारीका वेतन आदिके लिए गृहस्थोंकी ओरसे जो भी रकम प्राप्त हो, उसे पाकर, बाकीके खर्च निकालने लिए Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 धार्मिक-वहीवट विचार कल्पित देवद्रव्यकी रकमका उपयोग करें / ऐसा करनेसे साधारण खातेके लिए उपाश्रय, आयंबिल खाता आदिका ही भार संघको रहेगा / इस प्रकार देरासरके बडे खर्चकी चिंता दूर होने पर संघोंका बोझ कम होगा और उपाश्रय आदिका खर्च, साधारण खातेकी रकमसे आसानीसे किया जा सकेगा / पूज्यपाद पं. भद्रंकरविजयजी गणिवर श्रीने सूचित किया है कि (परिशिष्टमें उनका पत्र देखें) 'जहाँ पूजाके साधारणमें घाटा है और नया पैदा हो सके ऐसी हालत नहीं, वहाँ देवद्रव्य द्वारा उस घाटेकी पूर्ति की जाय, उसमें भी कोई बाधा नहीं और वैसा करना यह वर्तमान राजनीतिक परिस्थितिमें समयोचित भी माना जाय / ' देरासरमें पूजा आदिका सारा खर्च, साधारणमेंसे ही करनेके आग्रही बड़े संघोंके पर साधारण खर्चका भारी जवाबदारी आ जाती है / जिसकी पूर्ति न होने पर, देवदेवियोंकी, घंटाकर्णकी प्रतिमाओंकी स्थापना साधारण खातेकी आमदानीके लिए करते हैं / इससे देवाधिदेवका महत्त्व कम होता है और देवदेवियोंका महत्त्व बढ़ता है / इस प्रकार प्रभुजीकी आशातनामें निमित्तरूप होते हैं / अतः साधारण खातेकी समस्याके उपायके लिए उपर निर्दिष्ट शास्त्रानुसारी उपाय ही आवश्यक है / ' प्रश्न : (41) स्नात्रपूजाका श्रीफल रोज एक ही एक समर्पित किया जाय और उसके मूल्यके रूपमें पाँच रूपये देवद्रव्यके भंडारमें प्रतिदिन डाले जाय तो, कोई हर्ज है ? उत्तर :- धर्म केवल बाह्य क्रियात्मक नहीं है, वह भावात्मक भी है / प्रतिदिन नया फल समर्पित किया जाय, उससे उत्पन्न भावोल्लासको पाँच रूपयेके नोट डालकर महसूस करना, यह उचित नहीं / श्रीफल तो निर्माल्य चीज है / उसे बार बार एक ही कैसे समर्पित किया जाय ? अलबत्त, दूसरे अधिक श्रीफलोंकी उपलब्धि होती न हो तो ऐसे स्थल पर चाँदीका श्रीफल बनाया जाय, (जो निर्माल्य नहीं बन पाता) उसे रोज समर्पित किया जाय / उसके निमित्त पाँच रूपये भंडारमें डाल सकते प्रश्न :- (42) देरासरमें काँचकाम, भंडार, सिंहासन, दीवारोंमें चित्रपट आदिका खर्च देवद्रव्यमेंसे किया जा सकता है ? उत्तर :- अवश्य, उसमें कोई बाधा नहीं / चित्रपटों आदिके लिए दान ग्रहण कर, दाताकी तख्ती योजना की जाय तो देवद्रव्यमेंसे उतनी रकमका Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी खर्च न करना पडे / वर्ना जिनमंदिरको संदर और आकर्षक बनानेके लिए जो विशिष्ट खर्च करना पडे उसे देवद्रव्यमेंसे भी किया जाय / कटोरी आदि साधन एवं केसर, सुखड आदि सामग्री कल्पित देवद्रव्यमेंसे भी लायी जा सकती है / प्रश्न :- (43) देरासर और उपाश्रयादि खातेका मुनीम या नौकर एक ही हो तो उसे वेतन किस खातेमेंसे दिया जाय ? उत्तर :- जिस खातेका जितना काम हो उसके अनुसार प्रतिशत प्रमाण निश्चित कर, जिसतिस खातेमेंसे दिया जाय / उसमें भी साधारणमेंसे थोडा अधिक दिया जाय / पूरा साधारण खातेमेंसे वेतन दिया जाय तो सर्वोत्तम होगा / जैन हो तो साधारणमेंसे ही पूरा वेतन दिया जाय / प्रश्न :- (44) कुमारपालकी आरतीके प्रसंगमें कुमारपाल, सेनापति, महामंत्री आदिकी उछामनीकी रकम किस खातेमें जमा की जाय ? उत्तर :- परमात्माकी आरती निमित्त ये सारे पात्र हैं / अतः उन सभीकी उछामनीकी रकम देवद्रव्यमें जमा की जाय / अलबत्त, उन्हें तिलक करनेके चढ़ावेकी रकम साधारण खातेमें जमा होगी / प्रश्न :- (45) देवद्रव्यकी रकममेंसे इलेक्ट्रिक लाईट, माईक आदिका खर्च किया जाय ? उत्तर : नहीं, वह उचित नहीं; क्योंकि इन यंत्रोका उपयोग धर्म संस्कृतिको भारी नुकसान पहुँचानेवाला है। फिर भी यदि इलेक्ट्रिकका बील चुकाना हो तो दीयेके स्थान पर होनेसे, दीयेकी तरह कल्पित देवदेव्यमेंसे ही खर्च लिया जाय / प्रश्न : (46) माणिभद्र वीरकी प्रतिष्ठा देरासरके किसी गवाक्ष में की जा सकती है ? ____ उत्तर :- वह सम्यग्दृष्टि है / उपरान्त, तपागच्छके संरक्षक देव हैं, अंतः उसमें कोई आपत्ति नहीं / माणिभद्रकी प्रतिमा या गवाक्ष आदि, देवद्रव्यमेंसे निर्मित न हो, वास्तवमें तो उसकी स्थापना तीर्थकी तलहटीमें या उपाश्रयमें या उसके बाजुमें करनी चाहिए / वे जिनशासनकी और उसके तपागच्छकी रक्षा करे, उसके लिए ही उनकी प्रतिष्ठादि हो / भौतिक स्वार्थसिद्धिका उद्देश उसमें न होना चाहिए / उनकी प्रतिष्ठा करनेसे जैनसंघकी रक्षा होती है, अतः यह प्रतिष्ठा कर्तव्यरूप है / उस तत्त्वको जाग्रत करनेके लिए जो विधि विधान कर्तव्यरूप हों, उन सभीको गृहस्थलोग अवश्य करें / धा.व.-६ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 धार्मिक-वहीवट विचार पूर्णरूपमें विधिविधान किये बिना देव तुष्टमान नहि होते / अपूर्ण विधि और बहुत अविधि नुकशान करती है / वर्तमान विषमकालमें माणिभद्रवीरको यदि कोई मुमुक्षु आत्मा जाग्रत कर सके ऐसा सत्त्वशाली हो तो, उसे पूरी शक्तिसे काम करना चाहिए / थोड़े सत्त्वशाली मुनिलोग इस काममें जुड जाय तो वह अधिक उचित होगा / प्रश्र :- (47) शिल्प-शास्त्रका मुनियोंको ज्ञान न होनेके कारण. अर्धदग्ध सोमपुराओं द्वारा मंदिरोंके यथानियम निर्माण नहीं हो पाते, तो थोडे मुनियोंको इस विषयमें निष्णात न होना चाहिए ? उत्तर:- साधुओंको सावद्यमें चंचुपात नहीं करना चाहिए, लेकिन क्षतियोंको दूर करनेवालेको मार्गदर्शन देनेके लिए उन्हें निष्णात होना चाहिए / उतना ही नहीं, कतिपय पंडित श्रावक पत्थरोंके प्रकार, उनके भावताल आदिके भी ज्ञाता बने / क्योंकी बहुत-सी देवद्रव्यकी रकम जो भ्रष्टाचारमें चली जाती है, उसे इसी ढंगसे बचा सकते हैं / चातुर्मासमें बिल्लीके टोपकी तरह फूट पड़े तथाकथित सोमपुरा आदि देवद्रव्यको अपनी संपत्ति मान बैठे हैं / भरपूर लूटते हैं / अज्ञानी श्रावक इस विषयमें जरा भी गंभीर नहीं होते; क्योंकि मंदिरनिर्माणके लिए यथेच्छ धन चारों ओरसे-आवेदनपत्र भेजनेके साथ ही- उन्हें मिल पाता है / __यदि इस स्थितिमें सुधार होनेकी संभावना न हो तो ऐसी लूटसे देवद्रव्यके अमूल्य धनको बरबाद करनेकी अपेक्षा सामान्य घरदेरासर जैसे विशाल संघ देरासर बनाना चाहिए / वह शिखरबंद न हो, अत: उसे लोहेका उपयोग न किया जाय आदि नियम लागू नहीं होते / सोमपुराकी आवश्यकता नहीं रहती / इजनेरसे ही काम निपट जाता है / ऐसे होलमें गर्भगृहका भाग संगमरमर जडित सुंदर बनाना चाहिए / ऐसे देरासरको संघ देरासर कहा जाता है / जहाँ जैनोंके घर बहुत कम हों, वहाँ तो अब शिखरबंद देरासरोंके निर्माण करनेसे पहले सोचना चाहिए / वे बचेखुचे घर भी कब गाँव छोडकर चले जायेंगे, कहा नहीं जा सकता / ऐसे स्थलोमें पूर्वके शिखरबंद देरासर हो तो, यह उसका जीर्णोद्धार भी तभी कराना चाहिए यदि उस स्थल पर घर स्थायी बने रहनेवाले हों / या उसकी पक्की व्यवस्था होनेवाली हो, अन्यथा, जिनबिम्बोंका उत्थापन कर अन्य देरासरमें उन्हें रखने पड़े / बिना प्रतिमाके उन देरासरोमें मंगलमूर्ति रखकर ताला लगाना पड़े, जिससे अजैन लोग उसका कब्जा कर न ले / Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी प्रश्न :- (48) द्वारोद्घाटनका घी किस खातेमें जमा किया जाय ? उत्तर :- देवद्रव्य खाते....कल्पित देवद्रव्य खातेमें, पूजा देवद्रव्य खातेमें नहीं / प्रश्न :- (49) देरासरमें गलतीसे दवा या खानेकी चीज ले जायी गयी हो तो क्या किया जाय ? उत्तर :- यदि वह चीज किंमती न हो, तो उसका रेत आदिमें विसर्जन कर देना चाहिए, लेकिन भारी किंमतकी अभ्रक-भस्मादि हो तो, उसे दूकानदारको वापस कर बदलेमें दूसरी चीज ली जाय / वास्तवमें तो देवको समर्पित करनेका दृढ संकल्प (निश्चयबुद्धि) हो तभी वह द्रव्य देवद्रव्य बन पाता है / गलतीसे जिनमंदिरमें ली जा गयी वस्तु देवद्रव्य बन नहीं पाती / परन्तु व्यवहारशुद्धिके लिए उसका उपयोग करना उचित नहीं माना जाता / प्रश्न :- (50) देरासर में घड़ी रखना उचित है ? उत्तर :- सचमुच तो प्रभुभक्तिमें समयको देखना योग्य नहीं; परन्तु ऐसा करनेसे दुकान पर या नौकरी पर पहुँचने में देरी हो और उसके कारण उपालम्भ मिले, स्वयंको आर्तध्यान हो तो कभी जिनपूजा बंद कर देनेकी इच्छा हो / ऐसा न हो उसके लिए समय देखनेकी व्यवस्था की जाय तो उसमें कोई हानि नहीं / __- प्रश्न :- (51) परमात्माको किंमती आभूषणोंकी क्या जरूरत है ? इस विषयमें दिगंबर मान्यता उचित नहीं लगती ? उत्तर :- परमात्मा वीतराग हैं, लेकिन गृहस्थलोग तो रागयुक्त हैं न ? उनकी आभूषणोंके प्रति रागदशा दूर करनेके लिए वीतरागकी प्रतिमा पर आभूषण लगाए जाते हैं / यदि अपने प्रियपात्रको (पत्नीको) आभूषण पहनायें जायँ तो उपरसे रागदशामें बढ़ावा होगा / इसी लिए तो वीतरागको ही आभूषण पहनाये जायँ / वीतराग यानी वीतराग / आभूषण पहननेसे वे रागयुक्त नहीं बनेगें / अलबत्त उतने प्रमाणमें गृहस्थलोग रागमुक्त होंगे / वीतराग परमात्माका समवसरण, देशनाका सिंहासन, पाँव धरनेके कमल आदि कितने मूल्यवान हैं ? उससे वे रागयुक्त नहीं बन पाते / उसके विरद्ध उतनी संपत्तिके बीच भी उदासीन मुखमुद्रा द्वारा उनका वीतरागभाव Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार ज्यादा प्रोज्वल हो उठता है / उपरान्त, आभूषणोंके कारण बालजीवोंके लिए प्रभु अधिक आकर्षक लगते हैं / जिससे उनके प्रति अधिक आकर्षण पैदा होनेसे तन्मयता सिद्ध होती है / प्रश्न : (52) जिनप्रतिमा भरानेका और जिनप्रतिमाकी प्रतिष्ठा उन दोनोंमें क्या फर्क है ? प्रतिमाके पर किसका नाम आये ? भरानेवालेका या प्रतिष्ठा करानेवालेका ? उत्तर : जिनप्रतिमा भराना अर्थात् पत्थरमेंसे प्रतिमा बनाना, यह काम शिल्पीका है / इस प्रतिमाको बनानेका लाभ लेनेके लिए उछामनी बोली जाती है / जो पुण्यात्मा लाभ प्राप्त करे, वह अपने नामका मोह न रखे, यह योग्य और उत्तम है / फिर भी, लोकव्यवहारसे उसका नाम उस मूर्तिके नीचेकी पट्टीमें सामान्यतया लिखा जाता है / इस रकमका उपयोग वास्तवमें तो नयी मूर्तियोंके निर्माणमें ही किया जाय; परन्तु लाखों रुपियोंकी उछामनियां द्वारा कितनी मूर्तियाँ बनवायी जायँ? उपरान्त, पुनः उन मूर्तियोंकी भी उछामनियाँ तो होती ही रहेंगी / इस निमित्त अथवा अन्य निमित्त अब इस रकमका उपयोग आवश्यक सामग्री खरीदने में, पूजारीको वेतन देने आदिकामोंमें किया जाता है / इस रकमको जिसे कल्पित-देवद्रव्य कहा जाता है उस खातेमें जमा की जाय / जो प्रतिमा बनायी जाय, उसकी अंजनशलाकाविधि विशिष्ट संयमधारी पदस्थ भगवंतोकी पास करायी जाय / उस विधिके पूरे होते ही प्रतिमा 'भगवान' स्वरूप धारण करती है / शिल्पी मूर्ति बनाता है / महात्मा उसे भगवान बनाते हैं / इस प्रकार 'भगवान' स्वरूप बनी प्रतिमाको देरासरमें निश्चित स्थान पर जिस वेदिका पर प्रतिष्ठापित की जाय उसे प्रतिष्ठा कही जाती है / पाषाणकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठामें सीमेन्टसे उस स्थान पर उसे जमा कराती है / बादमें उसे हटायी नहीं जाती, अतः उसे स्थिर प्रतिष्ठा कही जाती है / (संयोगवश अतिथि भगवानके रूपमें भी सिमेन्टके द्वारा स्थिर किये जा सकते हैं / ) जब कि घरदेरासरोंमें 11 ईन्च पर्यन्त प्रमाणकी पंचधातु आदिकी मूर्ति ही प्रतिष्ठित की जाती है / जिसे स्थिर नहीं बना दी जाती / उसे 'चलप्रतिष्ठा' कही जाती है / गृहस्थको घर बंदकर थोडे दिनोंके Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी लिए बाहरगाँव जाना हो तब उस प्रतिमाको संघके देरासरमें स्थापित करे / बादमें पुनः घर वापस लायी जा सके अतः उस मूर्तिकी 'स्थिर प्रतिष्ठा' हो नहीं सकती / जिसने भगवान (प्रतिमा) निर्माणका लाभ लिया हो, उसका नाम मर्तिकी बैठकके नीचे पट्टी पर लिखा जाय / जिसने प्रतिष्ठाका लाभ लिया हो उसका नाम श्रीसंघ निश्चित कर उस स्थान पर अंकित किया जाय या लिखा जाय / उसका नाम बैठकके नीचे नहीं आ सकता / / जिनप्रतिमा निर्माण निमित्त जो रकम मिले, उसे कल्पित देवद्रव्यमें जमा की जाय अर्थात् उस रकमका उपयोग देरासरजी विषयककेसर, बरास आदि एवं पूजारीके वेतन आदिमें दी जाय और नूतन जिनमंदिर निर्माण, जीर्णोद्धार तथा प्रभुके आभूषण आदिमें किया जाय / / प्रश्न : (53) स्वप्नद्रव्य विषयमें कोई शास्त्रपाठ नहीं है, फिर भी इतने विवादके पीछे क्या रहस्य है ? उत्तर :- भाई, सीधा शास्त्रपाठ नहीं, इसी लिए तो विवादोंको मौका मिल जाता है / ये उछामनियाँ थोडे वर्षों से ही शुरू हुई हैं, अतः उसका सीधा शास्त्रपाठ कहाँसे प्राप्त हो ? ऐसी बातोंमें तो अनेक गीतार्थ आचार्य सर्वसंमतिसे जो निर्णय दे, उसे मान्य रखा जाय / इस पुस्तकमें इस विषयमें अनेक बातें बतायी हैं, जिसका सार यह है कि इस बोलीकी रकमें कल्पित देवद्रव्यनामक देवद्रव्यमें जमा की जायँ / आवश्यकता पड़ने पर उसका उपयोग, देरासरविषयक संचालन खर्च में किया जाय / यथासंभव श्रावक ही स्वद्रव्यका उपयोग करें; जिससे उनकी धनमूर्छा दूर होनेका लाभ भी प्राप्त हो / लेकिन ऐसी संभावना न हो तो, श्रीसंघ द्वारा की गयी व्यवस्थानुसार कल्पित देवद्रव्यमेंसे अथवा पूजादेवद्रव्यमेंसे उपर निर्देशानुसार उपयोग किया जाय / जो हाल विद्यमान नहीं, ऐसे निकट भूतकालके ही महागीतीर्थ धुरंधर आचार्य-स्व. पूज्यपाद आ.देव श्रीमद् सागरानंद सूरीश्वरजी म. सा. तथा स्व. पूज्यपाद आ.देव श्रीमद् रविचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा., (स्व. पूज्यपाद आ.देव श्रीमद् रामचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.के शिष्यरत्न) आदिने इस बातका समर्थन किया है (देखे परिशिष्ट), उतना ही नहीं, परन्तु वि.सं. 2044 के सालमें अहमदाबादमें हुए संमेलनमें कई गीतार्थ आचार्योने सर्वानुमतिसे इस बातका Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 धार्मिक-वहीवट विचार समर्थन किया है / फिर भी ‘विवाद' उपस्थित किया गया है / उसमें भवितव्यत सिवा दोष किसे दिया जाय ? प्रश्न :- (54) कईलोग संघके देरासरमें जिनभक्ति साधारण (देवकुं साधारण )का भंडार रखवाते हैं और स्वद्रव्यसे ही पूजाका आग्रह रखते हैं, वह कितना उचित है ? 'जिनभक्ति-साधारण' और 'कल्पित देवद्रव्य का अन्तर समझाएँ / ... उत्तर :- बात सही है / एक ओर 'जिनभक्ति साधारण में जो रकम एकत्रित होती है, उससे जो लोग प्रभुपूजादि करते है, वह निश्चित रुपसे उनके लिए परद्रव्य है अथवा आगे बढकर ऐसा भी कह सकते हैं कि रकमका दान करनेवाला व्यक्ति, प्रभुपूजामें उस द्रव्यका उपयोग करनेके लिए संकल्पके साथ करता है / अतः वह रकम कल्पित देवद्रव्य ही बन जाती है / अब इस परद्रव्यसे या इस देवद्रव्यसे दूसरा व्यक्ति (बाहरगाँवसे आया अमीर या गरीब, शक्त या अशक्त) कैसे प्रभुपूजा कर पायेगा ? उसे स्वद्रव्यसे ही पूजा करनेका उस पक्षका आग्रह है / हमारे मतानुसार जिनभक्ति साधारण, देवकुं साधारण जिनपूजामें ही उपयुक्त किया जाय और कल्पित देवद्रव्य पूजा उपरान्त जीर्णोद्धार आदिमें भी उपयोगमें लाया जाय / प्रश्न :- (55) दिगंबर या सनातनी लागोंने जैन देरासर पर अधिकार कर लिया हो तो उस देरासरको वापस प्राप्त कर जीर्णोद्धारकी रकमसे उसका जीर्णोद्धार किया जा सकता है ? उत्तर :- अन्य तीर्थकोके अधिकारमें गया देरासर-प्रतिमाजी या तीर्थ, प्रयत्न करने पर पुनः प्राप्त होनेकी संभावना हो तो अवश्य प्रयत्न करें और वापस हाथ आने पर दुरस्ती आदि आवश्यक सब कुछ कर अठारह अभिषेकादि विधानों द्वारा शुद्ध कर पूर्ववत् उसकी पूजादि चालू कर दी जाय / प्रायः नागेश्वर तीर्थका भी हालमें इसी प्रकार पुनरुत्थान किया गया है / और हजारों यात्रीलोग उसकी यात्रा कर भक्तिलाभ प्राप्त कर रहे हैं / यदि मूर्ति या मंदिर पर अन्य लोंगोनें संपूर्णतया कब्जा कर लिया हो, उनकी ही विधि अनुसार पूजाकार्य करते हो और पुनःप्राप्त होनेकी संभावना दीखती न हो तो जब तक वह प्रतिमा, देरासर या तीर्थ वापस प्राप्त न हो, संघके अधिकार में न आ पाये तब तक उसके प्रति उपेक्षा दिखायें / हम वहाँ जाकर उनकी Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी विधि या हमारी विधिके अनुसार भी दर्शन पूजादि कर नहीं सकते / तिरुपति आदिके लिए भी यही बात समझ लें / प्रश्न :- (५६)केवल मोहवश देवद्रव्यके रूपये बैंकमें जमा कर रखे, तो वैसे ट्रस्टी कैसे दोषके साझेदार होंगे ? ट्रस्टीलोग कितने प्रतिशत रूपये अपने ट्रस्टमें रखकर बाकीकी रकम जीर्णोद्धारमें दे दें ? उत्तर : जिनमंदिरादिके ट्रस्टको अनिवार्य रूपमें सरकारमें रजिस्टर्ड कराने पंडते हैं, यह दुर्भाग्य की बात है / ऐसे रजिस्टर्ड टस्टोंकी रकम सरकारमान्य बैंकमें अथवा औद्योगिक पीढियों आदिमें सूद पर रखी जा सकती है / ___इन बैंको या औद्योगिक पीढियोंमें जमा हुई रकमका उपयोग प्रायः महारंभमें-महा हिंसामें ही किया जाता है / देवद्रव्यकी रकमको ऐसे स्थानोंमें जमा की ही न जाय / अतः सबसे अच्छी बात यही है कि जो भी रकम इकट्ठी हुई हो, उसका उपयोग देरासर आदि शास्त्रमान्य स्थलोंमें ही तुरंत कर दिया जाय / ____ तिथि आदिकी 'कायमी' योजनाएँ न बनाकर प्रतिवर्षके लिए हि केवल बनायी जाय / आखिरमें जहाँ जीर्णोद्धारादि कार्य चलते हैं वहाँ लोत रूपमें भी देवद्रव्यको रकम दे देनी चाहिए / प्रतिष्ठाके समय सामान्यतः भारी आमदनी होने पर वह लोन वापसी की जायेगी / पुनः अन्यत्र लोन / / अपने ही देरासर में आवश्यक हो तो उसमें उपयोग कर लें / जीवदयाकी रकम जितनी देरीसे उस विषयमें खर्च क जाय, उतना उन जीवोंको अभयदानादि देनेमें अंतराय होनेका भारी प ट्रस्टियोंको लगेगा / इसलिये इस रकमका भी जल्द उपयोग कर तना चाहिए / .. जिस रकमके सूद पर जो जो संचालन निभता हो-आधारित होउन संस्थाओंको ‘कॉर्पस' फंड एकत्र करना पडता है / इस कमको सरकारमान्य स्थान-संस्थामें ही जमा करनी पड़ती है, अतः हिंसाक महादोष उनके सर पर आरूढ होता है / इसमेंसे बचनेके लिए, उस संथाको, अपने उद्देशको अनुकूल बनकर जिस-तिस नगरमें मकान बनवाकर उसमें 'कार्यालय' शरू करना पडे / मकानका बाकी भाग बैंक आदिको किराये पर देकर, उसमेंसे प्राप्त बडे हप्ते और नियमित किरायोमेंसे अपना संचालन खर्च निकालना चाहिए / इससे दोषकी मात्रामें कमी आयेगी / Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 धार्मिक-वहीवट विचार वास्तवमें तो जैन गृहस्थोंको चाहिए कि वे जैन-बैंकों शुरु करनेका सोच-विचार करें / सांगलीमें 'पार्श्वनाथ बैंक' अधिक सफलताके साथ कार्यरत है / उसमें देवद्रव्यादिकी तमाम रकमोंको जमा करनेकी महाराष्ट्र सरकारने (सुरक्षाकी गारन्टी सरकार नहीं देती) संमति दे रखी है / अगर बैंकके नियामक अत्यन्त स्वच्छ-प्रमाणिक मनुष्य हों तो, बैंको घाटेमें जानेकी संभावना रहेती है / ऐसे जैनबैंक हिंसक कार्योमें रकमका उपयोग करेंगे ही नहीं, यह सीधीसादी बात है / प्रश्न :- (57) अखिल भारतीय स्तर पर जीर्णोद्धारका कार्य किया जाय तो सस्ता और व्यवस्थित हो नहीं सकता ? देवद्रव्यके कितने सारे रूपयोंका बचाव हो सकता है ? उत्तर : यह बात सही है / विचारणीय भी है / यदि आणंदजी. कल्याणजी पीढी जैसी संस्था निष्णात शिल्पियोंका मंडल गठित करे और उसकी देखभालके नीचे अखिलभारतीय स्तर पर जिनालयोंके जीर्णोद्धारकाकार्य हस्तगत किया जाय तो अवश्य वह सस्ता होगा और सुन्दर भी बनेगा / आजकल तो अच्छी-खासी रकमका शिल्प और पत्थर संबंधित जानकारीके अभावमें दुर्व्यय हो रहा है / कहीं कहीं तो खुलेआम लूंट जैसी हालत -~-खड़ी ह पायी है / जब्तक ऐसी द:खद परिस्थितिमें किसी परिवर्तनकी संभावना न हो तब तक ग्खिरबंदी देरासरजीके बजाय आर.सी.सी.के मकान स्वरूप देरासर बनवा कर व्यर्थका खर्च बचाना चाहिए / इससे देवद्रव्यका दुर्व्यय रूकेगा / इस्में गर्भगृह शिल्पके नियमानुसार संगमरमर या पत्थरका उपर शिखरके साथ बनाया जा सकता है / प्रश्न : (5) जिनप्रतिमाकी रकम जिर्णोद्धारमें खर्ची जाय तो उपरी खातेकी रक्मका उपयोग निम्न खातेमें करनेका दोष उत्पन्न नहीं होगा ? उत्तर :- सात क्षेत्रोंमें जिनप्रतिमा और जिनालय नामक प्राथमिक दो खाते हैं / उनके एकीकरणकी हालमें जो व्यवस्था द्रष्टिगोचर होती है / उसका रहस्य जाना आवश्यक है - जिनप्रतिमा और जिनालय, ये दोनों स्थल सद्व्यय करनेके उत्तम क्षेत्र हैं, न कि धन इकठ्ठा करनेके / जबकि देवद्रव्य एक ऐसा खाता है, जिसमें उपरोक्त दोनों क्षेत्रोंमें Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी समर्पित द्रव्यका, उन दोनोंमें यथायोग्य सदुपयोगके लिए संचय किया जाता है / इसी लिए जिनप्रतिमाके क्षेत्रमें समर्पित द्रव्य या रकमका सदुपयोग जीर्णोद्धार में किया जा रहा है / इस प्रकार साधु-साध्वियोंके दो खातोंका और श्रावक-श्राविकाओंके दो खातोंका एकीकरण समझा जाता है / संक्षेपमें सद्व्यय करनेके लिए क्षेत्र सात हैं लेकिन द्रव्यसंचयके लिए चार क्षेत्र हैं, यह कारणोसर सुविहित गीतार्थ महात्माओंने इस विषयमें विरोध किया हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता / अतः आपके द्वारा सूचित उपरके खातेकी रकमका उपयोग निम्न खातेमें नहि करनेका सामान्य नियमका दोष नहीं लगता / प्रश्न : (59) देवद्रव्यकी रकमका उपयोग जीर्णोद्धारमें ही करना उचित नहीं लगता ? बिना जैनोंकी आबादीवाले हाईवेरोड पर निर्माण किये जानेवाले तीर्थोमें देवद्रव्यकी रकमका उपयोग करना, यह क्या देवद्रव्यका दुरुपयोग नहीं ? हाईवे परके तीर्थस्थान समाजके लिए बोझरूप नहीं बनते ? उत्तर :- सुविहित गीतार्थोंकी उस बातमें संमति द्रष्टिगोचर होती है कि देवद्रव्यकी रकमका उपयोग नूतन जिनमंदिरोंके निर्माणमें भी किया जाय / - बिना जैनोंकी आबादीवाले हाईवे रोड आदि स्थलों पर निर्माण होनेवाले तीर्थस्थलोंमें देवद्रव्यकी रकमका उपयोग करना पडे, यह बिलकुल उचित नहीं / हालमें तो प्राचीन तीर्थों की सुरक्षा की जाय, यही उचित है / नये निर्माण होनेवाले तीर्थों का बोझ, आखिर तो संघोंको ही उठाना पड़ता है / जैनसंघ स्वहस्तक परंपरागत संचालन भी ठीक ढंगसे कर नहीं पाता / मुनीमोंमें और शेष नौकरवर्गमें भी बेहद भ्रष्टाचार द्रष्टिगोचर हो रहा हैं / संचालनके ट्रस्टी केवल अपनी यशपताका लहरानेके लिए ट्रस्टी बने रहते हैं / उन्हें संचालनके भ्रष्टाचारके बारेमें कोई चिन्ता हो, ऐसा दिखाई नहीं पडता / देवद्रव्यादिके भंडारोंमेंसे चोरी भी होती है / नकली पहुँच-पावतीबुकों द्वारा भी भारी गोलमाल की जाती है / ___ एकान्त स्थलके नूतन तीर्थों में यात्रिकोंकी भीड रहे, उसके लिए वहाँ 'धर्मशाला, भोजनशाला आदि सुविधाएँ आधुनिक बनायी जाती हैं / इसकेकारण ये तीर्थ पिकनीक सेन्टर बनते हैं / विलासके स्थान बन गये हैं / ये तीर्थ हर तरहके विलासके हिल-स्टेशन बन गये है / प्रत्येक राज्यके शासकको Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार अपनी प्रजाके मनोरंजनके लिए ऐसे हिलस्टेशनोंकी आवश्यकता रहती ही हैं / अत एव शासक भी ऐसे धार्मिक तीर्थोंको प्रोत्साहन देनेके लिए तैयार रहता है / - नाम, तख्ती, बावला, चित्र आदिके बढे मोहके कारण ही कई संसारत्यागी लोग, नूतनतीर्थ निर्माणकी प्रवृत्तिमें एकदूसरेके साथ होडमें लगे हो, ऐसा भी द्रष्टिगोचर कई जगे हो रहा है / . फिर भी, महाराष्ट्र जैसे राज्योंमें यदि कई लोगोंको धर्माभिमुख बनानेवाला और जिनभक्तिमें बढावा करनेवाला इस प्रकारका तीर्थ निर्माण उपयुक्त बनता हो तो वहाँ ऐसी दलीलोंसे तीर्थ-निर्माणका निषेध न करें / प्रश्न : (60) पूज्यपाद हरिभद्रसूरिजी आदिके पूर्वके आचार्योने, देवद्रव्यके तीन विभागोंके बारेमें चर्चा की है, लेकिन उन्होंने किसी संघमें अमल कराया हो, ऐसा महसूस क्यों नहीं होता ? उत्तर : यह अमल भूतकालमें किसी न किसी रूपमें जारी था ही; लेकिन अभी थोडे समयसे (यति आदिके समयसे) संवेगी साधुओंकी अल्पसंख्या होनेके कारण अथवा श्रावकोंके प्रमाद और अज्ञानके कारण छूट गया होगा, यह संभव है / . परन्तु स्व. पूज्यपाद आ० देव श्रीमद् सागरानंद सूरीश्वरीजी म० साहबने सुरतमें निर्मित आगममंदिरके जिनालयके संविधानमें इन उपविभागोंका समावेश किया है / उनका संचालन किस प्रकार करें उसकी जानकारी दी गयी है / (इस ग्रंथमें अन्यत्र इन बातोंका उल्लेख है / ) ___ उपरान्त, हमारे तरणतारणहार स्व. गुरुदेव श्रीमद् प्रेमसूरीश्वरजी म० साहबने इन उपविभागोंको कार्यान्वित कर देनेकी बात वि.सं. २००७में की है / उस साल उन्होंने बम्बई-लालबाग (भुलेश्वर) में संविधानका मुसद्दा तैयार किया था / तद्विषयक प्रश्नोत्तरीमें इस बातका द्रढतासे निर्देश किया गया हालमें मेरे इस ग्रंथमें निर्दिष्ट देवद्रव्यसंबद्ध बातोंका जो लोग तीव्र विरोध कर रहे हैं, वे इन उपविभागोंकी व्यवस्था चालू करानेके विषयमें बिलकुल चूप क्यों हैं ? यह समझमें नहीं आता / एकदूसरेके खातेकी रकमका उपयोग एकदूसरेके कामोंमें न किया जाय, फिर भी एसे उपविभागोंका आयोजन न करनेसे उपयोग हो जानेका दोष स्पष्ट है-फिर भी वे मौन रहे हैं / खैर..... उनके दिलोंकी बातोंको कैसे समझी जायँ ? Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्रोत्तरी प्रश्न : (61) स्वप्नद्रव्य, उपधानकी माला आदि कल्पित देवद्रव्यकी रकमेंसे प्रत्येक संघ पूजारीको वेतन, गोठीको वेतन आदि कामकाज करे तो, जो आज अमुक देवद्रव्यमेंसे कतिपय संघोंके वेतन दिये जाते हैं, ऐसे भारी नकसान होनेसे न बचाया जाय ? उत्तर :- शक्तिशाली जिनभक्तोंको स्वद्रव्यसे पूजारीको वेतन आदि देना चाहिए, जिससे उन्हें धनमूर्छा उतारनेका बडा लाभ प्राप्त हो / / यह संभव न हो तो, पूजारीको ऐसी रकम किस खातेमेंसे दी जाय ? उसका जवाब संमेलनीय गीतार्थ आचार्योंने सर्वसंमतिसे निर्णयके रूपमें दिया है कि कल्पित देवद्रव्यमें यह रकम दी जाय / पूजा-देवद्रव्यादिकोंसे आप शुद्ध देवद्रव्य कहते हो, ऐसा मालूम होता है; लेकिन तीनों प्रकारका देवद्रव्य शुद्ध है / केवल वेतन देनेके रूपमें पूजा देवद्रव्यका उपयोग करना, राजमार्गसे उचित मालूम नहीं होता / प्रश्न : (62) कोई भाई प्रतिष्ठाके चढावेकी बोली बोलनेके बाद, उस रकमका उपयोग कहीं जीर्णोद्धारमें कर दे; लेकिन संघमें जमा न कराये, तो उसमें कोई हर्ज है ? उपरकी बातसे तो बैंकके पापसे बचा जाय और तुरंत रकमका सदुपयोग हो जाय, यह सबसे बड़ा लाभ नहीं ? उत्तर :- संपूर्णतया विरोध है / ___जिस संघके उपक्रमसे जो चढ़ावे बुलाये गये हों उसी संघमें ही उन चढावोंकी रकम जमा कराना यह न्यायकी बात है / यदि इस व्यवस्थाका भंग किया जाय तो जिस भाईने चढावेके रकम बोली होगी, उन्होंने अन्यत्र भी जमा की होगी या नहीं ? उसका पता ही न चलेगा / उस रकमके दाताकी इच्छा हो कि अमुक स्थान पर उस रकमका उपयोग किया जाय, तो उसे उस संघमें रकम जमा करानेके बाद, संघसे प्रार्थना करनी चाहिए कि उस रकमको निश्चित जगह भेजी जाय / एक बात सही है कि यदि संघका संचालन भ्रष्ट हो, अशास्त्रीय हो तो वह उस संघके नाम खुला जाहिरपत्र लिखकर, सकलसंघमें उस पत्रको प्रकाशित कर-प्रचार कर, स्वयं शास्त्रनीति अनुसार अपनी रकमका उपयोग, अन्यत्र कतिपय शिष्ट पुरुषोंकी उपस्थितिमें जल्द किया जाय और ऐसी संघको जानकारी देनी चाहिए / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार अब बात रही बैंकमें जमा करनेकी / मैंने अन्यत्र कहा ही है कि हमारी रकमें बैंकमें जमा न ही हों तो अच्छा है / प्रश्न : (63) संमेलनके देवद्रव्यके ठरावसे स्वद्रव्यसे जिनपूजा गौण बन पाती द्रष्टिगोचर हो रही है / उसका उपाय क्या है ? उत्तर :- यह शंका बिलकुल निराधार है / किसी पूर्वग्रहसे प्रेरित है / संमेलनने देवद्रव्यके शास्त्रोक्त तीन उपविभाग निर्दिष्ट किये हैं / उसमें तीसरे कल्पित देवद्रव्यके उपविभागके लिए कहा है, जिसे इस ठरावके विरोधियोंने 'जिनभक्ति साधारण' ऐसा नाम दिया है / उस जिनभक्ति साधारणमेंसे पूजाके लिए केसर आदि लाना, पूजारीको वेतन देना आदिकी जो व्यवस्था उन्होंने की है, वही व्यवस्था कल्पित-देवद्रव्यमेंसे करनेके लिए निर्देश दिया है / दोनों पक्ष ऐसी व्यवस्था उन स्थलोंमें करनेके लिए संमत हैं, जहाँ भावुकोंमें स्वद्रव्य खर्चनेकी हैसियत नहीं, अथवा शक्ति होने पर भी स्वद्रव्यका उपयोग करनेकी भावना नहीं / दोनों पक्षोंके आचार्य स्वद्रव्यसे जिनपूजादि गृहस्थ लोग करे, उसको प्राथमिकता देते हैं / वैसा ही निरूपण भी करते ... अन्तर केवल इतना ही है कि कल्पित देवद्रव्यखातेमें स्वप्नादिककी बोलीकी रकमोंको जमा करानेका निर्णय, संमेलनीय गीतार्थ आचार्योंने संमेलनमें घंटाँ तक की गयी चर्चाके फलस्वरूप लिया हुआ है / कतिपय आचार्योंने ही देवद्रव्यके तीन उपविभागोंकी बातोंको प्राधान्य दिया नहीं है केवल एक देवद्रव्य खाता रखा गया है / अतः वे स्वप्नादिकी बोलीकी रकमोंको देवद्रव्यमें जमा करनेके लिए कहते हैं / संमेलनीय आचार्यभी, देवद्रव्य खातेमें ही उन रकमोंको जमा करानेका निर्देश करते हैं / परन्तु, देवद्रव्यमें कल्पित देवद्रव्य खातेमें जमा लेनेका कहकर, उसी उपविभागमेंसे आवश्यकता पड़ने पर पूजारीको वेतन आदि देनेके लिए सूचित करते हैं / ___ इसमें संमेलन विरोधी आचार्योंके सामने एक समस्या यह है कि वे यदि देवद्रव्यका एक ही खाता रखनेको कहे तो पूजारीको वेतन आदि देनेकी परिस्थिति आये तब देवद्रव्य- सामान्यमेंसे (अर्थात् पूजा देवद्रव्य और निर्माल्य देवद्रव्यको रकममेंसे) भी पूजारीको वेतनादि देने में संमति देनी पडे, जो Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी शास्त्रबाधित है। क्या वे लोग इसके पर बिचार करेंगे ? जब दोनों पक्षोमें इस मान्यताके विषयमें कोई तात्त्विक फर्क द्रष्टिगोचर नहीं होता तब संमेलनके ठरावके कारण स्वद्रव्यसे जिनपूजा बंद होनेकी शंका कैसे सही मानी जाय ? संमेलनके बाद कई स्थान पर परमात्माकी पूजा स्वद्रव्यसे अथवा साधारण द्रव्यसे करनेके लिए बडे बडे निधि एकत्रित किये गये हैं / संमेलनने भी शक्तिसंपन्न श्रावकोंको भावनासंपन्न बनकर स्वद्रव्यसे पूजा करनेके लिए आग्रह किया है, उपरान्त महात्मा भी तद्विषयक उपदेश देकर अनेक भव्यात्माओंको स्वद्रव्यसे पूजा कराते आये हैं / लेकिन अवसर-अनुसार कल्पित देवद्रव्यमेंसे पूजादि करनेकी व्यवस्था करनेके लिए संघको सूचित किया है / कल्पित देवद्रव्यमेंसे, उत्तम द्रव्योंसे की गयी पूजा-आंगी-महापूजा आदि देखकर भी अनेक श्रावकोंको ऐसी भक्ति स्वद्रव्यसे करनेका भाव पैदा होता है / अतः इस ढंगसे भी स्वद्रव्यसे भक्ति करनेकी भावनाको उत्तेजन मिलता उपरान्त, इसी ग्रंथमें इस विषयके बारेमें जो विचार पेश किये हैं, वे तो तत्तद् संयोगोंमें परद्रव्यसे और देवद्रव्यसे भी जिनपूजादि करनेकी बातका समर्थन करते हैं, संमेलन विरोधीयोंके आचरणमें भी ऐसे शुभलक्षण दीख पडे हैं / ____ प्रश्न :- (64) 'द्रव्यसप्ततिका' और 'श्राद्धविधि' ग्रंथके आधार पर कई ऐसा समर्थन करते हैं कि 'स्वद्रव्यसे ही पूजा करनी चाहिए' इस विषयमें स्पष्टता करनेके लिए कृपा करें / उत्तर :- 'श्राद्धविधि', 'द्रव्यसप्ततिका में स्वद्रव्येणैव पूजा कार्या आदि वाक्य (स्वद्रव्यसे पूजा करें)के पाठ घरमंदिरके द्रव्यकी व्यवस्थाके वर्णनमें 'आते हैं, परन्तु उन पाठों पर गौर किया जाय तो उन पाठों द्वारा तो देवद्रव्यमेंसे भी पूजा हो सके, ऐसा विधान मालूम होता है / इन पाठोंमें गृहचैत्यकी पूजाकी व्यवस्थाके लिए कहा गया है कि मालीको (पुष्पादिके लिए)मुख्यरूपसे मासिक वेतनके रूपमें गृहमंदिरके नैवेद्यादि दें नहीं, परन्तु अलगसे ही मासिक वेतन दें / लेकिन पहलेसे यदि नैवेद्यादि देनेके रूपमें मासिक वेतन निश्चित किया हो तो दोष नहीं / यहाँ प्रभुको समर्पित किया नैवेद्यादि देवंद्रव्य Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .94 .. धार्मिक-वहीवट विचार बन जाता है / उसके बदलेमें प्राप्त किये पुष्पोंका गृहचैत्यमें भी उपयोग करनेमें कोई दोष नहीं, ऐसा स्पष्ट कहा गया हैं / अब जो, स्वद्रव्यसे ही पूजा करनेके लिए कहा गया है, वहीं 'ज'कार द्वारा जो निषेध व्यक्त करनेका है, वह पाठमें ही सूचित किया गया है कि गृहमंदिरके चावल आदिके विक्रयसे प्राप्त रकम द्वारा खरीदे गये पुष्पादि, घरमंदिरके मालिकको स्वयं संघमंदिरमें चढाने न चाहिए; लेकिन अन्य पूजा करनेवालोंके द्वारा चढाये, जिससे स्वयंको वृथा प्रशंसादि दोषारोपण न हो, और दूसरे चढानेवाले न मिले तो, स्वयं भी, ये पुष्पादि मेरे द्रव्यके नहीं, किन्तु घरमंदिरके द्रव्यके है, ऐसी स्पष्टताके साथ चढाये / यहाँ दूसरे पूजा करनेवालेके द्वारा घरमंदिरके द्रव्यके पुष्प चढानेका विधान हुआ.... उपरान्त, दूसरे न हो तो स्वयं भी ये घरमंदिरमें देवद्रव्यके पुष्प हैं, ऐसी स्पष्टताके साथ चढाये, ऐसा विधान किया है / अतः इन पाठोंके द्वारा तो देवद्रव्यसे भी पूजा हो सके, ऐसा विधान हुआ.....हाँ, आगे चलते हुए यह भी सूचित किया है कि भारी घर-खर्च करनेवाले व्यक्तियोंके लिए घरमंदिरकी देवद्रव्यकी रकममेंसे पूजा करना उचित नहीं, क्योंकि उससे अनादर-अवज्ञा आदि दोष लगते हैं / ... सारांश यह कि घरमंदिरके मालिकको संघमंदिरमें घरमंदिरके देवद्रव्यसे पूजा करनेमें या संघमंदिरके देवद्रव्यमेंसे पूजा करनेमें वृथा जनप्रशंसा एवं अनादर-अवज्ञादि दोष लगते हैं, लेकिन देवद्रव्यादिके भक्षणका या उपभोगका दोष नहीं लगता और इसी लिए ऐसे व्यक्तियोंको स्वद्रव्यसे पूजा करनेके लिए अथवा पूजाद्रव्यमें अच्छा हिस्सा देनेके लिए अत्यंत आग्रहपूर्वक उपदेशप्रेरणा देते रहना चाहिए, लेकिन पूजाका निषेध न करें / पहले भी देरासरोंके केसर-सुखड आदिके निभाव निमित्त लागा (स्वैच्छिक कर)का आयोजन किया जाता था, आज भी फंड आदिकी व्यवस्था की जाती है / / परद्रव्य या देवद्रव्यसे पूजा करनेवालेको उसी प्रकारके कर्मका क्षयोपशम होने पर वे स्वयं केवल पूजा ही नहीं, लेकिन स्वद्रव्यसे जिनमंदिरादिके निर्माण या जिर्णोद्धार करनेवाले भी बनते हैं / प्रश्न : (65) तो फिर 'स्वद्रव्येणैव पूजा कार्या' ऐसा कहा, वहाँ एव (ज)कारसे अन्य द्रव्यका निषेध उपस्थित नहीं होता ? / उत्तर :- पहले कहा है वैसे यह पाठ घरमंदिरके मालिकके लिये Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी है, फिर भी कई जगह पर स्वद्रव्यसे ही पूजा करनेके उपदेश दिये जाते हैं, लेकिन वहाँ कौन-सा शब्द किस संदर्भमें उपयुक्त हुआ है, उसे समझना चाहिए / एव (ज)कार कहीं पर विच्छेदके लिये होता है, कहीं प्रधानता व्यक्त करनेके लिए होता है / गणधरवादमें दूसरे गणधर अग्निभूतिके अधिकारमें अग्निभूतिको ‘पुरुष एवेदं...' आदि वेदवाक्य प्राप्त हुआ, जिससे उन्होंने पुरुष यानी आत्मा ही इस जगतमें है, उसके सिवा, दूसरा कुछ नहीं, ऐसा मानकर कर्मका निषेध किया / भगवान महावीर परमात्माने जब उन्हें समझाया कि 'पुरुष एवेद....' में एवकार शब्द आत्माकी प्रधानता जनानेके लिए है, दूसरे पदार्थोके निषेधके लिए नहीं, क्योंकि दूसरे पदार्थों के अस्तित्व जनानेवाले अन्य कोई वेदवाक्य हैं / अग्निभूति, परमात्माकी बात समझ गये और कर्मके निषेधकी अपनी मान्यताका त्याग किया / उसी प्रकार यहाँ 'स्बद्रव्येणैव पूजा कार्या' आदि पाठ व्यक्तिको लक्ष्यकर जिनपूजाके महत्त्वको जनानेके लिए हैं / व्यक्तिको इस प्रकार उपदेश देना उचित कैसे माना जाय ? प्रश्न : (66) देवद्रव्यकी रकममेंसे देरासरका भंडार, पूजाकी सामग्री, पूजारी आदिका वेतन दिया जाय ? उत्तर :- देवको समर्पित किया द्रव्य, देवद्रव्य है, चाहे वह भंडारमें डाला जाय, अष्टप्रकारी पूजाओंकी उछामनी रूपमें हो, स्वप्नादिककी उछामनीरूप हो या भेंटरूपमें हो / इस देवद्रव्यका देवसंबद्ध सभीकार्यों में उपयोग किया जाय / उसके द्वारा जिनमंदिरोंका जीर्णोद्धार हो सकता है / जिनालयका निर्माण हो सकता है / तीर्थरक्षादिके कार्योंमें वकील आदिको फीस देनेमें किया जाय / उसमेंसे देरासरजीके पूजारीको वेतन दिया जाय / केसर-बादाम, घी आदि सामग्री भी लायी जा सकती है / / हाँ, यदि धनिक लोग अपने स्वद्रव्यसे यह सबकुछ करें तो उत्तम है / ऐसा करनेसे उन्हें धनमूर्छा उतारनेका लाभ प्राप्त होता है / वे ऐसे धन संपन्न होने पर भी भावनाप्रधान न हो, वे देवद्रव्यसे लाये केसर आदिका उपयोग कर प्रभुभजन आदिमे करेंगे, इसमें वे पापभाजन बनेंगे ऐसा नहीं कहा जा सकता / उसके बदले में उनका सम्यग्दर्शन निर्मल होता है / वे देवद्रव्यसे पूजा कर ही नहीं सकते, ऐसा भी कहा नहीं जा सकता / इतना Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 धार्मिक-वहीवट विचार अवश्य कहा जा सकता है कि उन्होंने धनमूर्छा उतारी नहीं, जिससे उन्हें लाभ कम हो / धनमूर्छा उतारकर स्वद्रव्यसे पूजादि कार्य किये होते तो अधिक लाभ प्राप्त होता / 'द्रव्यसप्ततिका में ऐसा पाठ अवश्य है कि जो घरदेरासरका मालिक हो, उसे संघके बड़े देरासरमें पूजा करनी हो तो स्वद्रव्यसे ही करें / यदि उस घरदेरासरमें प्रभु समक्ष समर्पित नैवेद्य आदि-कि जो देवद्रव्य बन पाये हैं-उनसे संघमंदिरमें पूजा करें तो लोग तो यही समझेंगे कि- 'भाई कैसे उदार हैं ? ऐसे सुंदर नैवेद्यादि पदार्थोंसे पूजा करते हैं ?' ऐसे लोकचर्चा द्वारा उस घरदेरासरके मालिकको वृथा यशप्राप्तिका दोष लगनेकी संभावना है / अत: ऐसा यश प्राप्त न करनेके लिए उसे स्वद्रव्यसे ही बडे देरासरकी पूजा करनी चाहिए / यहां देवद्रव्यके नैवद्यादिसे उसने पूजाकी की तो भी उसे देवद्रव्यके उपभोगका दोष बताया नहीं, यह बात महत्त्वकी है / कई लोग, घरदेरासरविषयक इस पाठको सामान्य-सार्वत्रिक बताकर कहते हैं कि 'सब शक्तिसंपन्न लोग स्वद्रव्यसे ही पूजा करें / जिसके पास ऐसी शक्ति न हो, उसे पूजा नहीं करनी चाहिए / वे दूसरोंको सहायता करें / अर्थात् केसर घिसकर दें, मालागुंफन करें अथवा सामायिक . करें / यदि परद्रव्यसे या देवद्रव्यसे पूजा करें तो उसे दोषका भागी बनना पडता है / आश्चर्यकी बात यह है कि ऐसा जोरोंसे प्रतिपादन करनेवालोंने बम्बईके अपने संचालन-हस्तक दो देरासरोंमें 'जिनभक्ति साधारण' भंडार रखाये हैं / जिनमें डाले गये द्रव्यसे स्वगाँव एवं बाहरगाँवसे आये लोंगोको पूजाकी सारी सामग्रीकी सुविधा दी जाती है / ___क्या ऐसी पूजा, आगुन्तकोंके लिए परद्रव्यसे हुई पूजा मानी न जायेगी ? उपरान्त, हालमें प्रायः बडे देरासरोंमें देवद्रव्यका ही महत्तम भाग होता है / इस देवद्रव्यसे बननेवाले देरासरोंका, यह वर्ग कभी विरोध नहीं करता / देवद्रव्यसे बने देरासरका उपयोग श्रावक कैसे कर पाये ? उसका उत्तर वे लोग दें / परद्रव्यसे छ'रीपालित संघ द्वारा तीर्थयात्राएँ की जायँ, उससे यात्रिकोंको दोष लगेगा ? यदि हाँ, तो वे लोग ऐसे संघोंके प्रेरक क्यों बने ? Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी 97 ___ 'संबोध प्रकरण' आदि ग्रंथोंमें देवद्रव्योंके तीन भेद बताये गये हैं / कई पूजनीय महापुरुषोंने उसे समर्थन भी दिया है / उसी प्रकार हर जगह संचालन करनेका आग्रह किया है; लेकिन आज तक उस प्रकारका संपूर्ण संचालन शुरू हो नहीं पाया / हालमें तो देवद्रव्यकी एक ही थैली रखी जा रही है / . प्रश्न:- (67) कम वेतन केकारण पूजारियाँ अपने परिवारको पूरा भोजन न दे पाये ऐसी स्थितिमें उन्हें देवद्रव्यमेंसे वेतन दिया जा सकता है ? यदि नहीं, तो वे देवद्रव्यकी चोरी अवश्य करेंगे ही / उत्तर :- जैसे पुजारीके वेतनके लिए स्वद्रव्यकी सुविधा गृहस्थलोग न कर पाये तो देवद्रव्यमेंसे भी उन्हें वेतन देकर प्रभु-पूजा आदिकार्य जारी रखनेकी बात सर्वमान्य है / वैसी हो यह भी बात है कि यदि स्वद्रव्यकी रकम कम होने पर (भारी महँगाईके कारण यह संभव है / ) पूजारीको भरपेट भोजन प्राप्त न हो और उसके कारण देवद्रव्यकी चोरी करनेके लिए मजबूर हो तो, बहेतर यह होगा कि घाटेवाला वेतन उसे देवद्रव्यमेंसे दिया जाय / . ऐसा करनेसे अन्यायी मार्गका अवलंबन करनमें निमित्तताका निवारण मानवताके अभावका निवारण, देवद्रव्यकी चोरीके दोषका निवारण आदि लाभ प्राप्त होते हैं / सुखी श्रावक लोग ऐसे समयमें विशिष्ट दान कर धनमूर्छा उतारनेका लाभ प्राप्त करें, यह उत्तमोत्तम बात है। लेकिन यह हो न सके तो तब कल्पित देवद्रव्यकी रकमका उपयोग, इस प्रकारसे देव(अरिहंत)के लिये किया जाय तो उसमें कोई हर्ज नहीं / प्रश्न : (68) धनका कहाँ ज्यादा उपयोग करनेसे अधिक लाभ प्राप्त होगा ? देरासरमें या जीवदयामें ? उत्तर : निश्चयनयमें कहा गया है कि, जहाँ तुम्हारे उल्लासमें बढावा होता हो, वहाँ धन उपयोग करनेसे अधिक लाभ प्राप्त होता है / व्यवहारनय कहता है कि जिस समय जहाँ विशेष आवश्यकता हो, जहाँ धनका उपयोग करनेसे लाभ प्राप्त होता है / सामान्य परिस्थितिमें देरासरमें धन लगानेसे अधिक लाभ होता है / उसका कारण यह है कि जीवदयामें दूसरे जीवों पर दयाभाव रखना धा.व.-७ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार है / इसमें अपने अहंकारकी तुष्टि होनेकी संभावना अधिक है / - 'दया धरमका मूल है / ' ऐसी तुलसीदासजीकी बात बिलकुल यथार्थ है, लेकिन दयासे भी बढाचढा दूसरा गुण है कृतज्ञता / ___ अपने उपर दूसरे लोंगोने जो उपकार (दया) किया है, उसे याद कर उनके प्रति बहुमान व्यक्त करना, उनकी अनेक प्रकारकी सेवा करना, यह सबसे बड़ी बात है / उपरान्त, यह बात मुश्किल इस लिए है कि एसी कृतज्ञता व्यक्त करनेमें अपने अहंकारका नाश करना पडता है / जहाँ अहंकार खत्म हो जाय या कमजोर हो, उसे सबसे बड़ा धर्म कहा जाय / तारक परमात्माने विश्वकी असारता-व्यर्थताका परिचय कराकर हमारे उपर भारी उपकार किया है / जगतके पदार्थोके प्रति उत्पन्न तीव्र आसक्ति पर इस प्रकार रोकथाम लगायी हैं / हमें हेवान या शयतान बननेसे बचाये हैं / हमें इन्सान और महान बनायें है / ऐसे अत्यन्त अनुग्रह करनेवाले परमात्माके प्रति कृतज्ञताभाव व्यक्त करनेके लिए ही संसारी जीवोंकी सर्वाधिक प्रिय वस्तु धनकी मूर्छा त्याग किया जाता है / उस धनसे परमात्माकी भक्ति होती है / . इससे यह कह सकते हैं कि सामान्य परिस्थितिमें जीवदयाकी अपेक्षा प्रभुभक्तिमें धनका उपयोग करनेसे अधिक लाभ होता है / लेकिन सावधान ! ऐसी परिस्थितिका भविष्यमें निर्माण हो तो, इस बातको उलटानी भी होगी / . मानों कि भयंकर सूखा पड़ा / हजारो मानव और प्राणी अकालमें फँस गये / चारों ओर उनकी लाशोंके ढेरके ढेर लग गये / ऐसे समय परमात्माका भक्तिका कोई आयोजनकर अथवा मंदिरका निर्माण कर लाखों रुपयोंका व्यय,कोई जैनभाई कर, उसकी अपेक्षा अकालके दुःखोंके निवारण निमित्तमें व्यय करे वह तो अधिक उत्तम होगा / यदि वह ऐसा करेगा तो अजैन लोगोंमें जैनधर्मकी भारी सराहना होगी / इस सराहनाको जन्मान्तरमें जैनधर्मकी प्राप्ति करानेमें बीजरूप मानी गयी है / यह कितना बडा लाभ आखिरमें तो हमारे प्रियतम ऐसे भगवानको सभी जीव प्रियतर थे / हमारे प्रियतमके जो प्रिय हों वे हमारे लिए कितने अधिक प्रिय होते हैं / Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी जैनधर्मकी जगतमें इतनी बड़ी प्रभावना हो, यह कोई मामूली धर्म नहीं / सभी धर्मों में बढ़ा-चढा यह धर्म है / इसी लिए जैनधर्मकी निंदा हो, ऐसा कोई कार्य अनजानेमें भी न होने पाये, उसके लिए सयाने जैनलोग अत्यन्त सावधान-चौकन्ने बने रहते हैं / ऐसी धर्मनिन्दाके निवारणके लिए, जो भी उचित करना पडे, उसे करनेकी जैनशास्त्रोंने संमति दे दी है / अलवत्ता, देवद्रव्यकी संपत्तिका दुष्काल निवारण निमित्त उपयोग कर, जैनधर्मकी प्रशंसा करनेकी बात उचित नहीं, क्योंकि उसको बिना कुछ छुए भी जैनधर्मके श्रीमंतलोग, अपनी संपत्तिका सदुपयोग ऐसे कार्यों में आसानीसे कर पाये ऐसे है / इस प्रकारके दोनों काम सधते हैं / अतः दूसरा मार्ग सोचना, योग्य नहीं है / - जिनागम (3) प्रश्नोत्तरी प्रश्न : (69) ज्ञानपूजन और गुरुपूजनकी पेटी एक ही होती है / जिसमें दो खाने रखे जाते हैं / उनके पर दो नाम लिखे रहते हैं / इसमें एक विभागकी रकमका उपयोग दूसरे विभागमें होनेकी संभावना अधिक नहीं है ? . . उत्तर : यदि ऐसी संभावना हो तो बिल्कुल अलग अलग पेटियाँ (मंजूषाएँ) बनाकर अलग अलग स्थान पर रखी जायँ / प्रश्न : (70) ज्ञानविभागकी रकमका उत्तम उपयोग किस प्रकार किया जाय ? ___ उत्तर : जिनागम (पंचांगी) लिखाने में और साधु-साध्विजीयोंको उन्हें पढानेके लिए अजैन पंडितोंकी वेतन देकर नियुक्त करनेमें, इस रकमका श्रेष्ठतम उपयोग हुआ माना जाय / . प्रश्न : (71) लिखनेवाले (मुंशी) मिलतें नहीं; तो 'जेरोक्स' आदिकी सहायतासे आगम आदि ग्रंथोका मुद्रणकार्य किया जा सकता उत्तर :- लिखनेवाले यदि न मिलतें हों तो, उनके लिए शाला शुरूकर, उन्हें तैयार करने चाहिए / श्रीमंत यदि धनमूर्छा कम करेंगे तो यह काम अशक्य नहीं / आज भी कई मुनि इस कार्यके प्रेरक बने हुएँ है और यथाशक्ति काम हो रहा है / Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 100 धार्मिक-वहीवट विचार ___ यह जेरोक्स मशीन है / उससे यन्त्रवादको उत्तेजन प्राप्त होता है / उपरान्त, इस प्रकार होनेवाले मुद्रण चिरंजीव नहीं होता / जबकि विधिपूर्वकी साही कागज आदि यदि तैयार किया जाय और मुंशीके पास लिखवाया जाय तो वे ग्रंथ ७००से 800 वर्ष तक टिक सके / यद्यपि मुंशियो द्वारा लिखाये गये ग्रंथोका शुद्धीकरण-कार्य बेहद कठिन है; परन्तु साध्विजियोंको ऐसा श्रुतभक्तिका कार्य सुप्रद किया जा सकता है / फिर भी यदि कामचलाउ रूपमें तात्कालिक 'ज्ञान'को टिकानेके लिए 'जेरोक्स' आदिका सहारा लेना पडे, तो उसे 'अनिवार्य' समझकर लें; लेकिन उसे 'आवश्यकता' तो न माने / / यदि एक साथ साधु-साध्विजियाँ प्रतिदिन 50 श्लोकोंके हिसाबसे लिखते रहे तो दस वर्षों में प्राचीन साहित्यके लाखों श्लोकोंका लेखन पूरा हो सके / प्रश्न : (72) जैनधर्मके प्राणतत्त्व दो हैं : जिनमूर्ति और जिनागम / तो जिनागमोंकी दीर्घकालीन और रक्षाका उपाय क्या हैं ? उत्तर : फौलादी कैप्स्यूलोंमें सम्यगज्ञानको भरकर धरतीमें 50 फूटसे भी ज्यादा गहराईमें उतारा जाय तो रक्षा होगी / चाहे वैसी बममारी हो तो भी हानि नहीं पहुँचेगी / - इससे भी उत्तम उपाय एक है / ज्ञानको जीवनके साथ आत्मसात् कर दें / पचा दें / उत्सर्ग, अपवाद, ज्ञान, क्रिया आदि सर्व नय जिन्होंने आत्मसात् किये हैं, वे सुविशुद्ध चारित्रधर महात्माओंकी पीढी-ब-पीढी आगे बढती जो ज्ञानमयता महात्माओमें होगी, वही ज्ञानरक्षाका सर्वोत्कृष्ट उपाय है / प्रश्न : (73) ज्ञानविभागकी रकमके किताबोंका पठन श्रावक कर सकते हैं ? उत्तर :- अवश्य, पठन कर सकते हैं, लेकिन पुस्तककी पढाईसे होनेवाले घिसाई निमित्त यदि वर्षमें एकबार योग्य रकम (नकरा रूपमें) ज्ञानविभागों समर्पित करें तो वह उत्तम होगा / बाकी उस पुस्तक पर अपनी मालिकियतका दावा तो नहीं हो सकता / यदि कोई साधु-साध्वी उसे पुस्तक रखनेके लिए सोंपे उसे पूछ लेना चाहिए कि वह पुस्तक ज्ञानविभागकी तो नहीं है न ? वास्तवमें तो मुनियोंको ऐसी किताबें ज्ञानविभागकी रकमसे छपवानी नहीं चाहिए, जिनकी बिक्री हो न पाये / जिन्हें समूहरूपमें जिसतिसको Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी ____101 भेंटके रूपमें देनी पडे और आखिरमें जिन्हें पस्तीमें निकालनी पडे / इससे उन्हें भारी दोषभागी बनना पडता है / प्रश्न : (74) ज्ञानविभागकी रकममेंसे उपाश्रयके पाटे, बैठकें साधुकी उपधि आदि रखनेकी आलमारियाँ आदिकी खरीदी की जा सकती उत्तर : अवश्य, ज्ञानकी किताबोंको रखनेके लिए हि आलमारी आदि लाया जा सकता है; अन्य चीजें भरनेके लिए नहीं / बाकी तो गृहस्थोंका कर्तव्य है कि वे धनमूर्छा कम कर उपाश्रयकी आवश्यकताएँ-पाटे, बैठकें आदि-पूरी करें / प्रश्न : (75) पस्तीमें निकालने लायक चीजोंकां अखबार मेगेजिन, पत्रिका, डाक संचालनके थोथे आदिका-फैसला कैसे किया जाय ? उत्तर : गृहस्थोंको ध्यानमें रखकर यदि यह प्रश्न किया गया हो तो उसका उत्तर यह है कि न्यूनातिन्यून विराधनाको लक्ष्यमें रखकर गृहस्थ लोग काम करें / कई लोग नदी आदिके पानीमें बहा देते हैं / कई लोग पुनः उसमेंसे नये कागजके निर्माण करनेकी प्रक्रियामें (री-साइकलिंग)मैं बेच देते हैं / कई लोग निर्जन-कुएमें डाल देते हैं / गृहस्थलोग अनेक विराधनाओंमें बैठे हैं / वे अपने ढंगसे - पापभीरुताको जीवंत रखकर जयणापूर्वक इसके बारेमें सोचे / हालमें साधुलोग सामान्यतया अपने लिए अनावश्यक नोटों आदिके छोटे छोटे टूकडेकर निर्जन कुएमें विसर्जित करते हैं / यद्यपि वर्तमानमें ऐसे लक्षणवाले कुँए द्रष्टिगोचर न होनेसे तकलीफ तो है ही / इसी लिए साधुलोग, गृहस्थोंको ऐसी चीजें - अखबार, पत्रिका, सामयिक, निमंत्रणपत्रिका आदि-सोंप देते हैं, जिससे तद्विषयक विसर्जनविधि उन्हें न करनी पड़े / प्रश्र : (76.) भारतमें सैंकडों जैन ज्ञानभंडार हैं / जिनमेंसें कई अस्तव्यस्त हैं / कईयोंको तो दिमक भी लग गयी होगी / इन तमाम भंडारोंको एक स्थान पर एकत्रित कर, उनकी देखभाल की जाय तो ? उत्तर :- अवश्य, यह हो सकता है। लेकिन यह जमाना बममारीका होनेसे केन्द्रीकरण करनेमें बड़ा खतरा है / यदि भंडार अलग अलग स्थानों पर सुरक्षित रह सके तो वह इच्छनीय होगा, क्योंकि उससे बममारीसे कई भंडार जल जायँ, तो बाकी सैंकडों भंडार बच पायँगें / Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 धार्मिक-वहीवट विचार - तिब्बतके लेह नगरमें इस प्रकार एकत्रित अति मूल्यवान दस हजार किताबें, एक ही बममारीसे साफ हो गयी थीं / जिससे तिब्बती प्रजाकं गहरी चोट लगी थी / प्रश्र : (77) वर्तमानकालीन महात्माओंके जीवनचरित्र, ज्ञानविभागकी. रकममेंसे मुद्रित किये जायँ ? उत्तर : विशेषकारणके अलावा और गीतार्थ सुविहित गरूओंकी संमतिके बिना, मुद्रित किया जाय वो उचित नहीं / ऐसेकार्य करनेही हो तो गृहस्थोंके धनसे करने चाहिए / प्राचीनकालके महागीतार्थ महापुरुषोंका साहित्य अति मूल्यवान है / वह नष्ट न हो जाय, उसकी रक्षाके लिए ही इस विभागको रकमका उपयोग हो, वही उसका श्रेष्ठ उपयोग है / प्रश्न : (78) जहाँ-तहाँ संघोंमें ज्ञानविभागकी बड़ी रकम जमा है, उसे एकत्रित कर, उसका सर्वोत्तम उपयोग कैसे किया जाय ? उत्तर : यदि ज्ञानविभाके लाखों रूपये योग्य स्थान पर एकत्रित हो सके तो मुंशी तैयार करनेके लिए अजैन मुंशियों के लिए शाला खोलनी चाहिए / उसके बाद उन्हें तैयार करनेके बाद ढ़ेरों श्रुतलेखन कराना चाहिए / विद्वानोंको वेतन देकर उसकी छानबीन करानी चाहिए / इसके लिए उत्तमकोटिके दीर्घकालीन कागज, विशेष प्रयत्न कर गृहस्थलोग द्वारा कश्मीर आदि स्थानों पर बनवाने चाहिए / ऐसा होने पर ही सम्यग्ज्ञान बच पायेगा / मेरी श्रुति अनुसार विविध भंडारोंमें दस लाख हस्तलिखित प्रतियाँ ऐसी हैं, जिसकी पोथी कभी खोली नहीं गयी / यह सारा श्रुत (ज्ञान) कालकी आँधीमें नष्ट हो जायेगा और भावि जैनसंघ निराधार हे जायेगा / प्रश्न : (79) मुंशियोंको प्रतियाँ लिखानेका सिखानेके लिए ज्ञानविभागमेंसे मुंशीशाला खोली जा सकती है ? नये मुंशी बनते छात्रोंक भोजनादि खर्च ज्ञानविभागमेंसे किया जाय ? उत्तर :- अवश्य, यह सब कुछ हो सकता है, लेकिन वह मुंश अजैन होना चाहिए / उपरान्त उस मुंशीको भोजनखर्च दिया जाय वह उसके वेतनमें समाविष्ट हो / ऐसा कोई आयोजन हो, यह अत्यन्त जरूरी है नहीं तो दीर्घायुषी हस्तलेखन साहित्य बंद हो जायेगा / झेरोक्स य मुद्रणका आयुष्य अल्पकालीन होता है / Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रनोत्तरी 103 प्रश्न :- (80) साधु-साध्वी किस प्रकारकी पुस्तकोंका प्रकाशन ज्ञानविभागमेंसे करवा सकते हैं ? उत्तर : मुख्यतया, प्राचीन ग्रंथोंका प्रकाशन योग्य माना जाय अथवा ऐसे ग्रंथोंका भाषान्तर अथवा विवेचनात्मक ग्रंथोका प्रकाशन भी उचित होगा / लेकिन बिल्कुल नये जमानेके रिवाजवाले धार्मिक कहलानेवाले अपने व्याख्यानोंकी किताबोंका प्रकाशन, ज्ञानविभागकी रकममेंसे कराया न जाय, तो अच्छा होगा / कोई चारा न हो तभी ज्ञानविभागकी रकमका उपयोग करें / किताबोंकी बिक्री हो जाने पर, सूदके.साथ ली हुई रकमको ज्ञानविभागमें जमा करा दें / लेकिन ऐसा करनेकी अपेक्षा गृहस्थोंके पाससे ही दानस्वरूपमें रकम प्राप्त कर, प्रकाशन कराना ही उचित होगा / प्रश्न :- (81) संस्कृत आदिकी शिक्षा दिलवाकर अजैन व्यक्तिको पंडित बनानेके लिए, सारा खर्च ज्ञानविभागके रकममेंसे किया जाय ? भविष्यमें पंडित बनकर वह व्यक्ति कई साधु-साध्वीयोंको सुशिक्षित करे, यह बड़ा लाभ नहीं है ? उत्तर :- अवश्य, उसमें कोई आपत्ति नहीं / वह खर्च उसके लिए योग्य वेतनके अनुपातमें होना चाहिए / अथवा उसकी विशिष्टताके अनुसार होना चाहिए / चाहे कुछ भी हो, आखिरमें वह ज्ञानविभागकी रकम है / अतः उसका अमर्यादित उपयोग तो हो ही नहीं सकता / साथ ही कंजूसाई न की जाय / उपरान्त, वह व्यक्ति भविष्यमें हमेशाके लिए पंडितका ही व्यवसाय करे, ऐसी विश्वसनीयता होनी चाहिए / आजकल तो अन्य व्यवसाय मिलते ही कई पंडित, अपना मूल व्यवसाय छोड देते हैं / प्रश्न : (82) ज्ञानविभागकी रकमसे बने ज्ञानभंडारमें बैठकर साधु. साध्वी या गृहस्थ पुस्तक पठन या भोजनादि कर सकते हैं ? उत्तर : अवश्य, ज्ञानविभागकी रकमसे बने ज्ञानभंडारमें पुस्तकपठन या स्वाध्याय आदि साधु-साध्वी कर सकते हैं; परन्तु भोजनादि कार्य नहीं कर सकते / ऐसा काम गलतीसे भी कभी हो गया हो तो, उतने दिनोंके किरायेकी रकम ज्ञानविभागमें जमा करानेकी व्यवस्था गृहस्थके पास करानी चाहिए / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 धार्मिक-वहीवट विचार __ - साधु साध्वी (4 + 5) प्रश्नोत्तरी प्रश्न : (83) गुरुके चरणोंकी द्रव्यसे पूजा, गुरुको कम्बल वहोरानेका घी आदिकी रकमें किस विभागमें जमा की जाय ? उत्तर : ' श्राद्धजित कल्प'में निर्दिष्ट प्रायश्चित्तविधि अन्तर्गत पाठानुसार यह रकम गुरु-वैयावच्च विभागमें जमा होगी / जबकि विक्रमराजा आदिके द्रष्टान्त लेकर, कतिपय समुदाय, इस रकमको केवल देवद्रव्यमें जमा करनेका सूचित करते हैं, यह युक्तिसंगत मालूम नहीं होता / गुरुकी जो भी वैयावच्च हो - उन्हें औषध देना, डोली उठाना, सेवाके लिए आदमीकी व्यवस्था करना, विहारमें जहाँ श्रावकोंके घर ही नहीं हो वहाँ वैयावच्चरूपमें भोजनशाला चलाना आदि कामोंके लिए इस रकमका उपयोग किया जाता है / कई लोग कहते हैं कि 'उदरमें जानेवाली कोई चीज इस रकमसे खरीदी न जाय / ' यद्यपि. वर्तमानमें तो ऐसा व्यवहार द्रष्टिगोचर होता है कि इस रकमका उपयोग पेटमें जानेवाली वस्तु-औषध या आहारपानी-के लिए ही किया जाता है / इस विषयमें गीतार्थ महापुरुष योग्य निर्णय करें ऐसी अपेक्षा है / प्रश्न : (84) कालधर्मविषयक उछामनीकी रकम किस विभागमें जमा की जाय ? उत्तर : भूतकालमें ऐसी उछामनीकी बोली न होती थी, अत: उसका शास्त्रपाठ प्राप्त नहीं होता / यदि नयी पद्धतिका आरंभ किया जाय तो उसमें परंपरा देखी जाय अथवा वर्तमानकालीन गीतार्थ आचार्योंके निर्णयको मान्य करें / वह निर्णय हमेशा शास्त्रसापेक्ष ही कहा जाय / कालधर्मकी उछामनी, गुरुभक्ति स्वरूप होनेसे कभी गुरुमंदिर बनाने में अथवा जिनभक्तिमें ली जाती है / कभी उपाश्रयके निर्माणमें तो कभी जीवदयाके कार्योंमें लगायी गयी है / कभी गुरुवैयावच्च विभागमें (खानेके अलावा) लगायी गयी है / ____ प्रश्न : (85) गुरुवैयावच्चकी रकममेंसे गुरुकी कौनसी वैयावच्च की जाय ? उत्तर : गुरुकी ग्लान अवस्थामें, उनके लिए आवश्यक सभी बावतोंका खर्च, इस रकममेंसे किया जाय / डोलीवालेका वेतन, अजैन मानवकी आवश्यकता पड़ने पर उसका वेतन दिया जाय / उपरान्त कपड़े, पात्र आदि उपधि भी लायी जा सकती है / Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी प्रश्न : (87 ) जिस गाँवमें वैयावच्चकी रकमकी आमदनीका साधनमाध्यम न हो, वे वैयावच्चका खर्च कैसे निकाल पाये ? उत्तर : जिस नगरोमें मुमुक्षुकी दीक्षाएँ आयेदिन होती रहती हों, वहां उपकरणोंकी उछामनीकी रकम बोली जाय उस रकमको, वे संघवाले जरूरतमंद गाँवोंमें भेज दे / वैयावच्चसे जो साधके लिये रसोंडे चलते हों, उसमें भी उन संघोंको सहायक बनना चाहिए / प्रतिवर्ष वे गाँव अपना पूरा खर्च भेज दे और संघ उन उन रकमोंको यथाशीघ्र भेज दे / इस प्रकार, बडे भाईको छोटेभाईकी मदद मीलनी चाहिए / प्रश्न : (88) विशेषकर साध्विजियोंको शीलरक्षाके लिए आदमीको साथ रखनेकी जरूरत रहती है / तो वैयावच्च विभागमेंसे वेतन दिया जाय ? उत्तर : अवश्य, लेकिन वह मनुष्य अजैन होना चाहिए / साध्वीजीके विहारके लिए ऐसी व्यवस्था हर गाँवमें होनी चाहिए / ___ गाँवकी तीनसे पाँच जैन बहनें (अथवा भाई) साध्वीजीके साथ दूसरे गाँव तक विहार में साथ रहे / दूसरे गाँवके श्रावकोंको साध्वीजी सुप्रद करनेके बाद ही वे अपने गाँव वापस लौटे / बादमें उस गाँवके भाई उस साध्वीजीको अगले गाँव तक जानेके लिए साथ रहे / यदि इस प्रकार किया जाय तो शीलरक्षाका प्रश्न आसानीसे हल हो जाय / उपरान्त, साध्वीजियोंको चाहिए कि वे उजाला होनेसे पूर्व विहार कभी न करे / जो दुर्घटना घटती हैं वह अधिकतर अंधकारमें किये जानेवाले समयके विहारमें ही होती हैं / प्रश्न : (89) वृद्ध या अति ग्लान साध्वीजीको स्थिरनिवास करानेके लिए प्रायः संघ तैयार नहीं होता / अतः वे जहाँतहाँ तिरस्कृत होती है / उसकी प्रतिक्रियाके रूपमें अपने निजी फ्लेटोंकी खरीदी शुरू हुई है, वह योग्य है? उत्तर : निजी मालिकियत जैसे फ्लेटोंके भयको देख ऐसा कहना उचित मालूम होता है कि वृद्ध प्रकारके साध्वीजियोंके लिए, छोटे छोटे अनेक स्थिर निवास आबादीवाले विस्तारोंमें बनाने चाहिए, लेकिन इसमें भी अगर नौकरशाहीके हाथों काम कराना हो, तडप-तडप कर मरनेके सिवा और कोई चारा नहीं रहता / इसी लिए गीतार्थ मिलकर इसका हल ढूंढ निकाले / Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 धार्मिक-वहीवट विचार . अन्यथा यदि अपने अपने वतन आदिमें संघशाही रूपसे स्थिरवास करें तो पूरी निश्चिंतता बनी रहती है / भूतकालमें ऐसी ही व्यवस्था थी / प्रश्न : (90) गुरुपूजनकी रकम कहाँ जमा हो ? इस विषयमें शास्त्रपाठ और परंपरा दोनों द्रष्टिगोचर होते हैं / तो हम क्या करें ? उत्तर : गुरुकी पूजा भूतकालमें वस्त्रादिसे होती थी / फिर भी विक्रम, कुमारपाल आदि राजाओंने सुवर्ण आदिसे पूजा की / अतः गीतार्थ आचार्योने वस्त्रादि दानको भोगार्ह गुरुद्रव्य बताया, लेकिन सुवर्णादि दानको पूजार्ह गुरुद्रव्य कहा / सुवर्णादिका सीधा गुरु उपभोग न कर सके, छू भी न सके; अतः उसके भोगार्ह गुरुद्रव्यके रूपमें निषेध किया / इन राजाओंने सुवर्णादिसे पूजा की / बादमें गुरुओंसे पूछा गया कि "इसका क्या उपयोग करें ?' उत्तरमें सिद्धसेन दिवाकरसूरजीने 'जीर्णोद्धार आदि' उपयोग करनके लिए कहा अथवा कहीं गुरुदेवने साधारण विभागके डिब्बेमें (भद्रेश्वरसूरिजीकृत 'कहावली' तथा 'प्रभावकचरित्र में) ले जानेके लिए प्रेरणा दी / कहीं (प्रबंधचिंतामणिमें) गरीब लोंगोको ऋणमुक्त कर देनेके लिए सूचित किया है / / पूज्य पादलिप्तसूरिजीको राजाने वस्त्रोंका दान किया था / वे वस्त्र ब्राह्मणोंको दिलाये थे / . आग्रामें पू. महोपाध्यायजी यशोविजयजी म. सा.के चरणमें, आग्रासंघने सातसो रूपये रखे थे / (देखें, सुजसवेलिरास, दूसरी ढाळ) पूज्य श्रीकी सूचनासे इस रकमका उपयोगकर पुस्तकें बनवाकर छात्रोंमें वाँट दिये गये थे / 'आगराई संघ सार, रूपैया सातसे हो लाल, मूके करी मनहार, आगे जसने पगे हो लाल, पोठां पुस्तक तास कराय, उमंगस्युं हो लाल, छात्रोंने सविलास, समाव्या रंगस्यं हो लाल' इससे यह कह सकते हैं कि गुरुद्रव्यके लिये जो परंपरा आगे की जाती है, उसमें जीर्णोद्धारमें उपयोग करनेकी परंपरा नहीं है / उपरके पाठ तो 'गुरुद्रव्यको देवद्रव्य के रूपमें बिलकुल मान्य ही नहीं करते / उपरान्त, जहाँ गुरुद्रव्य जीर्णोद्धारमें उपयोग करनेका सूचन किया Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107 चौदह क्षेत्रों से संबद्ध प्रश्नोत्तरी हो वहाँ भी 'आदि' शब्द तो 'नव्य-चैत्यकरण' शब्दके साथ ही रखा अब 'आदि' शब्दसे किसका संग्रह करें ? जीर्णोद्धार और नव्यचैत्यकरणके बाद उसे ही आदि शब्दसे ग्रहण किया जाय जो 'गौरवार्ह स्थान' हो ऐसा वहाँ कहा है / तो गुरुद्रव्यसे ऊँचेके विभाग-जिनमें ज्ञान-विभागका भी समावेश है, उसे गौरवाह स्थान क्यों न कहा जाय ? इस प्रकार गुरुद्रव्यका ज्ञानविभागमें उपयोग करनेके लिए संमति देनी होगी / उपरान्त, गुरुपूजा करनेवाले श्रावकोंके लिए गुरु (साधु-साध्वी) भी गौरवाह स्थान है, उनका भी संग्रह करना होगा / यदि गुरु वैयावच्चका स्थान भी 'आदि' शब्दसे गृहीत हो तभी 'श्राद्धजित कल्प में गुरुद्रव्यकी चोरी करनेवालेको प्रायश्चित्त रुपमें उतनी रकम गुरु-वैयावच्च करनेवाले वैद्य आदिको वस्त्रादानादि रूपमें देनेकी जो बात कही है, वह यथार्थ हे / यदि गुरुद्रव्य देवद्रव्यमें ही ले लिया जाता हो तो, गुरुद्रव्यकी चोरीकी रकमके प्रायश्चित्त रूपमें उतनी रकम देवद्रव्यमें ही उपयोगमें लानेके लिए वहीं सूचित करते / जबकि गुरु-वैयावच्चमें यदि उस रकमको प्रायश्चित्तरुपमें जमा करानेके लिए सूचित किया है तब यह बात शास्त्रपाठसे यथार्थतया सिद्ध होती है कि गुरुद्रव्यके उपयोगका स्थान गुरु-वैयावच्च भी है / ___ अब समझमें आयेगा कि विक्रमराजा आदिके दृष्टांतो द्वारा (विविध परंपराके रूपमें) गुरुद्रव्यका उपयोग जीर्णोद्धार आदिमें किया जा सकता है / जबकि उन दृष्टांतोके उपरान्त शास्त्रपाठके स्पष्ट शब्दों द्वारा गुरु वैयवच्चमें उपयोग किया जा सकता है / गुरु वैयावच्चके समर्थक, उपरि विभागके रूपमें जीर्णोद्धारमें उसका उपयोग कर सकेंगे / और जीर्णोद्धारके समर्थक 'आदि' शब्दका स्वीकार करके गुरु-वैयावच्चको भी मंजूर कर सकते हैं / यदि वे ऐसा स्वीकार न करें तो प्रायश्चित्तका विधिगत विधान (वैद्यादिका) असंगत-अप्रस्तुत हो जाय / जीर्णोद्धारमें ही यदि उस रकमका उपयोग किया जाता हो तो वैद्यको देनेका समर्थन कैसे किया जाय ? अतः इस प्रकार दोनों पक्षोंकी मान्यताओंका समन्वय करना, यही उभयपक्षके लिए हितावह मालूम होता है / - पू. बापजी म. (सिद्धिसूरि म. सा.)के पू. भक्तिसूरि म. सा. पर लिखे पत्रमें गुरुपूजनके द्रव्यको, डोली उठानेवाले आदमी आदिको देनेका Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 धार्मिक-वहीवट विचार विधान किया है / प्रश्न : (91) कई साधु - साध्वी अपने सीधे प्रभुत्ववाले उपाश्रय बनाकर कायमी स्थिर वास करते हैं / वे साधु-साध्वी अत्यन्त शिथिल बन न पाये इस लिए ऐसा महसूस नहीं होता कि क्रियोद्धारकी आवश्यकता है ? उत्तर : क्रियोद्धार जैसा महान कार्य तो कोई युगपुरुष जैसे महात्मा ही कर सकते हैं, लेकिन जब तक ऐसे महापुरुष संपूर्ण क्रियोद्धार न करे तब तक जिनमें जितनी शक्ति हो, उसके अनुसार क्रियोद्धारके लिये पुरुषार्थ करते रहे, यही इच्छनीय है / हालमें तो जैन संघ भयानक यादवा- स्थलीमें डूबा हुआ है / उसमें से यदि कोई संघको मुक्त कराये, एकसूत्रता पैदा कराये, तो भी पर्याप्त है / संसारत्यागीने घरका त्याग किया है / उसे नया घर बसाना नहीं रहता, लेकिन जो वृद्ध हुए हैं, या निकट भविष्यमें वृद्ध होनेवाले हैं, वे सोचते हैं कि- मेरे उस समयके स्थिरवासके लिए मैं एकाध घर (फ्लेट)की सुविधा कर लूँ, जिसके पर मेरा पूरा आधिपत्य रहे / ट्रस्ट बनाऊँ / ट्रस्टी मंडलकी नियुक्ति करूँ, लेकिन यह सब मेरे प्रभुत्वमें / ऐसी भावनामेंसे अपनी मालिकियत जैसे घरों (उपाश्रय)का सर्जन होता है / जैन संघोंके उपाश्रयोमें ट्रस्टी लोग स्थिरवास करने चाहते त्यागियोंको निवास नहीं करने देते, क्योंकि वेसा करें तो अन्य साधु-साध्वी, उस स्थान पर चातुर्मास करनेका स्पष्ट इन्कार कर देते हैं / अब ऐसी हालतमें वृद्ध साधु-साध्वी कहाँ रहे ? भूतकालमें जिस-तिस गाँव या नगरमें वैसे साधु-साध्वी स्थिर निवास करते थे / प्रत्येक गाँवके हिस्से में दो-तीन वृद्ध आ पाते थे / जिससे उनकी आजीवन सेवा गाँवके लोग आसानीसे कर पाते थे / लेकिन अब गाँव टूटे / व्यापार तुटने पर जैन लोग भी तुटे / अतः वे लोग देखभाल कर सके ऐसी हालत न रही / __ इसी कारण 'घर' बसानेकी कमजोर मनोवृत्तिका स्थान-स्थान पर प्रकटीकरण हुआ / इसमें सबसे भारी नुकसान, उन वृद्धोंके साथ सहायकके रूपमें रहनेवाले साधु-साध्वीको अति संसक्त वसतिके कारण होता है / जिस फ्लेटमें वे रहते हों, वहाँ स्थंडिल, मात्रु आदिका त्याग किया न जाय, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रों से संबद्ध प्रश्नोत्तरी 109 क्योंकि उससे लोगोंमें घृणा होगी / अतः अनिवार्य रूपसे फ्लेटके संडासबाथरूम आदिका उपयोग करना पडेगा / दीर्घकालसे एक ही स्थान पर रहनेसे अतिपरिचय होनेके कारण अति राग या अति द्वेष पैदा होगा / जो नौकर, चौकीदार, झाडुवाली बाई आदिके अधिक संपर्क बढनेके कारण खतरा पैदा होता है / यदि लोग गोचरी-पानी वहोरानेके प्रति अपनी अरुचि व्यक्त करने लगे तो, फ्लेटके रसोईघरमें ही रसोई करानेकी नौबत आ जाय / यह सब चारित्र्यधर्मको बरबाद कर रखेगा / सवाल यह है कि तो इसका विकल्प क्या है ? संघके अगुए श्रावकोंको ही इसका सोच-विचार करना चाहिए / इस विषयमें उनकी घोर उपेक्षा की जाय, यह हानिकारक होगी / __ मेरी निजी मान्यता यह है कि छोटे छोटे पंद्रह-बीस स्थिरनिवासकेन्द्र, तीर्थक्षेत्रोमें बनवायें जायें, तो इस समस्याका हल हो सकता है / जहाँ वृद्ध साध्वियाँ रहे, वहाँ साधु न रहें / वृद्धोंकी तरह बीमार एवं अशक्त साधुओंका भी योजनामें समावेश करना चाहिए / यद्यपि ऐसे स्थिर निवासकेन्द्र भी, इस समस्याका कोई हल नहीं / लेकिन जब तक विविध गाँवोके संघ, स्वयं वृद्ध आदिको भूतकालकी तरह देखभालकी जिम्मेदारी उठा न ले, तब तक ? इस विकल्पके अलावा कोई चारा नहीं, इससे डोली या 'व्हील चेर 'के वृद्धोंके विहार रूक जायेंगे / अत्यंत घनिष्ठ आबादीमें अपना घर लेनेकी बात पर रोकथाम लगेगी / तन्निमित्त चारित्र्यभ्रंश आदिके नुकसानोंसे बचाव होगा / स्थिर निवासकेन्द्रमें भी मुसीबतें तो अनेक हैं / विशेषतः विभिन्न स्वभाववाली व्यक्तियोंको ठीक तरहसे सम्हालनेकी जिम्मेवारी निभानेका काम अत्यंत मुश्किल है / उनके लिए वैद्यकीय चिकित्सा संतोषजनक कक्षाकी होनी चाहिए / उसमें भी यदि कमी रह जाय तो भी वे अत्यंत दुःखी हों, भारी आर्तध्यान करे / ऐसा सब कुछ न होने देनेके लिए श्रावक -श्राविकाओंका उपयोग करना चाहिए / सतत उत्तम कक्षाके श्रावक-श्राविकाएँ मिशनरी संस्थाकी सेवाभावी परिचारिकाओंकी तरह इसी कामके लिए मरमिटना चाहिए / अपने सामायिक, पूजा, प्रतिक्रमण आदिसे भी बढकर साधुसेवाको Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 धार्मिक-वहीवट विचार अधिक महत्त्व देना चाहिए / इस कामके लिए धन तो बहुत-सा मिल पायेगा / अतः यदि स्थिर निवासकेन्द्रमें दो-तीन उत्तम सेवाभावी व्यक्ति जुड़ जाय तो, इस काममें भारी सफलता मिलेगी / प्रश्न : (92) वर्तमान समयमें गुरुमंदिर बनाना उचित है क्या ? उत्तर : केवल गुरुमंदिर बनाना उचित नहीं है / ऐसे कई गुरुमंदिर दृष्टिगोचर होते हैं, जो मुहल्लेके सुमसाम स्थानमें या गाँवसे बाहर स्मशानभूमिमें होनेके कारण उनकी अच्छी तरह देखभाल नहीं की जाती, जहाँ अधिक गंदगी होती है और जुआ आदिका उपद्रव बना रहता है / / बनाना ही चाहे तो गुरुमंदिरका निर्माण इस प्रकार करें, जिसके बड़े, खण्ड का उपयोग प्रवचन आदि कार्यों के लिए उपयोगमें आ सके / उस खण्डके एक कोने में गुरुमूर्तिकी स्थापना हो / इस समग्र इमारतको स्मृतिमंदिर माना जाय / प्रश्र : (93) जैनोंकी आबादीवाले बिनाके गाँवोमें गुरुवैयावच्चकी रकममेंसे साधु साध्वीके लिए रसोईघर निभाये जायें ? डोलीवालेको, देखभाल करनेवाले आदमी वगैरहको भोजनादिकी व्यवस्था गुरुवैयावच्चकी रकममेंसे की जा सकती है ? उत्तर : विहारके क्षेत्रोंमें साधु-साध्वीजियोंके लिए ही उपाश्रयोंकी तथा रसोईघरोंकी व्यवस्था स्थान स्थान पर की हुई दृष्टिगोचर होती है / ये दोनों 'आधा कर्म' दोषपूर्ण होनेसे साधु-साध्वियोंके लिए अनिवार्य संयोगके सिवा त्याज्य है / फिर भी, उसका उपयोग कई साधु-साध्वीयोंको विवश होकर करना पडता है / हाँ, अब भी कई साधु-साध्वी हैं, जो इन दोनों बातोंका, विशेषकर रसोईघरका उपयोग नहीं करते / अजैनोंमें जानेसे जो भी मिल पाये-रोटे आदिसे निर्वाह कर लेते हैं अथवा लंबेचौडे विहारकर उन दोषों से बच पाते हैं / ऐसे रसोईघरके लिए गुरु-वैयावच्च खातेकी रकमका उपयोग किया जाय / उपरान्त अजैन डोलीवाले आदिको यह रकम मजदूरीके रूपमें दी जा सकती है / उसी प्रकार उनके भोजनादिमें भी इस रकमका उपयोग किया जाय, परंतु साथ रहे जैनकी व्यवस्था साधारण खातेमेंसे अलग की Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्रोत्तरी ___ 111 जाय / यद्यपि हालमें तो ऐसी रकम उपर्युक्त उपाश्रयों एवं रसोईघरोंके निमित्त भी विविध संघोंकी ओरसे भेजी जाती है / उसका विरोध नहीं किया जाता / प्रश्न : (94) वृद्ध साध्विजियाँ यत्रतत्र स्थिर निवास कर बिराजी हैं / लम्बे अर्सेसे रहनेके कारण, उनके प्रति स्थानिक लोगोंको धृणा होने लगती है / साध्वीजियाँ भी तिरस्कृत होने लगी हैं / उसकी अपेक्षा, उनके लिए वृद्धाश्रमोंकी व्यवस्था करनी चाहिए या नहीं ? उत्तर : किसानलोग, जानवरोंके पास पूरा काम निकलवाकर, वृद्ध होने पर पांजरापोलमें जाकर छोड देते हैं / जिन्होंने दशक-दो दशक तक व्यवसाय निभाया, उन जानवरोंकी मरते दम तक देखभाल करना यह किसानका फर्ज है / ऐसा करनेसे अलग अलग रखे गयें जानवरोंकी अच्छी तरह देखभाल होती है / लेकिन यदि उनका पाँजरापोलमें केन्द्रीकरण हो जाय तो बड़े समूहमें देखभाल ठीक ढंगसे न होने से वे और दुःखी होते वयोवृद्ध साध्वीजियोंके लिए यदि वृद्धाश्रम बनाये जायँ तो, पांजरापोलके जानवर जैसी हालत होनेकी पूरी संभावना है / हाँ, यदि पांजरापोलमें नौकरशाही न हो, महाजनके सेठ लोग स्वयं दिनभरमें दो बार पूरी देखभाल रखते हों, पैसे और घासकी पुडियाँके लिये गाँव गाँव चलते रहते हों, ऐसे पाँजरापोलोंकी बात ही अलग है / वहाँके जानवरोंकी देखभाल अच्छी तरह होती है / ऐसा ही वृद्धाश्रमोंका मामला है / साध्वीजियोंको नौकरोंके हवाले करनेके बजाय, गृहस्थोंकी श्रीमतियाँ (सुश्राविकाएँ) यदि साध्वीजियोंकी निजी रूपसे देखभाल करें तो ऐसे वृद्धाश्रमोंमे दु:खी होनेकी नौबत नहीं आती / लेकिन ऐसा होनेकी संभावना बहुत कम है / . साध्वीजीकी मृत्युके अन्तिम क्षण तक देखभाल करना और उन्हें समाधिदान करना, यह काम कोई बाँयें हाथका खेल नहीं / अभी हालहीमें एक भाईको उनकी माताने साध्वीजीके चार-पाँच करूण प्रसंगोसे प्रेरित होकर पुत्रको वृद्धाश्रमका निर्माण करनेके लिए आग्रह करने पर भारी-दान Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 धार्मिक-वहीवट विचार (रू. 41 लाखका) करनेका मुझे वचन दिया, लेकिन मैंने इस कार्यमें अग्रसर होनेका इन्कार कर दिया / साध्वीजीके वृद्धाश्रममें लेडी डाक्टर, नर्स आदिकी आवश्यकता रहती है / छोटा-सा अस्पताल खड़ा करना पड़ता है / मोबाइलवानकी जरूरत रहेगी / फिर भी यह सब कुछ तो हो सकेगा, लेकिन साध्वीजियोंकी देखभाल और अंत समय तक समाधिदान तो अत्यंत मुश्किल है / . वृद्धावस्थाके कारण स्वभावपरिवर्तन होता है / अपेक्षा और अधीरता बढ जाती है / बात-बातमें बुरा मान जाते हैं / ऐसी हालतमें प्रतिष्ठा बनाये रखना और पार उतरना मुश्किल काम है / इसकी अपेक्षा तो वे साध्वीयाँ अलग अलग स्थान पर स्थिर निवास करें जहाँ उनका भक्तवर्ग हो वहाँ अथवा उनके परंपरागत उपाश्रयमें अथवा उनके वतनमें, यह अच्छा होगा / एकाध साध्वीका निर्वाह तो आसानीसे हो सकता है / (यद्यपि आजकल तो घरके एकाध बड़े-बूढेको निभाना भी अरूचिकर बन पड़ा है / संतान उन्हें वृद्धाश्रममें छोड देने लगी हैं / ) उनकी सेवाचाकरी ठीक ढंगसे हो सके / ऐसा करनेमें थोडा सहन करना पड़े, तो भी यही पद्धति ठीक जंचती है / वृद्धाश्रमका विकल्प उत्तमकोटिकी श्राविकाओंकी सेवा देनेकी तैयारीके अभावमें किसी भी हालतमें वाँच्छनीय नहीं है / , गृहस्थोंके वृद्धाश्रमोंकी हालत अच्छी नहीं है / धनसंग्रह तो अच्छी तरह हो सकेगा / दाता लोग भी मिल पायेगे, मकान भी तैयार हो जायेंगे / परन्तु उस तन्त्रको यशस्वी ढंगसे चलाने का काम अत्यंत मुश्किल होगा / जो भी इस प्रवृत्तिमें अग्रसर होना चाहे, वह सोचविचार आगे कर बढ़े / ___ -श्रावक-श्राविका (6+7) प्रश्रोत्तरी प्रश्न : (95) श्रावक, श्राविकारूप तमाम दुःखी जैन लोगोंको आर्थिक रूपसे स्वावलंबी बनाये जायें तो वे जिनपूजा, गुरुभक्ति, संचालनकी देखभाल आदि बहुतकुछ ठीक ढंगसे कर न पाये ? उत्तर : समुचि दुनियाको नीरोगी, धनसमृद्ध, बुद्धिशाली बनाने जैसी यह एक शुभ भावना है / आजकल तो धनिक जैन सद्गृहस्थोंकी उदारता, Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी 113 इस विषयमें बढीचढी है / गुप्त ढंगसे भारी मात्रामें साधर्मिक भक्ति हो रही है / लेकिन गंदी राजनीतिके द्वारा निर्मित की गयी गरीबीको कोई भी दूर नहीं कर पायेगा / सारा आसमान फट चूका है, वहाँ क्या करें ? बाकी प्रयास तो चारों ओरसे चल रहे हैं / दृष्टिगोचर नहीं होते, यह बात सही है / समुद्रमेंसे एक बालटी पानी निकाला जाय तो कैसे पता चलेगा ? उतना समुद्रका पानी कम तो हुआ है लेकिन वह दृष्टिगोचर हो तभी न.? प्रश्न : (96) सबसे अधिक दान श्रावक-श्राविका विभागमें नहीं करना चाहिए ? उत्तर : वर्तमान समयमें यह बात सापेक्षरूपसे सही है / यदि श्रावकश्राविकाओंकी नींव मजबूत होगी / वे धर्मचुस्त होंगे, तभी उपरके पाँच क्षेत्र मजबूत बन पायेंगे / इस क्षेत्रमें दान की गयी रकम उपरके पाँचों क्षेत्रोंमें जा सकती है, यह भी इसका बड़ा लाभ है / धार्मिकोंके विना धर्म टिक नहीं सकता / अतः धार्मिकोंको जैनधर्मके श्रद्धालुओंको-टिकाये रखनेकी बातको सबसे पहली प्राथमिकता देनी चाहिए / प्रश्र : (97) सात क्षेत्रोंका जो साधारण क्षेत्र है उसमेंसे अथवा श्रावक-श्राविका विभागमें जमा रकममें से जैनोंका स्वामीवात्सल्य किया जा सकता है ? उत्तर : स्वामीवात्सल्यरूप भक्ति करनेमें भी कोई हर्ज नहीं / अग्रिमता दुःखीलोगोको देनी चाहिए / प्रश्न : (98) मुमुक्षुकी दीक्षाके उपकरणोंकी उछामनीकी रकम किस विभागमें जमा की जाय ? ___‘उत्तर : हाल में सर्वत्र गुरु वैयावच्च विभागमें रकम जमा की जाती है / साधु बननेकी पूरी तैयारीमें है अथवा ये उपकरण मुनिजीवनसे संबद्ध है अत: गुरु-वैयावच्च विभागमें ले जानेकी प्रथा चालू है, ऐसा मालूम होता है / निर्धन- दीक्षार्थीको निश्चित्त प्रकारकी मदद करनेमें भी इस बोलीकी रकमका उपयोग किया जा सकता है / प्रश्न : (99) साधर्मिक श्रावक-श्राविकाओंके लिए देवद्रव्यमें से किरायेकी चाली (छोटे कमरे) आदि बनायी जा सकती है ? उन्हें कर्जवाली धा.व.-८ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 .. धार्मिक-वहीवट विचार लोन दी जा सकती है ? उत्तर : नही, चाहे उतना लाभ हो तो भी वैसा नहीं हो सकता, क्योंकि जैन श्रावकों का दिल उससे व्यथित होगा / उससे सतत ऐसा संताप होता रहेगा कि 'मैं देवद्रव्यका उपयोग करता हूँ / कितना अधम हूँ / ' उपरान्त, यदि भाग्यवश रकम पूरी वापस न कर पाये तो वह सपरिवार बरबाद हो जाय / उसका अनंत संसार हो जाय / ऐसी स्थितिमें उदार चरित श्रीमंतोको अग्रेसर होना चाहिए / दोसौ-पांचसौ रूपयोंकी मदद करनेकी बजाय आजीविकाका कायमी हल ढूंढ दे ऐसा व्यवसाय आदि करनेके लिए बिना कर्जकी लोन दी जाय, तो अच्छा होगा, जिसके हफ्ते बहुत छोटी रकमके हों / ऐसा होनेसे वह श्रावक गौरवपूर्वक दुनियाके सामने खड़ा रहेगा / श्रीमंतोंको, ऐसी लोन वापस प्राप्त करनेके बारेमें जरा भी उपेक्षा न रखे / आजकल तो कई प्रकारके गृहउद्योग जारी हैं / उसके बारेमें धनिकवर्ग सोच सकता है / प्रश्न : (100) जिन गाँवोमें कोई जैन नहीं, वहाँ जैन परिवारोंको बसाकर, विहारमें आनेवाले साधु-साध्वीजियोंके गोचरी आदि प्रश्नोंका हल निकाला जा सकता है ? उत्तर : इस प्रकार प्रश्नोंका हल निकलेगा या नहीं, उसके पहले इतना जान लेना चाहिए कि अब जैन परिवार गाँवोमें निवास करनेके लिए तत्पर नहीं है / उसके मुख्य कारण ये हैं : (1) गाँवकी लडकीको (जड़ समझी जानेके कारण) वरको पाना मुश्किल बन जाता है और वरको कन्याप्राप्ति आसान नहीं होती / (2) बच्चोंको अच्छी शिक्षा प्राप्त नहीं होती / (3) बनियोंकी कौमको बी.सी. आदि लोग कई प्रकारसे परेशान करते हैं / उधार ले जाते हैं / बीलोंकी रकम जमा नहीं कराते / मारपीट करते हैं इत्यादि / (4) अच्छे साधर्मिकोंका सहवास प्राप्त नहीं होता / (5) धंधा-रोजगार पतनोन्मुख बन जाते हैं / (6) भारी बीमारीमें डाक्टरोंकी सुविधा नहीं मिल पाती / प्रश्न : (101) जैनोंको आर्थिक रूपसे अधिकाधिक सहायक बनने का उपदेश जैन श्रीमंतोको देना नहीं चाहिए ? - उत्तर : भाई, प्रत्येक वस्तुकी मर्यादा होती है / वर्तमानमें चारों ओर Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी से विविधरूपसे कमजोर जैनोंकी साधर्मिक भक्ति हो रही है / यदि इस बात पर अधिक जोर दिया जाय तो संभव हैं कि ऐसे जैन परावलंबी हो जायेंगे / कई लोग भीखमंगे हो जायेंगे / हमें अपने ही हाथों उनको कमजोर और निर्माल्य नहीं बनाने चाहिए / प्रश्न : (102) कईबार 'सही के बदले 'झूठे' साधर्मिक गैरलाभ उठा पाते हैं / उसके लिए क्या किया जाय ? उत्तर : इस विषयमें सावधानी तो पूरी बरतनी चाहिए / फिर भी ऐसा नहीं होना चाहिए कि ऐसी कल्पना से 'सही' भी मारा जाय / अपमानका भोग बने / सौ व्यक्तियोंमें अस्सी तो हंस ही मिल पायेंगे / बीस कौए भी आ पायेंगे, लेकिन 'बीस' जैसोंकी सर्वत्र संभवितता देखकर अस्सी हँसोको ' उनमें से एकाधको भी' अन्याय नहीं होना चाहिए / 'झूठा' लाभ पा जाय, उसकी अपेक्षा 'सही' वंचित रह जाय, यह बड़ा भारी दोष है / प्रश्न : (103) तमाम साधु-साध्वीलोग, उपदेशमें साधर्मिक भक्तिको ही प्रधानता क्यों न दें ? उत्तर : भूतकालकी अपेक्षा साधर्मिक भक्तिका उपदेश सविशेष दिया जाता है / उसके प्रभावके कारण, श्रीमंत जैन प्रतिवर्ष अच्छी-खासी रकम गुप्त रूपसे साधर्मिक भक्तिमें लगाते रहे हैं / लेकिन आजकल तो आसमान फट पड़ा है / वर्तमान गरीबी मानवसर्जित है - कृत्रिम है / कई लोगोंके लिए यह गरीबी लाभप्रद बनी है / अतः उत्तरोत्तर गरीबीमें बढ़ावा हो रहा है / महँगाई, गरीबी और बीमारीके चक्करमें फँसी अस्सी प्रतिशत भारतीय प्रजा स्मशानकी ओर धंसती जा रही है / प्रत्येक कौम, अपनी कौमके भाईयोंके लिए बहुत-सा काम कर रही है / जैन कौम भी इसमें पीछड़ी नहीं है / निम्न वर्गके लोग, गरीबीको मार भगानेके लिए सामूहिक रूपसे प्रयास कर थोड़ी-सी सफलता प्राप्त करते हैं / घरके सभी लोग काम करते हैं / जैनोंमें ऐसी हालत न होनेके कारण, सारा बोझ एक-दो मनुष्योंके . सर पर आता है / बड़े श्रीमंतोंको कोई तकलीफ नहीं और निम्न वर्गको Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 ... ' धार्मिक-वहीवट विचार भी अभी कोई हर्ज होनेवाला नहीं, लेकिन मध्यमवर्गीय जैनोकी हालत उत्तरोत्तर बिगडनेवाली है / ये लोग भी तनतोड प्रयत्नकर, भोजन आदिके प्रश्नोंको हल कर सकते हैं / दो पैंसोकी बचत भी करते हैं, लेकिन परिवारमें जारी बीमारियाँके कारण उनकी बची-बचायी रकम खत्म हो जाती है और उपरसे कर्जके ढेरके ढेर जम जाते हैं / - इसके उपरान्त, शालाकी किताबें और फीसका बोझ तथा बार बार होनेवाले लग्न आदि व्यवहारोंके कारण भी वे बेहद परेशान रहते हैं / जैन कौमके विशिष्ट दाताओंसे मेरी प्रार्थना है कि वे अभी भी साधर्मिकको अधिक धनदान करें / प्रत्येक गाँवमें उनके लिए अनाज, तैल, गुड़ आदिकी बिक्रीकी व्यवस्था हो और आरोग्यविषयमें सारी सहायता दी जाय और उनके जीवनविकासके बारेमें नोटों, किताबों आदिका वितरण मुफ्तमें किया जाय, यह बहुत जरूरी है / जब शास्त्रकारोंने ही साधर्मिक भक्तिके धर्मको सर्वाधिक प्राथमिकता दी है तब वर्तमान समयकी उनकी विषम स्थिति देखकर ऐसा कहनेको जी चाहता है कि दूसरी कई बातोंको गौण समझकर इस क्षेत्रको प्रधानता देनी चाहिए / कलिकालसर्वज्ञ भगवंतने अपने परमभक्त राजा कुमारपालको इस विषयमें उग्र बनकर सावधान किये थे / उन्हें अपने कर्तव्यके प्रति जाग्रत किये थे / तो क्या वर्तमानकालीन पुण्यात्मा जैनाचार्य अपने भक्तोंको इस विषयमें चेतावनी नहीं देंगे ? प्रश्न : (104) धर्मके विषयमें लाखों रूपयोंके खर्च करनेवाले भाई, अपने साधर्मिक गरीब बंधुओंकी उपेक्षा करे, यह उचित है क्या ? उत्तर : जरा भी उचित नहीं / ऐसा करनेसे लोगोंमें उनके धर्मकी निन्दा होने लगती है / ___यद्यपि आजकी गरीबी, यह कोई ईश्वरसर्जित नहीं, बल्कि मानवसर्जित है / यूरपी लोग विश्वकी अईसाई और अगौर तमाम प्रजाको नामशेष करना Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्रोत्तरी 117 चाहते हैं / प्रत्येक राष्ट्रमें उन्होंने स्थानिक देशी गोरोकी राष्ट्रद्रोही औलाद पैदा कर रखी है / उनके द्वारा उनके देशकी प्रजाको वे बरबाद कर रहैं है / यह गरीबी तेज रफ्तारसे बढ़ती जा रही है / विशाल एपार्टमेन्टोंके पास ही विराट झोंपडपट्टियाँ खड़ी हो गई हैं / पागल बबूलकी तरह या धंसते रेगिस्तानकी तरह / इस गरीबीको दूर करना कदापि संभवित नहीं / राजनीतिक गुण्डोंको वोट पानेके लिए गरीबी अत्यन्त आशीर्वादरूप बनी है / धर्मपरिवर्तन करानेवाले ख्रिस्ती लोगोंको भी इसमें भारी सफलता दिखाई देती है / श्रीमंतोके साथ टकराकर अन्तमें श्रीमंतों को -भी सड़क पर ला देनेका आयोजन- इन सहायतासे ही कार्यान्वित करने का निश्चय करनेसे, उनके लिए झोंपडपट्टियाँ शहदभरपूर छत्ते जैसी बन पायी हैं / ____फिर भी, एक बात निश्चित है कि जितनोंको रोजगार दिया जाय, उतनों को दें, लेकिन उसके साथ साथ गरीबीके मूलभूत जो कारण हैं, जिनमें से गरीबी लगातार उत्पन्न होती ही रहती है, उन्हें ही खत्म करनेका ठोस आयोजन किया न जाय तो गरीबोंको सहायभूत होनेके लिये की जानेवाली तमाम प्रकारकी मदद गरीबीको बढाने ही परिणत होगी / क्योंकि ऐसी सहायताके कारण, सभी लोग, गरीबीकी जड़ोंको मिटा देनेकी बातोंसे पीछेहठ करेंगे, उसके प्रति गौरसे सोचेंगे नहीं / उसके लिए क्रान्ति या विद्रोह भी नहीं होगा / ऐसी स्थितिमें गरीबीका उत्पादक चक्र तेज रफ्तारसे चालू होकर कई मुसीबतें पैदा करेगा / उस उत्पादक चक्रसे प्रतिवर्ष नये दस लाख गरीब पैदा होंगे, तब उसी वर्षके दौरान केवल पाँच हजार गरीबोंको ही सुविधा मिल पायेगी / इसका क्या अर्थ होगा ? फिर भी कहता हूँ कि पाँच हजार लोगोंको सुखी करनेका प्रयत्न करें / सभी की शक्ति गरीबी-उत्पादक चक्रको रोक देनेकी नहीं होती / ऐसे अशक्त लोग, अपने दिलमें करुणा नामक गुणका विकास हो, उसके लिए भी गरीबोंके सहायक बने यह इच्छनीय हैं / गरीबोंको स्वावलंबी बनानेका काम कठिन है / यह एक ऐसा गहरा गड्ढा है कि उसमें चाहे उतनी मिट्टी डाली जाय फिर भी वह समतल नहीं हो पायेगा / लेकिन अपना करुणागुण मुरझा न जाय, सदासर्वदा हराभरा बना रहे, उसके लिए Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 ___ धार्मिक-वहीवट विचार भी यथाशक्य गरीबोंके लिए सहायक बनना चाहिए / यदि ऐसा न किया जाय तो धर्माचरण करनेवाले, धर्मकार्यमें ही धनका व्यय करनेवाले पुण्यशाली धनवान, लोगोंकी नजरमें आयेंगे / उनके धर्मकी भारी निन्दा होगी / इस निन्दाके निवारणके लिए भी दीन-दुःखियोंके प्रति बिना भेदभावके पुण्यशाली धर्मी लोग अनुकम्पा अवश्य बनाये रखें / - पौषधशाला-प्रश्रोत्तरी (8) . .. प्रश्न : (105) वैयावच्चकी रकममेंसे विहारके निर्जन मार्गों पर बनवाये गये उपाश्रयोंमें आवश्यक बालदी, परात आदि की खरीदी कर सकते है ? उत्तर : अवश्य, उसमें कोई हर्ज नहीं / उसका उपयोग केवल साधुसाध्वियोंके लिए ही हो, उसकी चौकसी रखें / दानप्रेमी गृहस्थ ऐसा लाभ उठाये, तो वह प्रथम विकल्प होगा / प्रश्न : (106) उपाश्रयके निभावके आयोजनके लिए, साधके उपाश्रयमें बहनोंके चित्र और साध्वीके उपाश्रयमें भाइयोंके चित्र दीवारों पर रखना उचित है क्या ? उत्तर : सामान्यतया साधु-साध्वियोंके निवास रूप उपाश्रयोमें गृहस्थोंके चित्र रखना जरा भी उचित नहीं, फिर भी चित्र रखने ही हों तो साधुओंके उपाश्रयमें पुरुषोंके और साध्वियोंके उपाश्रयमें बहनोंके उचित वेशभूषायुक्त चित्र रखे जायें / चित्र इस प्रकार दीवार पर लगाये जाय, जिससे पक्षी वहाँ अपने घोंसले बना न पाये / प्रश्न : (107) साधारण विभागमें आय पैदा करनेके लिए आज कई जगह ट्रस्टी लोग, उपाश्रयका उपयोग, लग्नकी वाडीके रूपमें किराये पर करते हैं / क्या यह उचित है ? उत्तर : नहीं / जरा भी उचित नहीं / प्रत्येक वस्तुका धनको लक्ष्य कर मूल्यांकन किया न जाय / एक पवित्र स्थानका, अपवित्र कामोंके लिए उपयोग किया जाय तो, उसमें प्रसारित पवित्रताके परमाणु बिखर जायेंगे / उसके प्रभावमें आये साधुका दिमाग भी खराब हो जाय / वह गंभीर भूल कर सकता है / शायद मुनिजीवन भी छोड़ दे / लग्नकी वाडीके रूपमें उपयोग करने पर उत्पन्न Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी आमदानीके सामने, कभी पूर्ण न हो ऐसा भारी नुकसान कितना होगा ? दिल्हीकी संसदका विशाल बैठकखंडका उपयोग, सभाके अलावा किसी काममें किया नहीं जाता / बाकी समयमें बिलकुल खाली पड़ा रहता है / उस समय यदि यह सभाखंड किराये पर दिया जाय तो प्रतिवर्ष लाखोंरूपयोंकी आमदानी हो सके, लेकिन सभाखंडके गौरवकी रक्षा के लिए, आमदानीका लोभ किया नहीं जाता / उपाश्रयका वाडीके रूपमें उपयोग करने देनेसे दूसरे भी कई नुकसान होते हैं / पहलेसे ही वाडीका जिस दिनके लिए आरक्षण किया गया हो, उसी दिन यदि कोई साधु आ पहुँचे, तो क्या किया जाय ? उन्हें दूसरी जगह रखे जायँ ? लग्नके भोजनसमारंभ आदि हो तो वहां चींटी आदि जीव जन्तुओंका उपद्रव कायमी बन जाय / - उपर-नीचे उपाश्रयवाडी हो तो, वह भी उचित नहीं / विजातीय तत्त्वोंके सान्निध्यसे साधु या साध्वीको ब्रह्मचर्यव्रतपालनमें दोष लगनेकी पूरी संभावना रहती है / . धर्मस्थानके रूपमें उपाश्रयकी महिमा गौण हो जाती है और वाड़ी की आमदानीकी ओर, ट्रस्टीयों का ध्यान लगा रहता है / इससे साधुओंका संभवित आगमन भी मनमें अरुचिकर बन जाय / / मुझे तो उसमें हर तरहसे नुकसान ही मालूम होता है / जैनोंकी जहाँ ज्यादा आबादी हो, वहाँ जैनोंके गौरवको क्षति न पहुँचे, उसके लिए वे सामाजिक कार्योंके लिए अलग वाडी कर सके / करते भी हैं / उसमें . आवश्यकता होने पर धार्मिक कार्यक्रम भी किये जायँ / प्रश्न : (108) उपाश्रयकी देखभालके लिए रखे जैन भाईको साधर्मिक विभागमेंसे वेतन दिया जाय ? उत्तर : अवश्य, दिया जा सकता है / वह भाई दुःखी श्रावक हो, अतः उसकी साधर्मिक भक्ति भी हो सकेगी / और वह आदमी उपाश्रयकी देखभाल करने का काम कर पैसे लेगा / अतः उसे भी गौरव महसूस होगा और उसका निर्वाह होता रहेगा / Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 धार्मिक-वहीवट विचार -पाठशाला - प्रश्नोत्तरी (9) प्रश्न : (109) टी.वी. आदिके झंझावातमें पाठशालाएँ टूट चूकी हैं / कहनेमात्र चलती हैं / क्या करें ? उत्तर : घर घर पाठशाला / घर घर बा-शिक्षिका का मूलभूत कार्यक्रम पुनः शुरू किया जाय / वह संभवित न हो तो, पाठशालाके लिए भारी वेतन और उत्कृष्ट प्रभावनाके लिए बड़ा फंड एकत्रित किया जाय / प्रतिमासके वेतनके, प्रतिमासकी प्रभावनाके दाता प्राप्त करे / ___'अच्छे' कोई नहीं मिलते, यह बात सही है / लेकिन वे नामशेष भी तो नहीं हुए / यदि अच्छा वेतन देनेकी तत्परता हो और सन्मानपूर्वक मनुष्यको निभानेकी तत्परता हो तो अच्छे शिक्षक-यद्यपि दुर्लभ हैं - फिर भी आज भी सुलभ हैं / उसी प्रकार भारी प्रभावना (प्रोत्साहन)- एक गाथा कंठस्थ करने पर एक रूपया-महिनेमें पच्चीस दिवसोंकी उपस्थितिवालेको प्रतिमास 20 रूपये, तीन मासके बाद यात्रा प्रवास जैसी कोइ आयोजन किया जाय तो बच्चे टी.वी.की ‘ऐसी तैसी' कर स्वयं ही पाठशालाओंमें दौड आयेंगे / प्रत्येक संस्था इस बातकी गाँठ बाँध ले कि बड़ी रकमके फंडके सिवा, अब निर्वाह होना मुश्किल है / प्रश्न : (110) देवदेवताके भंडारमें से पाठशालाओंके लिए रकम का उपयोग किया जाय ? उत्तर : वेतन दिया जाय / पुस्तकें खरीदी जायँ / प्रभावना की जाय / खानेकी चीजोंके अलावा अन्य किसी भी चीजकी प्रभावना की जाय, तो यह उचित होगा / प्रश्न : (111) ज्ञानविभागकी रकममेंसे पाठशालाकी पढाईकी किताबें लायी जा सकती हैं ? उत्तर : नहीं / कभी नहीं / वालिद लोग ही उसकी व्यवस्था करें / ज्ञानविभागकी इस रकम का उपयोग श्रमण-श्रमणियोंके लिए ही किया जाता है / इसी लिए पाठशालाके पंडितोका वेतन, ज्ञानविभागमेंसे दिया नहीं जाता या बच्चोंको पुरस्कार भी दिया नहीं जाता / हाँ, यदि ऐसे कामोंके लिए ही किसी दाताने रकम भेंट दी हो तो उसका उपयोग, उसी कार्यके लिए किया जाय / Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी 121 प्रश्न : (112 ) पाठशालाके बच्चे, अपनी पाठशालाके हर प्रकारके खर्चके लिए भेंटकूपनें-दो या पाँच रुपयेवाली-वितरित कर, उनके द्वारा लोगोंके पाससे रकम एकत्रित कर सकते हैं ? उत्तर : उसमें कोई हर्ज नहीं / उपरान्त, पाठशालीय बालक-बालिकाओं का संस्कारपूर्ण नाटक आदिके (शास्त्रविरुद्ध) कार्यक्रम द्वारा भी उंड एकत्रित किया जाय / बारह मासका शिक्षकवेतन भी लिखाया जाय / प्रभावनाफंड भी इकट्ठां किया जाय / उसमें प्रमुख, अतिथिविशेष, मुख्य मेहमान, विशेष आमंत्रित मेहमान आदि जैसे पद, उस कार्यक्रमके समारंभके प्रारंभमें ही देकर, उनके द्वारा भी अच्छी रकमोंके दानोंकी घोषणा करवायी जाय / इसके लिए व्यवसायी अभिनेताओंके या नाटकोंके शो रखे न जायें / दान प्राप्त करनेकी यह अधम रीत है / संस्थाका भी उसमे अवमूल्यन होता है / उपरान्त, प्रति रविवार बालक-बालिकाओंका समूह सामायिक का आयोजन किया जाय / उसमें प्रभावना-दाता तैयार करें / वे स्वयं सहपरिवार उपस्थित हों और अपने हाथों, अपनेको उचित लगे उस प्रकार यथाशक्ति प्रभावना-नगद या चीजके रूपमें दे / ऐसा कार्यक्रम देखकर दूसरे भी प्रभावनादाता बनने तत्पर होंगे / उनकी 'क्यू' लगेगी / बावन रविवार देखते ही देखते आरक्षित हो जायेंगे / इसमें फंड एकत्र करनेकी झंझट न होगी / हिसाब-किताबकी चिन्ता न रहेगी / और नित्यन्तन चीजें बच्चोंको मिलती रहेंगी, जिससे बच्चोकी हाजिरी बढ़ती जायेगी / प्रश्न : (113.) स्कूलकी तरह पाठशालामें भी बच्चोंके पाससे फीस ली जाय तो कोई आपत्ति होगी ? आर्थिक समस्या थोड़ी हल हो न पायेगी ? ... उत्तर : अरे, यह तो हमारे स्वार्थके लिए पाठशालाएँ चालू रखकर बच्चोंको धर्मकी शिक्षा और संस्कार देनेका काम करनेका हैं / वालिदलोग तो इस विषयमें जरा भी गंभीर नहीं हैं / उनके दिमागमें स्कूल, लेसन, ट्यूशनका ही बोलबाला है / उसके लअभागकी भी धार्मिक शिक्षाकी महत्ता, उन्हें महसूस नहीं होती / ऐसी हालतमें फिस लेनेकी बात तो दूरकी रही, लेकिन “पाठशालीय बच्चोंकी स्कूलकी फीस पाठशालाकी ओरसे दी जायेगी" ऐसा आयोजन करनेकी नौबत आ पड़ी है / स्कूलकी किताबें, नोटें आदि तो, कई पाठशालाएँ देने भी लगी हैं / Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 धार्मिक-वहीवट विचार प्रश्न : (114) जैनधर्मको प्रधानता देनेवाले स्कूल, कालिज, विश्वविद्यालयकी आवश्यकता महसूस नहीं होती ? उत्तर : इन सभीके आर्थिक प्रश्न इतने विकट हैं कि ये सभी बिना सरकारी सहायताके चल नहीं सकते / और 'सहायता' (ग्रान्ट)के लेनेके साथ ही 'जैनधर्म' के महत्त्वको बिदा होना पड़ता है / हाँ, मरजियातरूपसे जैनधर्मका वर्ग शुरू किया जा सकता है, लेकिन मरजियातका फरजियात विसर्जन आप ही आप होकर रहता है / ___बाबू पन्नालाल, शकुन्तला, फालना आदि जैनधर्मकी स्कूलोंको अन्तमें क्षीण होना पड़ा है / उपरान्त, ऐसे स्कूल-कालिजोंका संचालन श्रावकसंघ द्वारा गीतार्थों के अनुशासनके पास न जानेके कारण और शैक्षिक ढाँचे द्वारा अन्तमें वेटिकन सीटीके कैथोलिक धर्मगुरु पोपके पास जानेके कारण, इस माध्यमसे जैनधर्मका सही रूपमें हित होनेकी संभावना नहीं है / उसके विरुद्ध भारी नुकसान होगा / अतः कोई धर्मप्रेमी इस प्रवाहमें अपने आपको प्रवाहित न होने ___प्रश्न : (115) अष्टप्रकारी पूजाके चढ़ावेके आधार पर, चढ़ावेके बोर्डकी तरह बारह मासके पाठशालाके चढ़ावे बुलवाकर, प्रत्येक संघमें बोर्ड रखा जाय, तो वह उचित होगा ? . उत्तर : धनवान लोगोंकी धनमूर्छा उतारनेवाली जितनी शास्त्रोक्त योजनाएँ हा, उतनी उच्छी हैं / जिनभक्तिकी तरह पनपनेवाली नयी पीढीके संस्करणका महत्त्व जरा भी कम नहीं / उसके प्रोत्साहनके लिए जो भी योजना करनी पडे, उसे कार्यान्वित करनी ही चाहिए / _ अब तो पाठशालामें प्रतिदिन उपस्थित रहना मुश्किल हो गया है / ऐसी स्थितिमें 'रविवारीय सामायिक शाला' सर्वत्र खोलनी चाहिए / उसमे 14 सालके निम्न उम्रके सभी बालक-बालिकाओंको प्रवेश देकर दो सामायिक कराने चाहिए / उसमें गाथा, स्तवन, स्तुति, प्रायोगिक, कथावार्ता, प्रश्रोत्तरी, वक्तृत्व आदि कार्यक्रमों का संकलन करना चाहिए / प्रत्येक बालकके हिस्से में कम से कम दो रूपये तो जाने ही चाहिए / यदि कोई प्रभावना करना चाहता हो तो स्वयं सपरिवार उपस्थित होकर प्रभावना दे / रूपये दे / मीठाई या चोकलेट (नहीं.:...अभक्ष्य तो नहीं ही दे) दे अथवा अपनी फैक्टरीमें बननेवाले ग्लास, बैग, बोलपेन Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्रोत्तरी 123 आदि भी दे / सुखी धनिक लोगोंको दोके बदले पाँच रूपयेकी प्रभावना हो जाय तो उसमें उन्हें क्या हर्ज होगा ? उसके सामने बच्चोंके हर्षोल्लासमें कितना भारी बढ़ावा होगा ? यदि प्रति रविवार डेढ़ घंटे तक सामायिक - शाला चलती रहे, तो भी अच्छा काम होगा / ___-आयंबिल विभाग प्रश्नोत्तरी (10) प्रश्न : (116) आयंबिल शालामें बची रसोई अन्य गरीब साधर्मिकोंको (छौंक आदि कर) या अजैन गरीबोंको खानेके लिए दी जाय ? उत्तर : यदि ऐसा न किया जाय तो रसोईको गटरमें ही बहा देनी पडेगी, यह संभव नहीं / उसकी अपेक्षा आपका सूचित विकल्प अच्छा है / उपरान्त, ऐसा करना भी चाहिए / जिससे कतिपय अत्यन्त गरीब लोगों का पोषण भी हो सके / हाँ, दाता लोग इस बातका अपनी भावनामें समावेश करें तो अच्छा है / दूसरी बात यह है कि जो धर्मात्मा आयंबिल करें वे स्वैच्छिक रूप से दानकी रकम लिखवाये तो अच्छा होगा / इस रकमका उपयोग उपर्युक्त काममें हो सकेगा. 1 प्रश्व : (117) भूतकालमें सभी घरमें ही आयंबिल करते थे / आज आयंबिल विभाग शुरू हुए ? यह उचित है ? उत्तर : पहले ही उसका उत्तर दिया गया है / हाल तो ऐसी कमनसीब परिस्थिति उत्पन्न हुई है कि यदि अब अनेक गैरलाभोंके कारण आयंबिल शालाएँ बंधकर दी जायँ तो घर पर होनेवाले आयंबिलोंकी संख्या एकदम कम हो जाय / कई बार समय ही कतिपय अच्छे-बूरे काम करनेके लिए मजबूर करता है / उस समय आदर्शोंको साकार करनेका काम बड़े बड़े धुरंधरोके लिए भी मुश्किल हो जाता है / प्रश्न : (118) आयंबिल विभागकी रकमका उपयोग साधर्मिक, पाठशाला आदिमें कर सकते हैं ? उत्तर : नहीं, कभी नहीं / कालकृत विभाग - निश्राकृत विभाग प्रश्नोत्तरी (11-12) प्रश्न : (119) कालकृत और निश्राकृत विभागकी रकम बैंकमें जमा पड़ी रहे, उसकी अपेक्षा देवद्रव्यादि विभागमें उपयोग करे तो क्या हर्ज है ? Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 धार्मिक-वहीवट विचार उत्तर : यदि ऐसा किया जाय तो, जिस कार्यके लिए उन रकमों का फंड किया गया है, वे सभी कार्य बंद हो जायें / दाताका दान निमित्त उद्देश्य भी खत्म हो जाय / अतः इस प्रकारकी देवद्रव्यभक्ति यह अतिभक्ति मानी जायेगी और यह वर्ण्य है / ___ अनुकम्पाविभाग - प्रश्नोत्तरी (13) ... प्रश्न : (120 ) रथयात्रादिके वरघोडेमें पीछेके भागमें यदि अनुकम्पाकी गाडी रखी जाय तो, उसके खर्चकी रकम, सात क्षेत्रोंमेंसे, किस विभागमेंसे ली जा सकती है ? उत्तर : सात क्षेत्रोमें इस विषयका कोई विभाग नहीं है / लेकिन शुभ विभाग (सर्व साधारण)के चौदह क्षेत्रोमें जो अनुकंपाविभाग है, उसमें से इस खर्चका निर्वाह कर सकते हैं / उपरान्त, रथयात्रा निमित्त जो फंड एकट्ठा किया गया हो, उसमेंसे भी यह खर्च निकाला जा सकता है। कोई एक व्यक्ति भी, स्वद्रव्यसे यह लाभ पा सकता है / प्रश्न : (121) गरीबोंके लिए गाँव-गाँव ख्रिचडी घर, छाशकेन्द्र, प्याऊ, शाक-पुडी आदि सदाव्रत अन्नक्षेत्र जैसा कार्यक्षेत्र शुरू हो तो, वह इच्छनीय है या नहीं ? उत्तर : स्पष्ट उत्तर हाँ है / औचित्यके लिए शासनप्रभावना हो उसके लिए या शासनहीलना (जैन लोग मानवताके आग्रही नहीं / वे तो पत्थरों में ही करोडो रूपयों का खर्च करते हैं - जैसे बोले जानेवाले शब्द यह शासनहीलना है।) के निवारणार्थ, ऐसे कार्य स्थान स्थान पर भले ही हों / लेकिन वर्तमानकालीन बेरोजगारीके भीतर जो भयंकर कक्षाका अंगार छिपा पड़ा है, उसे हम नजरअंदाज नहीं कर सकते / ___ बात ऐसी है कि - वर्तमान गरीबी, बेकारी, बीमारी, महँगाई आदि कृत्रिम हैं, मानवसर्जित है / हिन्दुस्तानकी समुची धरती पर, अपने कायमी निवास करनेके उद्देश्यसे विदेशी गोरी प्रजा हिन्दुस्तानकी भूमि पर कायमी प्रभुत्व जमाना चाहती है / इसके लिये बममारी कर, उसकी प्रजाका खात्मा कर दे तो, पृथ्वी पर उभर आये अद्यतन कक्षाके बड़े बड़े शहर, उद्योग व्यवसाय, बंध, रास्ते आदिका भी सत्यानाश हो जाय / अतः बिना बममारीके सूखा, भूखमरी, बीमारियाँ आदि द्वारा वे भारतीय प्रजाको नामशेष करना चाहते हैं / इस निमित्त ही उन्होंने शिक्षण (बेकारीजनक) यन्त्रवाद Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी 125 (गरीबीसर्जक).उद्योग (प्रदूषणप्रवर्तक) कृषिमें फर्टिलाईजर, जंतुनाशक दवाईयाँ (मृत्युजनक) पाताल.ए (जलभंडारके शोषक) बंध (बारहमासी नदियोंके प्रवाहका विनाश) आदिका सर्जन किया / इसके फलस्वरूप भारतमें पैंतालिस करोड लोग गरीब ही नहीं, किन्तु भिखारी बने हैं / सौ दो सौ बीघोंकी जमीनके मालिक सह परिवार मुठ्ठीभर अनाजके लिए बम्बई जैसे महानगरोमें फूटपाथों पर झोंपड़े बनाकर बैठे हैं / अति भयानक बीमारियाँ फैली हैं / तंदुरस्ती नामशेष बनी है / प्रजाजीवनके आधारभूत पशुओंकी हालतका तो वर्णन ही नहीं हो सकता / ऐसी भयानक और विराट गरीबी और भूखमरी चालू ही रहे बनी रहे, उसमें उन क्रूर गोरे विदेशियोंको दिलचस्पी है / यह काम लगातार चलता रहे उसके लिए उन लोगोंने भारतीय प्रजाके लाखों लोगोंको अपने ढंगकी मेकोली सूचित शिक्षा देकर देशी-गोरे (विदेशियोंके खुशामतखोर, उनके हितार्थ काम करनेवाले भयंकर देशद्रोही) पैदाकर काममें लगा दिये है / इस प्रकार एक और भयंकर गरीबी बढ़े और उसे रोकनेके लिए कोई कुछ सोचे ही नहीं और केवल 5-50 सदाव्रत चालू कर चूप बैठे रहे तो यह काम उस क्रूर कार्यको न रोकनेके रूपमें गरीबी आदिको उत्तेजन देनेवाला न होगा ? . देशी - विदेशी गोरोंकी भी यही इच्छा है कि गरीबी, भूखमरी, बीमारीको पैदा करनेके लिए धंसती हमारी दोसौ कि. मी.की तेज रफ्तारवाली ट्रेईनको तुम रोको नहीं / पटरियाँ पर चौड़े सो न जाओ / तुम सदाव्रतोंजनता अस्पतालों, आदिवासी कल्याणोंकी प्रवृत्तिमें रचनात्मक (खूब आकण्ठमग्न) बने रहो / दोसौ कि. मि.की तेज रफ्तारवाली विध्वंसात्मक कार्यकी एक ट्रेन और चौदहवीं सदीका ठीचूक.:. ठीचूक.... आवाज करनेवाली चींटीके वेगसे आगे बढती हुई रचनात्मक कामकी बैलगाडी ! क्या करेगी. यह बैलगाडी ? उस ट्रेईनको ग्रीन सिग्नल देनेका काम करेगी न ? यही खतरनाक बात है / बचीखुची मानवशक्तियाँ पटरियाँ पर चौडी होकर ट्रेईनको रोक पायेगी क्या ? वह बैठ गयी बैलगाडीमें ! बैलगाडीकी भेंट दी देशी-विदेशी Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 धार्मिक-वहीवट विचार गोरोंने ! क्यों वे भेट न देते ? अरे सोने से सजा कर दे / उन्हें तो दिलचस्पी है विध्वंसकी ट्रेईनको भगानेमें / कोई उसमें रुकावट न डाले, इस लिए / इसी लिए सदाव्रतोंके साथ बेकारी आदिके मूल कारणोंको भी बिना भूले ईलाज करना आवश्यक है / तभी भारतके किसी भव्य भाविकी आशा बनी रहेगी / गौरवान्वित उसका मृत इतिहास पुनः कब्रमें से उठ खडा होगा / प्रश्न : (122 ) पर्युषणमें प्रभुवीरके वस्त्रदानके प्रसंगको ध्यानमें लेकर प्रत्येक संघमें, उस दिन घर-घर से कपड़े. इकट्ठे कर, गरीबोंमें वितरित करनेसे शासनप्रभावना न होगी ? उत्तर : अवश्य शासनप्रभावना होगी / भादप्रद शुक्ल द्वितीयाके रोज परमात्मा महावीरदेवके चरित्र वाचनमें उन्होंने गरीब मनुष्यको वस्त्रदान किया था, ऐसा सुननेमें आता है तो भादप्रद शुक्ल प्रतिपदाके दिन तक, जैनोंको घरके सारे पुराने वस्त्रादि, संघके कार्यालयमें जमा कराने चाहिए / वे यदि नये सिले-सिलाये कपड़े खरीदकर ला दें तो उन वस्त्रोंका वितरण गरीब साधर्मिकोमें भी किया जाय / यदि संघके युवक भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा तक चारों ओर घूमे, तो ट्रकके ट्रक भरकर कपडे मिलनेकी पूरी संभावना है / इन वस्त्रोंका वर्गीकरण कर युवकोंको झोंपडपट्टियोंमें घूमना चाहिए / परमात्मा महावीरदेवके नामका जयजयकार करते कराते वस्त्रों का वितरण होता रहे तो जैनधर्मको भारी प्रभावना. (प्रशंसा स्वरूप) हो सके / यह कार्य भारतभरके जैनसंघोंमें शुरू हो तो उसका आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त होगा / प्रश्न : (123) हेय और उपादेय अनुकंपा कौन कौन सी है ? उत्तर : जिस अनुकंपाके पीछे बडे आरंभ समारंभ हों, अथवा जहाँ बडी बडी हिंसाएँ होती रहती हों, ऐसी अनुकंपाएँ हेय कक्षाकी मानी जायँ / उससे विपरीत अनुकंपाएँ उपादेय मानी जायँ / कभी जिनशासनकी संभवित हीलनाके निवारणके लिए औचित्यके निमित्त, कोई विशिष्ठ संयोग उपस्थित हो तब विद्यमान सुविहित गीतार्थों के मार्गदर्शनको प्रमाणभूत समझकर चलना चाहिए / Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 127 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्रोत्तरी प्रश्न : (124) साधर्मिक विभागकी या साधारण विभागकी रकममेंसे अजैन गरीब लोगोंकी अनुकंपा की जाय या नहीं ? उत्तर : नहीं हो सकती / सात क्षेत्रोंके उपरि स्तरके विभागकी रकम, निम्नस्तरके विभागमें नहीं जा सकती / साधारण विभाग अर्थात् सात क्षेत्रोंको साधारण विभाग ऐसी सामान्यतया समझ है / अतः साधारण विभागकी रकम सात क्षेत्रोंसे अतिरिक्त विभागमें नहीं जाती / यदि साधारण विभागके बदले में शभ (सर्वसाधारण) विभाग खोला जाय तो उस विभागकी रकम 7+7 = 14 क्षेत्रोमें विभाजित हो / उस रकमका सात क्षेत्रोंके अतिरिक्त अन्य शुभकार्यो में भी उपयोग किया जाय / अपनी अथवा अपने परिवारकी यात्रामें इस रकमका उपयोग नहीं करना चाहिए / इसके अतिरिक्त, अनुकंपा विभागमें रकम जमा करानी हो तो अनुकंपा निमित्त विशेष फंड इकठ्ठा करना चाहिए / 'अनुकंपा', जीवदयाविभागकी रकम, अन्य किसी भी विभागमें नहीं जा सकती / जीवदया - प्रश्नोत्तरी प्रश्न : (125) पांजरापोलमें होनेवाली जीवदया उचित है ? उत्तर : बारबार आते सूखे, सरकारकी अप्रिय संस्था पांजरापोल (आदरणीय संस्था गौशाला ) श्रीमंतोका बढ़ा-चढ़ा विलास और स्कूलों, कालिजों अस्पतालोंकी ओर बहता दानप्रवाह, कम हई जीवदयाके प्रति रुचि, कार्यकर्ताओंका अभाव, पानीकी कमी आदि अनेक कारणवशात् अबोल पशुपक्षी प्राणियाँकी जीवदयाका काम विकट हो गया है / / तीन संस्थाओंकी परिस्थितिकी ओर नजर करनेसे मैं सोचता हूँ कि इनका दस सालके बाद भावि कैसा होगा ? उन तीनोंके नाम ये हैं :(1) पांजरापोल (2) पाठशालाएँ (3) भारतीय जीवन श्रावक-श्राविकाओंके संघकी हालत तो आज विषम बनी है / अर्थ और कामकी तीव्र लालसाके कारण, इस संघने अपने देशविरति धर्मके अस्तित्वको मृतःप्राय कर दिया है / खैर...यह सब कुछ तो अखिर नियतिके आधीन है / पांजरापोलोंमें जो जीवदया बतायी जाती है उसमें जीवोंके प्रति दयाका उद्देश तो है ही, परन्तु उसके पीछे मुख्य हेतु तो अपने करुणानामक गुणको Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 .. धार्मिक-वहीवट विचार जीवन्त रखनेका, सजीव बनाये रखनेका है / दूसरे जीवोंकी रक्षा हो भी सके, न भी हो सके, परन्तु उनकी रक्षा करनेके कार्यमें स्वगुण-करुणाकी रक्षा तो अवश्य होगी / इस प्रकार करुणा गुण तैयार होने पर उसका मालिक अपने मातापिता, पत्नी (या पति) संतान, नौकर आदिके प्रति कभी भी क्रूर या कठोर बन नहीं पायेगा / छोटी बकरी, बकरे या भंड आदिके. प्रति दयाभावका यह सबसे बड़ा लाभ है / उससे उस आदमीका संसार स्वर्गीय बना रहता है। - 'जो दें उसे पाएँ' उस न्यायानुसार जीवोंके प्रति प्रेम देनेवालोंको सभी सगे संबंधियोंकी ओरसे भी लगातार प्रेम प्राप्त होता रहता है / / जीवोंके प्रति करुणा करनेसे अतिशय. पुण्यं संग्रह होता है / वह उदित होकर जीवनको सुखमय बनाता है / / करुणा तो जिनशासनकी कुलदेवी है / उसका सेवन पांजरापोल आदिमें होता है / एक भी गायके पाससे पाँव लीटरकी भी बिना अपेक्षा रखे बिना मूंड, हिरन, कुत्ते, मुर्गे-बीमार या मृत:प्राय- तमामकी ऊँचे दर्जेकी सेवा करना, यह स्वार्थान्ध बनी मानवजातिके लिए आश्चर्यजनक बात है / यह काम जैन ही कर सकते हैं अतः छोटीसी भी भारतकी यह जैन कौम अधिकाधिक सुखी-समृद्ध बन रही है / प्रश्न : (126) जीवदयाविषयक मुकद्दमोंमें अजैन वकील आदिको जीवदयाकी रकममेंसे पारिश्रमिक न दिया जाय ? उत्तर : अलग रकम न दी जाय, तब अवश्य दें / प्रश्न : (127) पर्युषण पर्वके समय कत्लखानोंमेंसे जीवोंको बचानेमें जीवहिंसा माने या जीवदया ? उत्तर : यह प्रश्न उठानेवालेके मनमें जो विचार उत्पन्न हुए होंगे, वे ये हैं कि पर्वके उन दिलोमें जैन लोग जीवोंको मुक्ति दिलाते हैं, ऐसी कसाईओंको जानकारी होनेसे, पशुओंकी किंमत वे बढा देते हैं। अन्य दिवसोंमें जितनी रकममेंसे दस जीवोंकी मुक्ति हो, उतनी रकममेंसे पर्युषण पर्वके दिनोमें एक ही जीवको छुट्टी दिला सकते हैं / उपरान्त एकसाथ बड़ी रकम मिलनेसे कसाईलोग, तेज और अधिक मात्रामें कत्ल करनेवाले अद्यतन यान्त्रिक साधनों छुरों आदिकी खरीदी करते हैं / इसमें जीवदयाकी रकम ही निमित्त बनकर, जीवदयाके बदले जीवहिंसाकी प्रेरक बनती है / ___ यह बात बडी विचारणीय बन जाती है / Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 129 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी पहली बात यह है कि पर्वदिनोमें प्राणियोंको अभयदान करनेका है / अतः धर्मी लोग जीवोंको मुक्ति दिलानेमें ही दिलचस्पी रखते हैं / यदि ऐसा होता हो तो पर्वके निमित्तको लक्षमें लेकर या तो आषाढ मासमें पहलेसे ही जीवोंको मुक्ति दिलायें / उपरान्त, एक ही कत्लखानेमें से पूरी रकम द्वारा जीवोंको मुक्त न कराकर, दूर दूरके दस कत्लखानोंमें से जीवोंको मुक्त करायें / यदि ऐसा हो तो उपरके दोनों दोषोंकी संभवितता दूर हो जाय / सचमुच तो, जीवहिंसाका जो सरकारी तन्त्र है उसे ही ठप्प करने में जीवदयाकी रकमका उपयोग करना चाहिए / ऐसे प्रचंड आन्दोलन होने चाहिए / सर्वोच्च अदालतमें ऐसी 'रीट' अच्छे मानेजाने वकीलों द्वारा पेशकर, मुकाबला करना चाहिए / जिससे सरकारको तमाम कत्लखाने बंद करने पडे / भारतके संविधानकी कतिपय कलमें (५१-अ आदि) भारतके प्राणीमात्रकी रक्षा करनेकी सूचना देती हैं / इसका संदर्भ लेकर लगातार संघर्ष करते रहना चाहिए / तद्विषयक साहित्य बड़ी मात्रामें तैयार करके प्रसारित करना चाहिए / यदि कत्लखानोंमें लगातार बढ़ावा होनेवाला ही हो, तो जानवरोंको छुडानेसे आत्मसंतोष होगा, लेकिन बादमें आन्दोलन करनेकी इच्छा ही न होगी / इस प्रकार सज्जन यदि निष्क्रिय होंगे तो दुर्जन लाभ उठाते रहेंगे / रचनात्मक कार्योंमें ऐसी नज़रबंदी होती है / खंडनात्मक कार्य ही करने चाहिए / वास्तवमें तो खंडनका खंडन (जीवदयाका खंडन यह कत्लखाना स्वरूप है तो कत्लखानेका खंडन) यह मंडन (जीवदया) स्वरूप बन जाता है / इस प्रकार सचमुच तो यह रचनात्मक कार्य बना रहता है / फिर भी यदि उसे खंडनात्मक कार्य कहा जाय तो भी सज्जनोंको उसके प्रति . अरुचि या विरोध न होना चाहिए / उन्हें तो ऐसे आन्दोलनोंके अग्रेसर बने रहना चाहिए. / सज्जनोंकी ध्यान दूसरी ओर ले जानेके लिए, उन्हें आन्दोलनोंसे दूर रखनेके लिए ही कतिपय तथाकथित रचनात्मक कामोंका आयोजन अमलमें है / इसमें भी सज्जनलोग निराश हो जायें तो भारतीय महाप्रजाकी आधारभूत - धा.व.-९ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार संस्कृतिका सर्वनाश आसानीसे हो जायेगा / . इस भेदनीतिसे सभी सावधान बने / बादमें कभी विवश होकर कोई रचनात्मक कार्य करना पड़े तो तद्विषयक मन:स्थितिको सजाग बनाकर काम करे / फिर भी इस विषयमें सत्य तो सदा सर्वत्र उच्चारित करते ही रहे / प्रश्न : (128) अबोल-मूक जानवरोंकी जीवदयाके और दुःखी मानवोकी अनुकंपाके रूपये बैंकमें जमा रख सकते हैं ? उसकी फिक्स डिपाजिट रसीद ( पहुँच) लेकर केवल उसके व्याजका उपयोग, उन कार्यों में किया जाय ? उत्तर : नहीं, जरा भी नहीं / बैंको द्वारा अधिकांश रकम मच्छीमारी, पोल्ट्रीफार्म आदि और उद्योगोंके यन्त्रवादके लिए दिया जाता है / यन्त्रवाद, भारी बेकारी और प्रदूषणजनित बीमारी मानवप्रजामें घसीट लाकर मानवोंकी बरबादी करता है / यह कितनी बड़ी भारी हिंसा है ? क्या इसमें जीवदयाके या अनुकंपाके रूपयोंका उपयोग करवाया जाय ? . उपरान्त, जब पशु-पक्षियोंके जीवनके लिए इस रकमकी तात्कालिक आवश्यकता खडी होती है तब उसे बैंकमें जकडाये रखना, यह तो ट्रस्टियोंकी बिलकुल क्रूरता है / संपत्तिके संचालन करनेकी मोहदशामेंसे उत्पन्न यह क्रूरतापूर्ण कुकर्म है / जितनी रकम हो, उतनी कम पड़े ऐसी हालतमें इस प्रकार बैंकमें पूंजीको जमा कर, उसका केवल कर्जका ही उपयोग किया जाय यह केवल जीवो प्रति निंदनीय कार्य है / यहाँकी इस बातको पढनेके साथ ही जमा की हुई पूरी रकमोंको ट्रस्टी लोग उठाकर जीवदयादिके योग्य स्थानोमें संपूर्णतया उपयोग कर अज्ञान अवस्थामें हुई गलतीको सुधार लें और बड़े कर्मबंधनमेंसे बच पायें / - यहाँ इतना अपवाद समझें कि पशुओंके घासफूस आदिके लिए यदि कायमी तिथि योजना की गयी हो तो, उस पूंजीको अनिवार्य रूपसे भी बैंकमें रखनी होगी / प्रश्न : (129) वर्तमानकालीन पांजरापोलोंके लिए आपकी मान्यता क्या है ? उत्तर : कई पांजरापोलें आवश्यक आमदनीके अभावमें परेशान हो रही हैं / Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी 131 भूतकालमें धनवानोंकी उदारताकी, पांजरापोलोंको विशेष आवश्यकता रहती न थी, क्योंकि उनके पास बड़े बड़े घासके मैदान चरगाहै थीं / घासफूसके लिए कृषिकी जमीनें थीं / उनसे उनका काम निपट जाता था / व्यापारमें पांजरापोलके लिए कर निश्चित किये गये थे / / ___पांजरापोल विषयके निष्णात तो यह कहते हैं कि 'यदि-आज भी पांजरापोल इस प्रकार अपनी जमीन (५०से 100 बीघे) प्राप्त करें और उसमें इस प्रकारके जमीनके अनुकूल फल, चीकु, नारियल, केले आदिकी बाडियाँ करें और अथवा बहुत कम पूंजी लगाकर ज्यादा मुनाफा दे ऐसे लकडी देनेवाले वृक्ष, तैल आदि देनेवाले शाल्मली आदिका वनस्वरूपमें वृक्षारोपण किया जाय तो पाँचवे सालसे बडी कमाई कराने लगे / ' ____ऐसा कुछ पांजरापोलोंके कार्यकरोको सोचना होगा / हमेशाके लिए पैसे माँगते रहनेसे पांजरापीले चलेंगी नहीं और फिर भी वे यदि चलायी जायँगी तो मृत:प्राय होकर रहेंगी / उनके जानवर भी मरणासन्न होंगे / अन्तमें भूखमरीसे मरेंगे / इस प्रकार पांजरापोल चलायी नहीं जातीं / ' खेती(कृषि), बाडी, चरागाह विषयक प्राचीन पद्धतियों और नये देशकालकी अनुकूलताओंका (आर्यनीतिका) संमिश्रण करना पडेगा / पानीकी सुविधा हो जाय तो बादमें कुछ भी अशक्य नहीं / उपरान्त, बैंकोमें फिक्स डिपोजिटोंका जो सूद मिले, उसकी अपेक्षा तो उस रकमसे जमीन खरीदकर, उसमें बुद्धिपूर्वकका आयोजन करनेसे ज्यादा मुनाफा मिल सकता है / ऐसा उसके विशेषज्ञ कहते हैं / बाकी सरकारी सहायता मिल जाय तो बात अलग है; लेकिन उसके विश्वास पर पांजरापोलोंको लटकाये रखना अच्छा नहीं / जानवरोंकी रक्षा करना, यह सरकारी शासनका उत्तरदायित्व है / काश, सरकारको गौशालामें उसकी हठ्ठी-कठ्ठी गायोंमें दिलचस्पी है / मरणासन्न या कमजोर जानवरोंको कत्लखानोंमें ही भर्ती करानेमें उसे दिलचस्पी है / यह तो प्रजा आगबबूली हो न जाय इसी लिए सहायता देकर कमजोर जानवरोंकी रक्षा करनेका दिखावा करता है / अन्यथा पांजरापोलोंको जिलाने में उसे कोई दिलचस्पी नहीं / अब तो गौशालामें भी कत्लको अनुकूल बनानेकी तरकीबें जारी Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 धार्मिक-वहीवट विचार हैं / स्वदेशीके बजाय अधिक दूध देनेवाली (थोड़े ही समयके लिए) विदेशी जर्सी, होस्टीन प्रकारकी गायोंकी पसंदगी लोग अधिक करने लगे हैं / जहाँ व्यवसायकी बात आयी, कमाईकी भावना पैदा हुई वहाँ जीवदया आदिके धर्म या संस्कृतिको टिकानेकी बातका खात्मा कर दिया जाता है / विदेशी गायें जल्द कत्लखानेमें जाय उसमें सरकारको भी ज्यादा दिलचस्पी है / भूतकालमें तो दूधको बेचना-पुत्रके विक्रयके समान पाप समझा जाता था / आज तो दोनों बिकने लगे हैं / पैसों के पीछे प्रजा पागल बनी हैं / पुण्य-पापके भेद भुला दिये गये हैं / किसी भी उपायसे रूपयोंको एकत्र करना यही पुण्य और रूपयोंका गँवाना यही पाप समझा जा रहा है / ऐसी व्याख्या बनी हुई है / एक गुजराती कविने ठीक ही कहा है : "दोढिआ खातर दोडता जीवो..... जुओ ने जीवतां प्रेत / " प्रश्न : (130) यदि गोबर गेस प्लान्टका व्यापक रूपसे उपयोग किया जाय तो पांजरापोल आदि तमाम क्षेत्रोमें लकड़ियाँ जलाना आदिका खर्च कम न हो पायेगा ? उत्तर : खर्च कम होनेकी बात गौण है / उसके विरोधमें कोई ऐसा भी कह सकता है कि इस गेस प्लान्टमें सूक्ष्म जीवोंकी हिंसा ज्यादा होती है / अतः वह उचित नहीं / (यद्यपि ऐसी विराधना होती नहीं, ऐसे गेस प्लान्टके प्रचारक असंदिग्ध भाषामें कहते हैं अथवा कोई कहता है कि खुलेमें पड़े रहते गोबरमें जो जीवोत्पत्ति होती है, उसकी घोर विराधनाकी अपेक्षा गेस प्लान्टकी विराधना बेहद मामूली है / ) समाज हितचिंतक विज्ञापित करते हैं कि जैसे जैसे गाय-भेड-बकरे आदि अनेक प्रकारके प्राणी अनुपयोगी होंगे, वैसे वैसे वे सभी आसानीसे कत्लखानोंमें जायेंगे ही / शासनको ऐसा करनेसे कोई रोक न पायेगा / लेकिन यदि इन जीवोंको उपयोगी बना दिये जाय, तो उनकी हिंसा आप ही आप बंद हो जाय / उतना ही नहीं, उनकी देखभाल भी बढ़ी-चढ़ी होने लगे / जीवरक्षाका जयजयकार हो जाय / गोबरगेस प्लान्ट यदि प्रयत्नपूर्वक सफल हो तो प्राणीमात्रकी उपयोगिता बढ़ जाय / गाय, कमजोर, बीमार या रोगिष्ठ-गोबर तो देती ही है (दूध शायद न भी दे / ) भेड़-बकरे, भंड हिरन आदि जानवर और पक्षी आदि Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी सभी, गोबर, लेंडी, मल, मूत्र आदि रातदिन देते ही रहते हैं / यह सारा गोबर गेस पलान्टके लिए तो मिष्टान्न जैसा बन पाता है / ऐसा होने पर सभी प्राणियोंको अभयदान मिल जायेगा / हालमें चीनमें पशुओंका मूत्र भारी आमदनी करानेवाला सिद्ध हुआ है / सुननेमें आया है कि आकोला जिलेके शेगाँव के अंदर एक जानवर एक सालमें जितना गोबर-मूत्र देता है, उसकी आमदनी अठारह हजार रूपयोंकी होती है / अभी भी उसमें संशोधन हो रहा है / यदि इस प्रकार सभी प्राणियोंके मलमूत्र अपार आमदनी करानेवाले बन पाये तो धनपागल प्रजा, उन्हें खत्म-कत्ल करानेके बजाय, उनकी पूरी तरह देखभाल करनेमें लग जायेंगे / यदि वनस्पतिकी उपयोगिता सिद्ध हो तो, एक भी पत्र (पर्ण) तोडनेके अपराधमें दण्ड दिया जाय / / हाँ, अब ऐसे दिन आ रहे है जिनमें प्रदूषणोंसे पृथ्वीका विनाश देखनेवाली विश्वकी सरकारें, एकट्ठी होकर, प्राणवायु (आक्सीजन) वनस्पतिमेंसे और ऊर्जा (गोबर-मूत्र)मेंसे प्राप्त करनेके लिए खूब प्रयत्न कर रही हैं / ऐसा होने पर समग्र प्राणियोंको और वनस्पतिको समग्र विश्वकी ओरसे और मानवजातिकी ओरसे अभयदान मिल जायेगा; ऐसी कल्पना कैसी लगती है ? हम चाहेंगे कि जल्दसे जल्द आनंदके वे दिन अवतरित हों / प्रश्न : (131) जीवदयाकी रकमका श्रेष्ठ उपयोग करनेका मार्ग कौन-सा है ? उत्तर : परंपरागत रूपसे कत्लमें जानेवाले जीवोंको ‘अभयदान' देनेका रास्ता श्रेष्ठ माना जाय / लेकिन परिवर्तित वातावरणमें जीवदयाके लिए लडाये जाते अदालतोंके मुकद्दमोंमें, वकील आदिको दी जानेवाली फिस आदिमें उपयोग करना श्रेष्ठ मार्ग है / क्योंकि एक भी मुकद्दमे में विजय प्राप्त हो तो लाखों जीवोंको अभयवचन प्राप्त हो जाय / निकट भूतकालमें ही ऐसे एक मुकद्दमेमें विजय प्राप्त होने पर यह निश्चित हो गया है कि मार्ग परसे गुजरनेवाली ट्रकोंमें भरे हुए जानवरोंको पकडकर सीधे अदालती कार्यवाही द्वारा पाँजरापोलोंमें भर्ती करा दें / बादमें उनके मालिक यह सिद्ध करें कि ये गाय, बछडे, कत्लखानोमें लिये जाते न थे / घास-फूसवाले प्रदेशमें ही ले जाये जाते थे, तो वे जानवर उन्हें Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 धार्मिक-वहीवट विचार वापस मिलें / परन्तु उतने दिनोंके खर्चके रूपमें प्रत्येक जानवरके सार रूपयोंके हिसाबसे वे पाँजरापोलको पूरी रकम दे दें / इस फैसलेके कारण एक ही जीवदयाप्रेमी मालेगाँव (जि. नासिक)वे. श्रीकेसरीचंद मेहताने अनेक स्थलों पर ट्रकोंको रोककर अठारह हजार जानवरोंको पकड लिये थे, उन तमामको अभयदान मिल गया / संक्षेपमें सप्लाय करनेवाले जानवरोंके मालिक प्रायः कसाई ही होते हैं / सच्चे बनजारे नहीं / उपरान्त, प्रतिदिनके प्रत्येक जानवरके लिए सात रूपये भरनेकी उनकी ताकत नहीं / अतः वे लोग भाग निकलते हैं / अदालतमें शिकायत भी दर्ज नहीं करा सकते / ____ इतना बड़ा लाभ एक ही मुकद्दमा जीतनेसे हो जाता है / ऐसे केसरीचंद भाई और अपना बलिदान देनेवाले गीताबहन जैसे सैंकड़ो कार्यकर्ता तैयार हों तो, लाखो जीवोंको अभयदान प्राप्त होगा / प्रश्न : (132) जीवदयाके रूपयोंका उपयोग अनुकंपा विभागमे किया जा सके या नहीं ? उत्तर : नहीं, नहीं कर सकते / .. जीवदयाके रूपयें जीवोंको अभयदान देने में ही उपयोगमें लाये जाते थे / परन्तु हालमें जीवदया निमित्त चलती अदालतोंकी कार्यवाहीमें उन रकमोंका उपयोग करना उचित होगा / क्योंकि यदि ऐसे किसी एकाध मुकद्दमेंमें भी विजय प्राप्त हो. तो लाखों जीवोंको अभयदान मिल जाय / जब जीवदयाका फंड हो तब ऐसी स्पष्टता हो तो सबसे अधिक अच्छा होगा / जीवदयाकी रकम पांजरापोलोंको ताकतवर बनानेके लिए पांजरापोलोंको दे देना उचित होगा / गुजरात राज्यमें गोवंशवध प्रतिबंध हुआ / इससे पांजरापोलोमें गोवंशकी संख्या बढ जानेकी पूरी संभावना है / ऐसे समय पांजरापोल समृद्ध और स्वनिर्भर बनायी न जायें, तो जानवरोंका स्वीकार न कर सकनेके कारण पुनः वे गैरकानूनी कत्लके शिकार बन पायेंगे / प्रश्न : (133) घरमें माता-पिताको त्रस्त करनेवाला, पलीको मारपीट करनेवाला व्यक्ति यदि जीवदया विभागमें दान करें, तो उसे उचित माना Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी जाय ? प्रथम जीवदया किसकी की जाय ? उत्तर : वह दान अनुचित नहीं है / लेकिन जो मारपीट है, उसे अनुचित समझी जाय / अधिक पुण्यशाली व्यक्तिकी विशेष दयाभक्ति होनी चाहिए, उस न्यायानुसार उसे माता-पिताके प्रति बहुमान एवं उसकी पत्नीके प्रति सन्मानभाव रखनेकी बात जरूर होनी चाहिए / प्रश्न : (134) किसी भी उछामनीकी बोलीके समय, भावना और परिस्थिति विशिष्ट हो और उसके बाद भावना और परिस्थितिमें परिवर्तन हो, ऐसे समयमें क्या किया जाय ? उत्तर : हमारे यहाँ एक ऐसा रिवाज था कि जो उछामनी आदिकी बोली हो, उसकी रकम तत्काल जमा हो जाय / पेथडमंत्री उसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं / ऐसा होनेका कारण यह था कि यदि तत्काल रकम जमा न हो और कल उसकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो जाय तो रकम जमा न करानेका बड़ा भारी दोष हो जाय / / जैसे दिवस और मास व्यतीत हो, उस प्रकार, साहुकारी रीत-रस्मके अनुसार, जिस समय जो व्याजका हिसाब होता हो, उसे अवश्य चुकाना चाहिए, अन्यथा व्याजभक्षणका दोष लगता है / . हालमें इस विषयमें लापरवाही देखी जा रही है / धंधा-व्यवसायोंमें भारी उथलपुथल मची रहनेके कारण, कलका करोडपति आज भिखारी बन जाता है / ऐसी स्थितिमें रकम तुरन्त जमा होनी चाहिए / संघकी ओरसे रकम जमा करनेकी जो तारीख घोषित हुई हो, उस दिन तक बिना व्याजकी रकम जमा करा दी जाय, लेकिन समयमर्यादा बीतने पर, दूसरे दिनसे ही व्याजका चक्र जारी हो जाता है / ___. 'जो लोक उछामनी आदिकी रकम जमा कर न पाये, तो संघ उसकी रकमको स्थगित न कर देनी चाहिए / यदि उसके नाम पर, रकम उधार निकलती रहेगी तो वह व्यक्ति या उसके उत्तराधिकारी समृद्ध होने पर व्याजके साथ पूरी रकम जमा करा पायेंगे / ____ आजकल तो प्रायः ऐसा दृष्टिगोचर होता है कि उछामनीकी या भेंटरूपमें लिखायी रकमोंमेंसे कई दाता लोग तो उन रकमोंको कभी जमा ही नहीं कराते / क्योंकि दुनियामें अपनेको दानवीर दिखानेके लिए कई लोग जाहिरमें रकम लिखाते होंगे या भारी उछामनीकी बोली बोलते होंगे / Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 धार्मिक-वहीवट विचार - ये लोग कितने भयंकर पापभागी होते होंगे ? उन्हें इस बातसे कौन अवगत कराये ? प्रश्न : (135) उछामनीकी रकम कमसे कम कितनी समयमर्यादामें जमा करा दें, तो व्याज भरनेमेंसे मुक्ति मिल सके ? उत्तर : श्री संघने जो समयमर्यादा योग्य ढंगसे (विलंबसे नहीं) निश्चित की हो, उस समयमर्यादामें रकम जमा हो जाय तो. उसका व्याज भरना न होगा / कई संघ भाद्रपद शुक्ल पंचमीकी या कई दीपावलीकी या कार्तिक शुक्ल पूर्णिमाकी अवधि निश्चित्त करते हैं / सारे वर्षमें जो रकम उछामनी या भेंट रूपमें देनेकी निश्चित की हो उसे उस अवधिमें जमा करा देनेसे व्याजमुक्तिका लाभ प्राप्त होता है / वास्तवमें तो अवधिकी बिना प्रतीक्षा किये तुरंत ही उसी दिन रकम जमा करा देना, यही उचित है / थोडे दिनोंके लिए संघ व्याजको क्यों गँवाये ? प्रश्न : (136) पांजरापोल संस्थाका मुख्य उद्देश्य कौन-सा .. उत्तर : दूध आदि पदार्थ देनेसे उपयोगी समझे जानेवाले या ऐसे पदार्थ न देनेसे उपयुक्त न समझे जानेवाले. पशुमात्रकी हर प्रकारकी पूरी देखभाल करना, यह इस संस्थाका मुख्य उद्देश है / / पुराने जमानेमें (आज भी कहीं कहीं) महाजनोंके व्यापारमें इस विषयका लागा बना रहता, जिसकी आमदनीमेंसे आरामसे पांजरापोलें चलती रहती / जीवनभर जिसने सख्त महेनत की-काम दिये-ऐसे जानवरोंको कसाईको बेचनेकी बात कोई स्वप्नमें भी सोच नहीं सकता / बूढे, बिन उत्पादक या बीमार जानवरोंको अन्तिम साँस तक पोसनेकी ताकत जिसमें न हो, वह किसान उस जानवरको पांजरापोलमें दर्ज करा देता / अपनी शक्ति अनुसार रकम भी जमा करा देता / सगे पुत्रसे अलग होते समय जैसी वेदना मातापिताको हो वैसी हालत धरतीतात किसानकी होती / कई बार तो वह फूट फूटकर रोने लगता / ऐसे दयालु किसानो के जानवरोंके लिए पांजरापोल संस्था थी / अब तो सरकार भी कसाई बन पायी है / Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी 137 कत्लखानेको उसने उद्योग (हाय हाय !) जाहिर किया है / पूरी हट्टीकट्टी, दूधार, गर्भवती गाय, भैंसोकी अब तो कत्ल कर दी जाती है / - पूरी क्रूरताके साथ कसाई लोग ट्रकोंमें जानवरोंको भरते हैं / कई तो वहीं उकताकर मरणशरण हो जाते हैं / इन सभी प्रकारके त्रासोंका वर्णन, शब्दों द्वारा होना अशक्य बन पाये, उतना 'बेहद' होता है / ऐसे जानवरोंको खरीदकर जीवदयाप्रेमी लोग पाँजरापोलोमें रख आते थे / यह यथार्थ है / - - सामान्य प्रश्रोत्तरी प्रश्न : (137) कायमी तिथिके व्याजमेंसे, वह कार्य यदि संपन्न होता न हो तो, विशेष रकम कैसे प्राप्तकी जाय ? उत्तर : प्रथम तो कायमी तिथिके दाताको या उसकी गैरहाजिरीमें उनके पुत्रोंसे मिलना चाहिए / अधिक दानका लाभ लेनेके लिए सूचित करें / अथवा जितना घाटा हो, उतना जमा करानेके लिए प्रेरित करें / यदि उसके लिए अनिच्छा बताये तो दूसरे किसी पुण्यशालीके पाससे नया बडा दान स्वीकार कर, उस नामको उसके साथ जोड देनेकी अनुमति माँगे / यदि अनुमति न मिले तो संघ एकत्रित होकर घाटेकी रकमकी पर्ति करे / महँगाई चाहे उतनी बढे, परिणामतः घाटा चाहे उतना हो, उसके कारण मूलभूत दाताका निकाल नहीं जिया जा सकता / उसकी अनुमति मिलने पर दूसरा नाम जोडा जा सकता है / प्रश्न : (138) आजकल कई जैन लोग, बूरे कार्य, अनीतिपूर्ण आचरण द्वारा भारी धन एकत्र करते है, बादमें वे धर्मार्थ खर्च करते हैं। क्या धर्मके क्षेत्रोमें ऐसे धनके उपयोगको उचित समझें ? उत्तर : किस धनको अनीतिके रूपमें समझें उसका फैंसला पहेले करना होगा / "सुलगती समस्या के प्रथम भागमें मेंने कालेबाजारकी कमाईको अनीतिका धन नहीं माना / तद्विषयक दलीलें मैंने वहाँ पेश की हैं / अपने परिवारका भरणपोषण अच्छी तरह हो, उतनी कमाई मनुष्यको करनी पडती है / इसके लिए यदि वह कहीं अनीतिका कार्य करता है तो उसे क्षम्य कर देना चाहिए / Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 धार्मिक-वहीवट विचार .. शान्तनु सेठ आर्थिक स्थितिमें बरबाद हो गये / तब उनकी धर्मिष्ठ तत्त्वज्ञानी पत्नी कुंजीदेवीने उनसे जिनदास सेठका हार चुरा लानेके लिए प्रोत्साहित किये थे / और उसी सेठके घर गिरवी रखनेकी बात कही थी / सेठने ऐसा कर, उस हारको गिरवी रखकर उससे प्राप्त रकममेंसे व्यवसाय शुरू किया / सेठकी स्थिति खा-पीकर सुखी हो जाय उतनी सुधर गयी / ' आर्यदेशका आदमी, जितना दीर्घायु हो, उतना अधिक धर्मध्यान करता है / ऐसा करनेके लिए उसे थोडा आगापीछा करना पडता है, उसे अनीति मानी न जाय / (यह सब शिष्ट-मान्य मर्यादामें ही किया जाय) / नीति तो, अतिशय बढ़नेवाले संभवित धन परकी ब्रेक है / अनीतिसे अधिक धनसंग्रह किया जा सकता है / लेकिन जब नीतिसे ही धन एकत्र करनेका निश्चय किया जाय तब अधिक धनसंग्रह नहीं हो सकता / ऐसा होने पर धनसंग्रह मर्यादित हो जाता है / इसके अनेक लाभ हैं / अधिक धनसंग्रहमें प्राप्तिकी चिन्ता, प्राप्त धनकी सुरक्षा, चोर आदिकी भीति, आश्रितोंमें व्याप्त होनेवाला भोगविलास आदिका उन्मार्ग, भोगरसकी ओर विशेष झुकाव, जीवनकी बरबादी आदि अनेक भयस्थान बने रहते हैं / मर्यादित धन ही उचित है / नदीमें कल-कल बहता पानी ही अच्छा रहता है / हजारों गाँववासियोंकी प्यास बुझाता है, लेकिन यदि वह उछलतीफाँदती बाढ़ बन जाय तो ? नपातुला नाखून अच्छा है; लेकिन वह यदि हदसे ज्यादा बढ़ जाये तो उसमें मैल भर जाता है। टक्कर लगने पर उखड़ टूट जाने पर सेप्टिक कभी हो जानेका भय बना रहता है / __ अधिक धन लाभका एक ही लाभ है / अहंकारका पोषण / जब कि उससे होनेवाले गैरलाभ अपार हैं / . अत: उन गैरलाभोंका शिकार न होनेके लिए नीतिसे ही धनोपार्जनका आग्रह रखना चाहिए / उससे प्राप्त रोटे और मठा अच्छे हैं लेकिन अनीतिके धनके गुलामजामुन बूरे हैं / अनीतिका धन घरमें आने पर गृहक्लेश होकर ही रहता है / बुद्धिभ्रंश भी निश्चित्त होता है / Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रों से संबद्ध प्रश्नोत्तरी 139 धनसे अधिक मूल्यवान सदाचारोंका पालन है / परस्परका स्नेहभाव है / अन्योन्यकी उष्मा है / यह सब मर्यादापूर्ण धनोपार्जनमें है / / एक बार धनलालसा उत्पन्न होनेके बाद, वह कहीं रुकती नहीं / अतः ज्ञानी लोगोंने इच्छाको आकाश जैसी अनन्त बतायी है / जैसे धनलाभ -पुण्योदय बलसे-अधिक हो, वैसे उसका लोभ भी बढ़ता जाता है / इस चक्करमें जीवात्मा अधिकाधिक बुरा बनता जाता है / उसकी दुर्गति निश्चित होती है / ईसीलिए ईसने कहा है कि, 'चाहे तो सूईके छेदमेंसे ऊँट गुजर सकता है, लेकिन धनवान (धनासक्त) स्वर्गमें नहीं जा सकता / ' तुलसीदासने कहा है कि, "अरब-खरबको धन मिले, उदय-अस्तको राज / तुलसी, हरिभजन बिना, सभी नरकके साज / / " नीतिपूर्ण धनोपार्जन द्वारा मनुष्यको अपना गुजारा करना चाहिए / हाँ, वह भीखमँगेकी अपेक्षा व्यवस्थित जीवननिर्वाह हो, उतनी तो नीतिसे कमाई करनी ही चाहिए / अब दानादि .धर्माचरणके लिए वह अनीतिसे धनकी कमाई करे, यह उचित नहीं / - पुनियाने अधिक धनोपार्जन किये बिना ही साधर्मिक भक्तिका धर्म जारी किया था / ... आजकल तो खुलेआम 'अनीति' चल रही है / अमर्यादित धनोपार्जन किया जाता है और उन पैसोंसे बड़े बड़े जिनमंदिरो, उपाश्रयो, तपोवनों आदिका निर्माण किया जाता है / हाँ, ऐसे अधम कक्षाके धनका असर उन स्थानों पर अवश्य होगा; लेकिन इस समय तो दूसरा कोई रास्ता सूझता नहीं / ___अनेक दृष्टान्तों द्वारा ज्ञानी लोगोंने नीतिके धनका गुणगान किया काश, आजकल तो भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन पाया है / सर्वत्र ‘अनीति' का ही बोलबाला है / - गृहस्थोंकी अनीति अलग है / संसारत्यागियोंकी अनीति अलग है / गृहस्थ चोरी, धोखाघड़ी, चीजोंमें मिलावट आदि करें, उसे अनीति कही जाय / Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 धार्मिक-वहीवट विचार . साधु भिक्षा पाते समय, तद्विषयक 42 दोषोंका सेवन करें तो, उसे अनीति समझी जाय / उसे गृहस्थकी अनीतिके साथ कोई सरोकार नहीं / प्रश्न : (139) साधारण विभाग और शुभ ( सर्वसाधारण) विभागमें क्या फर्क है ? उत्तर : पहले विज्ञापित किया है कि जिन-प्रतिमादि सात क्षेत्रोंका साधारण विभाग कहा जाता है जबकि उन सातों सहित पौषधशाला. आदि दूसरे सात मिलकर कुल चौदह (और वैसे दूसरे भी धार्मिक) क्षेत्रोंका शुभ (सर्व साधारण) विभाग कहा जाता है / संभव हो तो किसी भी रकमको मुख्यतया शुभ (सर्वसाधारण) विभागमें जमा किया जाय / कई लोगोंके मनमें यही बात होने पर भी वे 'साधारण विभाग' ऐसा नाम सूचित करते हैं / अब वे शुभ (सर्वसाधारण) विभाग नामका विशेष ध्यान रखें / इन दोनों विभागोंका दूसरा संयुक्त नाम 'धार्मिक द्रव्य' भी कहा जा सकता है / इस विभागकी रकमका उपयोग लग्नादिके सामाजिक कार्य, स्कूलकालिज आदिके शैक्षणिक कार्य या आरोग्यविषयक अस्पताल आदि शारीरिक क्षेत्रोंके कार्य आदिमें किया नहीं जा सकता / मेढ़कोंकी कत्ल द्वारा आजके स्कूल आदि, गर्भपात द्वारा अस्पताल आदि, आर्यमहाप्रजाकी संजीवनी समान अहिंसाप्रधान धर्मसंस्कृतिके विनाशक है / फिर भी जिनशासनकी संभवित अधोगति दीख पडती हो तो उसके निवारणके लिए, उसकी यथासंभव प्रभावनाके लिए उसमें स्वद्रव्यका दान करना पड़े तो औचित्यके रूपसे दिया जा सकता है / प्रश्न : (140) शुभ (सर्वसाधारण) या साधारण विभागमें आमदनी करनेके उपाय कौन-से हैं ? उत्तर : पहले इतना समझ लो कि, ये विभाग आमदानी करनेके लिये नहीं, लेकिन दानका लाभ उठानेके लिए रखे गये हैं / भूतकालमें इस बातका जिक्र पहेले किया गया है / इस विषयमें पुण्यात्मा, शक्तिशाली, विद्वान, संयमी साधुलोगको, अपनी व्याख्यान शक्ति द्वारा प्रेरणा देनी चाहिए / आज भी जैन संघ जैन श्रमणोंके प्रति बहुमान रखता है / उनकी इच्छा-आज्ञाका तुरंत पालन करता है / यदि वे उपधान, छ'रीपालित संघ, जिनमंदिरोंका निर्माण, प्रतिष्ठा-महोत्सव, नूतन तीर्थोके निर्माण आदिके साथ साथ, सबसे अधिक महत्त्व साधारण और सर्वसाधारण विभागोमें बड़े दान Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी करनेकी प्रेरणा दें तो अकल्पित दानकी रकमोंसे ये विभाग समृद्ध और सम्पन्न हो जायँ / प्रश्न : (141) देवद्रव्यकी रकममें वृद्धि करनेके लिए सिनेमा, थियेटर, लग्नकी वाडी आदिका निर्माण कर उनके किराये द्वारा आमदनी इकट्ठी करनेका मार्ग उचित नहीं; लेकिन साधारण या (शुभ सर्वसाधारण) विभागकी आमदनी करनेके लिए यह सब उचित है क्या ? उत्तर : ये भी धार्मिक द्रव्यके ही विभाग है / अतः इसमें भी इस प्रकारसे आमदनी नहीं कर सकते / अधम पद्धतियों द्वारा आमदनी करनेकी इच्छा, उन संघोंको तभी उत्पन्न होगी जब उनके संघके श्रीमंतोकी धनमूर्छा अमर्याद बन गयी हो / ऐसे संघोमें विशिष्ट कोटिके पुण्यवान मुनियोंको आमंत्रण देकर * बुलाने चाहिए / जो लोग अपनी वाग्लब्धि-वाणीप्रभुत्वसे धनमूर्छाका विष उचित मात्रामें निकाल देंगे / बादमें तुच्छ पद्धतियोंकी ओर संघको ध्यान तक देना न पड़ेगा / सिनेमा या नाटकका शो करना, धर्मस्थानमें लग्नकी वाडी बनाना आदि भी अधम पद्धतिके उदाहरण हैं / प्रश्न : (142 ) संघके धार्मिक क्षेत्रोंका हिसाब किसी महात्माके सामने पेश नहीं करना चाहिए ? जिससे कोई गलती रह न पाये ? उत्तर : गोलमाल होनेकी संभावना हो और ऐसी आवश्यकता हो तो अवश्य बताया जाय / महात्माके लिए भी ऐसा शुद्धीकरण एक कर्तव्यरूप . महाराष्टके खानदेश प्रदेशमें वर्षों तक विहार करनेवाले पूज्यपाद स्व. यशोदेव सूरीश्वरजी महाराज साहब, जहाँ जहाँ गोलमाल हुई थी वहाँ प्रत्येक संघके हिसाब देखते थे / योग्य मार्गदर्शन देते थे / सभीके हिसाब साफ करवाते थे / प्रश्न : (143) देवदेवताके भंडारकी, आरती आदि उछामनीकी रकम कहाँ जमा की जाय ? उत्तर : साधारणक्षेत्रमें जमाकी जाय / / प्रश्न : (144) साधारणका फंड निर्माण करनेके लिए बारह मासके बारह श्रावक बननेकी उछामनीकी बोली बुलायी जाय ? उन्हें तत्तत् मासका 'श्रेष्ठी' पद देना पडे और तत्तत्मासमें संघकी ओरसे होनेवाले बहुमान उनके हाथों ही संपन्न कराने चाहिए या नहीं ? Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 धार्मिक-वहीवट विचार उत्तर : इस प्रकार करनेसे कोई शास्त्रीय बाध उपस्थित नहीं होता / इस प्रकार साधारण विभागकी शास्त्र अविरुद्ध शिष्ट कक्षाकी पद्धतियाँ ढूंढ निकालनी चाहिए / जिससे देवद्रव्यमें हवाला डालनेका या उसके भक्षण करनेका अवसर न आये / प्रश्र : (145) देरासरमें साधारण विभागका भंडार रखा जाय ? यदि हाँ, तो किस स्थान पर रखा जाय ? उत्तर : देवद्रव्यमें डालनेकी इच्छाकी रकम, गलतीसे साधारणके भंडार में जमा होनेकी संभवितता होनेसे इस भंडारको देरासरमें न रखकर, बाहर ही रखना चाहिए / वहाँ यदि उसकी सुरक्षा महसूस न होती हो तो देरासरमेंसे बाहर निकलते समय, अन्तिम दृष्टि में ही वह आने पाये, उस प्रकार रखना चाहिए. / 'साधारण विभागका भंडार' इस प्रकार बड़े अक्षरोंवाला एक बोर्ड भी वहाँ रखा जाय / साधारणके बजाय शुभ विभाग (सर्वसाधारण)का ही भंडार रखा जाय, तो उचित होगा / प्रश्न : (146 ) नवकारशी, स्वामीवात्सल्यकी बोलीमें बची रकमका उपयोग कहाँ किया जाय ? ____उत्तर : दोनों रकमोंका उपयोग किसी धार्मिक कार्यमें, सात क्षेत्रोंके साधारणमें किया जाय / प्रश्न : (147) साधारण विभागकी आमदनीके सरल मार्ग बतायें / उत्तर : देवदेवताओंके भंडारोंकी आमदनी साधारण विभागमें जमा हो, यह सरल रास्ता है / फिर भी आमदनी एकत्र करनेके लिए ऐसा न करना चाहिए, क्योंकि उसमें भारी मुसीबत मोल लेनेका खतरा रहता है / लोग वीतराग भगवंतको छोडकर इन सराग देवदेवताकी उपासनाके पीछे पागल बने हुए हैं / दूसरा, कायमी तिथियोजना आदिकी व्यवस्था तो करें ही नहीं; क्योंकि उस कामके लिए बडी रकमें बैंकोमें जमा करानी पड़ती है; जो रकमें प्रायः हिंसाके कार्योंमें उपयुक्त की जाती हैं / अतः प्रतिवर्षकी स्वतंत्र तिथि-योजना करें / मानो कि साधारण विभागका वार्षिक खर्च छत्तीस हजार रूपयोंका है, तो प्रतिदिनकी एक तिथि एक सौ रूपयोंकी हुई / स्थानिक या अन्य संघोमें इस तिथिको लिखानेकी प्रेरणा दें / कोई दस-पाँच या एक ही तिथि लिखायें / दूसरे वर्ष इन्हीं भाइयोंको उनकी Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी गतवर्षकी तिथियोंकी याद दिलायें, पुन:प्रेरणा दें / रकम मामूली होनेके कारण कोई इन्कार नहीं करेगा / शायद इन्कार भी कोई करे तो उतनी घाटेवाली तिथियाँके लिए नये दाता प्राप्त कर लें / वार्षिक खर्च बढ़े तो सौ के बजाय सवा सौ या दो सौ रूपयोंकी तिथि भी निश्चित की जाय / किसी बडे विशेष दिवस पर बारह मासके केसर-बरास, वेतन आदिके चढ़ावे बुलाये जायँ / उस रकमका उपयोग अन्योन्यमें अर्थात केसर पूजामें अधिक हो तो फूलपूजामें किया जाये / फिर भी रकमका घाटा रहे तो देरासरका गुरखा, पुजारीका वेतन, केसर, सुखड आदि पूजाके द्रव्य आदि देरासरविषयक खर्च, स्वप्नादिककी आमदनी वाले कल्पित देवद्रव्यमें उधार लें / उपरान्त गाँवके जैनादिके लग्न आदि प्रसंगोमें, जन्मदिनके समय, संघके दो कार्यकर पहुँचकर, इस विभागके लिए सतत फंडकी माँग जारी रखनी चाहिए / संघकी साधारण विभागकी जगहमें साधारण विभागकी रकममें से दुकानें बनवाकर, उन्हें किराये पर देकर भी अच्छी-खासी आमदनी कर सकते हैं / ऐसी दूकानें हिंसाकी चीजों बेचनेवाले, विलासी साधनों बेचनेवालेको दी न जायँ / जैनोंको प्रथम स्थान-मौका दिया जाय / / प्रश्र : (148) सात क्षेत्रोंका विभाजन, प्रत्येक विभागको ध्यानमें रखकर कैसे किया जाय ? उत्तर : दाताके अभिप्रायानुसार विभाजित करें यदि दाताने सातों क्षेत्रोंके लिए समान भावसे दान दिया हो तो सातों क्षेत्रोमें समान भावसे उपयोग करना चाहिए / सामान्यतया ऐसे आशयसे ही दान होता है / इसी लिए 7 रूपये, 700 रूपये, इस प्रकार विभागके गुणांकवाली रकमोंका दान मिलता रहता है / जब दाताकी ऐसी इच्छा न हो कि सारी रकम, सातों क्षेत्रोमें समान भावसे उपयोगमें लायी न जाय, लेकिन सातोंमेंसे किसी भी एक क्षेत्रमें यथेच्छ उपयोग किया जाय, तो सातों क्षेत्रोमेंसे किसी भी क्षेत्रमें आवश्यकता अनुसार थोडी-बहुत उपयोगमें लायी जाय / ___ प्रश्न : (149 ) साधर्मिकोंके निभावके लिए कोई व्यवस्थित योजना जैन धर्ममें अमलमें लानी चाहिए ऐसा महसूस नहीं होता ? ख्रिस्तीलोग अपने धर्मके अनुयायियोंको किस प्रकार सम्हाल लेते हैं ? . उत्तर : ख्रिस्तियोंकी बात वे जाने / हम भी यदि किसी योजना Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 धार्मिक-वहीवट विचार सोचें तो उसके लिए बड़ा फंड इक्ट्ठा करना पडे / उस फंडको सरकारके नियमानुसार बैंकोमें ही जमा कराना पड़े / ये बैंक इन रकमोंका उपयोग महारंभ और महाहिंसाकी योजनाओंमें करते हैं / यह हमारे लिए अस्वीकार्य बात होगी / उसकी अपेक्षा तो उदारचरित आत्मा अपने व्यापार-व्यवसायोमें जैनोंको ही अधिकाधिक प्रमाणमें नौकरी आदिमें रख लें, तो भी यह समस्या हल हो जायेगी / उपरान्त, गुप्त दान भी वैसे दानवीर ही कर सकते हैं / व्यवसायमें पूंजी लगानेके लिए रकम दे सकते हैं / अस्पतालोंमें भारी सुविधाएँ दिलवा सकते हैं / वर्षमें दो बार बड़े पैमाने पर घी, तेल, अनाज, गुड आदिका वितरण अपने अपने नगरोमें वे करा सकते हैं / बाकी तो वर्तमान समयकी गरीबी, बेकारी, बीमारी और महँगाई मानवसर्जित होनेके कारण उनका व्याप-विस्तार उत्तरोत्तर बढता ही जायेगा / कोई उन्हें पहुँच नहीं पायेगा / फिर भी, जैन कौममें अति सुखी लोग भी अब बड़ी संख्या हैं / जिससे अपनी छोटी-सी कौमके जैनोंके लिए वे पाँच प्रतिशत प्रमाणमें ही केवल रकम प्रतिवर्ष उपयोगमें लाये तो भी बहुत-सा काम हो सकता है / , ___व्याख्यानकर्ता पुण्यात्मा मुनियोंको चाहिए कि वे जैन श्रीमंतोको इस विषयमें प्रेरणा देकर अधिक जागृत करें / ___ - 'ट्रस्टीविषयक प्रश्रोत्तरी प्रश्न : (150) आपने इस ग्रन्थमें ट्रस्टी बननेकी योग्यताओंका विवरण दिया है / उस अनुसार तो आज किसीमें भी ट्रस्टी बननेकी योग्यता नहीं है। उत्तर : लायक प्राप्त न हो तो, उसके कारण नालायकोंको यदि उस स्थान पर बैठा दिये जायेंगे तो वे ट्रस्ट या संचालनतंत्र बरबाद हो जायेंगे / आजकल सर्वत्र यही बात नजर आती है / धार्मिक क्षेत्रका संचालन शुद्ध और शास्त्रीय ढंगसे किया जाय तो वह व्यक्ति अपार पुण्योपार्जन करता है / / सामान्यतया ऐसा भी कहा जा सकता है कि सुखी सद्गृहस्थ व्यापार में से निवृत्त होकर धार्मिक क्षेत्रोंका संचालन करे तो उनकी शक्ति और समझका सुंदर लाभ मिल पाये / ऐसे मनुष्योंको किसी गीतार्थ गुरु के पासे 'द्रव्य सप्ततिका' का जैसे ग्रंथका अभ्यास करना चाहिए / ट्रस्टी बननेकी योग्यताओंमें कोई कमी हो तो, उसे दूर करनी चाहिए / Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी 145 अब यदि ऐसा कोई काम निवृत्त हुए, होनेवाले जैन सद्गृहस्थ करने तत्पर न हों तो धार्मिक संचालन खत्म होगा / गैरव्यवस्था उत्पन्न होगी / हमारे धर्मस्थान मुनिमोंके अधिकारक्षेत्रमें चले जायेंगे / ऐसे अनेक कारणवश हमारा धर्म महान होने पर भी, देदीप्यमान नहीं होता / जगतमें उसका बोलबाला नहीं हो पाया / वयस्क वर्ग इस विषयमें तैयार हो / जो मरणासन्न हो, वे तप, त्याग, व्रत, जप करें / वे भी यदि हो न पाये तो सबसे सर्वोत्कृष्ट धार्मिक संचालन किसी एकाध तीर्थ स्थलका संपूर्ण तया स्वहस्तक संभाल कर, उसका शास्त्रनीति अनुसार संचालन करना चाहिए / जिससे सद्गतिका आरक्षण होकर ही रहेगा / .. प्रश्न : (151) जैन कौमकी अपने सहकारी बैंक हों तो सरकारी बेंकोमें अनिवार्य रूपसे ट्रस्टोंकी देवद्रव्यादिकी रकमें जमा करानेसे, खतनाक हिंसक कार्यो में उसका उपयोग करनेसे होनेवाला घोर पाप रूक न जाय ? ____उत्तर : यह बात अत्यंत शोचनीय है / इस बातको जैन संघ सर्वाधिक प्राथमिकता दें / . यदि देवद्रव्य, पूरे कर्जके साथ लेने पर भी गरीब साधर्मिकादिको देनेसे इन्कार किया जाता हो तो उसी देवद्रव्यकी रकमका उपयोग कत्लखानों, मुर्गाकेन्द्रों, मत्स्योद्योगों, कारखानोंमें किया जाय तो वह कितना खतरनाक होगा ? इस महापापके निवारणार्थ सही मार्ग यही है कि धार्मिक ट्रस्ट अपनी रकमोंको बैंकमें जमा न कराये / जिसकी जहाँ आवश्यकता हो वहाँ शास्त्रनीति अनुसार उपयोग कर लें / . . कायमी तिथि-योजना आदिके बजाय, वार्षिक योजनाएँ ही कार्यान्वित करें, जिससे प्रतिवर्ष उन रकमोंका उपयोग होता रहे / फिर भी कई बार कायमी फंड इकट्ठा करना ही पड़े तो उस फंडकी रकमको अनिवार्य रूपसे सरकार जिसे मान्यता दे, उसी बैंकमें जमा करानी पड़े / इसके लिए जैन बेंक श्रावक लोग शुरू करें तो उन रकमोंको उनमें जमा की जाय, जिससे उसका उपयोग पूर्वोक्त कत्लखानें आदिमें न किया जाय / जैन बैंकोमें एक ही खतरा है कि उसमें जमा की रकमोंकी सुरक्षाकी सौ प्रतिशत गारन्टी नहीं बनी रहती / (सरकारी बैंकोमें इसकी गारन्टी धा.व.-१० Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 धार्मिक-वहीवट विचार मिलती है।) यदि कुभाग्यसे बैंकोके नियामकोंकी बुद्धि भ्रष्ट हो अथवा गलती कर बैठे और भारी रकम गँवाने पर बैंक घाटेमें जायें तो बड़े पैमाने पर सभी ग्राहकोंको ट्रस्टोंकी रकमोंसे हाथ धोना पडे / ऐसी हालतमें देवद्रव्यादिकी सारी रकमें गँवा देनी पडे / ऐसी जिम्मेवारी और रकमें भरपाई करनेका जोखम उठानेके लिए ट्रस्टी तत्पर नहीं होंगे / यह भयस्थान अवश्य है, लेकिन क्या दो पाँच बैंकोंको 5-5 मिलाकर 25 ऐसे नियामक मिल न पाये, जो अच्छी तरह बैंकोका संचालन कर न सके ? यह अवश्य हो सकता है, लेकिन ऐसे प्रामाणिक और दक्ष नियामकोंका किसी भी कारणवश अभाव पैदा होने पर, उनके स्थान पर ऐसे ही कार्यकर आ धमकेंगे और उन पर ठीकठाक विश्वास जमता ही नहीं / यद्यपि आज सांगलीमें पार्श्वनाथ सहकारी जैन बैंक वर्षों से चल रही है / अत्यन्त सज्जन ऐसे उसके नियामक हैं / करोडों रूपयोंकी उसमें अमानते (डिपोजिटे) हैं / धार्मिक रकमोंको वह ज्यादा रियायतें देता हैं / महाराष्ट्रमें उसकी अन्य शाखाएँ भी खुली हैं / वे भारतभरके जैन ट्रस्टोंकी रकमोंको डिपोजिटके रूपमें स्वीकार करनेके लिए तैयार हैं / मुझे लगता है कि सभी धार्मिक ट्रस्टी अपनी रकमोंको उसीमें डिपोजिट करें। वे लोग किसी हिंसक कार्योंमें रकमोंका उपयोग नहीं होने देते। ये नियामक (सुश्रावक बिपिनभाई आदि) सांगली मूर्तिपूजक जैन संघमें ट्रस्टी भी हैं / वे श्रद्धासंपन्न होनेसे रकमका अशास्त्रीय उपयोग करनेके लिए तैयार नहीं / इसमेंसे प्रेरणा प्राप्तकर यदि गुजरातमें वैसे जैन बैंक शुरू किये जाय तो घोर आरंभ-समारंभके कार्यों में अनिवार्य रूपसे देवद्रव्यादि संपत्तिका उपयोग करनेका अतिभयानक पापमेंसे समुचे जैन संघको मुक्ति मिल पाये / जैन संघका अभ्युदय न होनेके पीछे यह भी एक महत्त्वका कारण न होगा ? प्रश्न : (152) ट्रस्टी बननेवालोंको 'द्रव्य सप्ततिका', 'श्राद्धविधि' जैसे कार्यमें उपयुक्त बननेवाले ग्रन्थोंका अभ्यास करना नहीं चाहिए ? Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 147 चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी उत्तर : अनिवार्य रूपसे करना चाहिए / उसकी जानकारी उन्हें संचालन करने में और अपने जीवद्रव्यको व्यवस्थित करने में खूब उपयुक्त बनेगी / काश, वर्तमान हालत तो तद्दन विषम है / इसीलिए ही कई संचालनोमें शास्त्रनीति दृष्टिगोचर नहीं होती / प्रश्न : (153) अच्छे भले, शास्त्रके ज्ञाता, कार्यदक्ष, श्रद्धालु जैन लोगोंको ट्रस्टी नहीं बनना चाहिए ? वे क्यों इस विषयमें गौरसे सोचते नहीं ? उत्तर : ऐसे मनुष्योंको अवश्य जिसतिस धार्मिक संस्थाके ट्रस्टी बनना चाहिए / जिन्हें दो पुत्र हैं / दोनों दुकान आदि व्यवसायोंमें स्थिर हो गये हैं / पिताजीको चिन्तामुक्त किये हैं / पिताजीकी निजि संपत्तिकी सूदकी अच्छी-खासी आमदनी है / ऐसे सभी पिताओंको अपने शेष जीवनकालमें धार्मिक संस्थामें स्थिर हो जाना चाहिए / जैसे सामयिक करना, मालाएँ गिननी, यात्रा करना यह धर्म है, उसी प्रकार धार्मिक संस्थाका संचालन करना, सुसंचालन निभाना, यह भी विशिष्ट धर्म है / इस बातका सभी धर्मप्रेमी लोगोंको स्वीकार करना चाहिए। बेशक....इस संचालनमें माथापच्ची करनेवाले कई टकरायेंगे, लेकिन उससे डरकर ऐसे संचालनसे दूर रहना, यह तो दूषित स्वार्थ भाव है / ___ऐसी हालतमें जैसेतैसे मामूली आदमी ट्रस्टी बननेके लिए आ धंसते हैं / ऐसे बेकार निकम्मोंको स्थान मिल भी जाते हैं / वे उसका अनेक प्रकारसे दुरुपयोग करते हैं / ट्रस्टको भारी नुकसान पहुँचाते सज्जनोंकी निष्क्रियता, इस प्रकार कितनी जगह पर कितना बड़ा अहित करती होगी ? ___यदि केवल पाँचसौ निवृत्त, सुखी, सज्जन, शास्त्रचुस्त आदमी, मानद सेवा दें तों, सभी तीर्थों के संचालन साफ-सुथरे हो जायें / / ___ . लड़के कमाते हों, फिर भी पिता दूकान पर जाकर बैठे, कोई प्रवृत्ति चाहिए इस लिए दूकान पर जाकर बैठना, यह कोई अच्छी बात नहीं / धार्मिक ट्रस्टोमें मानद सेवा देकर भी प्रवृत्तिशील क्या रहा नहीं जाता ? Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 धार्मिक-वहीवट विचार सामायिक, प्रतिक्रमण करनेमें शायद रुचि न हो, लेकिन संचालनके कार्य करनेमें तो ऐसे सद्गृहस्थों को रुचि होगी ही / ऐसे सज्जनोंकी सेवा धार्मिक ट्रस्टोंको न मिलनेके कारण, ट्रस्टोंका संचालन अंधाधुंध बन पाया है / ऐसे ट्रस्टोंके कार्यकर्ता कटौती, चोरी, भ्रष्टाचार आदि दोषोमें फँसे रहते हों, तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं / प्रत्येक कमाऊ लड़का अपने पिताजीको आग्रहपूर्वक किसी धार्मिक ट्रस्टके मानद कार्यकर बनाये / जहाँ सर्वत्र भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन गया हो, वहाँ अच्छे-भले मनुष्यों के अभावमें ट्रस्टोंकी भी एसी ही हालत होगी न ? प्रश्न : (154) ट्रस्टियोंके बीच मतभेद होने पर मार्गदर्शन लेने के लिए चेरिटी कमिशनरके पास जाना चाहिए या गीतार्थ गुरुके पास ? उत्तर : बेशक, गीतार्थ गुरुके पास जाना चाहिए / चेरिटी कमिशनरका संबंध, वेटिकन सिटीके केथोलिक धर्मगुरु पोपके साथ है, जो समुचे विश्वकी अगोरवर्णी और बिन ईसाई धर्मी समुची प्रजाओंको धरती परसे खत्म करनेका या अत्यंत कमजोर बना देनेका संकल्प कर बैठा है / ये सारी बातें खूब रहस्यमय और अत्यन्त गुप्त हैं / सुविहित गीतार्थ धर्मगुरुका संबंध तारक तीर्थंकर देवके साथ जुडा हुआ है / ट्रस्टियोंमें होनेवाले मतभेदोका सही हल वे बता सकते हैं / ___ सचमुच तो ट्रस्ट, ट्रस्टी, बहुमतवाद आदि स्वयं ही पोप द्वारा आयोजित सामग्री है / इसमें गीतार्थ धर्मगुरुके साथ संबंध, अर्थात् बहती हुई गटरमें इत्रकी बूंद......नींव-जडमें ही सडा हो वहाँ जड सुधारनेकी ही बात करनी चाहिए / प्रश्न : (155) कमिशनर और सखावती ट्रस्टके अंदर बी. सी. आदमीको नियुक्त करनेकी बातका मुकाबला करनेके लिए हमें क्या करना चाहिए ? उत्तर : शास्त्रकार परमर्षि लोग बतातें हैं कि 'जिस क्षेत्रमें राजा न हो, वहाँ साधुओंको विहार नहीं करना चाहिए / ' Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह क्षेत्रोंसे संबद्ध प्रश्नोत्तरी 149 आजकल तो समुचे भारतमेंसे राजाशाहीका खात्मा हो गया है / राजाके पास तो थोडा-बहुत भी न्याय मिल पाये / आजकी लोकशाहीमें तो न्याय पाना असंभव हो गया है / अदालतमें कानूनोंकी बोलबाला है, न्यायका नहीं / लोकसभा यदि पिछडे वर्गके लोगोंको पूजारी आदिके रूपमें लेनेका कानून बहुमतसे पारित करे तो अदालत कानूनके अनुसार फैसला सुनायेगी। इसमें किसी दलीलको अवकाश नहीं / अतः सर्व प्रथम तो उस कानूनका ही अदालत या लोकअदालतमें मुकाबला करना चाहिए / लोकसभामें जो सदस्य आते हैं, वे चुनाव प्रथाके अनुसार चुंटाके आते हैं / बहुमत प्राप्त करनेवाला आदमी निर्वाचित होता है / सामान्य कक्षाके लोगोंका सामान्यतः बहुमत होता है / उन्हें पैसोंका रुश्वत दिया जाय, अन्तिम रात बेहद शराब पिलाया जाय, तभी उन निम्नकक्षाके लोगोंके मत प्राप्त हो सकते हैं / ऐसा भ्रष्ट चुनाव तंत्र होनेके कारण 'अच्छे-भले' आदमी लोकसभा या विधानसभाके सदस्य बननेसे कतरातें है / परिणामस्वरूप निम्नकक्षाके लोग अपनी मनमानी करते हैं / . इस प्रकार समुची लोकशाही, गुंडाशाही बन पायी है / कमीनोंका राज सर्वत्र चल रहा है / इस स्थितिमें समग्र धर्मतंत्र संकटग्रस्त है / उसका शास्त्रानुसार संचालन करना मुश्किल बन गया है / आज ही देखें, देवंद्रव्यकी संपत्तिका बैंको द्वारा, मच्छीमारों, बतककेन्द्रों, भंड-पालनकेन्द्रों आदि हिंसककार्योमें दुरुपयोग हो रहा है / कौन जैन, कौन महाजन, इस विषयमें मुकाबला करता है ? राजा नहीं, राज्य नहीं, तंत्र नहीं, न्याय नहीं, शिकायत करें भी तो कहाँ करें ? समयकी प्रतीक्षा करें / सानुकूल परिवर्तन आयेगा, ऐसी आशा है। कब ? उसका पता नहीं / फिर भी बिना निराश हुए बिना सभी धर्मप्रेमियोंसे जो भी बन पड़े, वह काम करते रहे / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | खंड तीसरा | परिशिष्टों / परिशिष्ट : 1 / . (1) वि. सं. २०४४के देवद्रव्य व्यवस्थाके संमेलनीय ठराव क्रमांक 13 पर चिंतन : - पं. चंद्रशेखर विजयजी (2) वि. सं. २०४४के गुरुद्रव्य व्यवस्थाके संमेलनीयठराव क्रमांक 14 पर चिंतन - पं. चंद्रशेखर विजयजी (3) वि. सं. २०४४के संमेलनीय ठराव क्रमांक 17 पर चिंतन - जिनपूजाके बारेमें श्रावकोंको मार्गदर्शन - पं. चंद्रशेखर विजयजी | परिशिष्ट : 2 / (1) देवद्रव्यविषयक ठराव पर चिंतन - गणि श्री अभयशेखरविजयजी (2) गुरुद्रव्य पर विचार ( श्राद्धजित - कल्पकी 68 वी गाथाका रहस्यार्थ) - गणि श्री अभयशेखरविजयजी | परिशिष्ट : 3 / पत्रव्यवहार देवद्रव्यसे जिनपूजादि कर सके उसके बारेमें स्वर्गस्थ महागीतार्थोंका अभिप्राय / Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | (परिशिष्ट - 1) / वि. सं. 2044 के देवद्रव्य - व्यवस्थाके संमेलनीय ठराव क्रमांक 13 पर चिंतन / - पं. चंद्रशेखर विजयजी स्वद्रव्यसे सर्व प्रकारकी जिनभक्ति करनेवाले शक्ति संपन्न संघ, वैसी भावनासे भी संपन्न बना रहे, लेकिन वह यदि भावनासंपन्न न बन पाये तो निम्न विधानानुसार आचरण करें / पूज्यपाद आ. श्री. हरिभद्रसूरिश्वरजी महाराजने 'संबोध प्रकरण' ग्रन्थमें देवद्रव्यके तीन विभाग. बताये हैं : (1) पूजाद्रव्य (2) निर्माल्य द्रव्य (3) कल्पित द्रव्य (1) पूजाद्रव्य : पूजाके लिए प्राप्त द्रव्य पूजा द्रव्य कहलाता है / उसका उपयोग जिनेश्वर भगवानकी मूर्तिकी भक्तिमें किया जाता (2) निर्माल्य द्रव्य : चढ़ाया गया या समर्पित द्रव्य निर्माल्य द्रव्य कहलाता है / उस द्रव्यका उपयोग भगवानकी अंगपूजामें नहीं होता, लेकिन अलंकार आदिके उपयोगमें लिया जाता है और मंदिरके काममें भी उपयोगमें लाया जाता है / (3) कल्पित द्रव्य : भिन्न भिन्न समयमें, आवश्यकता आदिका विचार कर गीतार्थोंने चढावे (बोली)का प्रारंभ किया / उस चढ़ावेसे प्राप्त द्रव्य कल्पित द्रव्य कहा जाता है, जैसे कि पूजाका चढावा, स्वप्न आदिकी बोली, पाँच कल्याणोंकी बोली, उपधानकी मालाके चढ़ावे और उनके द्वारा समर्पित आदि / इस कल्पित देवद्रव्यका उपयोग, भगवानकी पूजाके द्रव्य, मंदिरके लिए नियुक्त मनुष्योंका वेतन, जीर्णोध्धार, नये मंदिरोंका निर्माण और मंदिरका संचालन खर्च आदि प्रत्येक कार्यमें किया जा सकता है / _ - ठरावकी पूर्वभूमिका - सभीको यह जिज्ञासा बनी रहती है कि ऐसा ठराव करनेका प्रयोजन क्या है ? उसका उत्तर इस प्रकार है : Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .152 धार्मिक-वहीवट विचार सचमुच तो ऐसा विचार भूतकालमें भी गीतार्थ महापुरुषोंने उस समयके विषम बने देश-कालादिके कारण किया ही था / पूज्यपाद आगमोद्धारक आ. देव श्रीमद सागरानंदसूरीश्वरजी म. साहब तथा पूज्यपाद सिद्धान्तमहोदधि आ. देव श्रीमद् प्रेमसूरीश्वरजी म. साहब ( पू. पाद व्याख्यानवाचस्पति स्व. आ. देव श्रीमद् रामचंद्रसूरीश्वरजी म. साहबके गुरुदेवश्री) मुख्य थे / अतः यह कोई नया यकायक आ धमका विचार नहीं / उपरान्त, अन्तिम कई दशकोंसे संमेलनें एकत्र हुए आचार्यादि श्रमणोंने अनेक स्थलोंमें देखा कि पूजारी आदिको जो वेतन आदि दिया जाता है, वह देवद्रव्यमें से ही (भंडारकी आमदनी आदि रूप निर्माल्य रूप आदि तीनों प्रकारके देवद्रव्यमेंसे) दिया जाता है / स्वयं आणंदजी कल्याणजी पीढी समग्र भारतके अपने संचालन क्षेत्रोंमें, इसी प्रकार अन्तिम कई दशकोंसे करती आयी दूसरी ओर, शास्त्र-पाठानुसार देवद्रव्यके तीन उपविभागोंको सोचते हए, उसमें जो कल्पित देवद्रव्य है, उसकी रकममेंसे वेतन आदि देनेकी सुविधा स्पष्ट रूपसे देखने मिली / अतः प्रथम दो प्रकारके देंवद्रव्यमेंसे पूजारी आदिको वेतन बंद हो जाय उसके लिए कल्पित देवद्रव्यमेंसे उन वेतन आदि कार्योंकी व्यवस्था करनेके लिए प्रस्ताव पारित किया गया है / शास्त्रपाठ : अर्थ और विवरण सातवीं शताब्दीका ग्रंथ : संबोध प्रकरण लेखक : आ. हरिभद्रसूरिजी गाथा विषय : देवद्रव्यके तीन प्रकारोंका निरूपण चेईअदव्वं तिविहं, पूआ, निम्मल्ल, कप्पियं तत्थ / आयाणमाइ पूयादव्वं, जिणदेहपरिभोगं / / 1 / / अक्खयफलबलिवत्थाइसंतिअं जं पुणो दविणजायं / तं निम्मल्लं वुच्चइ, जिणगहकम्ममि उवओगं / / 2 / / दव्वंतरनिम्मवियं निम्मल्लं पि हु विभूसणाइहिं / तं पुण जिणसंसग्गि, ठविज्ज णण्णत्थ तं भया / / 3 / / रिद्धिजुअसम्मएहिं सद्धेहिं अहव अप्पणा चेव / Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 153 परिशिष्ट-१ जिणभत्तीइ निमित्तं जं चरियं सव्वमुवओगि / / 4 / / अर्थ : देवद्रव्यके तीन प्रकार हैं :(1) पूजा देवद्रव्य (2) निर्माल्य देवद्रव्य (3) कल्पित देवद्रव्य (1) पूजा देवद्रव्य : पूजा देवद्रव्य वह आदान (किराया) आदि स्वरूप माना जाता है / उससे प्राप्त होनेवाली रकमका उपयोग जिनेश्वर देवके देहके बारेमें किया जाता है / अर्थात् इस पूजा द्रव्यका उपयोग केसर, चंदन आदि प्रभुके अंगो पर चढनेवाले पदार्थोंके लिए किया जाता है। अंगपूजाकी तरह अग्रपूजाके द्रव्योमें भी इस पूजाद्रव्यका उपयोग हो सकता है / (2) निर्माल्य देवद्रव्य : प्रभुजी को समर्पित अक्षत, फल, नेवेद्य, वस्त्र, आदिके विक्रयसे प्राप्त होनेवाली रकमको निर्माल्य देवद्रव्य कहा जाता इस निर्माल्य देवद्रव्यका उपयोग प्रभुजीकी अंगपूजाके कार्यमें किया नहीं जाता / लेकिन उसका चैत्य संबंधी अन्य कार्यों में उपयोग किया जाता है / उपरान्त निर्माल्य द्रव्यको आभूषण आदिके रूपमें परिवर्तित किया गया हो तो, उन आभूषणों द्वारा प्रभुजीका श्रृंगार किया जा सकता है / इस प्रकार इस निर्माल्यदेवद्रव्यके विषयमें विकल्प हुआ कि निर्माल्यदेव द्रव्यका उपयोग प्रभुजीके शरीर पर केसर आदिके रूपमें नहीं किया जा सकता लेकिन आभूषणादि रूपमें किया जाय / ___ (3) कल्पित देवद्रव्य : धनवान श्रावकोंने अथवा संघमान्य श्रावकोंने जिन्होंने स्वद्रव्यसे जिनालय बनवाया है, उन्होंने जिनभक्तिका निर्वाह हो सके उसके लिए निश्चय कर स्थायी फंडके रूपमें जो निधि एकत्र किया जाय, उसे कल्पित देवद्रव्य कहा जाता है / यह कल्पित देवद्रव्य, देरासरजीविषयक किसी भी (सर्व) कार्यमें उपयुक्त हो सकता है / विशेष विचार : शास्त्रकारोंने उपर निर्देशानुसार देवद्रव्यके विभागमें तीन उपविभाग बताये हैं / भारत समग्रके किसी भी जैनसंघके संचालनमें इस प्रकार देवद्रव्यके तीन विभागों द्वारा संचालन किया जाता न होगा, ऐसा ख्याल है / इसी कारण कई विवाद उठ खडे हुए हैं ऐसा महसूस होता है / जैसे सात क्षेत्रोंकी एक ही मंजूषा रखी न जाय, वैसे देवद्रव्यके तीन विभागोंकी भी एक ही मंजूषा नहीं रखी जाती / ऐसा करनेसे ही सारी मुसीबतें उठ खड़ी होती हैं / Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 धार्मिक-वहीवट विचार . जैसे तीनमेंसे किसी भी प्रकारके देवद्रव्यका उपयोग ज्ञानविभागमें, साधु-वैयावच्च विभागमें या व्याकुल साधर्मिक विभागमें हो ही नहीं सकता / (अर्थात् देवद्रव्यका उपयोग साधारण - सर्वसाधारण, पाठशाला, आयंबिल विभाग आदिमें भी हो नहीं सकता / ) वैसे देवद्रव्यके जो उपर्युक्त तीन उपविभाग हैं, उनमें भी शास्त्रनीतिसे विरुद्ध, एकका दूसर विभागमें उपयोग नहीं हो सकता / विगन्धि निर्माल्य देवद्रव्यका उपयोग, प्रभुजीकी अंगपूजामें नहीं हो सकता, वैसे पूजा-देवद्रव्यका उपयोग, कल्पित देवदंव्यकी तरह जिनमंदिरविषयक सभी कार्यो में हो नहीं सकता / ___क्योंकि कल्पित देवद्रव्यमें ही देरासरविषयक सर्व कार्योंमें उपयोग करनेका निर्देश किया है / पूजा देवद्रव्यमें ऐसा विधान नहीं है / यदि देवद्रव्यके तीन उपविभागोंको संचालनके खाताबहियों में ही विभक्त किये जायँ, तो इस विषयके सभी विवाद शान्त हो जायँ / / अब विवादकी मुख्य बातको देखें, जो कल्पित देवद्रव्यके बारे में हैं / एक बातका सभी ध्यान रखें कि देवद्रव्यका निरूपण करनेवाली जो चार गाथाएँ उपर सूचित की गयी हैं, वह ग्रंथ सातवीं सदीका है / उस समय श्रावक जिनालयके सर्व प्रकारके कार्य भविष्यमें हमेशाके लिए चलते रहे, उसके लिए रिजर्व फंड (अमानत रकम) रखते थे / उसके पीछे उनकी मान्यता यह थी कि इस धनसे मंदिरविषयक तमाम कार्योंका निर्वाह हो सके / अतः ऐसी निर्वाहकी कल्पनासे रखे गये धन को कल्पित धन कहा जाता - कल्पित देवद्रव्य माना जाता / स्वप्नादिककी उछामनी आदि शास्त्रीय आचरणोंसे उत्पन्न द्रव्यको कल्पित देवद्रव्य कहा जाता है / क्योंकि वह जिनभक्तिके निमित्तसे- आचरणसेउत्पन्न हुआ है / गाथामें 'जिनभत्तीई निमित्तं जं चरियं' शब्दों द्वारा इसका स्पष्ट उल्लेख किया है / संमेलनके श्रमणोंने इस प्रकार, स्वप्न उपधानादिकी बोली-चढ़ावेसे प्राप्त होनेवाले द्रव्यको कल्पित देवद्रव्यमें समाविष्टकर, उसके द्वारा पूजारी चौकीदार आदिको वेतन देनेका अथवा आवश्यकता पड़ने पर केसरादि भी लानेका जो सूचित किया है, वह भी ऐसे ही संयोगमें ज्ञापित है कि जहाँ जैन संघ या जैन श्रावक (श्राविका)को स्वद्रव्यसे ही ये सारे कार्य करनेका संभव न हो / जो ऐसी शक्तिसंपन्न हों, उन्हें स्वद्रव्यसे ही पूजादि करनेका लाभ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ उठाना चाहिए और वैसी भावना भी बनाये रखनी चाहिए / उन्हें तो अपने व्यवसाय क्षेत्रके मनुष्योंको जैसे वेतन दिया जाता है, वैसे पूजारियोंको भी अपने स्वद्रव्यमेंसे वेतन देना चाहिए / और स्वव्यसे ही जिनपूजाकी सारी सामग्री खरीदनी चाहिए / इस बातका जिक्र, प्रस्तावके आरंभमें ही संक्षिप्त शब्दोमें किया गया है / उसकी ओर सभी लोग ध्यान दें, बादमें प्रस्तावका पश्चाद्वर्ती भाग पढना चाहिए / संमेलनने जिनमंदिरके संबंधमें आनेवाले जिनभक्तिके सर्वकार्योंमें कल्पित देवद्रव्यकी रकमका उपयोग करनेके लिए सूचित किया है / अर्थात् 'जिनभक्ति साधारण' विभागमें (जिसका दूसरा नाम 'देवकु साधारण' कहा जाता है, उस विभागमें) उपयोग करनेका सूचित किया है, न कि पूर्वोक्त सात क्षेत्रोंके साधारण या सर्वसाधारणमें / सवाल यह भी होता है कि यदि स्वप्न, उपाधानादि बोली-चढ़ावेकी रकमको कल्पित देवद्रव्य विभागमें गिनी-मानी न जाय तो क्या पूजा देवद्रव्यमें मानी जाय ? यदि वैसा हो तो वैसा कोई शास्त्रपाठ है क्या ? यदि कोई शास्त्रोपाठका वैसा अर्थघटनकर उक्त बोली चढ़ावेकी रकमका उपयोग पूजाद्रव्यमें करनेके लिए कहा जाता हो तो अब यह निर्णय कौन करेगा कि उक्त बोलीके द्रव्यको पूजा-देवद्रव्यमें ले जाय या कल्पित देवद्रव्यमें ? (हमारे मतानुसार पूजादि कार्यों के लिए भेंटमें प्राप्त रकम, पूजा देवद्रव्य है और जिनमंदिरके निर्वाहके लिये साधनों द्वारा या सीधी भेंट रूपमें प्राप्त रकम या उछामनीकी रकम कल्पित देवद्रव्य है / ) इस विवादके निर्णायकके रूपमें इस विषयमें दो महागीतार्थ महात्मा हैं, जो दोनों स्वप्रादिके बोली चढ़ावेके द्रव्यको कल्पित देवद्रव्यमें ले जानेका स्पष्ट सूचित करते हैं पूज्यपाद स्वर्गस्थ आगमोद्धारक सागरानन्द सूरीश्वरजी महाराजा साहब, कि जिन्होंने इस बातको स्पष्ट रूपसे सुरतके आगममंदिरके संविधान (बंधारण)में बतायी है, जिसका मुसद्दा निम्नानुसार है : "ट्रस्टियोंको उचित लगे, तदनुसार वे निम्नानुसार जैनशास्त्रके मुताबिक इस संस्थाके अधिकृत एवं अन्य जैन देरासरोंके बारेमें इस संस्थाकी रकमोंका उपयोग कर सकेगें / लोगों द्वारा इस संस्थाको सहायता प्राप्त हो और इसके निर्वाहफंडके रू. 2,50,000 इकट्ठे हुए और बोली इत्यादि निम्नानुसार देवद्रव्यमें रू. 2,50,000 एकत्र हुए, उसके बाद संचालन खर्चको बाद कर जो बचा Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 धार्मिक-वहीवट विचार है, उसे ट्रस्टिलोंग अधिकादिक दो सालकी समयमर्यादामें निम्नानुसार जैनशास्त्रके आधार पर इस संस्थाके अधिकृत देरासरमें एवं अन्य जैन देरासरोंमें निमित्त रकमोंका उपयोग कर लें / यहाँ बादमें किसी भी प्रकारकी गेरसमझ पैदा न रहे इसी लिए श्री हरिभद्रसूरिजी द्वारा किये गये संबोध प्रकरणमें सूचित देवद्रव्य तीन प्रकारके है और वे निम्नानुसार हैं / .. (1) पूजा द्रव्य : इसके अंदर प्रभुजीके अंगों पर चढ़ाये गये आभूषण एवं उसके निमित्त आये द्रव्य और सामग्रीका समावेश होता है और उसमें से श्री प्रभुजीके अंगका खर्च किया जा सकता है / (2) निर्माल्य द्रव्य : इसके अंदर प्रभुजीके सन्मुख रखे गये चावल, नगद रकम और पूजाके उपयोगमें लिये गये साधन-सामग्रीका समावेश होता हैं और उसमेंसे जिनेश्वरोंके किसी भी प्रकारके देरासरके लिए खर्च किया जा सकता है / (3) चरित द्रव्य अर्थात् कल्पित द्रव्य : इसके अंदर जिनेश्वरकी भक्तिके लिए श्रीमंतोंने या अन्य किसीने साधन या द्रव्य समर्पित किया हो अथवा बोलीसे या अन्य प्रकारसे द्रव्य उत्पन्न कियां हो, उसका समावेश होता है, और उसमें से देरासरका निर्माणकार्य, मानवोंकी तनख्वाह, पूजाका सामान, जीर्णोद्धार, देरासरमें सुधार-विस्तार कराना या नये देरासरका निर्माण करना आदिका और देरासरका सारा संचालनखर्च, टैक्स आदिके लिए किया जा सकता है / उपर निर्दिष्ट क्रमांक 1 के कार्यमें 2 और 3 मेंसे भी रकमका उपयोग किया जा सकता है- / क्रमांक 2 के काममें क्रमांक 3 मेंसे रकमका उपयोग कर सकते हैं / इस संस्थाके ट्रस्टी लोग, उपर निर्दिष्ट कार्यमें श्री जैनशास्त्रके अनुसार रकमका उपयोग कर सकेंगे / " स्वप्नादि बोली-चढ़ावेकी रकमको कल्पित देवद्रव्य विभागमें मान्य रखने में संमति देनेवाले दूसरे महापुरुष है : पूज्यपाद स्वर्गस्थ सिद्धान्तमहोदधि आ. देव. श्रीमद् प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा साहब / ____ बात ऐसी है कि दि. ११-१०-५१के दिन 'मोतीशा लालबाग जैन चेरिटीज' संस्थाके ट्रस्टियोंने पूजा, आरती आदिके चढावेकी रकमको शास्त्रपाठोंकी गाथाओंको साक्षी बनाकर, कल्पित देवद्रव्यके रूपमें मान्य कर, उस रकममेंसे गोठीका वेतन, केसर आदिमें उपयोग करनेका सर्वानुमतसे ठराव Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ 157 किया था / यह है वह ठराव : (सेठ मोतीशा लालबाग जैन चेरिटीजके ट्रस्टियोंकी ता. ११-१०१९५१की सभामें निम्नानुसार सर्वानुमतिसे ठराव पारित किया गया था / ) ठराव - देरासरजीमें आरती, पूजा आदिका जो घी बोला-कहा जाता है, उस घीकी उत्पन्न आमदनीमेंसे संवत 2009 कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा बुधवार ता: ३१-१०-५१से निम्नानुसार ठरावके मुताबिक, उसका उपयोग करनेका सर्वानुमतिसे ठराव पारित किया जाता है / देवद्रव्यके प्रकारके विषयमें श्रीमद् हरिभद्रसूरिजी प्रणीत 'संबोध प्रकरण'की 163 आदि गाथाओंमें जो व्याख्याएँ दी हैं उनमें चैत्य द्रव्यके तीन प्रकार - पूजा, निर्माल्य और कल्पित ऐसा निर्दिष्ट है / कल्पितआचरित द्रव्य कि जिसमें जिनेश्वरकी भक्तिके लिए समाचरित सशास्त्रीय जैसे कि पूजा, आरती आदि साधनोंकी बोली द्वारा जो आमदनी हो, उस द्रव्यको आचरित-कल्पित द्रव्य-माना गया है और वैसा द्रव्य चैत्यसंबंधी कार्यमें, गोठीके वेतनमें, केसर, चंदन आदि सर्व कार्योमें और श्री जिनेश्वरके अलंकार आदि बनानेमें उपयुक्त किया जा सकता है, ऐसा निर्दिष्ट किया है / तो उपर कथानुसार उपयोगमें घीकी बोलीकी आवककी जो आमदनी हो, उसमेंसे ऐसी बातोंके निमित्त खर्च करनेका सर्वानुमतिसे निश्चित किया जाता है / ___बम्बईके सर्वसंघोके संगठन स्वरूप मध्यस्थ संघने भी, इसी मतलबका प्रस्ताव कर अभिप्रायार्थे आचार्य भगवंतोसे मार्गदर्शन लेने पर, उस मध्यस्थ बोर्डके उपर्युक्त आ. देवने श्रीमद् पद्मविजयजी महाराज साहबके पास जो पत्र लिखाया था, उसमें उसने उपर्युक्त पारित किये ठरावके विषयमें देवद्रव्यका अस्थानीय और अनुचित उपयोग होनेकी बात पर दुःख व्यक्त करने के साथ, ऐसे मतलबका बयान दिया कि 'आपने जो ठराव पार किया है, उसमें इन भयस्थानोंके प्रति भी ध्यान दें / उसमें उन्होंने छठवी बात जो बतायी है, उसके परसे यह एकदम स्पष्ट होता है कि वे कल्पित देवद्रव्यकी रकममेंसे गोठीको वेतनादि देनेमें संमत थे लेकिन जरूरतसे अधिक गोठी रखकर या गोठीको ज्यादा वेतन देकर उस देवद्रव्यकी रकमका दुरुपयोग करनेके सख्त विरोधी थे / 'दुरुपयोग' विरुद्ध उन्होंने जो नापसंदगी व्यक्त Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 धार्मिक-वहीवट विचार की उसीके फलस्वरूप उनकी योग्य वेतनरूपमें और कमसंख्याके नौकरोंको कल्पित देवद्रव्यमेंसे पगार देनेमें संमति दी है / __ यह बात एकदम स्पष्ट होती है / __ यहाँ उस महापुरुष द्वारा मध्यस्थ बोर्डको लिखे गये पत्रोंमेंसे कुछ महत्त्वके अंश पेश किये जाते हैं : "(6.) देवद्रव्यमेंसे बिनजरूरी बड़े बड़े ऊँचे वेतन देकर, जो अनावश्यक कार्यकर्तागण रखा जाता है, वह अनुचित है और देवद्रव्यमेंसे वेतनभोगी स्टाफके मनुष्योंका उपयोग; मूर्ति, मंदिर या उसकी द्रव्य व्यवस्थाके अलावाकी बातोंके लिए करना, उसे देवद्रव्यका दुरुपयोग माना जायेगा / उपरान्त, अनावश्यक स्टाफ रखना यह भी देवद्रव्यको हानि पहुंचानेवाला काम होगा / "आपके प्रस्ताव को ध्यानमें लेकर सोचनेसे पहले मुख्य बात यह है कि 'संबोध प्रकरण के सूचनानुसार तीन अलग विभाग होने चाहिए ___ (1) प्रथम क्रममें आदान द्रव्य अर्थात् प्रभुपूजादिके निमित्त दिये गये द्रव्य / प्रभुकी अर्थात् प्रभुप्रतिमाकी भक्तिके मुकुट, अंगरचना, केसर, चंदन, बरास, कस्तुरी आदि कार्यों में उपयोगमें लाया जा सकता है / ... (2) निर्माल्य द्रव्यका उपयोग मंदिरके कार्योमें हो सकता है और द्रव्यान्तर द्वारा प्रभुके आभूषण भी बनवाये जा सकते हैं / (3) कल्पित (आचरित) द्रव्य, मूर्ति और मन्दिर, दोनोंके कार्यों में उपर्युक्त हो सकता है / 'संबोध' प्रकरण अनसार देवद्रव्यके ऐसे शास्त्रीय तीन विभाग अलग न रखनेसे देखें कि कैसी हालत खडी होती है ? आदान द्रव्यका मंदिरमें और निर्माल्य द्रव्यका प्रभुपूजामें उपयुक्त होनेकी परिस्थिति उपस्थित होती है / ' उदाहरणार्थ आदान द्रव्यका मंदिर कार्यमें और जीर्णोद्धारमें उपयोग होनेकी हालत पैदा होती है / तब निर्माल्य द्रव्य भी एक ही देवद्रव्यके विभागमें जमा करानेसे वो प्रभुके अंग पर चढ़नेकी परिस्थिति पैदा होती इस प्रकार जब दो महागीतार्थ स्वर्गस्थ आचायोंकी जो स्वप्नादिकी बोली आदिकी रकम देवद्रव्यके विभागमें ले जानेमें स्पष्ट मंजूरी मिली है तो संमेलन द्वारा पारित इस ठरावमें शास्त्रविरुद्ध कुछ होनेकी संभावना ही Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ 159 अस्थाने है / उपरान्त, पूज्यपाद आगमोद्धारक सागरानंद सूरीश्वरजी महाराज साहबके 'आगमज्योत' पुस्तक दूसरा पृष्ठक्रमांक 26-27 पर तो उस महाशयने उस मतलबका उल्लेख स्पष्ट किया है कि - "जिनमंदिरके पूजारीको किसी गृहस्थके बेटेको उठाकर घूमानेके लिए रखा नहीं / यदि उसे जिनभक्ति के लिए नियुक्त किया गया हो तो उसे देवद्रव्यमेंसे (कल्पित) वेतन दिया जाय, क्योंकि जिनभक्तिके लिए जो एकत्र किया (कल्पित) द्रव्य है, उसमेंसे जिनभक्ति करनेवाले पूजारीको वेतन देने में देवद्रव्यके भक्षणका प्रश्न नहीं उठता / यदि जिनभक्तिके लिए बनाये जानेवाले चैत्यके आरस, हीरा, मोती, ईंट, चूना आदिकी खरीदीमें देवद्रव्यकी रकम दी जाती है तो माली, पूजारी को क्यों न दी जाय ? ऐसी बाबतमें 'देवद्रव्यको आप पूजारीके द्वारा भक्षण कराते हैं / ' ऐसा कहनेवाले कितने मृषावादी माने जाय ?' इस प्रकार दो महापुरुषों के विचारोंसे यह फलित होता है कि स्वप्नादिकी उछामनीकी रकम पूजा देवद्रव्यमें जमा न कर कल्पित देवद्रव्यमें ही ले जानी चाहिए / कई लोग तो ऐसा कहते हैं कि इस रकमको पूजा निर्माल्य और कल्पित दोनोंमेंसे किसीमें भी जमा न कर 'बोली देवद्रव्य' नामक चतुर्थ उपविभाग खड़ाकर, उसमें जमाकर देनी चाहिए / यह बात ठीक नहीं / क्योंकि ऐसा करनेके लिए इनके पास शास्त्रपाठ नहीं / उपरान्त ऐसा करनेमें गौरवदोष भी उपस्थित होता है / कई कहते हैं कि बोलीकी रकमको पूजा देवद्रव्यमें जमा करनी चाहिए / ठीक है...... ऐसा किया जाय तो भी उसके लिए प्रमाण रूपमें शास्त्रपाठ भी तो देना होगा न ? . इस प्रस्तावका जो विरोध कर रहे हैं, उनकी ओरसे ऐसा प्रचार किया जाता है कि 'इस प्रकार यदि स्वप्नादि बोलीकी आमदनीका उपयोग पूजारीके वेतनमें और केसरादिमें होने लगेगा तो जीर्णोद्धारके कार्य बंद हो जायेंगे / .. यह भय कितना बेबुनियाद है. ? पूजारी आदिको वेतनमें वर्षमें क्या करोड रूपये दे दिये जायेंगे ? या मुसीबतसे लाखोंकी आवश्यकता / Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 धार्मिक-वहीवट विचार होगी ? बादमें बची हुई रकमका उपयोग तो जीर्णोद्धारादिमें ही होनेवाला सचमुच तो नूतन तीर्थ निर्माण करनेवालों और उन्हें प्रेरणा देनेवालों ने ही देवद्रव्यके करोडो रूपये उसकी ओर खींचकर मेवाडादि क्षेत्रोंके अत्यंत आवश्यक जीणोंद्धारके कार्योंको विलंबित कर दिये हैं / उपरान्त, लाखों या करोडों रूपयों द्वारा जो जिनालय निर्मित किये जा रहे हैं, उनको तो श्रावक लोग अपनी जिनभक्तिके लिए खड़े करें, उनके लिए वे देवद्रव्यकी रकमका उपयोग कर सकते हैं क्या ? उन्हें तो आदर्श-नमूना पेश करनेके लिए भी स्वद्रव्यका उपयोग करना चाहिए / उनके प्रेरक, कारक और प्रतिष्ठाकारक आचार्य, श्रावकोंको देवद्रव्यकी करोडों रूपयोंकी रकम क्यों एकत्रित करा देते होंगे ? वे उन श्रावकों . को स्वद्रव्यका फंड एकत्रकर ही जिनालयोंका या तीर्थोंका निर्माण करनेका उपदेश क्यों नहीं देते ? अथवा, वैसे जिनालयादिके प्रतिष्ठादि कार्य करा देनेके प्रसंगोंमें अनुपस्थित क्यों नहीं रहते ? ___अब यदि शक्तिमान श्रावक भी स्वद्रव्यके बदले देवद्रव्यमेंसे जिनभक्तिके लिए जिनालय बना सकते हैं तो स्वद्रव्यमेंसे ही जिनपूजाकी सामग्री, गोठी को वेतन देना, ऐसा आग्रह क्यों रखते हैं ? स्व. पू. पाद. व्या. वाचस्पति आ. देव श्रीमद् रामचन्द्रसूरीश्वरजी म. साहबने ही जिनकी भक्ति और जिनपूजाके उपकरणोंकी वृद्धिके लिए देवद्रव्यकी वृद्धि करनेके लिए सूचित किया है / इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि देवद्रव्यमेंसे जिनभक्ति हो सकती है और भक्तिविषयक उपकरण (केसर आदि) लाये जा सकते हैं / यहाँ उनके द्वारा संशोधित किये ('विजय प्रस्थान' नामक पुस्तककी प्रस्तावनामें उन्होंने इन श्लोकों और उनके भाषान्तरका संशोधन किया है ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। ) श्लोक और उसके अर्थ : 'चैत्यद्रव्यस्य जिनभवनबिम्बयात्रास्नात्रादिप्रवृत्तिहेर्तोहिरण्यादिरूपस्य वृद्धिरूपचयरूपोचिता कर्तुमिति / / अर्थ : जिनभवन, जिन बिम्ब, जिन यात्रा तथा जिनेश्वरका स्नात्र आदि प्रवृत्तिके हेतुरूप हिरण्य आदि रूप चैत्य द्रव्यकी वृद्धि अर्थात् उपचय Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ करना उचित है / उपदेश पद, 'न खलु जिनप्रवचनवृद्धिजिनवेश्मविरहेणभवति, न च तद् द्रव्यव्यतिरेकेण प्रतिदिनं प्रतिजागरितुं जीर्णं विशीर्ण वा पुनरुद्धर्तुं पार्यते / तथा तेन पूजामहोत्सवादिषु श्रावकैः .. कियमाणेषु ज्ञानदर्शनचारित्रगुणाश्च दीप्यन्ते, यस्माद् अज्ञानिनो अपि 'अहो तत्त्वानुगामिनी' बुद्धिरेतेषां, इति उपळह्य क्रमेण ज्ञानदर्शन-चारित्रगुणलाभभाजो भवन्ति / ' ' अर्थ : सचमुच ही, जिनमंदिरके बिना जिनप्रवचनकी वृद्धि नहीं होती और बिना द्रव्य उस मंदिरकी प्रतिदिन देखभाल की नहीं जाती / उपरान्त जीर्ण, विशीर्ण होने पर पुनरुद्धार नहीं किया जाता तथा उसके द्वारा श्रावकोंसे किये जाने वाले पूजामहोत्सव आदिमें ज्ञानदर्शन और चारित्रगुण देदीप्यमान होते हैं / क्योंकि अज्ञानी लोग भी प्रशंसा करते हैं कि 'अहो, इन लोगोंकी बुद्धि तत्त्वानुसारी है / ' परिणामवश वे क्रमशः ज्ञान, दर्शन और चारित्रगुणके लाभको प्राप्त करते हैं / - दर्शनशुद्धि टीका / 'तद्विनाशे कृते सति बोधिवृक्षमूलेऽग्निर्दत्तः / तथा सति पुनर्नवाऽसौ न भवति इत्यर्थः / अत्र इदं हार्दम्, चैत्यादिद्रव्यविनाशे पूजादिलोपः, . ततस्तद्हेतुकप्रमोदप्रभावनाप्रवचनवृद्धेरभावः ततो वर्धमानगुणशुद्धिरोधः ततो मोक्षमार्गव्याघातः / कारणाभावे. कार्यानुदयात् / . . अर्थ :- उसका विनाश करनेसे (चैत्य द्रव्यका) बोधिवृक्षके मूलमें अग्निस्थापना होती है / ऐसा होनेसे पुनः वह नया नहीं बन पाता, ऐसा अर्थ होता है / यहाँ रहस्य यह है चैत्यादि द्रव्यका विनाश होने पर पूजा आदिका लोप होता है / परिणामतः उससे उत्पन्न प्रमोद, प्रभावना एवं प्रवचनवृद्धिका अभाव होता है / उससे गुणशुद्धिकी वृद्धिमें रुकावट आती है / उससे मोक्षमार्गका व्याघात होता है, क्योंकि कारणके अभावमें कार्य संपन्न नहीं होता / - द्रव्य सप्ततिका Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 धार्मिक-वहीवट विचार - 'जेण चेइअदव्वं विणासियं, जिणबिंबपूआदसणाणंदितहियआणं भवसिद्धिआणं सम्मदंसणसुओहिमणपज्जवकेवलनाणनिव्वाणलाभा पडिसिद्धा / / अर्थ : जिसके द्वारा चैत्य द्रव्यका विनाश हुआ है, उसके द्वारा जिन बिम्बकी पूजा और दर्शनसे आनंदित होने पर, भवसिद्धि आत्माओंके सम्यग्दर्शन, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान तथा निर्वाणके लाभोंका प्रतिबोध कराया गया / . - वसुदेव हिंडी जिनेश्वरदेवके स्थापना निक्षेपोंको माननेवालेको जिनचैत्यकी, उसकी पूजाकी, उसके लिए आवश्यक उपकरणोंकी और उसमें कमी न आये, उसके लिए, देवद्रव्यकी वृद्धिकी और उसके संरक्षणकी अनिवार्य आवश्यकता - विचारसमीक्षा पृ. 97 लेखक : मुनि रामविजय इससे तो उन पूज्य श्रीकी ओरसे भी संमति प्राप्त होती है कि देवद्रव्यमेंसे जिनपूजाकी सामग्री लायी जा सकती है और जिमभक्ति भी की जा सकती है, अस्तु / . अब समझमें आयेगा कि स्वप्नादिकी आमदनीमेंसे पूजारीको वेतन देनेसे करोड़ो रूपयोंका देवद्रव्य जीर्णोद्धारमें जानेमें रुकावट आनेका भय जरा भी वास्तविक है क्या ? __जो लोग, स्वद्रव्य खर्चनेका शक्य न हो ऐसे स्थानमें भी कल्पित देवद्रव्यमेंसे पूजारीके वेतनादिका निषेध करते हैं और होहल्ला मचाते हैं, वे शिल्पी और सलाटोंकी तिजौरियों को भरपुर बना देनेवाले देवद्रव्यके लिए क्यों आवाज नहीं उठाते ? वैसे जिनमंदिरों और तीर्थोकी प्रतिष्ठादिके कार्योंमेंसे विरोधप्रदर्शनके साथ दूर क्यों नहीं रहते ? उपरान्त कई लोग कहते हैं कि- कल्पित देवद्रव्यमेंसे यदि पूजारी को वेतन आदि दिया जायेगा तो धर्मीजन स्वद्रव्यके साधारणके फंड आदि अब बंद कर देगा / ' ये और ऐसे अनेक बनावटी भयस्थान बताकर संमेलनके श्रमणोंको शास्त्रविरोधी कहलानेका प्रयास अत्यंत अनुचित है / ___ पुनः याद करें कि जहाँ स्वद्रव्यकी शक्तिके दर्शन होंगे, वहाँ संमेलनके सुविहित श्रमण स्वद्रव्यका ही श्रावकोंके पास उपयोग कराकर, उनकी धनमूर्छा उतारके वास्तविक जिनभक्तिके उन्हें उपासक बना देंगे / ऐसे झूठे भयस्थान Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ . 163 तो हर बातमें उपस्थित किये जा सकते हैं / लेकिन जो साधु साधुताकी मस्तीमें जीते करते होंगे वे तो संमेलनके प्रस्तावोंके हार्द और स्वरूप को ही ग्राह्य समझेंगे और उसीके अनुसार आचरण करेंगे / अतः ऐसे झूठे भयस्थानोंकी कल्पना करना उचित नहीं / जहाँ जो भय वास्तविक हो वहाँ भी यदि लाभ विशेष हो तो भय को पार कैसे करना, यही सोचना चाहिए, लेकिन भयकी कल्पनासे बडां संभवित लाभ गँवाना, यह उचित मालूम नहीं होता / ___ कई वर्षोंसे कई जगहें स्वप्नद्रव्यकी आमदनी संपूर्ण साधारणमें या 10 आनी या 6 आनी साधारणमें जमा होती होगी, तब भी उसके सामने सोलह आनी (शत प्रतिशत) रकम देवद्रव्यमें चालू रखनेका कार्य, उन श्रमणोंने ही किया है / व्यर्थके भयस्थान उपजाकर संमेलनके श्रमणोंको बदनाम करनेकी बात बिल्कुल इच्छनीय न होगी / उपसंहारमें इतना बताना आवश्यक लगता है कि संमेलनके ठरावके विरुद्ध हल्लागुल्ला मचानेवाले और उसके लिए अदालत और अखबारों तक पहुँचकर श्रीसंघके लाखों रूपयोंका खर्च-दुर्व्यय करनेवाले महात्मा लोग सर्वप्रथम अपने प्रति पूज्यभाव रखनेवाले संघोंमें देवद्रव्यके तीन विभाग शुरु कराएँ, उनकी अन्योन्य हेरफेर पर रोक लगवा दें, भूतकालकी भूलकी रकमोंको उन उन खातोंमें जमा करवा दें और उन उन संघोंको दोषोमेंसे उगार दें। - उपरान्त, अनावश्यक स्थलोंमें नये जिनमंदिरोंके या तीर्थोके होनेवाले निर्माणमें या चालु कामकाजमें आजसे ही देवद्रव्यका धनव्यय करना बंद करनेका सूचन अपने भक्तोंको करें और स्वद्रव्यका ही वहाँ उपयोग करनेकी आज्ञा दें, चाहे भले ही फिर वह निर्माणकार्य शनैः शनैः पूरा हो और जो अशक्त कक्षाके संघ हों वहाँ शुद्ध देवद्रव्यमेंसे पूजारी आदिको दिये जानेवाले वेतन आदि पर रोक लगाकर अखबारों और अदालतोंके पीछे लाखों रूपयोंका खर्च करनेके लिए तत्पर भक्तों द्वारा उन संघोमें स्वद्रव्य भिजवानेका शुरू कराएँ / यदि एसी कोई व्यवस्थाकी उनके पास तैयारी न हो और संमेलनके ठरावका केवल विरोध ही करते रहते हों तो, * वह कितना उचित होगा ? स्वद्रव्य या साधारण द्रव्यसे अशक्य हो वैसे संघोंमें भी पूजारीके वेतनादि Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 धार्मिक-वहीवट विचार कल्पित देवद्रव्यमेंसे देनेका निषेध करनेवाले महात्माओंको पहले तो करोडों रूपयोंकी देवद्रव्यकी रकमका बैंक आदि द्वारा मछलियोंकी जाल, कत्लखानेके यांत्रिक साधन आदिमें जो उपयोग होता है, उसके बारेमें राजनीतिका मुकाबला करना अत्यंत जरूरी है / उसके लिए अदालतका आश्रय लेना अत्यंत आवश्यक है / उसके लिए अखबारोंमें शोरगुल मचाना आवश्यक है / इस विषयमें क्यों आज तक कोई ठोस कदम उठाये नहीं गये ?.. संमेलनके श्रमणोंको तो निकट भविष्यकी ओर देखते ही स्पष्ट हो गया है कि पूजारियोंके युनियन (संघ) तैयार होते ही, उतना वेतन कमसे कम दुगुना तो होने जाने वाला है / वह भी बढकर तीन हजार तक थोडे समयमें ही हो जायेगा / इस वेतनको चुकानेकी शक्ति यद्यपि हर प्रकारसे समृद्ध और सम्पन्न संघोंके पास है फिर भी शुद्ध साधारण विभागमें उतनी बडी रकमोंके भंडार वे एकत्र नहीं करेंगे तब वे पूजा (आदान) स्वरूप देवद्रव्यमेंसे ही उन बड़े वेतनोंको चुकाया जायेगा / यह बात बहुत ही अनुचित मानी जायेगी / यदि समृद्ध संघ भी शुद्ध साधारणके पैसोंकी टीप (नोट) करानेमें थक जायेगा तो उस समय, उन संघोंको पूजादि देवद्रव्यमेंसे पूजारी आदि को वेतन आदि देने पर रोक लगाकर कल्पित. देवद्रव्यमेंसे उसकी व्यवस्था करनेके लिए सूचित करना पड़ेगा / / ठरावमें निर्दिष्ट जो बोली-चढावा है, उसकी रकम कल्पित देवद्रव्यमें ले जानेके बाद, उसमेंसे पूंजारीके वेतन आदि दिया जाय, उसके बाद बची रकमको जीर्णोद्धार आदि कार्योंमें ही उपयोगमें लानी चाहिए, उसकी स्पष्टता करनेकी जरूरत नहीं रहती / उसके सिवा संमेलनके ठरावोंके समर्थक श्रमण लोग, ऐसा. भी निर्णय करें कि उस प्रस्तावकी शक्तिसंपन्ना संघ या श्रावक लोग सर्वप्रकारकी जिनभक्ति (पूजारीको वेतन आदि सबकुछ) स्वद्रव्यसे ही करें, इस बातका आग्रह मुख्य रूपसे सभीके सामने व्यक्त करें और उस प्रकार यथाशक्ति उसका अमल भी करें, जिससे कल्पित देवद्रव्यकी वृद्धि होने पर, उसमें बची रकमका उपयोग जीर्णोद्धारादिमें लगातार बढ़ता ही जाय / ऐसा कहा जाता है कि वि. सं. १९९०के संमेलनमें जो ठराव पारित हुआ कि स्वप्नद्रव्यको देवद्रव्यमें जमा करना उचित मालूम होता है / उससे विरुद्ध, इस संमेलनने ठरावको पारित किया है / यह बात यथार्थ नहीं Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ 165 / इस संमेलनमें भी स्वप्नादि द्रव्य को देवद्रव्यमें ही ले जानेका निश्चित किया है / हाँ, उस देवद्रव्यका विशेषभेद १९९०के संमेलनने किया न था, उसके लिए इस संमेलनने उसे 'कल्पित देवद्रव्य' कहकर वह ठराव पारित किया है / वास्तवमें तो 1990 के संमेलनमें इस ठराव पर जो सर्वसंमति प्राप्त हुई है वह उस ठरावके 'योग्य मालूम होता है' उन शब्दोंसे, उस समय खोखली सर्वसंमति प्राप्त होनेका सूचन होता है / 2044 के संमेलनने तो पूरी स्पष्टता की है / संमेलनके विरोधी कहते हैं स्वप्नद्रव्य या केसरादिकी बोली चढावेके द्रव्यसे देवपूजाकी सामग्री लायी न जाय और पूजारी आदि को वेतन दिया न जाय / ये ही महानुभावो स्थान स्थान पर 'जिनभक्ति साधारण' के नाम फंड एकत्र कराते हैं / बारह मासके केसर, अगरबत्ती आदिका लाभ उठानेके लिए केसर आदिकी बोली बुलवाते हैं / इस प्रकार जो धन इकट्ठा होता है, उसमेंसे बाहरसे आये यात्रिकों को केसर आदि पूजासामग्री सुलभ की जाती है और पूजारीको वेतन भी दिया जाता है / / __क्या यह उन्नित है ? परमात्माके (देवके) निमित्ते बोली गयी केसर आदिकी उछामनी देवद्रव्य ही बन जाती है / अब आप 'जिनभक्ति साधारण' ऐसा नाम देकर उसमेंसे पूजासामग्री ला सको और पूजारीको वेतन भी दे सको तो केसरपूजा या स्वप्न आदिके उसी बोली-चढावे को हम 'कल्पित देवद्रव्य' रूपमें लेकर उसमेंसे शास्त्रसंमत रूपसे पूजारीका खर्च निकालनेके लिए रखें तो उसे उत्सूत्र कैसे माना जाय ? ___ यदि आप जिनके निमित्तसे बोलियोंकी रकमको देवद्रव्य न कहकर 'जिनभक्ति साधारण' कहते हैं तो संमेलनके ठरावमें इससे अलग क्या सोचा गया है ? ___ वस्तुतः स्वप्न या उपधाननिमित्तकी बोलियाँ, साक्षात् देवके निमित्त बोलियाँ नहीं होती / जबकि बारह मासके केसरपूजादिके लाभकी बोलियाँ तो साक्षात् जिन (जिनमूर्ति)के निमित्त ही होती हैं, फिर भी यदि ये बोलियाँ जिनभक्ति साधारण (देवकु साधारण) कही जायँ तो स्वप्नादिके निमित्त जिनमंदिरके सर्व कार्योंका निर्वाह करनेके लिए प्रचारित की गई बोलीकी प्रथासे प्राप्त होनेवाला धन भी देवकु साधारण (कल्पित देवद्रव्य) क्यों माना न जाय ? Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 धार्मिक-वहीवट विचार __वास्तवमें तो 'जिनभक्ति साधारण' नामक केसर आदिके लाभसे बारहमासी बोलीका धन एकत्र करनेकी नीति ही उसके समर्थक महानुभावोंके विचारोंसे विरुद्ध जाहिर होती है / वे जैसे देवद्रव्यसे प्रभुपूजा न हो वैसे पूजा तो स्वद्रव्यसे ही की जानी चाहिए, ऐसी शक्ति न हो तो देरासरमें काजो आदि लेकर, या किसीको केसर आदि घीसकर या फूलोंकी माला बनाकर, संतोष मानना पडे- ऐसा मानते हैं, अभयंकर सेठके दो नौकरोंका दृष्टान्त बारबार देकर, इस बातकी वे पुष्टि करते रहते हैं, तो प्रश्न यह है कि फिर यात्रिक आदि कैसे बारह मासके केसर आदिके चढावेके पर- धनसे प्रभुपूजा कर पाये ? उपरान्त, स्वद्रव्यका ऐसा आत्यन्तिक आग्रह रखना की उसकी मर्यादामें रहकर, मामूली द्रव्योंसे भी प्रभुपूजा करना, लेकिन देवद्रव्यसे (कल्पित देवद्रव्यसे) उत्तम द्रव्यसे भी प्रभुपूजा हो तो भी, ऐसा नहि ज करना यह बात विशिष्ट अवसरों पर उचित मालूम नहीं होती / अन्तमें द्रव्यका (उपकरण ) महत्त्व नहीं लेकिन शुभभाव वृद्धिका (अन्तःकरणका) महत्त्व है / हाँ, यह सच है कि शक्तिमान (धनवान) आत्मा, परद्रव्यादिसे प्रभुपूजन करें तो, उसमें उसे लाभ कम प्राप्त हो (धनमूर्छा न उतरनेके कारण) लेकिन उसे गैरलाभ हो, ऐसा प्रतिपादन कैसे किया जाय ? -देवद्रव्यके तीन उपविभागोंके विषयमें विशेष विचारणा अवधारण (आग्रहपूर्वक के दृढ संकल्प)के साथ देवको समर्पित होनेवाला द्रव्य, देवद्रव्य कहा जाता है / ऐसे देवद्रव्यके तीन प्रकार हैं: पूजा देवद्रव्य : परमात्माके भक्त ऐसा समझते हैं कि जिनप्रतिभा यही साक्षात् जिनेश्वर देव भगवान है / इसी लिए उनका सर्वोत्तम उल्लास, जिनपूजा-अंगपूजा रूप या अग्रपूजा रूपमें द्रव्यका उपयोग करनेमें ही होता भगवंतकी पूजाके लिए ही भक्त लोग तरह तरहकी जो भेंट-सौगादें समर्पित करते हैं, उन सभीको पूजादेवद्रव्य माना जाता है / दुकानोंके किरायेकी आमदनी, लागा, खेत, नगद रकम, केसर या तैयार गहने अथवा तन्निमित्त सोना-चाँदी आदि जो भी भेंटके रूपमें आमदनी हुई हो वह और किरायोंकी आमदनीकी रकम भी पूजादेवद्रव्य कही जाती है / (यही सारी भेंट यदि जिनमंदिरोंके निर्वाहके लिए दी गयी हो, तो उसे कल्पित देवद्रव्य कहा Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ 167 जाता है) इस प्रकार उस प्राप्त पूजाद्रव्यका उपयोग जिनेश्वरदेवके देह पर केसरपूजा, आभूषण चढाने आदिमें किया जाय अथवा अग्रपूजामें भी हो सकता है / निर्माल्य देवद्रव्य : निर्माल्य दो प्रकारके हो सकते हैं / प्रभुजीको समर्पित चढा हुआ या सामने रखा हुआ द्रव्य निर्माल्य कहा जाता है / अर्थात्, वरख आदिकी उतराई, फल, फूल, नैवेद्य, वस्त्र, अक्षत, नगद रकम आदि निर्माल्य द्रव्य कहा जाय / इनमेंसे जो थोडे ही समयमें विगन्धि (दुर्गन्धवाला) शोभारहित आदि रूपमें परिवर्तित हो जाय ऐसे फूल, नैवेद्य आदिको विगन्धि निर्माल्य द्रव्य कहे गये हैं; लेकिन उनके अलावा अक्षत आदि प्रभुजीको समर्पित किये होनेसे अविगन्धि निर्माल्य द्रव्य कहे गये हैं / इनकी विक्रीसे जो रकम उपलब्ध हो, उसमेंसे जिनकी अंगपूजा तो नहीं हो सकती / हाँ, उसमेंसे गहने बनवाकर प्रभुजीके अंग पर चढाये जा सकते हैं / यदि आभूषणोंकी आवश्यकता न हो, तो अन्य देरासरोंमें आभूषणोंके लिए उस रकमका उपयोग किया जाय / यदि केसर-बरासके अभावमें प्रभुपूजा रूक जाती हो तो ऐसे समय केसर-बरास आदि लाने में भी उपयोग किया जाय / / ... इन दोनों प्रकारके निर्माल्य द्रव्यको रकमका उपयोग मंदिरोंके जीर्णोद्धारादिमें अवश्य किया जाय / कल्पित देवद्रव्य : जिनमंदिरविषयक सभी कार्योंका निर्वाह करनेकी कल्पनाकर उपलब्ध किये गये द्रव्यको कल्पित देवद्रव्य कहते हैं / भूतकालमें रिजर्व फंडके रूपमें रखनेके लिए श्रीमंत भक्त जो द्रव्य देते-जमा कराते उसे कल्पित देवद्रव्य कहा जाता था / यथा संभव मुसीबतके दिनोंमें ही इस रिजर्व फंडके स्वरूप निर्वाह निमित्त द्रव्यका उपयोग किया जाता था / समय गुजरने पर निर्वाहार्थ फंड भक्तोंके पाससे प्राप्त करने में तकलीफ होने लगी, तब निर्वाह करनेकी कल्पनासे बोली-चढ़ावेकी पद्धति शुरू की गयी / उसके द्वारा मिलनेवाली कल्पित देवद्रव्य मानी जाने लगी / स्वप्नादिकी इस बोलीमें स्पर्धा होती / प्रथम क्रम पानेके लिऐ ऐसी बोली होती / भक्तजन उस बोलीसे स्वयंको मिलनेवाले अधिकारका उपभोग करता और उसके बदलेमें उछामनीकी रकम बिना किसी शर्त उसके आयोजकको दे देते / ____ कोई तर्क कर सकता है कि बोलीकी यह रकम 'भेट' स्वरूप बननेसे, Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 धार्मिक-वहीवट विचार उसे पूजा देवद्रव्यके रूपमें क्यों मानी न जाय ? उसका प्रत्युत्तर यह है कि यह रकम भेंट रूप नहीं है / माल लेकर उसके बदलेमें जो रकम दी जाय, उसे कभी भेंट कही नहीं जाती / प्रथम आदिमाला पहनने रूपमें माल मिल गया, उसके बदलेमें जो रकम दी गयी, उसे भेंट कैसे कही जाय ? इसीलिए बोली-चढावेकी रकमें पूजा देवद्रव्यमें जमा न की जायँ / उपरान्त, पूजा देवद्रव्यमें तो जो रकम भेंट रूप दी जाय उसमें शर्त की जाती है कि 'मेरी रकममेंसे हमेशा पुष्प खरीदे जाय, केसर लाया जाय या अमुक प्रकारका आभूषण लाया जाय / ' आदि / ऐसी कोई शर्त, बोली-चढावेकी रकमके साथ न होनेसे भी, यह रकम पूजादेवद्रव्य विभागमें कैसे जमा हो सकती है ? ____इस प्रकार जिनमंदिरविषयक तमाम कार्योंका (पूजारी, नौकर आदिके वेतन, केसरपूजा आदि) निर्वाह होना असंभव हो, वहाँ उस निर्वाहके संकल्पसे उपलब्ध इस बोली-चढावेकी रकम उपयुक्त होती है / अतः उसका उपयोग पूजा-देवद्रव्यमें किया नहीं जाता / (यद्यपि भूतकालीन रिजर्व फंडका द्रव्य, भेंट द्रव्य ही है, लेकिन वह 'निर्वाहक' बिनाशर्तका भेंट द्रव्य है / अत: उसे पूजादेवद्रव्यमें माना नहीं जाता / ) इसी लिए बोलीकी रकम कल्पित देवद्रव्यमें ही स्वीकार्य मान्य करनी होगी / सारांश यह है कि पूजाके कार्योंके लिए भेंट' रूपमें, शर्तके साथ प्राप्त द्रव्य पूजा देवद्रव्य कहा जाय / उसका उपयोग जिनके देहके निमित्त ही किया जाय / कल्पित देवद्रव्यका जिनमंदिरके सर्व कार्योंमें उपयोग, जीर्णोद्धार, जिनपूजा, पूजारी आदिको वेतन आदिमें किया जाय / यहाँ मालूम होगा कि कल्पित देवद्रव्यमेंसे ही पूजारी आदिको वेतन आदि दिया जाय / निर्माल्य-देवद्रव्यमेंसे जिनकी अंगपूजा तो की नहीं जा सकती / पूजा देवद्रव्यसे मुख्य रूपसे जिनपूजा ही की जा सकती है / Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. २०४४के गुरुद्रव्य व्यवस्था के संमेलनीय ठराव नं. 14 पर चिंतन पं. चन्दशेखरविजयजी गुरुपूजनका द्रव्य, शास्त्राधार पर श्रावक संघ, जीर्णोद्धार तथा गुरुके बाह्य परिभोगस्वरूप साधु साध्वियोंको पढानेका और वैद्यादिरूप कार्य और डोली आदि स्वरूप वैयावच्च कार्योंके लिए उपयोगमें लाया जाय / गुरु महाराजके पूजनके लिए बोली गयी, गुरुको कम्बल आदि बहोरानेकी बोली और दीक्षा निमित्त उपकरणोंकी बोली, इन सभीके द्वारा जो धन उपलब्ध हो उसका और पदप्रदान निमित्त बुलाये गये कंबलादि उपकरणोकी बोलीका धन शास्त्र-वचनानुसार श्रमणसंघ द्वारा गुरुवैयावच्चमें जमा करानेका निर्णय किया जाता है, लेकिन. दीक्षा तथा पदप्रदान प्रसंग पर पोथी; नवकारवाली, मंत्रपट, मंत्र पोथीकी बोलीके धनको ज्ञान-द्रव्यमें ले जानेके लिए ठराव किया जाता है / शास्त्रपाठः अर्थः विवरण अथ यतिद्रव्यपरिभोगे प्रायश्चित्तमाहमुहपत्ति - आसणाइसु भिन्नं जलन्नाईसु गुरू लहुगाइ / जइदव्वभोगि इय पुण वत्थाईसु देवदव्वं व // व्याख्या : मुखवस्त्रिकाआसनशयनादिषु, अर्थाद् गुरुयतिसत्केषु परिभुक्तेषु भिन्नम् / तथा जलन्नाईसु त्ति / यतिसत्के जले अन्ने आदिशब्दाद् वस्त्रादौ कनकादौ च / 'धर्मलाभ इति प्रोक्ते दूरादुच्छ्रितपाणये / सूरये सिद्धसेनाय, ददौ कोटिं नराधिपः / / ..इत्यादिप्रकारेण केनापि साधुनिश्रयाकृते लिगिसत्के वा परिभुक्ते सति 'गुरुलहुगाई 'त्तिक्रमण गुरुमासश्चतुर्लघ आदि शब्दाच्चतुर्गुरवः षड्लघवश्चस्युः / अयमर्थ: गुरुसत्के जले परिभुक्तेश अन्नजीही, वस्त्रादौठी कनका 56 चिप्रायश्चित्तानि भवन्ति / यतिद्रव्यंभोग 'इय' त्ति / एवं प्रकार प्रायश्चित्तविधिरागन्तव्या / अत्रापि पुनर्वस्त्रादौ देवद्रव्यवत् वक्ष्यमाणदेवद्रव्यविषयप्रकारवत् ज्ञेयम् / अयमर्थः यत्र गुरुद्रव्यं भुक्तं स्यात् तत्राऽन्यत्र वा साधुकार्ये वैद्याद्यर्थं बन्दिग्रहादिप्रत्यपायापगमाद्यर्थं वा तावन्मितवस्त्रादिप्रदानपूर्वकं प्रायश्चित्तं देयमिति गाथार्थः // 68 // (श्राद्धजितकल्पः मुद्रित पृ. 56) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 - धार्मिक-वहीवट विचार साधुके द्रव्यका गृहस्थ उपयोग करे तो उसे इस प्रकारका प्रायश्चित करना पडता है / __यदि साधुकी मुहपत्ति, आसन, शयनादिका उपयोग किया हो तो प्रायश्चित्त भिन्नमास आता है / यदि साधुके पानीका उपयोग किया हो, अन्नका उपयोग किया हो, वस्त्रादिका उपयोग किया, कनकादि आदिका उपयोग किया हो तो विविध प्रायश्चित्त करने पड़ते हैं / ... यहाँ मूलगाथामें जलन्नआइसु पद है / जल, अन्न, आदि, यहाँ आदि शब्दसे टीकाकारने वस्त्रादि और कनकादि गृहीत किये हैं / इस प्रकार दो लेनेका कारण यह है कि वस्त्र आदिकी मालिकी कर, गुरु उसका उपभोग कर सकते हैं, इसलिए वस्त्रादि ‘भोगार्ह गुरुद्रव्य' है / / जबकि सोना इत्यादिका उपभोग कंचन-कामिनीके त्यागी गुरु कर नहीं सकते, अतः सोना इत्यादि भोगार्ह गुरुद्रव्य नहीं, परंतु पूजार्ह गुरुकी उसके द्वारा पूजा करने योग्य-द्रव्य अवश्य है / अत: सोना आदिको पूजार्ह द्रव्यके रूपमें अलग लिये हैं / अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सोना आदिको यदि गुरु वस्त्रादिकी तरह अपनी निश्रामें (मालिकी) लेते न हों तो सोना आदि गुरु-द्रव्य ही न बन पाये तो सोना आदि गुरुद्रव्यका जो श्रावक उपयोग करे, उसे षड्लघुका प्रायश्चित्त करना पडे, ऐसा कैसे कहे ? . द्रव्यसप्ततिकाकारने गुरुद्रव्यके जो दो विभाग कर गुरुपूजनद्रव्य सुवर्णादि कहा है, यह उन्होंने अपनी बुद्धिसे कहा है / वास्तवमें तो पुरातन सभी शास्त्रकारोंने वस्त्रपात्रसे ही गुरुपूजनकी विधिका निर्देश किया है; लेकिन दृष्टान्तोंके बल पर जब अंगपूजन जोरोंसे चालू हो गया तब उपरोक्त दो विभागोंकी स्पष्टता करनी पड़ी / वास्तवमें गुरुपूजा किसी भी शास्त्रमें विहित नहीं है / अतः जब हीरसूरिजी म.के सामने यह प्रश्न उपस्थित हुआ, तब उन्होंने हेमचन्द्रसूरि महाराजकी सुवर्णकमलसे निष्पन्न पूजासे उसका (अंगपूजाका) समर्थन करना पड़ा / बादमें उसका द्रव्य किस विभागमें लिया जाय, ऐसा प्रश्न उपस्थित हुआ / अतः सिद्धसेनसूरि महाराजका उदाहरण लेकर हीरसूरि महाराज द्वारा जीर्णोद्धारादिमें (यहाँ आदि शब्द है यह न भूलें. आदि शब्दसे गुरु-वैयावच्च और ज्ञानको ही लेना पडेगा / ) उस समय ले जाया गया था, ऐसा विदित किया, लेकिन उस द्रव्यका निश्चित्त उपयोग कहाँ हो ? Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 171 परिशिष्ट-१ यह सूचित नहीं किया / अन्यान्य क्षेत्रोमें तत्तद समयमें इस द्रव्यका उपयोग हुआ है, ऐसा जानकर उन्होंने ऐसा कहा है कि इस विषयमें बहुतसा कहेने जैसा है लेकिन कहाँ तक लिखा जाय ? इस के उपरसे स्पष्ट होता है कि उन्होंने गुरुद्रव्य देवद्रव्यरूप ही है, ऐसा निश्चित्त नहीं किया है / अब जो सिद्धसेनसूरिके दृष्टान्तसे हीरसूरि महाराजने पूजन द्रव्यकी व्यवस्था सूचित की है, उसे सिद्धसेन सूरिके दृष्टान्तसे समझ लें / प्राचीनतम ग्रन्थ भद्रेश्वरसरिकी 'काव्य शैली' के दूसरे खंडमें साधारणके विभागमें उस धन को ले जानेके लिए सूचित किया है / प्रभावक चरित्रमें भी उसी प्रकार सूचित किया है / 'प्रबंधचिन्तामणि' आदिमें उस द्रव्य का उपयोग, लोगों को ऋणमुक्त करानेमें करने का सूचन किया है / जब कि 'प्रबंध कोश में जीर्णोद्धार आदिके लिए कहा गया है / इस प्रकार गुरूपूजन द्रव्यकी कोई नियत व्यवस्था प्राचीन कालके ग्रन्थोंमें दिखायी नहीं देती / दूसरा, जो सिद्धसेन सू. म. का उदाहरण हीरसूरि महाराजने दिया है, उसमें विक्रमराजाने कोटिद्रव्य सिद्धसेन सूरिको तुष्टिमान् रूपमें दिया है, न कि अंगपूजा या चरणपूजाके रूपमें / __शास्त्रदृष्टि अनुसार साधुको द्रव्यदान करना निषिद्ध है, लेकिन इस, प्रकार मुग्धावस्थामें किसीने साधुको द्रव्यदान किया हो तो उससे गुरुकी अंगपूजाका समर्थन नहीं होता / केवल इतना फलित होता है कि दानरूपमें या पूजारूपमें समर्पित द्रव्यका उपयोग, गुरुकी इच्छानुसार योग्यक्षेत्रमें किया जा सकता है - लेकिन देवद्रव्यमें ही जाय, ऐसा नहीं कहा जा सकता / अतः गुरुपूजनका द्रव्य (जब तक वह चालू है वहाँ तक) वैयावच्चमें ले जानेमें कोई आपत्ति नहीं / उपरान्त, कंबल तो क्रीतादि दोषदुष्ट हो तो वहोरी ही नहीं जाय, लेकिन अब जब प्रथा चल ही पड़ी है तब उसकी बोलीका द्रव्य भी वस्त्रपूजाकी बोलीके द्रव्यरूप होकर देवद्रव्य बनता नहीं। यह कारणसे वैयावच्चमें तो अवश्य लिया जा सकता है / अस्तु, अब मूल बात पर आयें / ____जब गुरु सिद्धसेनसूरिजीने राजा विक्रमको हाथ ऊँचाकर दूरसे ही 'धर्मलाभ' उस प्रकार कहा / तब सिद्धसेनसूरिजीने राजाको एक करोड सोनामुहरें दी / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 धार्मिक-वहीवट विचार - अब यहाँ इस प्रकारसे गुरुद्रव्य बन गया / तो यह गुरुद्रव्य अथवा किसी शिथिलाचारीकी निश्रामें पडा सोना आदि गुरुद्रव्य-उसका कोई गृहस्थ उपयोग करे तो उसे विविध प्रकारके प्रायश्चित्त करना पडे / ऐसा कहकर उपरकी गाथाके उत्तरार्धमें कहा कि साधुके द्रव्यका उपभोग करनेवालेको इस प्रकारको प्रायश्चित्तविधि समझें / अब गाथाके उत्तरार्धमें जो कहा है कि 'पुण वत्थाइसु देवद्रव्वंव' उसका संस्कृतमें रूपान्तर कर टीकाकारने लिखा है कि 'अत्रापि पुनः बस्त्रादिषु देवद्रव्यवत् / ' टीकाकार कहते हैं कि जैसे आगे देवद्रव्यका उपभोग करनेवाले श्रावकके लिए हम जो प्रायश्चित्त बतानेवाले हैं, यही पद्धति यहाँ भी समझें / अर्थात् जैसे देवद्रव्यका उपभोग करनेवालेको तप स्वरूप प्रायश्चित्त करानेके साथ हम कहनेवाले हैं कि देवद्रव्यका जितना उपभोग किया हो, उतना पुनः देवद्रव्यमें वापस जमा करा दें / (केवल तप प्रायश्चित्तसे काम नहीं होगा / ) उसी प्रकार यहाँ भी गुरुके वस्त्रादि (तथा कनकादि) का उपभोग जितनी मात्रामें किया हो, उसे उपर निर्दिष्ट जल, अन्न, वस्त्रादि और कनकादिका सूचित तप प्रायश्चित्त तो करना ही चाहिए लेकिन साथ साथ उस वस्त्रादि (तथा कनकादि)का जितना मूल्य होता हो, उतने मूल्यका वस्त्रादि प्रदान साधुकार्यमें-वैद्यके लिए या कारावास आदिमें पकडे गये या किसी आपत्तिमें फँसे हुए साधुको बचानेके लिए- उस स्थान पर या अन्यत्र-प्रदान करें / संक्षेपमें उतने द्रव्यका वस्त्रादिदान भी तपप्रायश्चित्तके साथ साथ करें / इस श्राद्धजितकल्पके शास्त्रपाठसे स्पष्ट होता है कि गरुद्रव्य साधवैयावच्चमें लिया जा सकता है / यदि गुरुद्रव्य देवद्रव्यमें ही जाता हो तो प्रायश्चित्त दाता गुरु, उस श्रावकसे कहते कि 'तुमने जितने मूल्यके वस्त्रादि या कनदादिका उपभोग किया हो, उतनी रकमका उपयोग जीर्णोद्धारमें करो / ' लेकिन ऐसा न कहकर गुरुकी वैयावच्चके वैद्यादि कार्यों में उस रकमका उपयोग करनेके लिए कहा है, इससे निश्चित होता है कि गुरुद्रव्य साधुवैयावच्च विभागका द्रव्य है / विरोध करनेवालोंका इस विषयमें जो कहना है कि "इस पाठकी टीकामें वस्त्रादिके उपभोगका ही प्रायश्चित्त 'वस्त्रादिदान' है; लेकिन कनकादिके Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 धार्मिक-वहीवट विचार ___ वहाँ यह भी कहा गया है कि यदि पूजा संबंधसे इसे गुरुद्रव्य = कहें तो 'श्राद्धजितकल्पवृत्ति के साथ उसका विरोध हो, क्योंकि वहाँ तो गुरुपूजनके द्रव्यको गुरुद्रव्य कहा है और उसके उपभोग करनेवालेको, उसका प्रायश्चित्त वहीं निर्दिष्ट किया है / इस गुरुद्रव्यका उपयोग, गौरवास्पदस्थानों में ही उचित ढंगसे करनेका द्रव्यसप्ततिकामें कहा है / इससे निश्चित हुआ कि गौरवास्पद स्थान साधु-साध्वी हैं / और उनके उपरके स्थान देव और ज्ञान है / इन सभी स्थानोंमें उसका उपयोग किया जाय / उपरान्त, 'द्रव्यसप्ततिका' में ऐसा कहा है कि इस गुरुद्रव्य का उपयोग जीर्णोद्धार, नूतन जिनालय आदि स्थानोंमें करें / यहाँ 'आदि' शब्दसे यद्यरि प्रतिमाका लेपकरण, आभूषण आदि समझे जाय, परंतु जिनकी अंगपूजामें न करने का स्पष्ट आदेश वहाँ दे दिया है अतः अब लेप आदिको 'आदि' शब्दसे गृहीत न किया जाय / अतः अब 'आदि' शब्दसे साधु- वैयावच्च ही गृहीत समझें / ऐसा होगा तो ही 'श्राद्ध-जितकल्पका' पाठका भी स्वागत माना जायेगा / इस प्रकार गुरुपूजनका धन आदि गुरुद्रव्य माना जाय या नहीं ? उस प्रश्रका उत्तर उपर निर्देशानुसार दिया गया है / आगे उसी स्थान पर दूसरा प्र उपस्थित किया गया है कि 'सुवर्ण आदिसे गुरुपूजा करनेका विधान शार में किया गया है ?' इसके प्रत्युत्तरमें कुमारपाल महाराजाका उदाहरण दिया है / वहाँ ऐसा उल्लेख है कि कुमारपाल राजा द्वारा प्रतिदिन पू. हेमचन्द्रसूरि महाराजाका 108 सतर्ण कमलोंसे गुरुपूजन किया जाता था, ऐसा 'कुमारपाल प्रबंध' आदिमें निर्दष्ट है / उसके अनुसार हालमें भी द्रव्य द्वारा पूजा जारी हो गयी है / ___श्राद्धजित हप-वृत्ति के प्रायश्चित्तके पाठमें विक्रम राजाने गुरुचरणोंमें समर्पित सुवर्णों को साधु निश्रित द्रव्यके रूपमें-गुरुद्रव्यके रूपमें-स्पष्ट बताया है / अतः उसका उपयोग साधु वैयावच्चमें हो, ऐसा फलित होता है / श्री हीर-प्रश्नोत्तरीमें 'गुरुको दव्यपूजा' कहाँ की है ? गुरुपूजा संबंधित सुवर्णादि द्रव्यको गुरुद्रव्य कहा जाय" या नहीं ? और ऐसा पूजाविधान था ? ऐसी प्रश्नोंकी हारमालामें और 'उस ' सुवर्णादिरूप द्रव्यका उपयोग कहाँ किया Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ 173 उपभोगका प्रायश्चित्त यहाँ निर्दिष्ट नहीं किया / यह बात बिल्कुल असंगत मालूम होती है / मूल गाथामें 'वस्त्रादि' शब्द ही होनेसे टीकाकारने वस्त्रादिका अर्थ बताते हुए 'वस्त्रादि और कनकादि' इतना कह ही दिया है / अब आगे बढ़कर टीकाकारने जहाँ वस्त्रादि' शब्दका प्रयोग किया है वहाँ कनकादि' शब्द नहीं है, उसका कारण तो यह है कि मुँहपत्ति आदि चार बताये हैं, वे मुहपत्ति रूप वस्त्रादि चारों का प्रत्यर्पण क्या करें ? उसके प्रत्युत्तरमें वैद्यको दानादि करना बताया है / ___उपरान्त, यहाँ विक्रम राजा द्वारा समर्पित कोटि सुवर्णको गुरुनिश्रासे युक्त तो कहा ही है, अतः इस प्रकार सुवर्ण भी गुरुद्रव्य बन गया और इसी कारण उसका उपभोग करनेवालेको प्रायश्चित्त (तप + उतने मूल्यका वस्त्रादि दान) भी इसी गाथाकी टीकामें स्पष्ट रूपसे कहा गया है / फिर भी ऐसा कहना कि- 'इस गाथाकी टीकामें वस्त्रादिके उपभोग का प्रायश्चित्त वस्त्रादिदान कहा है अत: सुवर्ण आदिके उपभोगका प्रायश्चित्त वस्त्रादिदान नहीं कहां, यह कारणसे कनकादिके उपभोगके प्रायश्चितरूप उतना धन जीर्णोद्धारमें उपयुक्त करें, यही स्वयं समझना होगा / ' . यह बात बिल्कुल असंगत है / विक्रम राजाके प्रसंगमें उत्पन्न प्रकारसे पूजाहरूपमें धन भी गुरुद्रव्य बनता ही है और इस गुरुद्रव्य का उपभोग करनेवालेको वैद्यादिको वस्त्रादिदानका प्रायश्चित्त जब बताया गया तब यह बात बिलकुल स्पोष्ट हो गयी हैं कि धन आदि गुरूपूजनका द्रव्य साधु-वैयावच्च विभागमें ही जमा किया जाय, अन्यथा गुरु महाराज साधु-वैयावच्च विभागमें व्यय करनेका प्रायश्चित्त न देकर जीर्णोद्धारमें उपयोग करनेका प्रायश्चित्त देते / . द्रव्यसप्ततिका ग्रन्थकी बारहवीं गाथाकी टीकामें स्पष्ट कहा है कि, "यद्यपि भोज्य-भोजकभाव संबंधसे गुरूपूजनका धन आदि गुरुद्रव्य नहीं बन जाते, परंतु पूज्य-पूजक संबंधसे तो धन आदिसे किया गया गुरुपूजन, गुरुद्रव्य ही बनता है / " ये हैं वे शब्द :अत्रापि तक्रकौडिन्यन्यायेन भोज्यभोजकसंबंधान औधिकौपधिवत् पूजाद्रव्यं न भवति / . ' पूज्यपूजासम्बन्धेन तु तद् (स्वर्णादिद्रव्यं ) गुरुद्रव्यं भवत्येव / Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ 175 जाय ?' ऐसा प्रश्न उपस्थितकर, उसके उत्तरमें विक्रम राजाका दृष्टान्त दिया है / अत: यह प्रश्न और उसका उत्तर गुरुपूजा संबंधित गुरुद्रव्यका मार्गदर्शन नहीं, ऐसा हम कैसे कह सकते हैं ? अतः इस प्रस्तावका विरोध करनेवाला वर्ग कहता है कि 'श्राद्धजितकल्पवृत्तिमें साधु-वैयावच्चमें नगद द्रव्य देनेकी जो बात है वह विक्रमराजा द्वारा किया गया प्रीतिदान स्वरूप गुरुद्रव्यके लिए है, गुरुपूजा स्वरूप द्रव्यके लिए नहीं', यह उचित नहीं / 'द्रव्यसप्ततिका' ग्रंथकी इस बारहवी गाथाकी टीकामें कहा है कि सुवर्ण आदि गुरुद्रव्य जीर्णोद्धारमें और नये जिनमंदिरोंके निर्माण आदि कार्यमें उपयुक्त किया जाय / ___'स्वर्णादिकं तु गुरुद्रव्यं जीर्णोद्धारे, नव्यचैत्यकरणादौ च गौरवार्हेस्थाने व्यापार्यम् / ' ___ यहाँ 'आदि-शब्दसे साधु वैयावच्चका ग्रहण किया जाय, क्योंकि 'श्राद्धजितकल्प'का पाठ उस बातका स्पष्टीकरण करता है / ऐसा करेंगे तभी ही द्रव्य सप्ततिका और श्राद्धजितका पाठ, दोनोंका उचित समन्वय किया जा सकेगा / (देखें परिशिष्ट-२) . संमेलनने गुरुद्रव्यके विषयमें जो प्रस्ताव पारित किया है, उसमें देवद्रव्यमें और साधु-वैयावच्चमें दोनों स्थानोंमें ले जानेके दोनों विकल्प सूचित किये हैं / यह बात उपर्युक्त शास्त्रपाठोंसे समुचित जान पड़ती है / यदि गुरुद्रव्य केवल देवद्रव्यमें ही जा सकता है, ऐसा प्रतिपादन होगा तो 'श्राद्धजितकल्प' वृत्तिकार उसके उपभोग करनेवालेको प्रायश्चित्तके रूपमें उतनी रकम साधु वैयावच्चमें (निम्नविभागमें) उपयोग करनेके सूचन द्वारा कितने भारी दोषभागी होंगे ? _ 'गुरूपूजनके द्रव्यको यदि साधु वैयावच्चमें ले जाया जाय तो उससे .साधु-साध्वियोंको उसमें आसक्ति पैदा होनेका भयस्थान है / अत एव उसका उपयोग जीर्णोद्धार करनेमें ही किया जाना चाहिए' / ऐसा इस ठरावके विरोधियोंका मन्तव्य है / __. इसका प्रत्युत्तर यह है कि आसक्ति पैदा होनेकी संभावना निवारणार्थ ही. ठरावमें स्पष्ट सूचित है कि 'इस गुरुद्रव्यकी व्यवस्था श्रावकसंघ करेगा / ' जिस साधु या साध्वीके पास मुमुक्षु आत्मा दीक्षाग्रहण करता है, उसके दीक्षाग्रहण समयके उपकरणोंकी उछामनीकी रकम पर उस मुमुक्षुके Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 धार्मिक-वहीवट विचार दीक्षादाता गुरु आसक्त नहीं होते / उसकी व्यवस्था भी नहीं करते / उस रकम को साधु-वैयावच्च विभागमें ले जाकर, उसका संचालन श्रावकसंघ करे, ऐसा ठरावमें अभिप्रेत है / इस प्रकार आसक्तिका निवारण करना ही चाहिए / अन्यथा मिष्टान्न भोजनादिमें भी साधुके लिए आसक्तिका प्रसंग उपस्थित होता है, तो क्या श्रावक तद्विषयक भक्ति ही समाप्त कर दें ? उपरान्त यदि गुरुचरणोंमें समर्पित धनमें आसक्ति पैदा होनेका भयस्थान है तो तो स्त्रियों द्वारा बिल्कुल नजदिक आकर ही संपन्न होनेवाले नवाँगी गुरुपूजनमें तो कामासक्ति पैदा होनेका छोटे साधुओमें बडा भयस्थान है, अतः बंद करने लायक तो वह पूजन है / अब प्रश्न रहा परंपरा का भाई ! परंपरा तो दोनों प्रकारको लम्बे समयसे चली आ रही है / गुरुद्रव्यको रकमको देवद्रव्यमें ले जानेकी परंपरावाले श्रमण समुदाय भी हैं / उपरान्त, पूज्यपाद स्वर्गस्थ लब्धिसूरीश्वरजी म. साहबके समयसे उनके समग्र समुदायमें लूंछन रूपमें ही गुरूपूजन किया जाता है और इसी कारण उस रकम शास्त्रानुसार साधु-वैयावच्च आदिमें ले ली जाती है (यह बात सर्वमान्य है / ) अब गुरुपूजन (सीधा या लंछन रूपमें) साध वैयावच्चमें ले जानेवाला वर्ग जब बड़ा है तब मनि संमेलनने गुरूपूजनके द्रव्यको जीर्णोद्धारमें (उपरी विभाग होनेके कारण) और वैयावच्चमें ले जानेके दोनों विकल्प खुले रखे हैं। __यदि गुरुपूजनकी रकमको साधु वैयावच्चमें ले जानेसे श्रमण संस्थामें पारावार शिथिलाचार बढ जानेकी संभावना होती तो, वह कभी का इन के गणवश बढ गया होता / क्योंकि इसी परंपराका वर्ग बडा है / उपरान्त, उसका विरोध आज तक क्यों नहीं किया ? / . वस्तुतः शिथिलाचार व्यापक हुआ है / तो उसमें दूसरे अनेक गंभीर कारण है, जिसमें सबसे मुख्य, कतिपय अपात्र दीक्षाएँ, पदवियाँ और शिष्योंका साधुत्व विकास करनेकी बातमें गुरुवर्गकी अध्ययन और वाचनादानकी बाबतमें अधिक उपेक्षा भी है / फिर भी मान लें कि साधु-वैयावच्चमें गुरुपूजनकी रकम जानेसे उस धनमें आसक्ति पैदा होगी, तो इसकी अपेक्षा अधिक गंभीर कक्षाकी अनेक प्रकारकी आसक्तिको पैदा करनेवाले उपधान और यात्रा संघोंके तथा भक्तोंके आधाकर्मी रसोईघरके भोज्य पदार्थ और उन Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ 177 प्रसंगोंमें अत्यंत स्वाभाविक रूपसे होनेवाला विजातीय परिचय आदि बातें ___ इस प्रस्तावका विरोधकरके 'घोर शिथिलाचारको प्रसारित करनेवाला मुनि संमेलन' उस रूपमें प्रजाको उभारनेवाले महानुभावोंसे तो आग्रहपूर्ण प्रार्थना है कि उपर निर्दिष्ट आसक्तिजनक जन्मस्थानोंके विषयमें हम सब साथ मिलकर गंभीरतासे सोचें / इन बातोंका छिपाव न करें / ' - यद्यपि विशिष्ट पुण्यशक्तिवाले श्रमण तो धनवान श्रावकोंको स्वद्रव्यसे ही मुनिभक्तिका लाभ उठानेके लिए प्रेरित करते ही रहेंगे, क्योंकि अनेक सुश्रावक ऐसे लाभके अत्यन्त चाहक होते हैं, लेकिन उसके साथ साथ उपर्युक्त व्यवस्था भी बनी रहे तो चारों ओरकी इस विषयकी आवश्यकताको / विशेषरूपसे श्रावकसंघ संफल कर सके / / जो श्रमण पवन-पावडीकी तरह विहार करते हैं, उन्हें गाँवोमें साधुवैयावच्च, उद्विग्न साधर्मिकों और उपाश्रयोंकी जरूरतोंके बारेमें जरा-भी जानकारी नहीं होती / वे व्यवस्थित ढंगसे प्रत्येक गाँवमें जाकर इस विषयकी पूछताछ करें, तो उन्हे इन बातोंमें कितनी उलझनें पैदा हुई है, कैसी संचालनविषयक . अराजकता पैदा हुई हैं, उसकी सही जानकारी मिल जरुर सकती है / इन बातोंके लिए तो पाँच, दस करोड रूपये भी कम महसूस हो, ऐसी हालत बनी हुई है / Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. 2044 के संमेलनीय ठराव क्रमांक - 17 जिनपूजाके विषयमें श्रावकोंको मार्गदर्शन पं. चंद्रशेखरविजयजी ठराव : 'जैन शासनमें परमात्माकी भक्ति यह उत्कृष्ट आराधनाका अंग है। जिनेश्वरदेवकी द्रव्य और भावपूजा, यह श्रावकका मुख्य कार्य है और श्रावक लोगको उस प्रकार परमात्माकी पूजा नियमित करनी चाहिये / ' हालमें यह पूजाकार्य नौकरोंको सौंप दिया गया है, जिससे अनेक प्रकारकी घोर आशातनाएँ उपस्थित हुई हैं / उसे जानकर और देखकर हृदयमें कंपकंपी हो उठती है / इसीलिए श्रमण संमेलनने प्रस्ताव किया कि 'श्रावक लोग स्वयं ही परमात्माकी अंगपूजा करें, नौकरोंके द्वारा न करायें / __जहाँ श्रावकोंकी आबादी बिलकुल न हो, वहाँ,वासक्षेप और अग्रपूजासे संतोष माने / प्रतिमाके अंग-उपांगोको जरा भी घिसाई न पहुँचे, उस ढंगसे पूजा करें / ' संमेलनके श्रमणोंने विहार दरम्यान और चातुर्मासके क्षेत्रोमें अनेक स्थानों पर देखा है कि श्रावक स्वयं जिनपूजा नहीं करते / इनेगिने श्रावक श्राविकाएँ संपूर्ण जिनभक्ति स्वयं करते हैं / जैसे स्वद्रव्यसे जिनपूजा करनी चाहिए वैसे स्वयं जिनपूजा करनी चाहिए / अपने आर्थिक आदि कारणवश, समयादिके अभावके कारण श्रावक पूजारीको. ही थोडी पूजा तो सौंप देते हैं / पूजारी भी अर्थलक्षी नौकर है, यह कोई मुमुक्षु आत्मा नहीं / अतः उसकी नजरोंमें हमारे भगवान, प्रायः 'भगवान के रूपमें अत्यन्त उपास्य महसूस नहीं होते / भूतकालमें तो पूजारी वंशपरंपरागत रहते थे / वे हमारे भगवानको अपने इष्टदेवसे भी अधिक उपास्य समझते / भगवानके साथ समरस हो जाते लेकिन आज तो पूजारी बननेके लिए अत्यंत अयोग्य समझी जाय ऐसी व्यक्ति भी जिनमंदिरमें पूजारी बन पाता है / ऐसे मनुष्योंके पास परमात्माकी पूजनक्रिया विधिवत् हो और बिना आशातना की हो, ऐसी अपेक्षा हम कैसे रख सकते हैं ? अब तो कई स्थानों पर इससे भी बात आगे बढ चूकी है / जिनमंदिरमें चोरी-जारीके प्रसंग खडे होने लगे हैं / भूतकालीन वंशपरंपरसगत पूजारियोंकी तो बात ही निराली थी / Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 179 परिशिष्ट-१ उपरान्त; कहीं कहीं पर तो पूजारीलोग सरकारी-प्रोत्साहनके कारण सर उठाकर बातें करने लगे हैं / श्रमणोने संमेलनमें उसके बारेमें दो गाँवके प्रसंगोंका बयान दिया था / ___ एक स्थान पर तो ट्रस्टीके साथ झगडते हुए पूजारीने गुस्सेमें आकर जिनबिम्बका सर, शरीरसे अलग कर दिया था / दूसरी जगह, पूजारीने देरासरमें अपवित्रता करने पर उसे निकाल दिया, तो उस गाँवके बाकी सभी पूजारियोंने हडतालका एलान कर दिया / आखिर संघको झुकना ही पड़ा / सिद्धगिरि जैसे स्थलोमें भी आशातनासे लेकर हडताल पर जानेकी धमकिर्यां जैसी अनेक बातें दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं / जब पूजारियोंके युनियन बनेंगे और कानूनी तौर पर अपनी मांगे पेश करेंगे, कानूनी मुकद्दमे पेश करेंगे और रू. ७००से लेकर रू. 2000 तकके वेतन देनेके लिए मजबूर करेंगे तब पूजारी वर्ग (भायखला, शंखेश्वर, पानसर आदि स्थानोंकी जाँच करें / ) के लिए संमेलनके इस प्रस्तावका विरोध करनेवाले महानुभावोंको भी यही सोचना होगा / __ यथाशीघ्र पूजाकार्य पूरा कर देनेके ! लिए पूजारीलोग, अत्यंत तीक्ष्ण और कर्कश ऐसी आधुनिक बालाकुंजी (भूतकालकी बालाकुंजी अत्यन्त मुलायम और मृदु थी / ) प्रभुजीके अंग-उपांगो पर इतने जोरसे घिसते हैं कि जिनबिम्ब को साक्षात् जिनेश्वरदेव माननेवाले भक्तजन, उस क्रूरता-पूर्ण द्रश्य को देख भी नहीं सकते / इस प्रकार बालाकुंजी प्रतिदिन घिसनेसे जिनबिम्ब घिस जाते हैं / उसमें गड्डे बन जाते हैं / पानी जमनेसे नील आदि जमने लगती है / अतः जो पंचधातुके प्रतिमांजी होती हैं, उनकी हालत तो और भद्दी हो जाती है / बालाकुंजीके आक्रमक घर्षणसे उनकी आंखे, कान, नाक हमेशाके लिए घिसकर नामशेष हो जाते है / ये प्रतिमाएँ इस प्रकार घिस जानेसे, हमेशाके लिए अपूज्य बनी रहती हैं / पंचधातुको जो जो प्रतिमाएँ धरतीमेंसे बाहर निकलती हैं, तब उनकी आँखे, नाक, कान बिलकुल सुंदर, दर्शनीय और अखंडित होते हैं / ये बिम्ब पूजारियोंके हाथ पड़ने पर (या वैसे कठोर हृदयवाले श्रावकोंके हाथों पडने पर) दस सालमें ही आँख, कान, नाकरहित हो जाते हैं / ऐसा होनेके कारणोमें उनकी लापरवाही, भक्तिहीनता, कठोरता और स्वार्थ ही हैं / ___दूसरी बात संमेलनके श्रमणोंको यह भी जानने मिली कि गाँवोके टूटनेके कारण, वहाँ जैनोंकी आबादी कम होते होते शून्य पर आ पहुँची Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180. धार्मिक-वहीवट विचार है / ऐसे स्थानोंके जिनमंदिरोंकी और उनकी पूजा पूजारीको स्वाधीन कर देने पर, वहाँकी पूजाविधि नहींवत् और आशातनाओंसे भरी रहती है / कहीं तो जिनमंदिर पूजारीका घर ही बन गया है / संमेलनके श्रमणोंने इस वर्तमान स्थितिको और भविष्यमें पूजारियोंके युनियनों द्वारा उपस्थित होनेवाले खतरनाक भावि भयस्थानोंको ध्यानमें रखकर ऐसा प्रस्ताव पारित किया है / इस प्रस्तावमें जिनशासनके मूलभूत सिद्धान्तको पूर्णतया स्पष्ट शब्दोंमें आरंभमें रखा ही है / जिसका आशय है कि श्रावक स्वयं ही परमात्माकी सर्वप्रकारी पूजा करें / यदि इस बातका पूरा अमल हो तो बादमें आगेकी बात करनेकी आवश्यकता ही नहीं रहती / और पूजारीको यदि रखना ही हो तो उसके पास अंगपूजा तो करायी ही न जाय / उपरान्त, प्रस्ताव द्वारा यह निर्देश किया गया है कि यद्यपि देरासरके गर्भगृहके बाहरका कार्य पूजारी करेगा तो वह कोई कम तूफान नहीं करेगा, लेकिन हाल तो उसे जिनेश्वरदेवकी साक्षात् घोर आशातनासे दूर रखनेका सोचा गया है / वास्तवमें तो श्राविकाएँ एकत्र होकर यदि बारी बारी से-जैसे अपनी घरकी सफाई करती हैं उसी प्रकार -जिनमंदिरका सारा कार्य सम्हालती रहे, तो पूजारीको कोई काम सौंपनेकी नौबत ही न आये / / आज पर्यंत, इस विषयमें जाग्रत और सचिंत कतिपय श्रमणोंने श्रावकोंको उनके कर्तव्यकी ओर लगातार प्रेरित किये हैं / मंदिरोमें पूजारियोंको भी समझाया है / अरे, कभी कभी तो डाँट-डपटें भी दी है, लेकिन उसका कोई खास परिणाम दिखाई नहीं दिया / इसीलिए अब (उस कार्य को जारी रखकर) संमेलनके श्रमणोंने पूजारीको कमसे कम अंगपूजासे दूर रखनेका अभिप्राय व्यक्त किया है / यहाँ ऐसा गलत प्रचार (संमेलनका मानों विरोध करना ही ठान लिया हो) किया जा रहा है कि 'पूजारी द्वारा पूजा बंद करानेका निर्देश देकर, संमेलनने पालिताणाके पर्वत उपरकी सभी प्रतिमाओंकी पूजा चातुर्मासके लिए रोक दी है / जैनोंकी बिना आबादीवाले गाँवों आदिमें वासक्षेप पूजासे ही भगवानकी पूजा करनेका निर्देश देकर भगवंतकी सदियोंसे चली आनेवाली (अष्टप्रकारी) पूजाविधि रुकवा दी है / ' ये दोनों बातें जैनसंघको भडकाने-उभारनेके लिए ही प्रचारित की गयी हैं / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ 181 ___ पालिताणामें पर्वत पर यदि चातुर्मास दरम्यान यात्रा होनेवाली नहीं हैं तो वहाँ प्रतिष्ठित जिनबिंबोकी पूजाके लिए रखे गये सत्तर पूजारियोंको आणंदजी कल्याणजीकी कार्यवाहक समिति द्वारा पूजाविधि और आशातना निवारणके लिए समझाना ही होगा / यदि वे ऐसा नहीं करें तो अवश्य दोषभागी बनेंगे / जानबूझकर, हमेशाके लिए घोर आशातना, अविधिको जारी रखनेसे उन कार्यकरोंका संसार दीर्घ हो जायेगा / ___ यह बात अन्य मंदिरों और तीथोंके लिए भी समझ लेनी होगी / जहाँ भी ऐसे विचित्र पूजारियोंको दूर किये जायँ, ऐसी हालत न हो, वहाँ उन्हें जिन भक्ति समझानी चाहिए / उनके वेतनमें बढावा किया जाय, जिससे वे आशातना न करे / जहाँसे ऐसे लोगोंको दूर किये जा सके ऐसी हालत हो, वहाँ जिनप्रतिमापूजन अपने हाथों ले लेना चाहिए / . तब क्या इनमेंसे कुछ भी किया न जाय और पूजारी द्वारा होनेवाली घोर आशातनाएँ दशाब्दियोंसे चली आ रही हैं, उन्हे चलने देनी चाहिए ? संमेलनके श्रमण, इस प्रस्तावके द्वारा, पूजारी द्वारा (और कुछ 'श्रावक द्वारा) होनेवाली घोर आशातनाओंके निवारणार्थ सख्त आग्रह व्यक्त करते हैं / यही प्रस्तावका तात्पर्य है / यदि किसी भी उपायसे आशातना निवारण संभव हो तो पूजारी द्वारा भी अंगपूजादि कराते हों तो संमेलनको बाधा नहीं / . उपरान्त, जिन गाँवोमें अकेले पूजारीके हाथों भगवानको सौंप दिये गये हो, अगर अष्टप्रकारी पूजा करने में वह पूजारी बालाकुंजी आदिसे घोर आशाप्तनाएँ ही करता हो, विधिपूर्वक पूजा करनेके लिए समझाने पर भी यदि वह माननेके लिए तत्पर होता न हो, तो श्रीसंघको कहना होगा कि'हमारे भगवानकी तू अब केवल वासक्षेपपूजा या पुष्पपूजा जैसी शास्त्रमान्य एक ही प्रकारकी पूजा कर / हमें उससे संतोष है / इससे वालाकुंजी आदिसे घोर आशातनाएँ तो कमसे कम टल सकेंगी / ' ऐसी स्थितिमें मात्र वासक्षेप पूजा करनेका विधान हुआ है, उसके आधार पर उन्होंने 'पूजा'का ही छेद कर देनेका आक्षेप संमेलन पर किया है / वे ऐसा समझते होंगे कि पूजा यानी प्रक्षालादि स्वरूप अष्टप्रकारी पूजा, लेकिन यह बात उचित नहीं / शास्त्रकारोंने एकप्रकारी (पुष्पादि स्वरूप) अष्टपुष्पी आदि पूजाको Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 __ धार्मिक-वहीवट विचार भी पूजा कही है। संमेलनके इस प्रस्तावके पीछे यही आशय है / इसमें अष्टप्रकारी पूजाएं बंद कर देनेकी बात कहीं नहीं / अरे, धनवान प्रभुभक्त धनमूर्छा को उतारकर हमेशा अष्टप्रकारी ही नहीं, परंतु सर्वप्रकारी (निन्यानवे अभिषेकादिरूप) जिनपूजा करे तो वह कितना सुंदर होगा ? उससे इस धरती पर कितना पुण्यबल प्राप्त होगा ? जिससे समुचे जगतमें सच्चे सुख, शान्ति और, जीवोंके हित प्रसारित हो जायेंगे / आज प्रायः सर्वत्र व्यापक बनी परमात्माकी अष्टप्रकारी पूजाका निषेध करनेका इस प्रस्तावका लेशमात्र लक्ष्य हेतु नहीं है / प्रस्तावका तात्पर्य आशातना निवारणमें है / संमेलनके विरोधियोंके मनमें चकराती बात कोई अलग ही है / उसे यहाँ देख ले / ___ कई वर्ष पूर्व पू. स्वर्गस्थ कल्याणविजयजी म. साहबने वर्तमानकालीन श्वेताम्बरीय जिनपूजा पद्धतिका सख्त विरोध किया था / उन्होंने उसके बारेमें कडी समालोचना की थी / यह संमेलन उनके पल्लेमें बैठ गया है, ऐसा समझकर प्रस्तावका सख्त विरोध हो रहा है, ऐसा एक अनुमान है / जबकि वास्तविकता ऐसी नहीं है / उन स्वर्गस्थ महात्माकी बातें उनके ग्रन्थों में हालमें भले रहीं / संमेलनके श्रमणोंने उसका विचार तक नहीं किया। उन्होंने तो अष्टप्रकारी पूजामें प्रक्षाल, केसर, बरास आदिके कारण पूजारीकी आवश्यकता देखी, पूजारीवर्ग मंदिरमें प्रवेश कर अविरत कैसी घोर आशातनाएँ करता है और किसीकी परवाह नहीं करता और न ही किसी प्रकारका उत्तरदायित्व निभाता है, यह देखा और इसीलिए आशातना निवारणके लिए प्रस्ताव किया / जैनोंकी बिना आबादीवाले गाँवोमें वासक्षेप पूजासे भी संतोष मानकर आशातना निवारण जारी रखनेका निर्देश किया / यदि इस तात्पर्य को अच्छी तरह समझा जाय तो ठरावके विरोधकी बात भूला दी जायेगी / परमात्माके प्रति अपार भक्तिसे प्रेरित होकर ही अशातना-निवारण का विचार गाँवोमें वासक्षेप पूजाके विधान तक पहुँच पाया है / इस बात समझनेको पंडितजनोंको एक क्षण भी नहीं लगेगा / ऐसा हो, ऐसा हम नहीं सोचते, परंतु पूजारियोंके युनियन खड़े होनेके Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ 183 साथ, उनके द्वारा जो हल्लागुल्ला होनेवाला है, उसे देख वर्तमानमें प्रस्तावके विरोधियोंको पुनः विचारणा किये बिना और कोई चारा नहीं, यह स्पष्ट मालूम होता है / लेकिन भाविके चिह्न-लक्षण पहलेसे मालूम हो तो अच्छा है / देरसे समझने पर भारी नुकसान हो चुका होगा ! मुगलोंसे जिनमंदिरोकी रक्षाके लिए जिनमंदिरोंको मस्जिदका आकार दे देने तककी दीर्घदृष्टि हमें भी अपनानी होगी / ___ अन्य गच्छकी साध्वी-संस्थाकी हुई दुर्दशामेंसे पू. सेन सूरिजी म.सा.की अगमबुद्धिसे उत्पन्न हुए पट्टकने हमारे तपागच्छको इस आपत्तिमेंसे बचा लिया यहाँ भी एक अच्छी बात बता दूँ की पूजारी द्वारा होनेवाली घोर आशातना-निवारण करना हो तो जैन संघ पुनः उस वंशपरंपरागत पूजारियोंकी वर्तमान पीढीके बच्चोंको ढूँढ निकाले / उनके लिए जिनपूजाविधिकी तालीमशालाका प्रबंध करे और अच्छा मासिक पुरस्कार देकर, उनके साथ सगे भाई-सा व्यवहार करें / इसके लिए शायद एक करोड रूपयोंकी जरूरत पड़ेगी / लेकिनं धनाढ्य श्रीमंतोको उनके धर्मगुरु इस बातको कब समझायेंगे ? इसका अमल कब करायेंगे ? खैर, अब भी सावधान होकर इस कामको त्वरित गतिसे तपागच्छके सर्वोच्च स्थान पर बिराजमान अग्रगण्य आचार्यगण उठा ले तो वह बहुत अच्छा होगा, लेकिन अब भी ऐसा कुछ करना न हो और केवलं संघर्षकी हवा फैलानेवाला अखबारी या अदालती जंग-संघर्ष जारी रखना हो तो फिर कुछ कहना जरूरी नहीं रहता / संघर्ष के किसी मुद्देके साथ रचनात्मक समाधान भी गर्भित रूपसे जुडा रहता है / वह मार्ग एसी बाबतोंमें न अपनाया जाय ? संमेलनके प्रस्तावका विरोध करनेवाले महानुभाव यदि शास्त्राधार देकर अथवा अमुक स्थान पर प्रस्तावोंके पीछे रही पूर्वभूमिका और उसके आशयों को ध्यानमें लेकर यदि 'संपूर्ण एकता' साधनेमें सहायक बने तो ऐसा संगठन बनेगा, जिसके द्वारा जैनशासनका जयजयकार होगा और..... यदि उससे विपरीत संघर्षमयताकी परिस्थिति उपस्थित की जायेगी तो जिनशासनका पारावार अहित होगा / Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 184 धार्मिक-वहीवट विचा Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - परिशिष्ट - 2 देवद्रव्यविषयक ठराव पर चिन्तन ___ - गणि श्री अभयशेखरविजयजी विक्रम संवत २०४४में अहमदाबादमें हुए मुनि संमेलनमें ठराव हुआ कि तथाविध परिस्थितिमें स्वप्न आदिकी उछामनीका द्रव्य कि जो देवद्रव्यके रूपमें प्रसिद्ध है, उसमेंसे भी केसर-सुखड आदि सामग्रीका संपादन करनेकी इस प्रस्तावमें छुट्टी दी गयी है, यह स्पष्ट है / जिससे एक वर्गको यह प्रस्ताव अयोग्य-शास्त्रविरुद्ध, देवद्रव्यको हानिकारक मालूम होता है / वे मुख्यरूपसे निम्नानुसार दलीलें पेश करते हैं : ___(1) श्राद्धविधि' तथा 'द्रव्यसप्ततिका' ग्रन्थमें ऐसा पाठ है कि'देवगृहे देवपूजाऽपि स्वद्रव्येणैव यथाशक्ति कार्या' - अर्थ : देवमंदिरमें देवपूजा भी स्वद्रव्यसे ही यथाशक्ति करनी चाहिए / इसमें स्पष्ट सूचित किया है कि जिनपूजा यह स्वद्रव्यसे ही करनेका अनुष्ठान होने से , देवद्र व्यसे उसे करना, यह शास्त्राविरुद्ध (2) श्राद्धदिनकृत्य और श्राद्धविधि में निम्नानुसार पाठ आता है कि, -- अनुर्द्धिप्राप्तस्तु श्राद्धः स्वगृहे सामायिकं कृत्वा केनापि सह ऋणविवादाद्यभावे ईर्यायामुपयुक्तः साधुवच्चैत्यं याति नैषेधिकीत्रयादि भावपूजानुयायिविधिना / - स च पुष्पादि सामग्यभावात् द्रव्यपूजायामशक्तः सामायिकं पारयित्वा कायेन यदि किञ्चित्पुष्पग्रथनादि कर्तव्यं स्यात् तत्करोति / अर्थ : निर्धन श्रावक अपने घर सामायिक लेकर, किसीके साथ कर्जविषयक विवाद आदि न हो तो साधुकी तरह, ईर्या समितिमें उपयुक्त बनकर तीन निसिही आदि भावपूजानुसारी विधिके पालनपूर्वक देरासर जाय / पुष्प आदि सामग्री न होनेके कारण, द्रव्यपूजामें अशक्त हो तो वह शरीरसे हो सके ऐसे पुष्प-गुम्फन आदि कार्य यदि हो तो वह कार्य सामायिक पार Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 धार्मिक-वहीवट विचार कर करें / ये शास्त्रपाठ भी उस बातका समर्थन करता है कि जिनपूजा तो स्वद्रव्यसे ही करनी चाहिए। यदि अपने पास धन न हो तो शरीरसे संपन्न हो ऐसे देरासर संबंधी अन्य कार्य करें / लेकिन अन्यके धनसे (या देवद्रव्यसे) द्रव्यपूजा न करें / 'उपदेश प्रासाद में आया हुआ अभ्यंकरसेठके नौकरका दृष्टान्त भी इसी बातका समर्थन करता है / ___ (3) 'न्यायद्रव्यविधिशुद्धता' 'पाँच कोडिना फूलडे' आदि भी न्यायोपार्जित स्वद्रव्यसे जिनपूजा करनेकी बात का समर्थन करते हैं / (4) भगवानकी पूजा, यह श्रावक का कर्तव्य है / भगवान को स्वयं अपनी पूजाकी आवश्यकता नहीं / अत: वह भगवानका कार्य नहीं / श्रावक अपना कार्य भगवानके द्रव्यसे कैसे कर पाये ? उपरान्त भगवानकी चीजसे भगवानकी पूजा करनेमें श्रावकको लाभ भी कौनसा होगा ? उसमें भगवानकी भक्ति कौनसी मानी जाय ? (5) उपरान्त, इस प्रकार देवद्रव्यमेंसे यदि जिनपूजा होने लगेगी तो फिर श्रावक स्वद्रव्यसे पूजा करनेका कार्य धीरे धीरे छोडने लगेंगे / (6) प्रतिदिन देवद्रव्यमेंसे केसर-चंदन-दूध आदि आनेसे देवद्रव्यको भारी नुकसान होगा, जो महाअनर्थ का कारण है, उपरान्त इस देवद्रव्यकी हानि होनेसे जीर्ण देरासरोंका जीर्णोद्धार रूक जायेगा / (७)के सर आदिकी व्यवस्था आखिर साधारण द्रव्यमें से हो सकती है / संमेलनने 'देवद्रव्यमेंसे भी यह हो सकेगी' ऐसा प्रस्ताव करनेसे देवद्रव्यको साधारण-द्रव्यमें ले जानेका भयंकर दोष उपस्थित होगा / इस प्रकार शास्त्र और तर्कको ध्यानमें लेते हुए सोचने पर यह स्पष्ट दीख पडता है कि संमेलन द्वारा किया गया प्रस्ताव अयोग्य है, ऐसा विरोधी वर्गका मानना है / संमेलनके प्रस्तावके विरोधी वर्गकी इन दलीलोंके बारेमें थोडा गौरसे सोचे : (1) 'श्राद्धविधि' और 'द्रव्य सप्ततिका के उस पाठका विचार बादमें करें / पहले निम्नलिखित पाठके अर्थ पर गौर करें : Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 187 (ए) 'उपदेशपद में 'संकाश श्रावक के दृष्टान्तमें आता है कि (पृ. 228) 'भणितं च केवलिना यथा चैत्यद्रव्यस्य जिनभवन-बिम्बयात्रा-स्नात्रादिप्रवृत्तिहेतोः हिरण्यादिरुपस्य वृद्धिरूपचयरूपोचिता कर्तुमिति // 807- 5 // अर्थ : केवली भगवंतने कहा कि जिनमंदिर, जिनप्रतिमाकी यात्रा (अट्ठाई महोत्सव), स्नात्र आदि प्रवृत्तियोंको चालू रखनेमें कारणभूत सुवर्ण आदि रूप चैत्यद्रव्य (देवद्रव्य)की वृद्धि करना, यह उचित है / (बी) श्री देवेन्द्रसूरिकृत श्राद्धदिनकृत्य में संकाश श्रावकके दृष्टान्तमें भी यही बात है कि (पृ. 269) चैत्यद्रव्यस्य जिनभवनबिम्बयात्रास्नात्रादि-प्रवृत्तिहेतोर्हिरण्यार्देवृद्धिः कर्तुमुचिता / अर्थ : जिनमंदिर-जिनप्रतिमाकी यात्रा, स्नात्र आदि प्रवृत्तियों को चालू रहनेमें कारणभूत सुवर्ण आदि रूप चैत्य- द्रव्यकी वृद्धि करना उचित है। इन दोनों शास्त्रपाठोंमें देवद्रव्यको स्नात्रपूजा, अट्ठाई महोत्सव आदिके कारणके रूपमें सूचित किया है / यदि देवद्रव्यमेंसे स्नात्रपूजा आदि हो सकते न हों तो उसके कारणके रूपमें बताया न जाता / उपरान्त स्नात्रपूजा आदि हो सके उस प्रयोजनसे उसकी वृद्धि करनेके लिए न कहते / (सी) श्राद्धदिनकृत्य (पृ. 275) सति हि देवद्रव्ये प्रत्यहं जिनायतने पूजासत्कारसंभवः / अर्थ : देवद्रव्य हो तो प्रतिदिन देरासरमें भगवानकी पूजा, सत्कार हो सके / ..' (डी) श्राद्धविधि (पृ. 74) सति हि देवद्रव्ये प्रत्यहं चैत्यसमारचन-महापूजा-सत्कारसंभवः / अर्थ : देवद्रव्य हो तो प्रतिदिन चैत्य समारचन (सुधार कार्य), महापूजा, सत्कार संभवित बने / (ई) धर्मसंग्रह - (पृ. 167) सति हि देवद्रव्ये प्रत्यहं चैत्यसमारचन - पूजासत्कार-संभवः / .. अर्थ :- देवद्रव्य हो तो प्रतिदिन चैत्य समारचन, पूजा, सत्कारका संभव है / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 धार्मिक-वहीवट विचार (एफ) द्रव्यसप्ततिका - (पृ. 25) सति देवादिद्रव्ये प्रत्यहं चैत्यादिसमारचन-महापूजा-सत्कार सन्मानावष्टंभादिसम्भवात् / अर्थ : देवद्रव्य आदि हो तो प्रतिदिन चैत्य समारचन महापूजा - सत्कार सन्मानादिको अवष्टंभ (समर्थन-पुष्टि) प्राप्त होना संभवित होता है। इन चारों पाठोंसे यह स्पष्ट होता है कि देवद्रव्यसे जैसे देरासरका सुधार कार्य (जीर्णोद्धार) हो सकता है, उसी प्रकार भगवानकी पूजा आदि भी हो सकता है / यदि देवद्रव्यसे पूजा आदि संभवित न होते हो तो देवद्रव्यकी विद्यमानतामें पूजा आदिका संभव बताते नहीं / जैसे कि, देवद्रव्यसे ग्रन्थ प्रकाशन आदि शक्य न होनेसे, ‘देवद्रव्य हो तो ग्रन्थप्रकाशनादि संभवित पाये / ' ऐसा कह नहीं सकते, उसी प्रकार देवद्रव्यसे पूजा आदि भी संभवित न हो तो, 'देवद्रव्य हो तो पूजा आदि संभवित बने / ' ऐसा भी कहा नहीं जा सकता, लेकिन स्थान स्थान पर ग्रन्थोंमें उस प्रकार कहा गया है उससे प्रतीत होता है कि 'देवद्रव्यमेंसे पूजा आदि हो सकता है / ' जैसे देवद्रव्यका दुरुपयोग न हो, वैसे उसका सदुपयोग भी करना चाहिए / जो देवकार्य हो, उसमें देवद्रव्यका उपयोग करें, यह उसका सदुपयोग हैं / 'देवद्रव्यकी वृद्धि करे' उस शास्त्रवाक्यका अर्थ ऐसा तो नहीं निकाला जा सकता है कि देवद्रव्यका सदुपयोग भी न कर, केवल उसकी वृद्धि करते रहे / ' (जी) दर्शनशुद्धि (पृ. 252) .. तथा तेन पूजा-महोत्सवादिषु श्रावकैः क्रियमाणेषु ज्ञान-दर्शनचारित्र- गुणाश्च दीप्यन्ते / अर्थ : और उससे (देवद्रव्यसे) श्रावक पूजा, महोत्सव आदि करते हो तो ज्ञान दर्शन-चारित्र गुणा देदीप्यमान हो उठते हैं / इस शास्त्रवचनका विचार करने पर तो ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि संपन्नता न होना आदि कारणसे जहाँ स्वद्रव्यसे पूजा महोत्सवादि न होते हो, लेकिन लाखोंका देवद्रव्य विद्यमान हो, तो उस देवद्रव्यसे भी पूजा-महोत्सवादि करने चाहिए / 'देवद्रव्यमेंसे पूजा आदि हो न सके ऐसा मानकर उसे न करनेवाले स्वपर के ज्ञानादि गुणोंकी ज्यादा विशदतासे वंचित रह जाते हैं / अलबत्त, देवद्रव्यका इसमें बिना सोचे-समझे दुर्व्यय नहीं Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 189 . करना है, लेकिन जिस प्रकार भावोल्लासवृद्धि द्वारा ज्ञानादि गुणोंका अधिकाधिक विकास हो, उस प्रकारकी योग्य व्यवस्थाके अनुसार उसका उपयोग होना चाहिए / (एच) द्रव्यसप्ततिका (पृ. 28) 'चैत्यादिद्रव्यविनाशे विवक्षितपूजादिलोपः, ततः तद्धेतुकप्रमोदप्रभावनाप्रवचनवृद्धेरभावः ततो वर्धमानगुणशुद्धेरोधः, ततो मोक्षमार्गव्याघातः, ततो मोक्षव्याघातः / ' अर्थ : चैत्यादि द्रव्यका विनाश किया जाय तो विवक्षित (ग्रंथमें पहले कही गयी) पूजा आदि रूक जाय / उसके बंध होनेसे उसके निमित्त होनेवाले प्रमोद, (शासन) प्रभावना, प्रवचनवृद्धि आदि रूक जाते हैं / उसके रूक जानेसे, उन प्रमोदादिसें जो गुणोंकी शुद्धि वर्धन होनेवाली थी, उसमें रुकावट आती है, उसकी रुकावटसे मोक्षमार्गका व्याघात होनेसे मोक्ष (मोक्षप्राप्तिका) व्याघात होता है / . जैसे, देवद्रव्यका नाश होनेसे पाठशालाका लोप नहीं होता; क्योंकि देवद्रव्यसे पाठशाला चलायी नहीं जाती / उसी प्रकार यदि देवद्रव्यसे पूजा आदि भी हो न सकते हो तो देवद्रव्यका नाश होने में पूजा आदिका लोप होनेका कारण ग्रन्थकार बताते नहीं / लेकिन बताया है, अतः मालूम होता है कि देवद्रव्यसे पूजा आदि हो सकता है / उपरान्त, जैसे देवद्रव्य नष्ट होनेसे पूजादि न होनेके कारण मोक्षप्राप्तिमें अंतराय तकके दोष विद्यमान हैं, वैसे देवद्रव्य होने पर भी पूजादि कार्य न होते हो तो भी मोक्षप्राप्तिमें अंतराय तकके दोष उपस्थित होते हैं, यह स्पष्ट समझा जाता है अतः उपरोक्त दर्शनशुद्धिके पाठानुसार ही इस पाठसे भी संघकृतव्यवस्था अनुसार देवद्रव्यादिका पूजा आदिमें उपयोग करना चाहिए / - (आई) वसुदेव हिंडी (प्रथम खंड) __ 'जेण चेइयदव्वं विणासिअं तेण जिणबिम्बपूआईसणआणंदितहिययाणंभवसिद्धियाणं सम्मइंसण-सुअओहि-मणपज्जव-केवलनाण-निव्वाणलाभा पडिरुद्धा / ' . अर्थ : जो चैत्यद्रव्यका विनाश करता है वह जिन प्रतिमाकी पूजा देखकर आनंदित हृदयवाले होनेवाले भव्य जीवोंको उसके द्वारा होनेवाली, सम्यग्दर्शन-श्रुत अवधि-मनःपर्यव-केवलज्ञान और यावत् निर्वाण-मोक्षकी Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 धार्मिक-वहीवट विचार प्राप्तिको रोकता है / इस शास्त्रपाठसे भी यह स्पष्ट होता है कि देवद्रव्यसे जिनप्रतिमाकी पूजाभक्ति आदि होता है, जिसे देखकर भव्यजीव हर्षानुभव करनेसे सम्यक्त्वादिकी प्राप्ति करते हैं, देवद्रव्यका नाशक इन सभी गुणोंकी प्राप्तिमें बाधक बनता हैं / इसी प्रकार जिससे भव्यजीवोंके भावोल्लासमें अनोखी वृद्धि हो, ऐसी पूजा-आंगी महोत्सवादि, पर्याप्तमात्रामें देवद्रव्य होने पर भी न किया जाय तो, इन सभी गुणोंकी प्राप्तिमें रुकावट आती है / (जे) उपदेशपद (पृ. 228) संकाशश्रावकके दृष्टान्तमें 'ततोऽस्य ग्रासाच्छादनमात्रं प्रतीतरूपमेव मुक्त्वा यत्किंचित् मम व्यवहरतः सम्पत्स्यते तत्सर्वं चैत्यद्रव्यं ज्ञेयमिति इत्यभिग्रहो यावज्जीवमभूदिति // 408 // 6 // अर्थ : अत:, 'भोजन और वस्त्रकी आवश्यकतासे अधिक मुझे जो भी व्यापारमें प्राप्त हो, उसे देवद्रव्य समझा जाय / ' ऐसा अभिग्रह संकाशश्रावकने यावज्जीवके लिए किया / (के) मूलशुद्धि प्रकरण : 'तओ तेण भगवओ चेव पायमूले गहिओ अभिग्गहो जहा- . गासाच्छायणमेत्तं मोत्तूण सेसं जं किंचि मज्झ वित्तं भविस्सइ तं सव्वं चेइयदव्वं, जहा तत्थोणकारइ तहा करेस्सामि, तओ अचिंतमाहप्पयाए अभिग्गहजणियकुसलकम्मस्स वित्थरिउ- माढतो विभवेणं / पेच्छिउण य विभववित्थरं पमोयाइरेगाओ समुल्लसंत-सुभ-सुभयरपरिणामाइसयसमुन्भिजंतरोमंचकंचुओ करेई जिणभवणाइसुण्ह वणडच्चणबलिविहाणाइं पयट्टावए अट्टाहियामहिमाओ विहइ अक्खयनी (नि)धियाओ कारवेह जिण्णोद्धारे / अर्थ : बादमें संकाशश्रावकने भगवानके सामने ही अभिग्रह लिया कि भोजन-वस्त्रादिकी आवश्यकतासे अधिक जो भी धन प्राप्त होगा. वह देवद्रव्य बनेगा / जिस प्रकार चैत्यके उपयोगमें आयेगा उसी प्रकार (उसका उपयोग) करूँगा / इस अभिग्रहसे उत्पन्न पुण्यका अपार महिमासे उसके वैभवमें वृद्धि होने लगी / यह देखकर अत्यंत प्रमुदित हुए उसके शुभशुभतर अतिशयित परिणाम उभरने लगे / इन उभरते परिणामोंसे रोमांचित हुआ वह जिनमंदिरमें स्नात्रपूजा, बलिविधान करता है / अट्ठाई महोत्सव . कराता है, अक्षयनिधि कराता है, जीर्णोद्धार कराता है / Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 191 देवद्रव्यके भक्षणसे उत्पन्न पापोंके नाशके लिए, संकाश श्रावकने ‘शेष सारा देवद्रव्य होगा' ऐसा अभिग्रह लिया है / अत: वह सारा देवद्रव्य ही बन गया। फिर भी, उसमें से पूजा महोत्सव आदि करायें हैं, यह उसमें स्पष्ट है। विरोधपक्षका इन पाठोंके विषयमें ऐसी मान्यता है कि "ये पाठ पूजाकी विधिके निरूपणार्थ अप्रस्तुत है / ये पाठ तो सचमुच देवद्रव्यकी महिमा विविध प्रकारकी पूजा, महोत्सव, स्नात्र, यात्रादि निमत्त अलग अलग रखे हुए और देवभक्ति निमित्तक होनसे देवद्रव्यरूप पहेचाने जाते तद्तद् प्रकारके देवद्रव्य द्वारा निष्पन्न होते हुए पूजा महोत्सव यात्रादि कार्योंसे उत्पन्न शासनप्रभावना और उससे ऐसे प्रकारकी देवद्रव्यकी वृद्धि करनेके श्रावकके कर्तव्यके विषयमें निर्देश करनेवाले हैं / इस मान्यताके बारेमें विचारणा :. (1) इस प्रस्तुत लेखमें "पूजाकी विधिका निरूपण नहीं हो रहा और विधिके रूपमें ये पाठं रखे गये नहीं है"। ये तो जो सुज्ञ हो, उसके लिए स्पष्ट ही है. / पूजाकी विधिके निरूपणके लिए ये पाठ रखे ही नहीं है, तो फिर 'पूजाकी विधिके निरूपणके लिए अप्रस्तुत है / ' ऐसा कहनेकी कोई आवश्यकता नहीं रहती / ये पाठ तो ऐसा निर्देश करनेके लिए रखे गये हैं कि देवद्रव्यसे पूजा आदि तो हो ही नहीं सकती, एसा एकान्त गलत है, क्योंकि देवद्रव्यंसे भी पूजा आदि हो सकती है ऐसा ये शास्त्रपाठ स्पष्ट निर्देश देते हैं / ' बाकी 'द्रव्य सप्ततिका'का 'स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए', यह पाठ भी व्यापक रूपसे पूजाकी विधिका निरूपण करनेके लिए नहीं, यह इस लेखमें अन्यत्र स्पष्ट किया है / (2) 'ये पाठ तो सचमुच देवद्रव्यकी महिमा जनानेवाले हैं / ' ऐसी मान्यता किस बातकी स्पष्ट ता करते हैं ? देवद्रव्यसे प्रभुपूजा-स्नात्र आदि द्वारा प्रमोद, सम्यक्त्व प्राप्ति आदि महिमारूप है / अतः देवद्रव्यसे पूजा करने में देवद्रव्यकी हानि होगी ऐसा शोरगूल मचाना तो व्यर्थ ही सिद्ध हुआ न ! (3) 'देवद्रव्यरूप पहचाने जाते' ऐसा जो शब्दप्रयोग किया है, उससे तो संशय होता है कि 'सचमुच, इसे देवद्रव्य मानते हैं कि नहीं ?' यदि देवद्रव्य मानते हों तो उसमेंसे पूजा आदि हो सकता है, यह आपके वाक्यसे स्वयं स्पष्ट है / यदि नहीं मानते, तो क्या उसमेंसे साधर्मिक भक्ति आदि अन्य कार्य करनेकी छुट्टी देते हों ? यह तो देनेवाले ही नहीं / अतः, Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 धार्मिक-वहीवट विचार 'यह देवंद्रव्य है और उसमेंसे पूजा आदि हो सकता है / ' यह स्वीकारना योग्य है / प्रश्न : इन पाठोंमें द्रव्यकी जो बात है, उसे हम देवद्रव्य तो मानते ही हैं, लेकिन यह उछामनी द्वारा प्राप्त देवद्रव्य नहीं, लेकिन उससे भिन्न अर्पित प्रकारका देवद्रव्य है / अतः उछामनी द्वारा प्राप्त हुए देवद्रव्यमेंसे पूजा आदि करनेकी छुट्टी नहीं दी जाती..... उत्तर : कोई केवली भगवंत आकर आपके कानोंमें ऐसी स्पष्टता कर गये हैं ? क्योंकि उपर निर्दिष्ट किसी शास्त्रमें ऐसा बताया नहीं है। उपरान्त, 'इन शास्त्रोमें ऐसे देवद्रव्यकी ही चर्चा है / उछामनी आदिसे प्राप्त हुए देवद्रव्य (कि जिसका प्रभुपूजा आदिमें उपयोग किया नहीं जाता उसकी)की यहाँ चर्चा नहीं है / ऐसा यदि समझेंगे तो इन शास्त्रपाठोंमें देवद्रव्यके नाशसे होनेवाले जो अनर्थ बताये गये हैं, वे भी आपके कथनानुसार देवद्रव्यके नाशविषयक ही मानने होंगे और इसके सिवा 'उछामनी आदिसे प्राप्त हुए देवद्रव्यके नाशसे भी ऐसे अनर्थ होते हैं ' ऐसा निर्देश करनेवाला अन्य कोई शास्त्रपाठ तो मिलता ही नहीं। (क्योंकि शास्त्रपाठ जो भी मिलता है उसमें उल्लिखित देवद्रव्यको तो आप उछामनीसे प्राप्त हुए देवद्रव्यसे अलग समझते हैं।) अतः आपकी मान्यतानुसार ऐसा फलित होगा कि उछामनी द्वारा प्राप्त हुए देवद्रव्यके नाश करने में ऐसे ऐसे अनर्थ नहीं होते / " शंका : यह देवद्रव्यके नाशके बारेमें शास्त्रमें जो बातें बतायीं है, उसके उपलक्षणसे ही उछामनी द्वारा प्राप्त देवद्रव्यविषयक बातका शास्त्रमें उल्लेख न होने पर भी, उस देवद्रव्यके नाशके बारेमें भी उसे समझ लेना चाहिए / समाधान : उपलक्षणसे उछामनी द्वारा प्राप्त देवद्रव्यके नाशविषयक बात समानरूपसे ली जा सकती है तो उपलक्षणसे ही, उसके उपयोगके बारेमें भी क्यों न ली जाय ? मतलब कि उपलक्षणसे नाशविषयक बात ग्रहण की जाय और उपयोगविषयकका स्वीकार किया न जाय, उसमें कोई विनिगमक नहीं है / अतः ऐसा मानना योग्य है कि ये सारे शास्त्रकारोंने किसी भी विभागकी विवक्षाकी बिना अपेक्षा किए, सामान्यसे ही देवद्रव्यके उपयोग और उसके नाशसे होनेवाले अनर्थों का निरूपण किया है / और इसी लिए, ये सारे शास्त्र पाठ, देवद्रव्यसे जीर्णोद्धार करनेका विधान जैसे करते हैं वैसे, समान रूपसे, देवद्रव्यसे पूजा, महोत्सवादि करनेका Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ विधान भी करते हैं, यह स्पष्ट है / अतः ‘देवद्रव्यमेंसे पूजा आदि हो न सके, यह बात शास्त्रमान्य नहीं है, यह भी स्पष्ट है / ' फिर भी, 'श्राद्धविधि' तथा 'द्रव्यसप्ततिका के पाठमें देवमंदिरमें देवपूजा भी स्वद्रव्यसे ही की जानी चाहिए, ऐसा निर्देश करनेवाले घरदेरासरविषयक वाक्यांशका आधार पकडकर, इन सभी शास्त्रपाठोंकी ओर उपेक्षा बताकर, 'भगवानकी पूजा तो स्वद्रव्यसे ही संपन्न हो तभी उस पूजाका लाभ प्राप्त होगा, देवद्रव्यसे भगवानकी पूजा करने में तो देवद्रव्यके भक्षणका बड़ा भारी दोष लगेगा' इत्यादि निरूपण करना, उसे सिद्धान्तकी योग्य प्ररूपणा मानी न जायेगी / ता. १४-१२-१९३८के जैन प्रवचनमें कहा गया है कि 'सिद्धान्तके दो बाजु - प्रत्येक सिद्धान्तके दो विभाग-हैं / सिद्धान्तके एक पक्ष या विभागको पकड़ा नहीं जाता / ' प्रस्तुतमें, जिनपूजा स्वद्रव्यसे ही करनी चाहिए / ' यह एक पक्ष है, केवल उसे पकडकर ही चला न जाय / उसे पकड़ लेनेसे एकान्तवादी बन जायेंगे, जो भारी हानिकारक है / ता. १६-१२-१९३९के जैन प्रवचनमें कहा गया है कि ___ 'ऐकान्तवादियोंका कथन कदमकदम पर वदतोव्याघातके दोषसे भरा है / स्याद्वादके विरोधियोंकी सारी बातें 'माता मे वन्ध्या' आदि जैसी ही होती है / ऐसे लोग सन्मार्गके नाशक और उन्मार्गके प्रचारक बने, उसमें सौम्यबुद्धिवालेको लेशमात्र शंका ही नहीं / ' ___ और सचमुच, 'जिनपूजा स्वद्रव्यसे ही की जाय, परद्रव्यसे करनेमें स्वयं कोई लाभ नहीं होता, ऐसा एकान्तवादके ग्राहकको ऐसे दोष लागू हो जाते हैं / 'जिनपूजा स्वद्रव्यसे ही हो / ' ऐसा कहनेवाले पुनः ऐसा भी कहते हैं कि 'साधुके अग्निसंस्कारकी आमदनीमेंसे पूजा महोत्सवादि ए क्यां अपने ही वचनको अपना ही अन्य वचनसे नष्ट करनेका दोष नहीं ? . ऐ हो सके एकान्तवादको पकडनेवाले वर्गको मान्य स्व. आ. श्री रविचंद्र सू. महाराजने भी जुलै-अगस्त १९८३के कल्याण के अंकमें प्रश्नोत्तरविभागमें कहा है कि :. 'सुखी श्रावकों अथवा किसी एक व्यक्ति द्वारा जिनभक्ति निमित्त जो आचरण किया गया हो, उसे कल्पित देवद्रव्य कहा जाय; जैसे अष्टप्रकारी घा.वि. 13 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 धार्मिक-वहीवट विचार पूजा निमित्त बोली जानेवाली उछामनी अथवा स्वप्न बोली / इस द्रव्यका जिनेश्वरदेवकी भक्तिके सभी कार्योंमें उपयोग किया जाय / क्या केसर-चन्दनपूजा आदि जिनेश्वर देवकी भक्तिका कार्य नहीं कि जिससे उसमें देवद्रव्यका उपयोग किया न जाय ? ___'विजयप्रस्थान' नामक पुस्तकमें स्वयं पू. आ. श्री रामचंद्रसूरीश्वरजी महाराजने भी अपना अभिप्राय दिया है कि 'देवद्रव्य जिनभक्ति करनेके लिए, जिनभक्तिके उपकरणोंके लिए उपयोग किया जाय / ' मूलभूत बात यह है कि 'जिनपूजा स्वद्रव्यसे ही की जाय / ' ऐसा उक्त वचन पकडना यह शास्त्रानुसारी बात नहीं, किन्तु अनेक शास्त्रोंसे और स्वयं उस 'द्रव्य सप्ततिका और श्राद्धविधि शास्त्र के अन्य वचनोंसे भी विरुद्ध हैं / क्योंकि उन दोनों ग्रन्थोंमें भी (डी) और (एफ) में निर्दिष्ट शास्त्रपाठों द्वारा देवद्रव्यमेंसे पूजा आदि भी होता है, यह स्वयं स्पष्ट हुआ है / प्रश्र : तो फिर 'देवमंदिरमें देवपूजा भी स्वद्रव्यसे ही यथाशक्ति करें / ' ऐसा 'ही' सहित निर्देश करनेवाला 'द्रव्य सप्ततिका-श्राद्धविधि' में जो पाठ है उसकी ओर क्या आँखे मूंद कर बैठे रहें ? क्योंकि 'ही', देवद्रव्य आदि स्वरूप सभी प्रकारके परद्रव्यसे जिनपूजाके निषेधका आदेश देता है। ___ उत्तर : नहीं, एक भी शास्त्रपाठकी उपेक्षा की' न जाय / लेकिन उस शास्त्रपाठ को यदि ठीक रूपसे देखा जाय तो कोई विरोध या कोई समस्या ही नहीं रहती / शंका तो यह उपस्थित होती है कि 'भोले-भाले लोगोंको गलत मार्ग पर चढ़ानेके लिए ही क्या अधूरा शास्त्रपाठ तो पेश नहीं किया गया ?' ऐसी शंका इस लिये पडती है कि उस समुचे पाठको देखते ही 'सर्वप्रकारके परद्रव्यका व्यवच्छेद करनेके लिए प्रस्तुत पाठमें 'ही'का उपयोग किया है' ऐसी शंका भी खड़ी रह नहीं सकती / देखें उस पाठ को (एल) श्राद्धविधि (पृ. 80), द्रव्यसप्ततिका (पृ. 14) देवगृहे देवपूजापि स्वद्रव्येणैव यथाशक्ति कार्या, न तु स्वगृहढौकितनैवेद्यादिविक्रयोत्थद्रव्येण, देवसत्कपुष्पादिना वा, प्रागुक्तदोषात् / अर्थ : देवमंदिरमें (संघके मुख्यमंदिरमें) देवपूजा भी स्वद्रव्यमेंसे ही यथाशक्ति करें / न कि अपने गृहमंदिरमें समर्पित नैवेद्य आदिका विक्रय Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ . 195 कर प्राप्त रकमसे या भगवानको चढ़ाये फूल आदिसे, क्योंकि ऐसा करनेमें पूर्वोक्त दोष लगता है / इसी ग्रंथाधिकारमें, लोगोंमें व्यर्थकी अपनी प्रशंसा आदि होनेसे अपनेको दोष लगनेका पूर्वे सूचित किया है / अतः पूर्वोक्तदोषके रूपमें वह दोष विवक्षित है / उस (अपने घरदेरासरके) नैवेद्य आदिको बेचकर प्राप्त हुए द्रव्य, कि जो देवद्रव्य है, उससे बडे देरासरमें भगवानकी भक्ति करे. तो लोगोंको उसका पता न होनेसे प्रशंसा करते हैं कि- 'ये श्रावक कैसे भक्तिवाले हैं / स्वद्रव्य का कितना सारा सद्व्यय कर भगवानकी सुंदर भक्ति करते हैं ?' इत्यादि, तो श्रावकको वृथा प्रशंसादिसे वह दोष लगे, यह स्पष्ट इस ग्रंथाधिकारसे निम्न बातें स्पष्ट होती है : (1) यह पाठ स्वद्रव्यसे ही पूजा करनेका जो विधान करता हैं, वह गृह मंदिरवाले श्रावकोंके लिए बड़े देरासरमें करनेकी पूजाके बारेमें है, लेकिन सामान्यतया सभी श्रावक संघमंदिर आदिमें जो पूजा करते हैं, उसके बारेमें नहीं / इसके सिवा दूसरा कोई पाठ तो नहीं मिलता / अतः व्यापक रूपसे सभी श्रावकोंको लागू हो उस प्रकार 'स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए' ऐसा कोई भी शास्त्र निर्देश नहीं देता और उससे अन्य शास्त्राधिकार देवद्रव्यसे भी जिनपूजा होनेकी बातें बतातें हैं, उसके साथ कोई विरोध नहीं रहता / (2) 'प्रागुक्तदोषसंभवात्' ऐसा कहने द्वारा, गृहचैत्यवाला श्रावक उक्त द्रव्यसे मुख्य देरासरमें पूजा करे तो उसे वृथा प्रशंसादिके कारण दोष होनेका संभव बताया है, लेकिन देवद्रव्यभक्षणका दोष बताया नहीं / यह द्रव्य. गृहमंदिरमें समर्पित होनेसे देवद्रव्य तो हो ही गया है / इस देवद्रव्यसे मुख्यमंदिरमें पूजा करनेसे यदि देवद्रव्यभक्षण-देवद्रव्यनाशका दोष लगता हो तो ग्रंथकारने उस दोषका उल्लेख यहीं किया होता, क्योंकि वह बड़ा भारी दोष है / इसी लिए मालूम होता है कि देवद्रव्यसे संपादित सामग्री द्वारा जिनपूजा करने में देवद्रव्यभक्षण, देवद्रव्यनाशका दोष तो लगता ही नहीं / अतः एव 'द्रव्यसप्ततिका के इस ग्रंथाधिकारमें पहले भी कह गये हैं कि 'स्वगृहचैत्यढौकितचोक्षपूगीफलनैवेद्यादिविक्रयोत्थं पुष्पभोगादि स्वगृहचैत्ये न व्यापार्य, नापि चैत्ये स्वयमारोप्यं, किन्तु सम्यक्स्वरूपमुकत्वाऽर्चकादेः पार्थात् तद्योगाभावे सर्वेषां स्फुटं स्वरूपमुक्त्वा स्वयमारोपयेत् / अयापा Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 धार्मिक-वहीवट विचा मुधा जनप्रशंसादिदोषः / अर्थ : अपने गृहमंदिरमें समर्पित चावल, सुपारी, नैवेद्य आदिके विक्रयसे प्राप्त पुष्पभोग आदिका अपने गृहचैत्यमें उपयोग न करें / उपरान्त दूसरे (संघके) देरासरमें आकर भी अपने आप उसे समर्पित न करें / लेकिन उसकी व्यवस्था सूचित कर चैत्यके पूजारी आदिके पास चढ़वान चाहिए / यदि ऐसा हो न सके तो सभीके सामने 'इस गृहमंदिरमें समर्पित चीजोंमें से प्राप्त हुए पुष्पभोग आदि है, मेरे अपने नये द्रव्यसे प्राप्त हुआ पुष्पभोग नहीं' इत्यादि स्पष्टरूपसे विज्ञापित कर अपने हाथों चढ़ाना चाहिए / नहीं तो लोगोंमें अपनी वृथा प्रशंसा आदि होनेसे स्वयं दोषभागी होना पड़े। यदि देवद्रव्य बनी चीजोंसे पूजा करनेसे देवद्रव्यभक्षणका दोष लगता होता तो, लोगोंमें उपरोक्त ढंगसे विज्ञापन करने पर भी, उस चीजका देवद्रव्यत्व दूर न होनेके कारण, देवद्रव्यभक्षणका दोष जैसाका वैसा बना रहता, तो फिर, वैसा विज्ञापनकर उस चीजको भगवानके चरणोंमें समर्पित करनेकी शास्त्रकार अनुझा न देते / (3) संघमंदिरमें जहाँ संघ द्वारा ही योग्य ढंगसे देवद्रव्यमेंसे केसर, चन्दन आदिकी व्यवस्था हो पायी हो, वहाँ कोई श्रावक उस केसर-चन्दनसे प्रभुपूजा करे, तो वहाँ संघ जानता ही है कि यह केसर- चन्दन देवद्रव्यका ही है, यह श्रावकका खुदका नहीं, अतः उसकी वृथा प्रशंसा आदि दोषोंकी संभावना नहीं रहती / तो फिर क्यों श्रावक उस द्रव्यसे पूजा आदि न कर पाये ? यह दोष न रहता हो तो, गृहमंदिरवाले श्रावकको भी उससे मुख्य मंदिरमें पूजा करनेका विधान है, तो सर्व श्रावकोंके लिए भी उस पूजाको विहित मानना ही होगा / इस प्रकार श्रावक स्वद्रव्यसे ही पूजा करें, ऐसी अपनी मान्यता को शास्त्रानुसारी सिद्ध करनेके लिए 'द्रव्यसप्ततिका' और 'श्राद्धविधि का जो पाठ दिया जाता है वही पाठ ही उनकी इस मान्यताको सिद्ध नहीं कर पाता, यह स्पष्ट हुआ / अतः देवद्रव्यसे जिनपूजा हो न सके, यह विधान क नहीं सकता / विरुद्ध पक्षमें उपरोक्त अनेक शास्त्रपाठ देवद्रव्यकी वृद्धिको जा आदिके लिए स्पष्ट रूपसे बताते है / अतः एव वि. सं. १९७६में 2 तमें पू. आ. श्री कमलसूरि म., पू. श्री दानसूरि म., पू. सागरजी म. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 197 परिशिष्ट-२ आदिने निम्नानुसार प्रस्ताव किया है कि (एम) जिनप्रतिमाकी नियमित पूजा करनेके लिए, पूजाके उपकरणोंकी दुरस्तीके लिए और नवीनीकरणके लिए, एवं चैत्योंके जीर्णोद्धारके लिए देवद्रव्यकी वृद्धि और उसकी सुरक्षा बनाये रखे / देवद्रव्यकी सुरक्षा और उसकी वृध्धि देवाधिदेव परमात्माकी भक्ति निमित्त ही की जाती है / ' इस प्रस्ताव पर पू. आ. श्री रामचंद्रसूरिजी महाराजने भी हस्ताक्षर किये हैं, यह ध्यानमें रखा जाय / / बाकी, 'स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए / ' ऐसा एकान्त-वाद शास्त्रकारोंको सर्वथा अमान्य है / सेनप्रश्नमें (पृ. 28) कहा गया है कि (एन ) ज्ञानद्रव्यं देवकार्ये उपयोगी स्यान्नवा ? यदि स्यात्तदा देवपूजायां प्रासादादौ वा इति प्रश्नः उत्तर:..... एतदनुसारेण ज्ञानद्रव्यं देवपूजायां प्रासादादौ चोपयोगी भवतीति / . अर्थ : प्रश्न : ज्ञानद्रव्य देवकार्योंमें उपयुक्त किया जाय या नहीं ? यदि किया जाय तो देवपूजामें या जिनमंदिरादिमें ? उत्तर : ....इस अनुसार ज्ञानद्रव्य देवपूजा और जिनमंदिरादि कार्यों में उपयोगी होता है। ज्ञानद्रव्य यह स्वद्रव्य न होने पर भी उसका जिनपूजामें उपयोग बताया है / उपरान्त, जो लोग ‘स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए' ऐसा आग्रह रखते हैं, उन्हींकी निश्रामें अनेक संघोंमें केसर-चन्दन आदिके वार्षिक चढ़ावे या साधारणके चढ़ावे करके उसमेंसे केसर-चन्दन आदि सामग्री लाने में उपयोग किया जाता है / जिससे अनेक श्रावक पूजा आदि करते हैं / उपरान्त, देवद्रव्यकी व्याख्याका सूक्ष्मतासे विचार किया जाय तो इस केसरचन्दन आदिके चढ़ावेसे प्राप्त द्रव्य भी देवद्रव्य बन जानेसे 'स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए,' ऐसे विधानका अर्थ देवद्रव्यभिन्न द्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए, लेकिन देवद्रव्यसे नहीं / ' ऐसा करनेसे भी बचनेका कोई उपाय हस्तगत नहीं होता / देखें, द्रव्यसंप्ततिका में देवद्रव्यकी दी हुई व्याख्या : (ओ) ओहारणबुद्धिए देवाईणं पकप्पि च जया / जं धणधन्नप्पमुहं तं तद्व्वं इहं णेयं // 2 // अर्थ : नियमबुद्धिसे देवादिकके लिए जो धन-धान्य आदि जिस समय Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 198 .. धार्मिक-वहीवट विचा निश्चित्त किये गये हों, उसे देवादिद्रव्य समझे / वृत्ति : ओहारणेति / अवधारणबुद्धया भक्त्यादिविशिष्टनियमबुद्धया। देवादिभ्यो यद् धनधान्यादिकं वस्तु यदा यत्कालावच्छेदेन प्रकल्पितं उचितत्वेन देवाद्यर्थं एवेदं अर्हदादिपरसाक्षिकं व्यापार्यं न तु मदाद्यर्थे इति प्रकृष्टधीविषयीकृतं निष्ठाकृतमिति यावत् तदा तदिह अत्र प्रकरणे तद्रव्यं तेषां देवानां द्रव्यं देवादिद्रव्यं ज्ञेयं बुधैरिति शेषः / / अर्थ : धनधान्यादि जो वस्तु जब 'योग्यरूपसे श्री अरिहंत आदि पर साक्षीमें इस वस्तुका उपयोग देवादिके लिए ही करे, मेरे अथवा अन्यके लिए नहीं / ' ऐसी प्रकृष्ट बुद्धिके भक्ति आदिसे विशिष्ट निश्चय द्वारा विषयरूप बनाने में आयी हो, उस चीजको तब प्राज्ञपुरुष देवादिद्रव्य स्वरूप समझें / केसर-चन्दन आदि सामग्रीके चढावे से उत्पन्न द्रव्य भी नियमपूर्वक प्रभुजीकी भक्तिमें ही उपयोग करनेका निर्णय-निश्चित है, अत: चढावेके समय जितना द्रव्य निश्चित हुआ हो, वह उसी समयसे देवद्रव्य बन गया है / यदि देवद्रव्यसे जिनपूजा हो सकती न हो तो इस द्रव्यसे कैसे होगी ? उपरान्त, 'स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए, देवद्रव्यसे नहीं।' ऐसा आग्रह 'श्राद्धविधि' ग्रंथके एक अधूरे वाक्यसे ग्रहण करनेसे पूर्व उसी ग्रंथमें अन्यत्र जो कहा गया है कि (पृ. 53.) यत्र च ग्रामादौ आदानादिद्रव्यागमोपायो नास्ति तत्राक्षतबल्यादिद्रव्येणैव प्रतिमाः पूज्यमानाः सन्ति / अर्थ :- जिस ग्राम आदिमें आदानादि द्रव्य प्राप्तिके साधन नहीं वहाँ अक्षत-बलि आदिके (विक्रयसे प्राप्त) द्रव्यसे प्रतिमापूजन हो रहा है, उसका विरोध न हो, उस प्रकार अर्थघटन करना शास्त्रानुसारी कहा जाय / / श्राद्धविधिके इस पाठमें, यत्र च ग्रामादौ स्वद्रव्यसंभवो नास्ति तत्राक्षत...(जिस गाँव आदिमें स्वद्रव्यका संभव नहीं, वहाँ अक्षत.....) आदि कहा नहीं लेकिन 'यत्र च ग्रामादौ आदानादि द्रव्यागमोपायो नास्ति... (जो गाँव आदिमें आदानादि द्रव्यप्राप्तिका संभव न हो वहाँ...) इत्यादि कहा है / इससे प्रतीत होता है कि जहाँ आदानादि द्रव्यप्राप्ति संभवित हो वहाँ, उस द्रव्यसे पूजा करनेमें कोई दोष नहीं / जहाँ उसका संभव न हो वहाँ निर्माल्य द्रव्यके विक्रयसे प्राप्त द्रव्यसे पूजा हो सकती है / उपरान्त, श्राद्धविधिके इस पाठमें 'आदानादि' शब्दसे पूजाद्रव्य सूचित किया गया है / उसके अभाव में Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 199 निर्माल्य द्रव्यसे भी पूजा करनेका निर्देश दिया है / उपरान्त, कल्पित द्रव्य तो देवसंबंधी सर्व कार्योमें (अर्थात् पूजा आदिमें भी) उपयुक्त किया जाता है / उसमें तो किसीको संदेह ही नहीं है / 'इस प्रकार देवद्रव्यके जो तीन प्रकार कहे गये हैं, उनमेंसे ऐसा कोई देवद्रव्य नहीं रह जाता जिसमेंसे जिनपूजा आदि हो ही न सके / इसीलिए ही उपरोक्त अनेक ग्रंथोंके ग्रंथकारोंने सामान्यमेंसे ही देवद्रव्यमेंसे ही जिनपूजा, जीर्णोद्धार आदि कार्य करनेका सर्वसंमतिसे विधान किया है / उपरान्त, इनमेंसे किसी भी शास्त्रमें देवर जिनपूजामें उपयोग करनेका जो निर्देश दिया है उसे अपवादस्वरूप का . रूप सूचित नहीं किया, लेकिन जीर्णोद्धारके साथ साथ मुख्य रूपसे ( उत्सर्गपदसे ही) जिनपूजा करनेका विधान किया है, यह उल्लेखनीय है / अलबत्त, उसका अर्थ यह नहीं होता कि 'जिनपूजा देवद्रव्यसे ही करनी होगी'; क्योंकि श्रावक स्वद्रव्यसे जिनपूजा करे तो उसमें उन्हें ज्यादा लाभ हो सकता है / अपने मन-वचन और कायाको प्रभुभक्तिमें जोडनेसे जो लाभ प्राप्त हो, उसकी अपेक्षा उन तीनोंके साथ अपने धनको भी प्रभुभक्तिमें जोड दे तो उससे बहुत-सा लाभ प्राप्त हो, यह स्पष्ट ही है / अतः श्रावकोंको तो यथाशक्ति स्वद्रव्यसे जिनपूजा करनी ही है, लेकिन देवद्रव्य यदि उपलब्ध हो तो, योग्य रूपसे, उसमेंसे भी, उस स्वद्रव्यकृत प्रभुभक्तिके उपरान्त भी प्रभुजीकी अधिक विशिष्ट भक्ति करनी चाहिए / और स्वद्रव्यकृत वह शक्य न हो तो देवद्रव्यमेंसे भी उसे करनी ही चाहिए; क्योंकि प्रभुभक्ति अधिकाधिक हो उसके लिए देवद्रव्यकी वृद्धि की जाती है, ऐसा उपरोक्त शास्त्रपाठोंका अभिप्राय - अतः, देवद्रव्यमेंसे जिनपूजा करना यह शास्त्रविरुद्ध नहीं, यह सिद्ध होता है। (2) जब इतने सारे शास्त्रपाठ, एक साथ देवद्रव्यमेंसे भी जिनपूजा करनेका स्पष्ट निर्देश देते हैं तब श्राद्धदिनकृत्य और श्राद्धविधिके निर्धन श्रावकविषयक पाठसे 'शक्ति न हो तो शरीरसे हो ऐसा अन्य देरासरविषयक कार्य करना, लेकिन परद्रव्यसे (या देवद्रव्यसे) जिनपूजा न करे / ' ऐसा छिछल्ला अर्थ निकालना यह आत्मघाती नहीं होगा ? Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 धार्मिक-वहीवट विचार सचमच तो, उस पाठमें पुष्पादि सामग्रीका अभाव होनेसे, अन्य कार्य करनेके लिए कहा गया है / स्वद्रव्यका अभाव होने मात्रसे अन्य कार्य करनेको नहीं कहा / अत एव स्वद्रव्यसे पुष्पादि लानेकी संभवितता नहीं, संघ या अन्य किसी व्यक्ति द्वारा भी पुष्पादिकी व्यवस्था है ही नहीं, जिससे वह स्वयं पूजा कर पाये / 'स्वयं लाये गये पुष्पोंका हार बनाकर स्वयं प्रभुजी को चढाये' ऐसा भावोल्लासपूर्ण अन्य श्रावक फूल लेकर आये हैं / मतलब कि निर्धन श्रावक स्वयं भी चढा पाये उसके लिए पुष्पादि सामग्री उपल्बध नहीं / फिर भी उसको कुछ लाभ प्राप्त हो उसके लिए पुष्पगुंफन आदिका विधान उस अधिकारमें किया है / उपरान्त, यह विधान श्रावकके काययोगको प्रभुभक्तिका कार्य करनेके द्वारा सफल करनेके लिए किया है / भले ही धनसे वह श्रावक लाभ ले सकता न हो, शरीरसे तो ले ऐसी अपेक्षासे / इन फूलोंको गूंथना आदिमें उसे जैसे प्रभुभक्तिका द्रव्यस्तव (प्रभुपूजा)का लाभ प्राप्त होता है, वैसे कोई श्रावक, इस निर्धन श्रावकको दो चार फूल देकर कहे कि 'लो, इन फूलोंको चढाओ' तो क्या उन फूलोंको चढ़ानेमें उसका काययोग सफल न होगा ? किसीके फूलोंके गुंफनमें प्रभुभक्तिके भावोंका अनुभव हो और किसीके फूलोंको प्रभुजी को अर्पण करनेमें भक्तिके भावोंका अनुभव न हो, ऐसा माननेमें कोई ही प्रमाण नहीं है / उपरसे उस प्रकार तो 'स्वयंको फूल चढ़ाने का मौका मिले' आदिमें श्रावकको ज्यादा भावोल्लास प्रगट होता है, ऐसा ही प्रायः देखने मिलता है / अतः यह शास्त्रपाठ, ‘अपनी शक्ति न हो तो, दूसरोंको फूलोंका गूंफन कर देना लेकिन स्वयं प्रभुजीको अर्पण कर प्रभुपूजा न करना / ' ऐसा निर्देश नहीं करता, किन्तु 'जब प्रभुजीको चढानेके लिए स्वयंको पुष्प आदि प्राप्त न हो न सके तब भी अन्यके पुष्पोंका गुंफन कर देना आदि द्वारा शारीरिक प्रवृत्तिसे तो प्रभुभक्तिका लाभ लेना ही चाहिए' ऐसा निर्देश करनेवाला है, ऐसा मानना यह पूर्वापर अविरुद्ध, शास्त्रानुसारी योग्य अर्थघटन है। अत एव ही अभ्यंकर श्रेष्ठीके नौकरके दृष्टान्त परसे 'स्वद्रव्यसे जिनपूजा करनेमें ही लाभ होता है' ऐसा नियमको बांधनेकी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए / भगवानके सर्वजनहितकर शासनमें अनेक प्रकारके अनुष्ठान बताये हैं / किसीको अमुक प्रकारके अनुष्ठानसे भावोल्लास प्रगटानेसे लाभ प्राप्त Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 201 हो तो किसीको अन्य प्रकारके अनुष्ठानसे होता है / अत: एकको प्राप्त लाभसे सभी एक ही प्रकारका अनुष्ठान करें, ऐसा नियम बद्धमूल बना दिया नहीं जाता / अन्यथा, परद्रव्यसे सुकृत करने में कोई फायदा नहीं ही होता ऐसी मान्यता जमनेसे अन्य शास्त्रप्रसिद्ध दृष्टांत असंगत हो जानेका बडा भारी दोष उपस्थित होगा / मूलशुद्धि प्रकरणमें पृ. २०३से २०९में जो द्रोणकाख्यान दिया है, उसमें उल्लेख किया है कि 'जब चार मित्र अपने भोजनद्रव्य द्वारा अपनेसेवक द्रोणकको साधुओं को भिक्षादान करनेके लिए कहते हैं तब द्रोणक अत्यंत भक्ति-श्रद्धासे भार्वार्द्र होकर रोमांचित बनकर वहोराता है / इस दानके प्रभावसे वो कुरुदेशमें राजपुरनगरमें कुरुचंद्र नामक राजपुत्र बनता है और भविष्यमें राजा होता है / जब स्वद्रव्यका दान करानेके प्रभावसे, उन चार मित्रों में से दो श्रेष्ठीपुत्र बनते. हैं और दो श्रेष्ठीपुत्रियाँ बनती हैं / अन्तमें राजा और वे चारों दीक्षा ग्रहणकर सद्गति प्राप्त करते हैं और क्रमशः मोक्षप्राप्ति करेंगे ऐसा उस दृष्टान्तमें व्यक्त किया गया है / परद्रव्यसे किये सुकृतका लाभ प्राप्त न होता तो द्रोणकको उस दानकार्यसे राज्य, सद्गति और परंपरासे मोक्षकी प्राप्ति न होती / मुख्य बात यह है कि प्रभुभक्ति आदि करनेकी सद्बुद्धि, भक्तिपूर्ण हृदय आदि महत्वके हैं / ये देवगुरुआदिकी भक्तिके अनुष्ठान परद्रव्यसे करनेके लिए भी, तद्विषय शुभभावनाएँ होनी चाहिए / वे जैसे जैसे प्रगट होती जाती हैं, वैसे अधिकाधिक लाभ प्राप्त होता है / आखिरमें तो द्रव्यकी अपेक्षा भाव ही अधिक महत्त्वके हैं / बिना द्रव्य, भाव उत्पन्न ही नहीं हो सकते, ऐसी मान्यता श्वेताम्बरोंकी नहीं हैं. दिगंबरोकी है, यह ध्यानमें रखे / दूसरेके द्रव्यसे सद्-अनुष्ठान करनेवालेको यदि कोई लाभ प्राप्त न हो तो, उनके भावोंको ध्यानमें रखकर भी लाभमें तरतमताका कोई अन्तर नहीं आना चाहिए, क्योंकि लाभ ही नहीं होता / श्रावकोंके कई नौकर साधुओंको अपनी पूरी श्रद्धा - भक्तिके साथ वहोराते हैं, जबकि कई नौकर अपनी ड्यूटी है ऐसा समझ कर सामान्य ढंगसे वहोराते हैं, फिर भी क्या उनके लाभमें कोई अन्तर नहीं होगा ? परद्रव्यसे संपन्न क्रियासे कोई लाभ ही न होनेवाला हो तो कपिलादासी अन्य दासियोंकी अपेक्षा, दान देनेके विषयमें अलग न पडती और फिर विशेष प्रकारसे उसका जो उल्लेख हुआ है, वह न हो पाता / " Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '202 - धार्मिक-वहीवट विचार जो अपने निजी खर्चसे तीर्थयात्रा कर सके ऐसा नहीं, ऐसे श्रावकः | को अन्य कोई संपन्न श्रावक यात्रा कराये तो निर्धन श्रावक अत्यंत रोमांचित होकर तीर्थयात्रा करता है / उसी प्रकार कोई संपन्न श्रावक पालिताणा श्री आदीश्वरदादाके दरबारमें प्रथम पूजाकी घीकी बोली बोलकर, किसी निर्धन साधर्मिकको प्रथम पूजा करनेका सुअवसर दे तब उसके आनंद-उल्लासकी सीमा नहीं रहती / यह सब क्या अनुभवसिद्ध नहीं ? अन्यके द्रव्यसे होनेवाली तीर्थयात्रासे यदि लाभ प्राप्त न होता हो तो संघ निकालनेका अनुष्ठान ही विहित न होता / ' संघयात्रामें तो वे यात्रालु श्रावक उतने दिनोंके लिए व्यापार, अब्रह्म आदि प्रवृत्तियोंका त्याग करता है, अतः उन्हें लाभ प्राप्त होता है / ऐसी दलील यदि करनी हो तो 'अन्यके द्रव्यसे प्रभुपूजा करने में भी निर्धन श्रावक, उतने समय तक सांसारिक प्रवृत्तिसे दूर हो जाता है / तो उसका लाभ उसे क्यों नहीं ?' ऐसी दलील हो सकती है / उपरान्त संघयात्राविषयक उक्त दलीलसे तो ऐसा सिद्ध होता है कि उसे सांसारिक प्रवृत्तिका त्याग करनेका लाभ प्राप्त हुआ, लेकिन प्रभुभक्तिका कोई लाभ प्राप्त न हुआ, जो उचित नहीं / अतः अन्यके पैसोंसे होनेवाली तीर्थयात्रा या प्रभुपूजामें प्रभुभक्तिका लाभ स्वभावोल्लास अनुसार होता ही है, ऐसा मानना ही उचित होगा / / (3) उपरोक्त अनेक शास्त्रपाठ आदिकी विचारणासे, 'परद्रव्यसे पूजा करनेसे भी लाभ प्राप्त होता है ही।' यह जब शास्त्रमान्यके रूपमें प्रमाणित होता है तब 'न्याय द्रव्यविधि शुद्धता....' आदि परसे 'परद्रव्यसे जिनपूजा करनेसे लाभ प्राप्त नहीं होगा, 'ऐसा माना नहीं जा सकता / न्यायोपार्जित द्रव्य हो तो उत्कृष्ट लाभ हो, 'अन्यायसे प्राप्त हो तो उसकी शुद्धि बनी न रहने से, उतना लाभ प्राप्त न होगा' उतना अर्थ निकाला जाय / संघने या किसी श्रावकने जैसी व्यवस्था की हो, उसी प्रकार उस द्रव्यका उपयोग किया जाय तो, उतनेसे वह द्रव्य अन्यायोपार्जित हो नहीं जाता / हाँ, ' सभी दो दो पुष्प चढाएँ / ऐसी व्यवस्था निश्चित की गयी हो और वहाँ कोई एक ज्यादा फूलको छिपाकर तीन फूल अर्पित करे तो वह अवश्य अन्यायप्राप्त कहा जाय / स्वद्रव्य नहीं उतने मात्रसे यदि अन्यायोपार्जित हो जाता हो तो जंगलमेंसे फूल चुनकर या नदीमेंसे निर्मल जल भरकर प्रभुभक्ति करनेवालेको सुंदर लाभ प्राप्त होनेके अनेक दृष्टान्त Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 परिशिष्ट-२ शास्त्रोंमें दृष्टिगोचर होते हैं, वे न होने पाते / 'पांच कोडिना.....' तो व्यक्ति विशेषको इस प्रकार भारी लाभ प्राप्त हो गया यह सूचित करनार वाक्य है, सभीको उद्देशकर हुआ यह कोई सामान्य विधान नहीं / (4) भगवानकी पूजा यह श्रावकका कर्तव्य है, भगवानको स्वयं अपनी पूजाकी आवश्यकता नहीं' उस बातमें तो किसी विवादको स्थान ही नहीं, क्योंकि भगवान वीतराग है, लेकिन उतनेसे ही भगवानकी पूजा 'भगवानका कार्य (देवकार्य) नहीं।' ऐसा नहीं कहा जाता, क्योंकि पूर्वाचार्योंने उसे स्वशास्त्रोंमें देवकार्यके रूपमें माना है / देखें धर्मसंग्रह (पृष्ठ - 168) __(पी) उचितानि चैत्यसंबंधीयोग्यकार्याणि एतच्चेत्यप्रदेशसंमार्जनचैत्यभूमिप्रमार्जन-पूजोपकरणसमारचन-प्रतिमापरिकरादिनैर्मल्यापादनविशिष्ट-पूजा-प्रदीयादिशोभाविर्भावन-प्रभुतीनि / अर्थ : चैत्यके . प्रदेशको साफ रखें, मंदिरकी भूमि पर झाडू लगाये, पूजाके उपकरणका समाचरन करें, प्रतिमा-परिकर आदिको स्वच्छ . रखें, विशिष्ट पूजा करें, दीपक आदिकी रोशनीसे शोभा बढाये आदि चैत्यसंबंधी (चैत्यसे) उचित कार्य हैं / (एन) में सेनप्रश्नका जो अधिकार दिया है, उसमें भी देवकार्यके रूपमें देवकी पूजा और मंदिर, उन दोनोंका स्पष्ट उल्लेख किया है / __उपरान्त, उपर्युक्त अनेक शास्त्रपाठोंमें देवद्रव्यवृद्धिके प्रयोजनके रूपमें जिनमंदिरके जीर्णोद्धारके साथ साथ जिनपूजा आदिका निर्देश किया है / वह भी पूजाको देवकार्यके रूपमें निर्णीत करता है / उपरान्त, जिनपूजाकी तरह जिनमंदिर भी श्रावकका ही कर्तव्य है / भगवान जैसे अपनी पूजा स्वयं नहीं चाहते, उसी प्रकार अपना मंदिर-उस मंदिरकी शोभा-भव्यता भी नहीं चाहते / फिर भी, यदि वह देवकार्य है, तो पूजा क्यों नहीं ? नूतन जिनालय निर्माण देवद्रव्यमेंसे हो सके ऐसा निर्देश करनेवाला एक भी शास्त्रपाठ दृष्टिगोचर नहीं हुआ, फिर भी अनेक स्थलोंमें देवद्रव्यमेंसे वह होता है और सभी पूजनीय आचार्य भगवंत, उसे मान्य रखते हैं, जब देवद्रव्यमेंसे जिनपूजा करनेके उल्लेख तो स्थान स्थान पर शास्त्रोमें नजर आते हैं, उसीका विरोध क्यों किया जाता है ? Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 धार्मिक-वहीवट विचार . देवद्रव्यसे लाखों रूपयोमेंसे भव्य जिनमंदिर तैयार हो, उसमें कार्यकर्ताओंने भी भगवद्भक्ति की ऐसा कहा जाय और प्रशंसापात्र बने तो देवद्रव्यमेंसे जिनपूजा करनेवालेने भी प्रभुभक्ति की है, ऐसा क्यों कहा न जाय ? देवद्रव्यमेंसे बनाये मुगुट आदि आभूषण प्रभुजीको समर्पित करने में भक्ति हो और फूल चढानेमें न हो, ऐसा अर्धदग्ध न्याय क्यों ? देवद्रव्यमेंसे देरासरकी सुंदर कोतरणी आदि द्वारा शोभा आदी की जाय और प्रतिमाजीकी फूलों द्वारा शोभा आदि की न जाय ? . . भगवानके मालसे (देवद्रव्यसे) भगवानकी भक्ति करने में श्रावक को लाभ भी क्या होगा ? ऐसा प्रश्न करना भी उचित नहीं; क्योंकि लाभ होने, न होनेमें मुख्यरूपसे भावोल्लास ही केन्द्रमें होता है / देवद्रव्यसे पूजा करनेवालेको भावोल्लास पैदा ही न हो, ऐसा माननेका कोई कारण नहीं / देवद्रव्यसे निर्मित भव्य मंदिरके दर्शनसे भी अगर भावोल्लास महसूस होते हे, तो देवद्रव्यमेंसे पूजा करनेमें क्यों महसूस न होने पाये ? द्रव्यसप्ततिकामें देवद्रव्यका नाश करनेसे पूजा आदिके लोप होनेके कारण, उस पूजासे होनेवाले प्रमोदका अभाव निर्दिष्ट किया है / (देखें पाठ एच) इससे स्पष्ट होता है कि देवद्रव्य हो तो उससे पूजा की जाय और ऐसी पूजा करनेसे श्रावकको हर्ष-भावोल्लास महसूस होता है / वसुदेव हिंडीमें बताया गया है कि जो चैत्यद्रव्यका विनाश करता है वह जिनबिम्बकी पूजाको देखकर आनंदित होनेवाले भव्य जीवोंको सम्यक्त्वादिकी प्राप्तिमें अवरोध पैदा करता है / (देखें पाठ आई) इससे भी स्पष्ट होता है कि देवद्रव्य हो तो उससे जिनपूजा हो, जिसे देखकर भव्यजीवोंको आनंद महसूस होता है / देवद्रव्यसे होनेवाली जिनपूजाके दर्शनसे भी आनंदोल्लास महसूस होता हो तो देवद्रव्यसे जिनपूजा करने में वह महसूस न हो, ऐसा कैसे कह सकते हैं ? और देवद्रव्यसे पूजा करने में मन प्रसन्नताका यदि अनुभव करता है तो भगवानकी भक्ति नहीं की, ऐसा कैसे कहा जाय ? केसर-चंदन आदिकी तरह जिनमंदिर और जिनप्रतिमा भी प्रभुभक्तिके कारण सामग्रीमें समाविष्ट है, क्योंकि यह न हो तो भी द्रव्यपूजा द्वारा होनेवाली प्रभुभक्ति हो नहीं सकती / प्रभुभक्तिकी सामग्री स्वरूप जिनमंदिर और जिनप्रतिमा स्वद्रव्यके न हो (देवद्रव्यके भी हो) तो भी भक्ति की है ऐसा कहा जाता है, तो प्रभुभक्तिकी सामग्री स्वरूप पुष्पादि स्वद्रव्यके न हो, Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 205 उतनेसे ही 'उसमें भगवानकी भक्ति क्या की ?' ऐसा प्रश्न कैसे उठाया जा सकता है ? इन्द्र द्वारा मँगवाये क्षीरसमुद्रके पानी आदि सामग्री द्वारा सभी देव प्रभुजीका अभिषेक करते हैं / यह सामग्री तत्तद् देवादिको स्वद्रव्यरूप नहीं, क्या उसीके कारण उनके लिए ऐसा कहा जाय कि 'परद्रव्यसे अभिषेक किया, उसमें भक्ति कौनसी की ?' उनके भक्तिभावकी प्रशंसा करते हुए शास्त्रकारोंने कहा है कि_ 'येषामभिषेककर्म कृत्वा मत्ता हर्षभरात्सुखं सुरेन्द्राः तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः // ' अर्थ : जिनेश्वरदेवोंके जन्माभिषेककी क्रिया कर हर्षित हुए देवेन्द्र, इस जन्माभिषेक करनेसे महसूस किये आनंदके समक्ष स्वर्गसुखको तृणवत् भी नहीं गिनते, वे जिनेन्द्र प्रात:काल कल्याणकर बनो / ' (5) 'इस प्रकार देवद्रव्यमेंसे यदि जिनपूजा होने लगेगी तो फिर श्रावक स्वद्रव्यसें पूजा करनेका ही धीरे धीरे छोड देंगे / ' यह बात तो सिर्फ एक काल्पनिक भय दिखानेके अलावा दूसरा कुछ नहीं, ऐसा लगता आज कई स्थानों पर देवद्रव्यके लाखों रूपये खर्चकर जिनमंदिरें बनाये जाते हैं फिर भी 25-50 लाख रूपयेका स्वद्रव्य लगाकर जिनमंदिर निर्माण करनेवाले पुण्यशाली श्रावक आज भी जैनसंघमें विद्यमान हैं / अपने संघमें जिनालय निर्माणके लिए चारों ओरसे लाखोंका देवद्रव्य प्राप्त हो सके ऐसी संभवितता होने पर भी, अपने संघमेंसे ही 'टीप' आदि कर जिनमंदिर खडा करनेकी भक्ति-भावनावाले अनेक संघ आज भी विद्यमान हैं / देवद्रव्यसे जिनमंदिर निर्मित हो सकता है फिर भी लाखों रूपयोंसे होनेवाले जिनमंदिर निर्माण जैसे कार्य स्वद्रव्यसे होनेसे रूक गये नहीं है तो केसर-चंदन-पुष्पादि सामग्री स्वद्रव्यसे आती हुई रूक जायेगी, ऐसी कल्पना कैसे की जाय ? इसी प्रकार आंगी-मुकुट-आभूषण आदि भी अनेक स्थान पर देवद्रव्यमेंसे बनाये जाते हैं, फिर भी हजारों लाखों स्वद्रव्यमेंसे खर्चकर, हीरा-सोनाचाँदीके गहने बनवाकर श्रावक प्रभुजीको समर्पित करते हैं / ज्ञानद्रव्यमेंसे अनेक ग्रंथ प्रकाशित होते हैं फिर भी उनके प्रकाशन का लाभ, हजारों रूपयोंके स्वद्रव्यसे, श्रावक लोग आज भी लेते हैं / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 धार्मिक-वहीवट विचार . __प्रायः प्रत्येक देरासरमें संघकी ओरसे केसर-चन्दन आदिकी व्यवस्था की जाती है / फिर भी, स्वद्रव्यसे पूजा करनेवाले हजारों श्रावक हैं और पूजा करते करते भक्तिभाव आदिमें वृद्धि होनेसे और महात्माओंके उपदेश आदिसे, स्वद्रव्य द्वारा पूजा करनेवालोंकी संख्यामें शत-प्रतिशत बढ़ावा होता जा रहा है / साधारणविभागमेंसे केसर आदिको व्यवस्थाके बारेमें 'स्वद्रव्यसे पूजा करनेवाले कम हो जायेंगे' आदि भय न दिखाये और जहाँ उसकी भी शक्यता न हो, ऐसे किसी स्थल पर देवद्रव्यमेंसे उसकी व्यवस्था की जाय तो ऐसा भयस्थान दिखाना कितना उचित होगा ? बाकी तो, आज विषमकालमें भी, जो श्रावकसंघ प्रतिवर्ष प्रभुके प्रति उभरती भक्तिसे चढ़ावे आदिमें करोडों रूपयोंका सद्व्यय करता है, उस श्रावकसंघके लिए, किसी ऐसे गाँव आदिमें देवद्रव्यमेंसे केसर आदिकी व्यवस्था करने मात्रसे, 'श्रावकोंको देवद्रव्यके मुफ्तके मालसे प्रभुपूजा करनेकी आदत पड जायेगी और उसमें 5-25 रूपये खर्च करनेका बंदकर बचत करनेकी वृत्तिवाले वे बन जायेंगे / ' ऐसी कल्पना भी कैसे हो सकती है, यह एक प्रश्न है / जिन्हें ऐसी कल्पना होती हो, उन्हें पक्षपात छोडकर तटस्थतासे आत्मनिरीक्षण करनेकी आवश्यकता है, ऐसा क्या महसूस नहीं होता ? (6) 'प्रतिदिनकेसर-चन्दन आदिका देवद्रव्यमेंसे उपयोग होगा तो देवद्रव्यको नुकसान होगा' ऐसी दलीलें भी गलत हैं / पहली बात तो यह है कि यह देवद्रव्यकी हानि है या सदुपयोग ? जो द्रव्य, जिस प्रयोजनसे एकत्र किया गया हो, उस द्रव्यका उचित व्यवस्थाके साथ उसी प्रयोजनके लिए उपयोग किया जाय, उसे भी 'विनाश ' कहा जाय तो फिर जीर्णोद्धार आदिमें देवद्रव्यका उपयोग भी देवद्रव्यका दुर्व्यय माना जायेगा / क्योंकि देवद्रव्यकी वृद्धिके प्रयोजन स्वरूप जिनपूजा और जीर्णोद्धार दोनों साथ साथ उनउन ग्रंथोमें निर्दिष्ट किये हैं / और इस प्रकार जीर्णोद्धारादिमें होनेवाले उपयोगको भी यदि हानिरूप मानना हो तो उसे भी बंद कर देनेसे देवद्रव्यकी केवल कंजूसके धनकी तरह वृद्धि ही करनी होगी / उसका कोई उपयोग तो कर ही नहीं पायेंगे, जो किसी भी तरह शास्त्रसंमत नहीं है / जैसे ज्ञानविभागमेंसे, किसी साधु-साध्वीजी महाराजको पढ़ानेवाले ब्राह्मण Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 207 पंडितको वेतन दिया जाय, या ग्रन्थ प्रकाशन किया जाय तो उसका सदुपयोग कहा जाता है, क्योंकि यही उसका प्रयोजन है / उसी प्रकार देवद्रव्यमेंसे प्रभुभक्ति हो तो उसे भी उसका सदुपयोग क्यों माना न जाय ? वह भी उसका ही प्रयोजन ये तो आगे कहे गये अनेक शास्त्रपाठ एकमतसे जनाते है / उपरान्त, जैसे साधुको पढ़ानेवाले अजैन पंडितको ज्ञानविभागमेंसे वेतन देने पर, 'यदि इस प्रकार उसमेंसे वेतन दोगे तो ग्रन्थप्रकाशन आदि रूक जायेगा, अतः उसे न दिया जाय' ऐसा कहकर उसे रोका नहीं जाता, क्योंकि ऐसा वेतन देना, यह भी एक प्रयोजन है, अन्यथा इन साधु-साध्वीजीके पढ़ानेका काम रूक जानेसे नुकसान होगा उसी प्रकार 'यदि इस प्रकार देवद्रव्यमेंसे, जहाँ अन्य रूपसे व्यवस्था संभवित नहीं, वहाँ केसर-चंदन आदिकी व्यवस्था कर दी जाय तो जीर्णोद्धार आदि काम रूक जायेगा, आदि कहकर उस व्यवस्थाको रोकी नहीं जाती / अन्यथा प्रभुभक्ति न होनेका नुकसान होगा, जो उचित नहीं / (7) 'देवद्रव्यमेंसे केसर-चन्दन आदि लाया जाय ऐसी संमति देना अर्थात् देवद्रव्यको साधारणमें ले जाना / ' ऐसा कथन तो बेहद हास्यास्पद है और बोलनेवालोंकी मनोवृत्तिके बारेमें शंका पैदा करनेवाला है / जिनमेंसे श्रीजिनेश्वरदेवकी भक्ति आदि कार्य तो हो ही सकता है, लेकिन ग्रन्थप्रकाशनादि ज्ञानकार्य, साधु-साध्वीजी महाराजकी भक्ति-वैयावच्च, पौषधशाला संबंधी खर्च, साधर्मिक भक्ति आदि भी हो सके उस द्रव्यको 'साधारण द्रव्य के रूपमें संघमें प्रसिद्धि मिली है, उसे प्रायः सभी जानते हैं / क्या संमेलनने स्वप्नद्रव्य आदिको इन सभी कार्योमें उपयुक्त करनेकी छुट्टी दे रखी है कि जिससे देवद्रव्यको साधारणमें ले जानेका आरोप किया जाय ? संमेलनने तो मात्र, जहाँ आवश्यकता हो वहाँ, भगवानकी भक्तिके लिए ही केसर-चंदन आदि सामग्री या पुजारीका वेतन आदि उसमेंसे दिया जाय, ऐसा कहा है / श्री जिनेश्वरदेवकी भक्तिके अलावा अन्य किसी भी काममें देवद्रव्यका उपयोग करनेका संमेलनने स्पष्ट रूपसे विरोध किया है / जहाँ पूजारी ही उपाश्रयका भी काम करता हो, वहाँ उतना वेतन साधारणखातेमेंसे ही देना चाहिए, एसा दबदबाकर संमेलनमें सम्मति देनेवाले आचार्य भगत निवेदित करते हैं / Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 धार्मिक-वहीवट विचा उपाश्रय आदिके कार्यों में भी जो द्रव्य उपयोगमें लाया जा सकता हो, उसे साधारण द्रव्य कहा जाय ऐसा विरोधी वर्ग भी अच्छी तरह जानता है, फिर भी ये लोग तो देवद्रव्यको साधारण विभागमें घसीट गये' ऐसा जो आक्षेप करते हैं, उसके पीछे क्या हो रहा है, उसका प्रत्येक सुज्ञ जिज्ञासु व्यक्ति- श्रावक तटस्थतासे विचार करें / पक्षपात एक ओर रखकर सोचनेकी तत्परता, वह माध्यस्थ्य है, वही जीवको आत्मकल्याणके मार्ग पर आगे बढा सकता है / शक्ति और शक्यता पूर्णरूपसे होने पर भी, अन्य सभी बातोंको सुननेकी या सोचनेकी कोई तैयारी ही होने न दे, ऐसी किसी भी पक्षकी अत्याग्रहिता आत्महितकी बाधक है, ऐसा सूरिपुरदर श्री हरिभद्रसूरि महाराज, महोपाध्यायश्री यशोविजयजी महाराज आदि शास्त्रकारोंका स्पष्ट अभिप्राय है / इस बातका प्रत्येक आत्महितेच्छु ध्यान रखें / प्रस्तुत लेखको भी किसी भी पक्षके आत्यंतिक आग्रहके सिवा शान्तचित्तसे माध्यस्थ्यपूर्वक सर्व आत्महितेच्छु सोचे-पढ़े ऐसा विशेष आग्रह-प्रार्थना है / शंका - . ___ महोपाध्यायश्री यशोविजयजी विरचित सवासौ गाथाके स्तवनकी 8 वें ढालकी अन्तिम गाथा ऐसी है : 'तो मुनिने नहीं किम पूजना, एम तुं शुं चित्ते शुभ मना ? रोगीने औषध सम एह, निरोगी छे मुनिवर देह / ' इसका अर्थ ऐसा है कि - गृहस्थको परिग्रहका रोग लगा है / मुनिको वैसा रोग नहीं, अतः परिग्रहका रोग निकालनेके लिए द्रव्यपूजा गृहस्थके लिए आवश्यक है / अब यदि देवद्रव्यसे पूजा की जाय तो अपने द्रव्यरूप परिग्रह रोग तो कायमी ही बन जायेगा न ? यह रोग तभी ही दूर होगा, यदि स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा की जाय / समाधान : जिनपूजा वह द्रव्यस्तव है और वह भावस्तव(चारित्र)की प्राप्तिके लिए है, ऐसा शास्त्रोमें अनेक स्थल पर उल्लेख हैं / चारित्रमें परिग्रहसे विरमण भी होता है ही / अतः परिग्रहका रोग हटानेके लिए जिनपूजा है, यह मान्य ही है, लेकिन 'इस रोगको मिटानेके लिए ही है / उसका अन्य कोई प्रयोजन नहीं है, ऐसी यदि मान्यता हो तो, उसे शास्त्राभ्वास की अपूर्णता ही मानी जायेगी / Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 209 महोपाध्यायश्री यशोविजयजी महाराजके 'द्वात्रिंशत् द्रात्रिंशिका' प्रकरणमें प्रथम ‘दानबत्रीसी में ऐसा पाठ है : "यद्यपि जिनार्चादिकं भक्त्यनुष्ठानमेव, तथापि तस्य सम्यक्त्वशुद्ध्यर्थत्वात्तस्य चानुकंपालिंगकत्वात्तदर्थकत्वमप्यविरुद्धमेवेति // " ____ अर्थ : (अनुकंपा अनुष्ठानमें जिनपूजाका ग्रन्थकारने उदाहरण दिया है, अतः कोई शंका करें कि यह तो भक्ति अनुष्ठान है, अनुकंपा-अनुष्ठान नहीं, तो उसका समाधान देते हुए उपाध्यायजी महाराज कहते हैं / ) यद्यपि जिनपूजा आदि भक्ति अनुष्ठान ही है, फिर भी वह सम्यक्त्वशुद्धिके लिए है और सम्यक्त्वका अनुकंपा लिंग होनेसे 'जिनपूजा अनुकंपाके लिए है' ऐसा कहना भी अविरुद्ध है / . पंचलिंगी ग्रन्थमें भी इस प्रकारकी व्यवस्था बतायी है / अतः जिनपूजा सम्यक्त्वशुद्धि आदिके लिए भी है ही / प्रभुपूजा, तीर्थयात्रा आदि दर्शनाचारके आचार है / उनसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति-शुद्धि-स्थिरता प्राप्त होती है, ऐसी बातें अनेक शास्त्रोमें आती हैं / 'अष्ट द्रव्यशुं पूजो भावे, समकित मूल आधारा रे.....' 'तुम दरिसणथी समकित प्रगटे निजगुण ऋद्धि अपार रे......' आदि स्तवनकी पंक्तियाँ भी इस बात को स्पष्ट करती हैं / ____देवद्रव्यकी उपेक्षा-विनाश आदि और जिनमंदिर संबंधी आशातनाओंको सम्यग्दर्शन(दर्शनाचार)के अतिचारोंमें समाविष्ट की है / इससे भी स्पष्ट होता है कि देरासर-देरासरमें होनेवाली भक्ति, देवद्रव्यकी रक्षा- उससे होनेवाली प्रभुपूजा-जीणोद्धार आदि कार्य, सम्यग्दर्शनकी आराधना है और उससे विपरित, देरासरकी आशातना, देवद्रव्य विनाश आदि दर्शनाचारकी विराधनारूप है / इन तमाम बातोंसे सिद्ध होता है कि प्रभुपूजा सम्यग्दर्शनकी शुद्धिके लिए भी है ही / अतः यदि तथाविध परिस्थितिमें देवद्रव्यादिसे पूजा की जाय, और उससे इस लेखमें अन्यत्र कथनानुसार प्रसन्नता आदिका अनुभव हो तो सम्यक्त्वकी प्राप्ति-शुद्धि आदि क्यों न होने पाये? और तो फिर मिथ्यात्व नामक रोग मिट गया या मंद हो पाया ऐसा क्यों न कहा जाय ? और तो फिर, उस पूजाको व्यर्थ कैसे कहें ? अब दूसरी बात, आपने जो कहा कि 'देवद्रव्यसे पूजा कर लेनेमें अपने द्रव्यरूप परिग्रह रोग तो हमेशाके लिए रहेगा न / ' उसके बारेमें सोचें....... संमेलनने देवद्रव्यमेंसे केसर आदि सामग्री लानेकी छुट्टी मुख्यतया जिसके घा.वि. 14 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 धार्मिक-वहीवट विचार पास ऐसी शक्ति नहीं उसे दी है / अतः उसके पास द्रव्यरूप परिग्रह ही नहीं है तो रोग कायम रहनेकी तो बात ही कहाँ ? और पूरी शक्ति होने पर भी जो स्वद्रव्यसे जिनपूजा नहीं करता, अन्यके द्रव्यसे करता है, उसका परिग्रहका रोग दूर होगा या नहीं, उसे - सोचें...... ... एक व्यक्तिके पास लाख रूपये हैं / उसमें से रू. 1,000 का सव्यय कर, वह स्वद्रव्यसे प्रभुभक्ति करता है / उसकी यह पूजा स्वद्रव्यसे होनेके कारण परिग्रहरोग नाबूद करनेमें सक्षम है, यह बात सामान्यतया तो उभय पक्ष संमत है / मेरा प्रश्न इतना ही है कि वह पूजा उसके खर्च किये रू. १,०००के अंशके परिग्रह रोगका नाश करेगी या प्रभुपूजामें सद्व्यय न की गयी और उस व्यक्तिके पास बची रू. 99,000 की रकमके अंशका परिग्रह रोगका (सर्वथा या आंशिक रूपमें) नाश करेगी ? ___ रू. 1,000 के अंशभूत परिग्रह रोगका नाश करेगी / ' ऐसा यदि कहेंगे तो उसका अर्थ यह हुआ कि 'प्रभुपूजाने तो इसमें कुछ काम नहीं किया, क्योंकि रू. 1,000 की मूर्छाका त्याग तो उस व्यक्तिने स्वयं ही किया है / ' लेकिन उसके दिलमें रू. 1,000 का सद्व्यय करनेका जो भाव स्फुरित हुआ, इसीमें प्रभुपूजाका तात्पर्य है / ' ऐसा कहना उचित नहीं, क्योंकि रू. 1,000 के सद्व्ययका भाव तो पहले ही जागृत हुआ है / प्रभुपूजा तो उसने बादमें की है और बादमें बाकी रहे रू. 99000 परकी मूर्छा हटानेका सामर्थ्य प्रभुपूजामें नहीं, ऐसा आपका कहना है / अतः स्वद्रव्यसे की गयी प्रभुपूजाने भी उसे कोई लाभ नहीं कराया, ऐसा माननेकी नौबत आयेगी / अत: आप अब ऐसा कहेंगे कि 'उसके पास रहे रू. 99000 परकी मूर्छाका (आंशिक या सर्वथा) नाश प्रभुपूजा करेगी।' तो उसका अर्थ यह हुआ कि 'जो द्रव्य प्रभुपूजामें उपयुक्त नहीं हुआ, उसके परकी मूर्छाका भी नाश करनेका सामर्थ्य प्रभुपूजामें है / ' (यही अर्थ उचित और तो पुनः अपने पास लाख रूपये होने पर भी, जो अप्रत्या. या प्रत्या. कक्षाके प्रबल लोभके कारण देरासरकी सामग्रीसे प्रभुपूजा करता है, वही पूजा जो लाख रूपयोंका द्रव्य प्रभुपूजामें उपयुक्त हुआ नहीं, उसके Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 211 उपरकी उसकी मूर्छाका, उसके भावोल्लासानुसार न्यूनाधिक रूपसे नाश करेगा' ऐसा मानना ही चाहिए / ऐसे लोभोदयके कारण, कोई लोभी अपनी संपत्ति परकी मूर्छा का त्याग नहीं कर सकता, लेकिन उसे मूर्छाकी भयंकरता समझमें आयी होनेके कारण मूर्छा खटकती है / उससे मुक्ति पानेकी उसकी तीव्र इच्छा है, लेकिन लोभोदयके कारण, साथ साथ कायरता भी मिलीझुली है / लेकिन साथमें ऐसी प्रबल श्रद्धा भी है कि इस भगवानकी भक्ति मेरी मुर्छाको अवश्य चकनाचूर कर देगी / ऐसी प्रबल श्रद्धाके साथ वह अन्य द्रव्यसे प्रभुपूजा करे तो क्या उस प्रभुपूजामें उसकी मूर्छा तोडनेका सामर्थ्य नहीं ? "भले, स्वद्रव्य उपरकी मूर्छा तोडनेकी इच्छा, वैसी श्रद्धापूर्वक प्रबल होती हो, फिरभी यदि स्वद्रव्यको जैसाका वैसा बनाये रख, परद्रव्यसे प्रभुपूजा की जाय, तो वह प्रभुपूजा उसकी मूर्छाको तोड नहीं सकती / " ऐसा जो समझते हों, उन्हें प्रभुपूजाका कैसा अचिन्त्य महिमा है, उसकी जानकारी नहीं है, ऐसा खेदपूर्वक कहना पडता है / जैसे अपने क्रोध पर काबू पानेमें जो कायर है फिर भी क्रोध से मुक्त होनेके लिए जो प्रभुको शरणमें आता है और प्रभुपूजा करता है, उसके क्रोधको नष्ट करनेकी क्षमता प्रभुपूजामें है, जैसे अपनी कामवासनाको थोडी-सी भी कम करनेका सामर्थ्य, जिसे अपनेमें दीख नहीं पडता, फिर भी कामवासनाको तिलांजलि देनेके लिए जो प्रभुशरणमें आकर भक्ति करता है, उसकी कामवासनाको शान्त करनेका सामर्थ्य प्रभुपूजामें है / वैसे अपने लोभको जरा भी दूर न कर सकनेवाला, उसे छोडनेके लिए प्रभुशरणमें आकर प्रभुपूजा करे तो उसके लोभको तोडनेका अचिन्त्य माहात्म्य प्रभुपूजामें है, है ओर है ही..... 'प्रभुपूजा क्रोधीके क्रोधको दूर करती है....... कामीके कामको शान्त करती है.... लोभीके लोभको खत्म करती है...... यही देवाधिदेवका अनेकोंमेंसे एक अचिन्त्य माहात्म्य है / उसे प्रत्येक जन अपने दिलमें बनाये रखे / / - सावधान- (1) स्वद्रव्यसे होनेवाली जिनपूजाको यह लेख गौण स्थान देता है, ऐसा वक्र अर्थ कोई भूलसे भी न निकाले / 'स्वद्रव्यसे Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 धार्मिक-वहीवट विचार जिनपूजा करनेमें श्रावकको अधिक लाभ प्राप्त होता है' यह स्पष्ट ही है, लेकिन जहाँ वैसी शक्यता न हो और साधारण विभागमेंसे भी उसकी शक्यता न हो, वहाँ स्वप्रकी बोली आदिसे प्राप्त हुए द्रव्यसे भी सामग्रीकी व्यवस्था कर जिनभक्ति हो सकती है, ऐसा संमेलनने जो निर्णय किया है, वह शास्त्रसे अविरुद्ध है कि 'जिनभक्ति स्वद्रव्यसे ही होनी चाहिए, देवद्रव्यसे हो ही नहीं सकती / ' ऐसा जो प्रचार होता है, वह शास्त्र से अविरुद्ध है ? उसका जिज्ञासुलोग योग्य निर्णय कर सके, उसके लिए यह लेख है। (2) संमेलनने स्वप्न उछामनी आदिसे प्राप्त हुए कल्पित देवद्रव्यमें से केसर-चन्दनकी सामग्री आदिका प्रबंध करनेकी अनुशा दी है, जिसमें तो विवाद का कोई अवकाश ही नहीं / क्योंकि देवद्रव्यके 3 विभागोंका संबोध प्रकरणमें जो निरूपण किया है, उसीमें कल्पित-देवद्रव्यका उपयोग देरासर संबंधी सर्वप्रकारके कार्योंके लिए सूचित है / ____फिर भी, मैंने इस लेखमें, कल्पित देवद्रव्य ऐसे विशेष विभागकी मुख्यतया बिना विवक्षा रखे ही सामान्य देवद्रव्यमेंसे भी केसरं आदिकी व्यवस्था की जा सकती है, ऐसा जो प्रतिपादन किया है, उसमें निम्नानुसार कारण समझें :___ संमेलनके प्रस्तावके बारेमें उतना प्रश्न हो सकता है कि स्वप्न आदिकी उछामनीका द्रव्य कल्पित देवद्रव्य है या नहीं. ? इस प्रश्नके समाधानके लिए किसी शास्त्रका स्पष्ट शब्दोंमें आधार मिल नहीं पाता, क्योंकि ये सपनाकी उछामनी आदि प्रथाएँ मुख्यतया बादमें शुरु हुई है / इसी लिए इस परिस्थितिमें, संविज्ञ गीतार्थ आचार्य भगवंतोका अभिप्राय ही आधार बन सके / 'इस उछामनी आदिका द्रव्य कल्पित देवद्रव्य समझें' ऐसा निर्णय आचार्य भगवंतोंने संमेलनमें किया ही है / जो पक्ष 'यह निर्णय हमें मान्य नहीं' ऐसा कहकर इसका विरोध करता है / उस पक्षके ही मान्य स्व. आ. श्री रविचन्द्र सू. म. साहबने 'कल्याण के जुलै-अगस्त १९८३के अंकमें 'प्रश्नोत्तर विभाग में कहा है कि 'सुखी श्रावकों द्वारा या किसी एक व्यक्ति द्वारा जिनभक्ति निमित्त जो आचरण किया गया हो, उसे कल्पित देवद्रव्य कहा जाय / जैसे अष्टप्रकारी पूजा Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 213 निमित्ते बोली जानेवाली उछामनी अथवा स्वप्न बोली / इस द्रव्यका उपयोग जिनेश्वरदेवकी भक्तिके सभी कार्योंमें किया जा सकता है / इस प्रश्नोत्तरीके विषयमें अब तक 'उसमें स्वर्गस्थ आचार्यश्रीने गलती की है- यह उत्तर गलत है / ' ऐसी मान्यताएँ या विज्ञापन नहीं था अब उन्हें क्षतिपूर्ण घोषित करना, यह आत्मवंचना नहीं है ? अब की जानेवाली ऐसी घोषणासे सुज्ञजन उस पक्षके प्रति संशयकी दृष्टिसे देखते हो जायेंगे नहीं ? इस प्रकार सपनेकी उछामनी आदिका द्रव्य कल्पित देवद्रव्य है, उस बातमें कोई असंगति नहीं है, फिर भी विरोधपक्ष उसका स्वीकार करनेके लिए तैयार न होनेसे, उसको भी कोई विरोधका कारण न रहे उसके लिए, विशेष विभागकी विवक्षाके सिवा, सामान्यतया ही, देवद्रव्यमेंसे भी केसरचंदन आदि सामग्रीकी व्यवस्था करना, यह शास्त्रनिषिद्ध नहीं है, लेकिन विहित है उसका इस लेखमें प्रतिपादन किया है / जब किसी भी देवद्रव्यमेंसे केसर आदिकी व्यवस्थाका शास्त्रकारोंने निषेध नहीं किया तब तथाविध परिस्थतिमें सपना आदिकी बोलीके द्रव्यसे उस व्यवस्थाके निर्णयको शास्त्रविरुद्ध कहा ही न जाय, यह स्पष्ट है / (3) विरोध करनेवाले वर्गका विरोध करनेमें मुख्य हेतु सामान्य रूपमें देवद्रव्यमेंसे जिनपूजा न हो, स्वद्रव्यसे ही हो, संमेलनवाले देवद्रव्यको साधारणमें ले गये, स्वप्न देवद्रव्यकी हानि की... इत्यादि होनेसे भी इस लेखमें देवद्रव्यके विशेष विभागकी मुख्यतया विवक्षा की नहीं है / देवद्रव्यमेंसे पूजा हो तो 'वह निषिद्ध नहीं या उसमें देवद्रव्यकी हानि नहीं' इत्यादि इस लेखमें स्पष्ट हुआ ही है / . ___(4) देवद्रव्य विषयका प्रतिपादन करनेवालें अनेक ग्रन्थके ग्रन्थकारोंने देवद्रव्यके 3 विभागोंकी बिना विवक्षा किये सामान्य रूपसे देवद्रव्यके उपयोगोंका प्रतिपादन किये होनेसे, कई शास्त्रपाठ भी उसी प्रकारके ही मिलते हैं और इस प्रकार देवद्रव्यसामान्यमेंसे जिनपूजा आदि शास्त्रविधि सिद्ध हो जानेसे सपनाकी बोली आदिके द्रव्यमेंसे उसे करना भी शास्त्रविहित ही है ऐसा सिद्ध हो जानेसे भी इस लेखमें मुख्यतया देवद्रव्यके विशेष विभागकी विवक्षा की नहीं / Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 धार्मिक-वहीवट विचार त्रिकालाबाधित परमपवित्र श्री जिनाज्ञा विरुद्ध इस लेखमें जो लिखा गया हो उसका त्रिविध स्वरूपमें मिच्छामि दुक्कडम् / शुभं भूयात् श्रीश्रमणसंघस्य......... (2) गुरुद्रव्य पर विचार (श्राद्धजित कल्पकी 68 वी गाथाका रहस्यार्थ) - गणि श्री अभयशेखर विजयजी अथ यतिद्रव्यपरिभोगे प्रायश्चित्तमाहमुहपत्ति आसणाइसु भिन्नं जलन्नाईसु गुरुलहुगाइ / जइदव्वभोगि इय पुण वत्थाइसु देवदव्वं वाव ? / / 68 // व्याख्या : मुखवस्त्रिकाऽऽसनशयनादिषु, अर्थाद् गुरुयतिसत्केषु परिभुक्तेषु भिन्नम् / तथा जलन्नाइसु त्ति - यतिसत्के जले अन्ने 'आदि' शब्दात् वस्त्रादौ कनकादौ च.... धर्मलाभ इति प्रोक्ते दुरादुच्छ्रितपाणये / सुखे सिद्धसेनाय ददौ कोटिं नराधिपः / इत्यादिप्रकारेण केनापि साधुनिश्रया कृते लिङ्गिकेसत्के वा परिभुक्ते सति' गुरुलहुगाइ'त्ति क्रमेण गुरुमासश्चतुर्लघव आदिशब्दाच्चतुर्गुरवः षड्लघवश्च स्युः / यतिद्रव्यभोगे इयत्ति एवं प्रकारः प्रायश्चित्तविधिरवगन्तव्यः / अत्रापि पुनर्वस्त्रादौ देवद्रव्यवत् वक्ष्यमाणदेवद्रव्यविषयप्रकारवत् ज्ञेयम् / अयमर्थः यत्र गुरुद्रव्यं भुक्तं स्यात्तत्रान्यत्र वा साधुकार्ये वैद्याद्यर्थं बन्दिग्रहादिप्रत्यपायापगमाद्यर्थं वा तावन्मितवस्त्रादिप्रदानपूर्वमुक्तं प्रायश्चित्तं देयमिति गाथार्थः // 68 // . किसी श्रावकसे साधु संबंधी द्रव्यका उपयोग हो गया हो तो क्या प्रायश्चित्त करना होगा ? उसका जिक्र अब किया जा रहा है : गाथार्थ :- मुहपत्ति - आसन आदि (अपने व्यक्तिगत उपयोगमें) उपभुक्त किये हों तो, भिन्नमास, जल-अन्न आदिका उपयोग हुआ हो तो, मासगुरु, चतुर्लघु आदि प्रायश्चित्त दें / गुरुद्रव्य उपभुक्त हो जानेके प्रायश्चित्त विधि ऐसा समझें / इसमें विशेषता यह है कि वस्त्रादिका उपयोग हुआ हो तो देवद्रव्यके अनुसार समझें / दृत्तिका अर्थ :- गुरुके मुहपत्ति - आसन आदिका उपयोग हुआ हो तो भिन्नमास प्रायश्चित्त दें / अब 'जलन्नाइसु' पदकी व्याख्या-इसमें 'आदि' शब्द जो रहा है, उससे वस्त्रादि और कनकादिका भी जल-अन्नके साथ समावेश समझ लें / (यहाँ वृत्तिकार विशेष बात सूचित करते हैं / ) दूर Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 215 से ही हाथ ऊँचे उठाकर धर्मलाभ कहने पर श्री सिद्धसेनसूरिको राजाने कोटिद्रव्य दिया / ऐसी कई बातें प्रबंधग्रन्थोंमें जो सुनी जाती है, उस प्रकार किसीने भी सुवर्णादि द्रव्यको गुरुसंबंधी बनाया हो अथवा तो द्रव्यलिंगीके पास जो द्रव्य रहा हो, उसको कनकादिके रूपमें गुरुद्रव्यरुप समावेश हुआ समझ लें / ये जल आदि गुरुद्रव्य उपभुक्त किये गये हों तो क्रमशः गुरुमास, चतुर्लघु, चतुर्गुरु, षड्लघु समझें / अर्थात् गुरुसंबंधी जलका उपयोग हुआ हो तो गुरुमास, अन्न उपभुक्त हुआ हो तो चतुर्लघु, वस्त्रादि उपयुक्त किये गये हों तो चतुर्गुरु और कनकादिका उपयोग हुआ हो तो षड्लघु प्रायश्चित्त समझें / यतिद्रव्यका उपभोग होने में इस प्रकार प्रायश्चित्त विधि समझें / उपरान्त, यहाँ भी वस्त्रादिके विषयमें आगे कहे जानेवाले देवद्रव्यके अनुसार समझें / अर्थात् जहाँ गुरुद्रव्यका उपभोग हुआ हो वहाँ या अन्यत्र साधुके कामकाजके लिए वैद्यादिको देना या कैद आदिमेंसे छुडानेके लिए, उतनी किंमतके वस्त्रादि (या उतने पैसों )को समर्पित करना और उपर कथानानुसार तप करनेका प्रायश्चित्त दें / श्राद्धजितकल्प-वृत्तिके इस अधिकारमें निम्ननिर्दिष्ट विशेषताएँ उल्लेखनीय : (1) मुहपत्ति आदिमें व्यक्तिगत परिभोगमें मात्र तपप्रायश्चित्त है / उतने द्रव्यका प्रत्यर्पण नहीं है / (2) मूल पाठमें आये 'जलन्नाइसु' शब्दमें जो 'आदि' शब्द रहा है, उससे जिसका ग्रहण करना है उस वस्त्रादि और कनकादिका वृत्तिकारने अलग अलग जिक्र किया है / (3) वस्त्रादिके लिए कोई विवेचन किया नहीं लेकिन कनकादिके लिए विवेचन किया है / / . (4) उस विवेचनमें 'इत्यादि प्रकारेण' शब्दका उल्लेख है / (5) 'वत्थाइसु देवदव्वं व' ऐसे अधिकारके बारेमें वृत्तिकारने 'कनकादौ'का पृथग् उल्लेख किया नहीं / इन उल्लेखनीय विशेषताओंका विचार करने से पहले एक बात स्पष्ट हो जाना आवश्यक है कि ग्रन्थकार अपने मनमें रहे अभिप्रायोंको व्यक्त करनेके लिए ग्रन्थात्मक शब्दोंका उच्चारण करते हैं / उपरान्त, वे शब्दप्रयोग करनेमें एकदम चौक्कस होते हैं / अतः उनके द्वारा किये गये थोडे-बहुत Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 धार्मिक-वहीवट विचार या सामान्य विशेष शब्दोंके प्रयोग, उनके मनके अभिप्रायोंका प्रतिविम्ब पेश करते हैं / हम लोग उस प्रतिबिंबको समझनेकी कोशिश करें / (1) मुहपत्ति आदि भी वस्त्ररूप होने पर भी उसमें उतना प्रत्यर्पण नहीं कहा / उससे स्पष्ट होता है कि वह परिभोग एकाद स्वकार्य करने तक इत्वरकालीन हो और पुनः गुरुके उपयोगमें आने वाला ही हो / यदि वह पुनः गुरुके उपयोगमें आ सके ऐसा न हो तो वस्त्रादिकी तरह उसमें भी उतने ही द्रव्यका प्रत्यर्पण समझें / ऐसा मानना उचित लगता (2) वस्त्रादि और कनकादि उन दोनोंमें आदिशब्दग्राह्यत्व होने पर भी, वृत्तिकारने कनकादिका जो अलग उल्लेख किया है, वह सूचित करता है कि उन्हें कनकादिको वस्त्रादिसे अलग करने हैं / इन दोनों कक्षाकी चीजोंका विभाजन किन धर्मों के कारण है ? अर्थात् यहाँ विभाजक उपाधि कौन कौन हैं ? यह ढूँढ निकालना चाहिए / - कतिपय विद्वानोंकी कल्पना यह है कि अठारहवीं शताब्दीमें रचित 'धर्मसंग्रह, द्रव्यसप्ततिका आदि ग्रन्थोंमें वस्त्रादि और कनकादिके गुरुद्रव्यका भोगार्ह और पूजार्हके रूपमें विभाग दिखाये हैं / अतः श्रा. जी.के वृत्तिकारने भी इसी अभिप्रायसे उन दोनोंको विभक्त दिखाये हैं, ऐसा मानना चाहिए / अर्थात् भोगार्हत्व और पूजार्हत्व इन दोनोंको यहाँ विभाजक उपाधिके रूपमें स्वीकार्य करने चाहिए / . लेकिन, यह कल्पना योग्य जचती नहीं, क्योंकि इन दोनोंको विभाजक उपाधिके रूपमें माननेका आधारबीज क्या है ? द्रव्यसप्ततिकार आदि द्वारा किया गया विभाजन इसका बीज-आधार बन नहीं सकता, क्योंकि श्रा. जी. वृत्तिके वृत्तिकार, उनसे भी पहले भूतकालमें हो गये हैं कि जब गुरुद्रव्यमें भोगार्हत्व और पूजार्हत्व धर्म अप्रसिद्ध थे / श्रोतावर्गमें अप्रसिद्ध ऐसे भी धर्मका अभिप्राय शायद ग्रन्थकारके मनमें उत्पन्न हुए हों और उससे यह विभाजन हुआ हो, उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे भी निर्देश दिया होता / प्रश्न : श्रा. जी. वृत्तिकारने इन दोनोंका जो पृथग् उपादान किया है, उसके फलस्वरूप ही द्रव्यसप्ततिकाकारने यह विभाजन किया है / अतः द्रव्यसप्ततिकाके शब्द ही, उसका बीज नहीं है क्या ? Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 217 उत्तर : द्रव्यसप्ततिकाकारने श्रा. जी. वृत्तिमें हुए इस पृथग् उपादानके रूपमें ऐसे विभागोंका उल्लेख नहीं किया, लेकिन हीर प्रश्नोत्तर और श्रा. जी. वृत्तिके वचनोंका परस्पर जो विरोध उपस्थित हुआ है उसका निवारण करनेके लिए कल्पित है / 'हीर प्रश्नोत्तरके 3 प्रश्नोंत्तरोंका उल्लेखकरके, बादमें तुरत ही अत्रापि तक्रकौडिन्यन्यायेन भोज्यभोजकत्वसंबंधेनौकोपधिवत्पूजाद्रव्यं न भवति, पूज्यपूजासंबंधेन तु तद् गुरुद्रव्यं भवत्येव, अन्यथा श्राद्धजीतकल्पवृत्तिः विघटते / इत्यादि जो निर्दिष्ट किया है, उसके द्वारा यह स्पष्ट है / हीर- प्रश्नोत्तरमें सुवर्णादिका गुरुद्रव्यके रूपमें निषेध किया है, जबकि श्रा. जी. वृत्तिमें उसका गुरुद्रव्यमें समावेश किया है / अतः इन दोनोंमें दृष्टिगोचर होनेवाले विरोधको दूर करनेके लिए द्रव्यसप्ततिकाकारने दो विभाग किये / हीर प्रश्नोत्तरमें सुवर्णादिका गुरुद्रव्यके रूपमें जो निषेध किया है, वह भोगार्ह गुरुद्रव्यके रूपमें है, पूजार्ह गुरुद्रव्यके रूपमें नहीं / श्रा. जी. वृत्तिमें उसका गुरुद्रव्यमें जो समावेश किया है, वह पूजार्ह गुरुद्रव्यके रूपमें है / अत: इन दोनोंमें कोई विरोध नहीं / ऐसी व्यवस्था द्रव्यसप्ततिकाकारने निर्दिष्ट की है यह भी तथाकथित विरोधके शमनके लिए ही है, ऐसा सूचन भी उन्होंने स्वयं अन्यथा श्राद्धजीतकल्पवृत्तिः विघटते' कहने द्वारा कर दिया है / प्रश्न : यदि विभाजक उपाधि, भोगार्हत्व और पूजार्हत्व नहीं तो कौनसे धर्म हैं ? उत्तर : कादाचित्कत्व और अकादाचित्कत्व या तो औत्सर्गिकत्व और आपवादिकत्व या तो ऐसे कोई दो धर्म यहाँ विभाजक उपाधि हैं, ऐसा मानना जरूरी है / .. प्रश्न : ऐसा माननेका कोई आधार है ? - उत्तर : अवश्य, वृत्तिकारके खुदके वाक्य आधार है / कनकादौ शब्दका उन्होंने जो स्वयं विवरण दिया है उसके पर उहापोह करनेसे यह समझा जाता है / उसे इस प्रकार 'आदिशब्दात् वस्त्रादौ कनकादौ च परिभुक्ते सति......' ऐसा सीधा न कहकर 'कनकादौ च' इतना कहनेके बाद उसका उन्होंने 'धर्मलाभ' इत्यादि विवरण किया है / यहाँ विशेषता यह देखनी है कि 'आदि' शब्दसे वस्त्रादिके ग्रहणका सूचन करने पर भी उसका कोई विवरण नहीं दिया और कनकादिके ग्रहणका सूचन किया और उसके लिए Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 धार्मिक-वहीवट विचार विवरण करना भी आवश्यक समझकर विवरण किया / इसका कारण स्पष्ट है कि 'आदि' शब्दसे कनकादिको गुरुद्रव्यमें समावेश करनेका स्वयं सूचन करेंगे, अत: तुरंत कोई प्रश्न उपस्थित करेगा कि सुवर्णादि द्रव्यतो यतिसत्क (साधु संबंधी) हो, यह कैसे संभवित है ? जबकि वस्त्रादिका समावेश करनेका स्वयं सूचन करेंगे तब कोई ऐसा प्रश्न उपस्थित करेगा नहीं / ऐसा वृत्तिकारका समझना है अतः सुवर्णादि द्रव्य तो यतिसत्क हो, यह कैसे संभवित होगा ? ऐसे संभवित प्रश्नका उत्तर वृत्तिकारने विवरण द्वारा वहीं दे दिया कि 'भाईसाहब, तुम्हारी बात सही हैं, सामान्यसे तो सुवर्णादि यतिसत्क होनेका संभव नहीं. लेकिन कदाचित् श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरि म.के जैसे प्रसंगमें उसका संभव होता है / ' वस्त्रादिके लिए ऐसे किसी विवरणकी आवश्यकता महसूस नहीं हुई / वे बताते हैं कि वस्त्रादि यतिसत्क हों, वे उन्हें स्वाभाविक-साहजिक अकादाचित्क मालूम होता है, जब सुवर्णादि ऐसे स्वाभाविक नहीं लगते, अतः सुवर्णादि कादाचित्क होने से, उसके बारेमें स्पष्ट विवरण करना आवश्यक बन गया / (4) श्रीसिद्धसेन दिवाकरसूरि महाराजका दृष्टान्त देकर वृत्तिकारने 'इत्यादि प्रकारेण' ऐसा कहा है, लेकिन किसी विधायक शास्त्रपाठ द्वारा 'तदनुसारेण' इत्यादि नहीं कहा / इससे फलित होता है कि शास्त्रविहित रूपसे उत्सर्ग पदमें सुवर्णादि गुरुद्रव्य रूप होना संभवित नहीं, लेकिन कभी राजादिकी मुग्धावस्थादिके कारण उत्पन्न ऐसे प्रसंगसे अपवाद स्वरूप वह संभवित होता है / जबकि वस्त्रादिका तो स्थान स्थान पर शास्त्रोंमें विधान है / अतः वह उत्सर्गपदमें गुरुद्रव्यरूपमें होता है / अतः ये दो विभाग औत्सर्गकत्व और आपवादिकत्व धर्मको अग्रसर बनाकर हो, यह भी संभवित श्रा. जी. वृत्तिके इस अधिकार पर उहापोह करने पर, दूसरी अन्य महत्त्वकी बातें भी जानने मिलती हैं / "सुवर्णादिद्रव्य यतिसत्क होना, संभव कैसे ? ऐसे संभवित प्रश्नकी वृत्तिकारके मनमें रही आशंका और ऐसी आशंकाका समाधान देनेकी वृत्तिकारकी आवश्यकता यह भी सूचित करती है कि इस वृत्तिकारके समयमें भी वस्त्रादिसे ही गुरुपूजा प्रचलित थी, कभी भी सुवर्णादिसे नहीं / यदि वह भी ऐसी (वस्त्रादि जैसी) प्रचलित होती तो, जैसे 'वस्त्रादि गुरुसत्क होना कैसे संभवित होते ? ऐसी आशंका पैदा Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 219 नहीं होती वैसे 'सुवर्णादि गुरुद्रव्यके रूपमें होना, कैसे संभवित होते ? ऐसी आशंका भी कैसे पैदा हो ? उपरान्त, ऐसी आशंकाके समाधान स्वरूप, उन्होंने केवल उदाहरण बताकर, 'इत्यादि प्रकारेण केनापि'..... इत्यादि कहा है उससे स्पष्ट होता है कि 'सुवर्णादिसे गुरुपूजा करना यह शास्त्रविहित है' ऐसा वृत्तिकारको भी स्वीकार्य नहीं / ___ इस प्रकार श्रा. जी. वृत्तिकारने वस्त्रादि और कनकादिको जो अलग किये हैं, वह एक भोगार्ह और दूसरा पूजार्ह हैं इसलिए किये हैं, ऐसा मानना योग्य नहीं, यह स्पष्ट होता है और इसीलिए "कनकादि तो पूजार्ह गुरुद्रव्य है, भोगार्ह नहीं / अतः साधुके उपभोगमें वैयावच्चमें वह जा नहीं सकता / अतः उसका प्रायश्चित्त वस्त्रादिके बराबर नहीं हो सकता / अतः वस्त्रादिमें रहे 'आदि' शब्दसे कनकादिका ग्रहण हो नहीं सकता / अतः वस्त्रादिके प्रायश्चित्तमें जो गुरुकार्यमें उतने द्रव्यका प्रत्यर्पण सूचित किया है, उसमें कनकादिके प्रायश्चित्तका समावेश न होनेके कारण उपलक्षणसे कनकादिका प्रायश्चित्त समझना चाहिए / उपरान्त, भोगार्हके रूपमें उसका निषेध है / अतः वह गुरुके क्षेत्रमें तो जाता नहीं / अतः उसकी अपेक्षा ऊँचे ऐसे देवद्रव्यमें उतना प्रत्यर्पण करना, ऐसा समझना चाहिए / उपरान्त, द्रव्यसप्ततिकाकारने 'गौरवार्हस्थाने प्रयोक्तव्यम् जीर्णोद्धारे नव्यचैत्यकरणादौ च.....' इत्यादि कथन द्वारा भी देवद्रव्य क्षेत्रका जो निर्देश दिया है, उससे भी यह सूचित होता है / " "इत्यादि कल्पनाएँ योग्य नहीं / उसका कारण स्पष्ट है कि कनकादि भोगार्ह न होनेसे वस्त्रादिकी अपेक्षा भिन्न है, ऐसा श्रा. जी. वृत्तिकारका अभिप्राय नहीं, यह आगे देख गये हैं / अतः प्रत्यर्पणका जो विधि दिखाया गया है, उसमें 'वस्त्रादि' में रहे 'आदि' शब्दसे कनकादिका भी ग्रहण समझ लें / . . प्रश्र : 'वस्त्रादि में रहे 'आदि' शब्दसे सुवर्णादिका ग्रहण हो नहीं सकता, अतः वृत्तिकारने उसका पृथग् उल्लेख किया है / तो आप क्यों उसका ग्रहण करनेका आग्रह करते हैं ? उत्तर : 'जलन्नाइसु' पदमें रहे 'आदि' शब्दसे गुरुद्रव्यके रूपमें जिसकी संभावना हो, उसका ग्रहण करना है / उसमेंसे वस्त्रादिकी गुरुद्रव्यके रूप में संभावना जैसी प्रसिद्ध है ऐसी कनकादिकी प्रसिद्धि न होने से, उसके लिए उसका पृथग् सविवरण उल्लेख किया है / इस प्रकार एक बार उसमें Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 धार्मिक-वहीवट विचार गुरुद्रव्यत्वकी (या आदिपदग्राह्यत्वकी) प्रसिद्धि हो गयी अतः वह भी गुरुद्रव्यत्वरूपसे या 'जलन्नाइसु' पद घटक आदि शब्द ग्राहत्वसे वस्त्रादिके तुल्य ही बन गये और उससे प्रत्यर्पणविधिविषयक 'वस्त्रादि' शब्दसे उसका भी ग्रहण करनेमें कोई बाधा नहीं / (श्रीतत्त्वार्थ सूत्र नं. 2-38, 'तेषां परं परं सूक्ष्म के भाष्यमें 'तेषां औदारिकादिशरीरिणां' ऐसा जो कहा है उसकी व्याख्या करते हुए वृत्तिकारने सूचित किया है कि 'वैक्रिय आदि शरीरोंकी बात पूर्वसूत्रमें उल्लिखित हो जानेसे उसका पृथग् उल्लेख न कर, 'औदारिकादि' इस प्रकार 'आदि' शब्द द्वारा ग्रहण किया है / ' ____ उपरान्त, 'वस्त्रादौ देवद्रव्यवत्'- वस्त्रादिमें देवद्रव्यके तुल्य समझें, ऐसा जो सूचित किया है, उसमें तुल्यता किस प्रकारकी ग्रहण करनेकी है ? केवल प्रत्यर्पण रूपमें या देवद्रव्यमें प्रत्यर्पण रूपमें ? देवद्रव्यमें प्रत्यर्पण रूपमें तुल्यता यदि लेनी हो तो वह वस्त्रादिके परिभोग निमित्त भी देवद्रव्यमें ही प्रत्यर्पण करना हो और तो फिर साधुकार्यमें ही प्रत्यर्पण करनेकी जो बात वहाँ ही की है, उसका विरोध होगा / अतः यहाँ 'प्रत्यर्पण'के रूपमें तुल्यता समझें और प्रत्यर्पण किसमें करें यह बतानेके लिए वृत्तिकारने साधुकार्योंका निर्देश किया है / उससे कनकादिको वस्त्रादिसे अलग करें तो भी प्रत्यर्पण तो गुरुवैयावच्चमें ही करना फलित होता है / उपरान्त, एकबार कनकादिकी बात वस्त्रादिके उपलक्षणसे लेना गृहीत समझें तो भी प्रत्यर्पण तो वैयावच्चमें करनेका ही सिद्ध होता है / तो इस प्रकार उपलक्षणसे लेनेकी बात साक्षात् कही बात तुल्य ही समझी जाय, भिन्न नहीं / उपलक्षणसे साक्षात् उक्तके सिवाकी अनुक्त बात गृहीत की जाय, लेकिन उसका विधान तो उक्तविधान जो हो उसे ही गृहीत करनेकी मर्यादा है / जैसे कि, 'जीव नित्यानित्य है / ' इस विधान पर से 'जीव के उपलक्षणसे 'अजीव' भी गृहीत करने हो तब अजीवको भी नित्यानित्यके रूपमें ही गृहीत किये जा सकते हैं / एकान्त नित्य या एकान्त अनित्यके रूपमें नहीं / इस प्रकार प्रस्तुतमें, वस्त्रादिके विषयमें गुरु वैयावच्चमें प्रत्यर्पण करें' ऐसे विधानमें वस्त्रादिके उपलक्षणसे कनकादि गृहीत करने हो तो भी 'कनकादि विषयमें गुरुवैयावच्चमें प्रत्यर्पण करें' ऐसा विधान ही गृहीत करें / बाकी, आप कहते हैं उस प्रकार उसे उपलक्षणसे गृहीत करें तो किसी प्रकार उचित नहीं, क्योंकि आगे जब कहीं भी 'यतिसत्क सुवर्णादि देवद्रव्य है / ' इत्यादि बात आयी न हो तब 'यहाँ कनकादिके प्रायश्चित्तमें Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ 221 प्रत्यर्पण देवद्रव्यमें करना होगा' ऐसा वृत्तिकारके वचनविशेषके अलावा 'वस्त्रादिविषयक प्रत्यर्पण वैयावच्चकार्यमें करना' ऐसी बात परसे पाठकको कैसे पता चले और 'वस्त्रादिविषयक बातसे बिल्कुल भिन्न ऐसी यह बात, मेरे किसी भी प्रकारके बिना वचन भी अध्येताको पता चल जायेगा' ऐसा मानकर वृत्तिकार उस बातको बिना छुए छोड भी कैसे सकते हैं ? 'कनकादौ' शब्दका उपरोक्त विवरण करना आवश्यक समझनेवाले वृत्तिकारको ऐसी महत्त्वकी बात विवरण करने योग्य महसूस न हुई, ऐसा कैसे माना जाय ? अतः वास्तविकता यह है कि वृत्तिकारके मनमें वस्त्रादिके लिए जो बात की गयी, यही कनकादिके विषयमें भी चलती है और इसी लिए उसका अलग विवरण किया-दिया नहीं / वस्त्रादिके लिए जो बात कही गयी हो उससे वह बिल्कुल भिन्न हो और जिसका पहले कहीं नामनिर्देश भी न हो, ऐसी बात भी 'वस्त्रादि' शब्दके उपलक्षणसे गृहीत हो ऐसी मान्यताको 'गुरुसंबंधी कनकादि देवद्रव्यमें ही जाय' ऐसी बंधी हई अशास्त्रीय मान्यताका ही एक खेल समझें या अन्य कुछ ? शंका : हम केवल श्रा. जी. वृत्तिके वचनोंके आधार पर इस मान्यताका स्वीकार नहीं करते, लेकिन उपर कहे गये द्रव्य सप्ततिकाके वचन पर आधारित है। . समाधान :- अतः श्रा. जी. वृत्ति परसे 'गुरुसंबंधी कनकादि देवद्रव्यमें ही जाय, ऐसा सिद्ध नहीं होता' इतना तो निश्चित हो गया। अब द्रव्यसप्ततिका पर से भी वह बात सिद्ध हो नहीं सकती, उसे देखें (1) गौरवार्ह स्थान पर प्रयोक्तव्यम्' ऐसे कथनमें आये 'गौरव' शब्दका विचार करें तो 'गुरोः भाव: गौरवम्" गुरुता वो ही गौरव है और सीधा ही सोचे तो पंचमहाव्रतधारी गुरु क्या गौरवाह नहीं ? कि जिससे उसका निषेध आवश्यक बन पाये ? . . (2) 'जीर्णोद्धारे नव्यचैत्यकरणादौ' ऐसे विधान परसे भी यह सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें जो 'आदि' शब्द रहा है पूर्वमें उससे गुरुवैयावच्च लिया जा सकता है / प्रश्न :-'आदि' शब्दके विषयमें पूर्व में जो बातें हुई हो, उनके समान बातोंका ही 'आदि' शब्द से ग्रहण हो सकता है / प्रस्तुतमें जीर्णोद्धार और नव्यचैत्यकरण कहनेके बाद 'आदि' शब्द प्रयुक्त हुआ है / ये दो देवद्रव्यके विषयभूत होनेसे 'आदि' शब्दसे उसके समान ऐसी देवद्रव्यकी विषयभूत अन्य बातें ही गृहीत हो न सके ? Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 धार्मिक-वहीवट विचार - उत्तर : आपका कहने का आशय यह है कि यहाँ देवद्रव्यविषयत्वेन साजात्य सादृश्य गृहीत है लेकिन यह आशय उचित नहीं, क्योंकि नूतनचैत्यकरण जो निर्दिष्ट किया गया है, वह देवद्रव्यका विषय नहीं / 'देवद्रव्यमेंसे जिनमुर्तिकी हर प्रकारकी भक्ति हो सकती है' ऐसे विज्ञापित अनेक विधान हैं, लेकिन किसी भी शास्त्रमें ऐसा विधान दृष्टिगोचर नहीं हुआ है कि देवद्रव्यमेंसे नूतन जिनालय बनाया जा सके / (अभी प्रायः सर्वत्र यही प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है, यह एक अलग बात है / यहाँ उसका विचार करना आवश्यक नहीं, क्योंकि प्रवृत्ति क्या चलती है, उसकी यहाँ चर्चा नहीं, लेकिन शास्त्र क्या कहते हैं उसकी चर्चा हे / ) उपरान्त, जैसे श्रा. जी. वृत्तिमें 'वस्त्रादौ कनकादौ च' ऐसा कनकादिका पृथग् उल्लेख किया है उससे, उन दोनोंमें कुछ भिन्नत्व हो, ऐसा आप भी मानते हैं, ऐसा प्रस्तुतमें 'नव्यचैत्यकरणादौ'का जीर्णोद्धारसे अलग उल्लेख किया है, यह बताता है कि जीर्णोद्धारके तुल्य प्रकारसे देवद्रव्यविषयभूत नहीं है। अन्यथा उसका भी देवद्रव्य विषय रूपसे ही यहाँ समावेश करनेका अभिप्राय होता तो ग्रन्थकार 'जीर्णोद्धारादौ' इतना ही कहते / / . प्रश्र : इस प्रकार यहाँ यदि देवद्रव्य विषयत्वेन साथ सादृश्य नहीं तो किस रूपमें है ? उत्तर : द्रव्यसप्ततिकाकारने जिसका अन्यत्र स्पष्ट उल्लेख किया है, उसका गौरवार्हस्थानत्वेन सादृश्य ग्रहण करनेका शास्त्रकारोंको मान्य है / जीर्णोद्धार और नूतन चैत्य जैसे गौरवार्ह स्थान है, वैसे गुरुवैयावच्च भी गौरवाह स्थान हैं / अत: उनको भी 'आदि' शब्द द्वारा ग्राह्य बननेमें कोई आपत्ति नहीं है / प्रश्र : जीर्णोद्धार और नूतन चैत्यकरण, वे दोनों यदि गौरवार्ह स्थान हैं तो दोनोंका अलग उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तर : मात्र ‘जीर्णोद्धारादौ' लिखकर छोड़ दें तो किसीको ऐसा भ्रम हो जाय कि यहाँ देवद्रव्य विषयके रूपमें उल्लेख होगा और उससे 'आदि' शब्दसे भी ऐसी ही चीजोंका ग्रहण करे, ऐसा भ्रम उपस्थित न हो उसके लिए नूतन चैत्यकरणका पृथग् उल्लेख किया हो तो उसमें कोई अनुचित नहीं / (3) 'भोगार्ह गुरुद्रव्य रूपमें सुवर्णादिका निषेध ही सूचित करता Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि गुरुकी अपेक्षा ऊँचे देवद्रव्यमें ही उसका समावेश हो' ऐसी दलील भी योग्य नहीं / क्योंकि भोगार्ह गुरुद्रव्यरूपमें उसका निषेध भी गुरुवैयावच्चमें उसके निषेध करनेके अभिप्रायसे नहीं, किन्तु गुरु रजोहरणादिको अपने पास रखकर जैसे उसके पडिलेहणादिकी देखभाल करता है और उस प्रकार उसे स्वनिश्राकृत करते हैं, उसी प्रकार सुवर्णादि द्रव्यको स्वनिश्राकृत करते नहीं, किन्तु श्रावक ही उस द्रव्यकी व्यवस्था आदि करता है / इस प्रकार स्वनिश्राकृत न होनेके कारण ही उसका भोगार्ह गुरुद्रव्यरूपमें निषेध है / / यह बात श्रीहीरप्रश्नोत्तर-श्री द्रव्यसप्ततिका आदि ग्रन्थाधिकारों परसे स्पष्ट है / उपरान्त, गुरुओंकी अपेक्षा श्रुतज्ञान ऊँचा क्षेत्र होनेसे उसमें भी उसका ग्रहण होनेसे 'केवल देवद्रव्यमें ही जाय' ऐसा तो लेशमात्र भी सिद्ध नहीं होता / इस प्रकार द्रव्यसप्ततिकाके आधार पर 'सुवर्णादि गुरुद्रव्य देवद्रव्यमें ही जाय' ऐसा सिद्ध नहीं होता / द्रव्यसप्ततिकामें तक्रकौडिन्यन्यायका जो उल्लेख है, उससे कई विद्वान ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि गुरुओंको परिग्रहसे कायमी विरति होनेसे स्वयंनिमित्त उत्पन्न सुवर्णादिके उपभोगके भी स्वयं अधिकारी नहीं / इन विद्वानोंसे पूछना है कि सर्वथा परिग्रहसे जो विरति है, वह द्रव्यपरिग्रहसे है या भावपरिग्रहसे ? शंका : साधुओंको, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव, उन चारोंके आधार पर परिग्रहसे विरति है, यह पक्खी सूत्रमें प्रसिद्ध है / तो आप ऐसा प्रश्न क्यों करते हैं ? समाधान : अध्यात्ममतपरीक्षा ग्रन्थके प्रकाशमें यह बात स्पष्ट है कि इन चारोंके संदर्भमें भावपरिग्रहसे विरति है, ऐसा पक्खी सूत्र का अभिप्राय * है / द्रव्यनिक्षेपास्वरूप द्रव्यपरिग्रहसे भी यदि विरति माननी हो तो श्वेत वस्त्रादिके द्रव्य परिग्रहको छोडकर दिगंबर हो जाना होगा, क्योंकि सुवर्णादिककी तरह वस्त्रादि भी द्रव्य परिग्रहस्वरूप होनेसे साधुओंके लिए उसका उपभोग होना संभव न होगा, अतः भावपरिग्रहसे विरति मानना ही उचित होगा और वह तो 'मुर्छा परिग्गहो वुत्तो' उस वचनानुसार द्रव्यादि परकी मूर्छा स्वरूप है / इसीलिए जिस ढंगसे मूर्छा न हो, उस तरह जयणापूर्वक गुरुवैयावच्चादि उचित कार्योंके लिए श्रीसंघ द्वारा उस कनकादि द्रव्यका भी विनियोग करानेका अधिकार गीतार्थ संविग्न साधुको क्यों न हो ? मूर्छाकी अजनक यह पद्धति Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 धार्मिक-वहीवट विचार प्रतिद्रव्य बदलती रहती है / वस्त्रादिको स्वनिश्राकृत करे (अर्थात् अपने अधिकारमें रख, उसकी देखभाल आदि करे) तो भी उसमें मूरिहितता संभवित होनेसे, उसका वैसा उपभोग बताया / सुवर्णादिमें उस प्रकार मूर्छारहितता अशक्यप्रायः होनेसे उसका स्वनि श्राकृतके रूपमें निषेध किया / शास्त्रोमें जिसकी जैसी व्यवस्था सूचित की हो उस प्रकार करनेसे कोई दोष नहीं लगता और विपरीत करनेमें दोष हो, ऐसा समझ लें / वस्त्रादिसे कोई पूजा कर दे तो उस वस्त्रादिको स्वयं अपने पास रखकर प्रतिलेखनादि करने चाहिए / गृहस्थोंको सौंप दे तो विराधना हो / सुवर्णादिसे कोई द्वारा पूजा की जाय तो उन्हें गृहस्थोंको सौंप देने चाहिए। उन्हें स्वनिश्राकृत न किये जायें, तभी विराधनासे बच सके / संघ द्वारा की गयी व्यवस्था अनुसार साधुकी वैयावच्च आदिमें उस सुवर्णादिका संघ उपयोग करे तो साधुको सुवर्णादि पर मूर्छा होनेका भय नहीं कि जिससे उसमें उसकी परिग्रह विरति दूषित होनेके कारण, साधु उसके अनधिकारी बन जानेका प्रश्न उपस्थित होगा / - उपरान्त, न्युंछणादिरुपसे साधु सन्मुख रखे सुवर्णादिका साधुवैयावच्चमें उपयोग करना शास्त्रमान्य है, ऐसा तो विरोधपक्ष भी स्वीकार करता है / तो क्या उस सुवर्णादिका उस प्रकारका उपभोग करने में परिग्रहविरतिको आपत्ति नहीं आती ? उसमें यदि नहीं आती तो इसमें क्यों आयेगी ? अर्धजरतीय न्याय किस लिये ? परमपवित्र जिनाज्ञासे विरुद्ध इस लेखमें जो कुछ लिखा गया हो, उसका त्रिविध त्रिविध रूपमें मिच्छामि दुक्कडम् / शुभं भवतु श्री श्रमणसंघस्य.... Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट क्रमांक - पूज्यपाद आ. भ. प्रेमसूरि म. सा.का पू. जंबूसूरिजी म. परका पत्रक्रमांक - 1 भुलेश्वर, लालबाग, बम्बई कार्तिक कृष्ण 13 परमाराध्यपाद प्रात:स्मरणीय परम पूज्य आचार्य देवेशकी ओरसे विनयादिगुणयुत आचार्य श्री विजय. जंबूसूरिजी योग अनुवंदना सुखशाताके साथ विज्ञापित हो कि देवगुरुपसाये सुखशाता है / आपका पत्र मिला था / समाचार विदित हुए / चातुर्मासका प्रतिक्रमण करते समय सर्व जीवों को खमाते समय आपको भी खमाये थे / पत्रमें आपने जो लिखा है कि आप कृपालुने यह लिखा था कि मध्यस्थ संघके प्रस्तावमें मैं समझता नहीं, तो फिर ये सारे प्रयत्न किस लिये, यह समझमें नहीं आता / उसके बारेमें में विज्ञापित करता हूं कि बम्बईके लगभग सभी उपाश्रयोंमें, देवद्रव्यकी उपजमेंसे रकम साधारण विभागमें ले जायी जाती है / किसी जगह थोडी तो किसी जगह ज्यादा, ऐसी प्रथा जारी है / देवद्रव्यके भक्षण करनेकी कुप्रथाको नाबूद करनेका उनका फर्ज था, फिर भी उसे नाबूद न कर, प्रस्ताव तुरत मिटिंगमें पारित कर दिया, इसीलिए में संमत न था / साथ ही आप लोगोंको विदित करनेकी मुझे आवश्यकता लगती है कि मध्यस्थ संघने जो प्रस्ताव किया है, वह मेरी दृष्टि से शास्त्रविरुद्ध लगता नहीं / अलबता, शास्त्रोंमें व्यक्तिकी पूजाके बारेमें कई पाठ मिलते हैं और उससे ज्ञात होता है कि श्रावक शक्तिमान हो तो अपने द्रव्यसे प्रभुपूजा करे वह बात योग्य है और मैं भी संमत हूँ कि शक्तिसंपन्न श्रावकने अपने द्रव्यसे श्री जिनेश्वरदेवकी पूजा करनी चाहिए / उसमें मेरा किसी भी प्रकारका विरोध नहीं / अपने द्रव्यसे पूजा करने में भावोल्लास अधिक जागृत होता है, वह संभव है और सम्यग्दर्शनकी निर्मलता भी विशेष बन पाती है / जैसे व्यक्तिको लक्ष्यकर प्रभुपूजाके पाठ मिल पाते हैं वैसे संबोध प्रकरणकी गाथाओमें समुदायको लक्ष्य बनाकर भी पाठ मिलते Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 धार्मिक-वहीवट विचार है / वह गाथाओमें देवद्रव्यकी व्यवस्था की है / दूसरी भी अनेक स्थानों पर देवद्रव्य हो तो पूजा-महापूजा सत्कार-समारचन आदि अनेक शासनप्रभावनाके कार्य होनेसे ज्ञानादि गुण विकसित होते हैं, ऐसे पाठ मिलते हैं / तब देवद्रव्यमेंसे महापूजा, सत्कार समारचन आदि हो और संघकी व्यवस्थाके आधार पर प्रभुपूजा भी क्यों न हो ? जैसे महापूजा आदि कार्य देवद्रव्यमेंसे हो सकते हैं तो प्रभुकी केसर-चंदनकी पूजा भी उसमेंसे हो, ऐसी मेरी मान्यता है / खंभातमें पू. हमारे गुरुजी, प.पू. कमल सूरिजी म. मणिविजयजी, सागरजी म. आदि अनेक आचार्य एकत्र होकर, उन्होंने निर्णय किया था और उसमें लगभग सौ-डेढसो मुनियोंके हस्ताक्षर लिये थे / इस बातका आपको पूरा खयाल होगा ही / संबोध प्रकरणकी गाथाओंसे खंभातके निर्णयकी और देवद्रव्य द्वारा पूजा-महापूजा आदि शास्त्रोंके पाठ प्राप्त होनेसे मुझे लगता है कि श्री संघ व्यवस्था करे तो प्रभुपूजा देवद्रव्यमेंसे की जाय तो शास्त्रविरुद्ध नहीं है / अब मुझे यह विदित करना है कि छद्मस्थभावको लेकर मैं शायद अपनी मान्यतामें गलत राह पर भी होऊँ और यदि भूलता होऊँ तो दुर्गतिका हिस्सेदार बन पाऊँ, उस दशाको प्राप्त न करूँ उसके लिए मैं आपसे पूछ रहा हूँ। मुझे आपसे कोई चर्चा-विवाद नहीं करना है या बाहर प्रचार नहीं करना है / आपके लिखनेके अनुसार, सेवकका अल्पज्ञान होनेसे कहीं भी व्यर्थमें फँस जानेकी उपाधि उठाना ठीक न लगनेसे और आप पूज्य श्री को लिखनेमें कुछ न्यूनाधिक भी न हो जाय इत्यादि उसके बारेमें विदित हो कि प्रस्तुत बात पूछनेमें मुझे आपको बांध देना नहीं है / केवल उपरोक्त प्रयोजनके लिए मैं आपसे पूछवा रहा हूँ / तमो तमारी बुद्धि अनुसार, मेरे पूछे गये प्रश्नोंका प्रत्युत्तर देंगे तो उपकारका प्रत्युपकार करनेका सुअवसर साध सकेंगे / मैं और मेरे शिष्य, परंपरा-शास्त्र विरुद्ध मार्गका निरूपणकर दुर्गतिके भाजन न बने, इसीलिए पूछवानेकी आवश्यकता होती है। ___ पुछायी गयी हकीकतकी स्पष्टता तमने उचित लगे तो करें / उसके बारेमें मेरा आपके पर किसी भी प्रकारका बलात्कार या आग्रह नहीं / सेवक पद्मकी कोटिशः वंदना स्वीकृत करें / . Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 3 - นุชชuit พ... นิพนูโร .แl પૂ. જંબુસૂરિજી મ. ઉપરનો પત્ર 5 “ม (64) 49t- xat13 {{s:3:}}} \: +++@+.+ + + + + + 243ทรุด 163-444-12kg (45) 13th: 431 4 : 2,1) 6114 ราชวง!! 440 2513 - 141 142 14.45 : 1.2 .54144 4+4 ณ กรฯ ใ55 ny (6,969 \น 1 คน 2 คน tyqา 6 8444-th เอ 46" + hai to t5Cytt ใน AA invisians 19037 jer to fining aso ni alinitaserah กะท: 44 34(นเก (64,8C+v+3แf บน ++2+ nytte {++ h4 +47 4*ในภาค55 149 0YY-Yr99.. ลด 30 กะ1+40' t his ri) - Y6i4+An: 46 : 6. กฯ 8:. 18+, ไรเงิ น in Ritalin editnom imani yedi & finendisana - (ยัน And A1+2. เอ 11 izzonte Trinchi qed rea's ich hinneigtailth diyo hut hinin, ce? n hon innenean contanonesest ringen hiqninigar Antiton hilftiniai sahnh -นุช1 341 ที่ กค 04 +00 121 กหy เครใน 4sh: 2. เ% ๓๖า ut 69.+++ : ศ โดยort 2017 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ???, धार्मिक वहीवट विचार QitDanceitnanganal 2,8 dni ngyons, ridi h้ใหte A 5.:14 (2s 15นใด, yet ด้มา definidron niadanirininisreebonefoto, and congernafastin e sa cinaiyon neizon dortie 86432 4/4 น. โดนเอาเอง เ ท 30, เงดังน4 แe hyd Ahe setthi hieryonfictie Gherniasdriend si fori 229291 $chih?v;8 1g (+4 +yYsy X5 X 1 thth-9.48.ne: - 3. 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Katrai trinn Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 धार्मिक-वहीवट विचार पूज्यपाद आ. भ. प्रेमसूरिजी म. सा.का पू. आ. जंबुसूरि उपरका पत्रक्रमांक - 2 बम्बई, लाल बाग, मा. शु. 7 प. पू. आचार्यदेवकी ओरसे अहमदाबाद मध्ये विनयादिगुणोपेत आ. : श्री. विजय जंबुसूरिजी आदि योग अनुवंदना-सुखशाता-आजरोज़ पत्र प्राप्त हुआ / पढ़कर समाचार विदित हुए / आप लिखते हैं कि देवद्रव्यमेंसे पूजा हो वह शास्त्रसंमत है, फिर भी उसका उपयोग कारणिक अर्थात् अपवादिक संयोगोंमें करना चाहिए, इत्यादि जो आपने लिखा है उसके बारेमें लिखनेका है कि उपदेश पदसे लेकर यावत् द्रव्य सप्ततिका पर्यन्तके जो जो पाठ मेरी नजरमें आये हैं, उनमें किसी भी जगह कारणिक या अपवादिक संयोगोमें उपयोग हो, ऐसा दृष्टिगोचर नहीं हुआ / आपको दृष्टिगोचर किसी ग्रंथमें हुआ तो सूचित करें / . ज. हेमंतविजयजीकी वंदना. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ 231 1ชชune 2u.พ. นินเS น.all. પૂ. આ. જંબૂસૂરિજી ઉપરનો પત્ર แด “เอเ 1.5เเ: 36-3 - - .3 it fet+แนวน ,0 reg &εaider dina horredhanchisine Atromlen. 146 1: 4+546M 1 นน. 34 4 to Geniniai neador trailer rint viseleteiro นเเน kett กฯน 6y (2364 4v เ กรีนไth ใน get gะเก+ 63 4.นนานctic Art + + + 40 41 42 4.โE+ ใน เนู ๆ เป็น ninachan aniodainitin sicknica ka arrin Elarin Taar Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 धार्मिक-वहीवट विचार पूज्यपाद आचार्य भगवंत श्री प्रेमसूरीश्वरजी म. सा.का पू. पं. हिमांशुविजयजी म.सा. परका पत्र आश्विन शुक्ल प. (सं. 2018) परमाध्यपाद आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजकी ओरसे विनयादि गुणोपेत पंन्यासजी श्री हिमांशुविजयजी आदि ठाणा योग्य अनुवंदना / यहाँ देवगुरु पसाये कुशलता है / आपका पत्र मिला / पढ़कर समाचार विदित हुए / २०२०की सालके लिए अभी कुछ यहाँ विशेष चर्चा नहीं हुई / परंतु सावरकुंडलासे पत्र था, उसमें प्रथम कार्तिकमें ज्ञानपंचमी, चौमासी आदि और दूसरा कार्तिक (मागशीर्षक्षीण) मासमें मौन एकादशी हो तो कोई आपत्ति नहीं एसा उनका अभिप्राय था / दलीलमें मार्गशीर्षक्षीण होनेसे पूर्वके कार्तिक प्रथमको शुद्ध और द्वितीयको अशुद्ध 'धर्म सिन्धु' आदि ग्रंथके पर आधार घोषित किया है / मुनिश्री विनयचंद्र वि.की तबियतके बारेमें लिखा है, वह विदित हुआ तो चिकित्साकी दृष्टिंसे सोनगढ-जीथरी ठीक रहेगा / आपकी अनुकूलताके अनुसार विहार कर वहाँ जाना ठीक होगा / वरघोडाके खर्चके बारेमें लिखा / तो देवद्रव्यमेंसे रथका नकरा और बैन्डका खर्च दिया जा सके / और उसके अनुसार हर सालके लिए, उनके पास जैसी सुविधा हो, उसके अनुसार करें, उसमें कोई हर्ज नहीं / यहाँ सभी मुनिराज सुखशातामें हैं / रत्नत्रयी आराधनामें उज्जवल रहें / ह. यशोभद्रविजयजीकी वंदना Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 233 પરિશિષ્ટ-૩ પૂજયપાદ આચાર્યભગવંત શ્રી પ્રેમસૂરીશ્વરજી મ.સા.નો પૂ. પં. હિમાંશુવિજ્યજી મ.સા. ઉપરનો પત્ર જાસ : પારાય પાદ આચાયૅ ભગવત # વિજય તેમજૂળથજી મહારાજ વિનોદ 8) પેન પાસ હમારું વિજ મસ્તી જ હ8/ ૧લમા મારા (રહAવાર હY * વંદના 12 દેવજીરૂ પઢાય કાળ ના છે તમારી પત્ર ભવ્ય વાં જાન નહી ર૦ર૦ના સતત માટે હજુ #iઈએ ખાસ વિજારણ કરે ઈ ના પરંતુ સાવ કંડલોજી 54 ટકા પહેલા કરતાં જાન જતા જ ' મન વગેરે અને બીજા કરતf (માગસર જામ)માજમાં સ, એક જાકત લાધા જ ખેમ, એક્ઝો અબ કt૧ ૧દ અને લયબદ્ધ નિવિનયપૂંજત જયત માટે લખુ ન હ૬ niguin qoruyorld as ausis teler ના અજબ વા કરી ત્યાં જવું છે વધાન ખોલબુલબમાં જ રોનકરો અને જે ખરો જાન કરુ . અને કુમ્બ દર શા માટે તે જ સાવ હો ય ત અમર કો માં વાંધા 3 Goga અ જય ' ખA- * રબજાજા રામ ઉmmળ છે. Einering rune oncians Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 धार्मिक-वहीवट विचार ___ पू. पंन्यासजी भद्रंकर वि. म. सा. का पूज्यपाद प्रेमसूरिजी म. सा. पर का पत्रक्रमांक - 1 सुरत, कार्तिक शुक्ला - 15 परमाराध्यपाद परमोपकारी प्रातः स्मरणीय परम गुरुदेव श्रीके चरणारविन्दमेंकोटिशः वंदनावलिपूर्वक निवेदन है कि आपश्रीका शुक्ला 12 का लिखा कृपापत्र आज प्राप्त हुआ / पढ़कर बड़ी खुशी हुई / केशवलालके साथ मुरबाडबाले मणिभाईके भाई और दूसरं थे / उन्होंने बम्बईके प्रस्तावके विषयमें स्पष्टीकरण माँगा है / उसके प्रत्युत्तरमें प्रस्तावका यह अर्थ और आशय है, ऐसा सूचित किया था / समयका विचार कर शास्त्रीय बाधा उपस्थित न हो, उस प्रकार देवद्रव्यके संरक्षणके लिए सुरक्षाकी व्यवस्थाकरनेके चिंतनमेंसे यह प्रस्ताव हुआ / उन्होंने कहा कि मुरवाडमें शिक्षणसहायक निधिमें एक हजार रूपये हैं / उस विभागके प्रमुख जैन हैं / उनके पास नगरपालिकाके अधिकारियोंने पडी रही रकमको कत्लखानेके निर्माणके लिए देनेकी माँग की और ऐसा कहा कि आपके पैसे बिना उपयोगके पडे रहे हैं अतः हमें दें और बादमें हम वापस दे देंगे / इस प्रकार वर्तमानमें पदाधिकारी मनुष्य, कत्लखाना और शिक्षण, दोनोंके बीचका भेद समझ नहीं पाते / केवल एक ही बात समझते हैं कि मनुष्यके उपयोगके लिए हर चीज आनी चाहिए चाहे फिर वह देवद्रव्यकी हो, या साधुके उपयोगकी हो / इस जातिका मानस आज राजनीतिक परिस्थितिका है / ऐसे समय हमारी मिलकतोंकी सुरक्षाके लिए साथ मिलकर किसी न एक रास्ता निकालना चाहिए, रास्ता ढूँढ निकाले ऐसे और खराब आशयसे विहीत जो भी थोडे-बहुत हों, उन्हें मार्गदर्शन देना या अपमानित करनेकी कोशिश करना, यह समझमें न आ सके, ऐसा है / फिर भी समाज पर और भी अधिक मुसीबतें आनेवाली हों, इसी कारण ऐसे सीधेसादे प्रश्नके विषयमें भी उलझन महसूस होती है / आपका अभिप्राय यथार्थ है / बम्बईके प्रत्येक विभागोंकी स्पष्टता शास्त्रीयदृष्टिसे होनी चाहिए / तभी इस शास्त्रीयमार्गकी खोज सार्थक होगी / कोई भी पक्ष खींचातानीमें फँसे यह इच्छनीय नहीं / आचरित द्रव्यको देवके साधारणमें ले जानेसे मुख्य आपत्ति यह उपस्थित की जाती है कि उससे अपने द्रव्यसे पूजा करनेके भाव उत्पन्न नहीं होंगे / और अपने द्रव्यसे पूजा न करनेवाले को पूजाका यथार्थ लाभ मिल न सकेगा। यह बात भी योग्य है / द्रव्यस्तवमें रोगीको औषध न्यायसे परिग्रहारंभरूपी Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ 235 रोगवाले गृहस्थको नीरोगी बननेके लिए कहा है, परंतु उससे द्रव्यवान द्रव्य द्वारा भक्ति करे उतना अर्थ होता है कि अपने द्रव्य द्वारा भक्ति करे ऐसा भी अर्थ हो सकता है ? अपने द्रव्य द्वारा भक्ति करे उसी प्रकार दूसरेके द्रव्य द्वारा भी भक्ति करे तो द्रव्यस्तव कहा जाय या नहीं ? आपने एक बार कहा था कि प्रभुपूजा यह समकितकी करनी है / जैसे द्रव्यरोगनिवारण करनेका हेतु द्रव्यस्तवमें रहा है उसी प्रकार सम्यक्त्व निर्मल करने का आशय भी रहा है और प्रभुपूजनमें मुख्य वह हेतु है. / द्रव्य प्रतिकी मूर्छा उतारने का हेतु भी रहा है, लेकिन वह गौण है / एक समकितका विषय है दूसरा चारित्र्यका विषय है / समकितकी निर्मलता निश्चयसे परमात्मतुल्य आत्मस्वरूपका निर्धार करनेमें रहा है और वह हेतु सिद्ध करनेके लिए, मुख्यतया प्रभुपूजा विहित है / यदि ऐसा हो तो जो लोग स्वद्रव्यसे पूजा न कर पाये ऐसे हों, अगर कृपणतादिके कारण भी करनेके भाववाले होते न हो, वे परद्रव्य द्वारा द्रव्यसत्व करें, तो प्रतिमादर्शन और प्रतिमा पूजन आदि शुद्ध आलंबन द्वारा समकितका लाभ प्राप्त करनेवाले होंगे या नहीं ? यदि हों तो फिर ऐसे विशिष्ट आलंबनमें कि जिस प्रकार * लोग ज्यादा शामिल हों, उस प्रकार शास्त्रसे अबाधित, देशकालका रूप कोई रास्ता निकलता हो तो, उसे ढूँढने में हर्ज क्या है ? इस प्रकारका आपका अभिप्राय मुझे रुचिकर लगा है / सेवक भद्रंकरकी कोटिशः वंदना / Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 धार्मिक-वहीवट विचार पू. पन्यास (मद्रंशव.म.ना પૂજ્યપાદ પ્રેમસૂરિજી મ.સા. ઉપરનો પત્ર 2421 , 11- 2594 ... 12 2 . 85506 bruirmi?. 2-12 64 52 % 8.516 // 2/ ki h10. 5.10. xnnar. 27 Martae 42.47 10016 // aniassa souhl cignuchanini पमा 21818 1012/14 YA 2. 61f. 125. 1147 14/(11, 5ind 4M 4, 11 127 . 2146 4 7 4.1 4 /31 - garl nimmaenmadeni. nnedynical 4158 -5 27 28. htiy.monaari darandas, ar ein aiaia dachaping से 0914/R11-M58.6 ReGinnaiyoor dan genith 21 dzianzol. angessit garisnis nuga heint isni atemqznnied Thing uyhindMin76 22indyn64144.44...? Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ 237 น:n84/ หา 52() 128 Gie Piracle My * * ก กฯk AJA ,,ซ ที่ดี เd-๔) 32 หน31 , , 112 ,ฯ ด้า) W211 2. งาหัว 179 ดวงดี 248) 309 นๆ. sanigruazara dezenas & conich, 6.1 -/1941 194 Edt uzraian adesh rand tuning ณ 32 : 4:24. 1 4 ต. 2nania ziaron uR karagd. darka หาะ'ver M e! 25 266 2 Z4 ( understaand sibudaeada. endtsialaisda and mainnein rann, Dordsien, andhar ยุด : 130.2244,398439 istrings and senianiagua งฯ 4% 16% 1440x94 % เY, 1410 , 02-24 x 4 2--: V04994. ,41 - 4 4 5 : ขzni 9 " Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 धार्मिक-वहीवट विचार 22 arg र र he enizingar 1,. ..+ 24 परस्पर 1. com Anaa? Rai की / R afirjhali. 'M 11. 50 xham " 2anorm राजराज 44taa??.archi 64 mh07424401124149 Traपीmamrpur 148 me nahun 02922mat 554 6.44nR515 a.R.nanks 5258260 2144 Rimum 14. 4 4 नीn camera 5&ii. 25541400 Fiest, Amhindimon mantina Croma, & dices agri Anta 72 214uyare 0 12646- 4204//६२६८को Panorantha) PR Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ _ 239 sharmer Mimig नाAmdance 44.4N MARATara -4.- . Stunthia , Animaltarg 12Me.in 2 AR-24- 5 mahagram . 25fantीरे-४६५२५ . imact-202010 Auct, trozinapaardendron TARAT4274 2515 106/R24ni Relnity खि 25/112 huyYmraren 4-MethamPratim AR 12 12 ला रोKRAgainपीNिavanizon HIRRIGEजी AAP 6. 4-47-ARNEGanki ARA Ren, histh64 ozrnisrans- ReatajimaLyrtha or2/278. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 धार्मिक-वहीवट विचार पू. पंन्यासजी भद्रंकर वि. म.का पूज्यपाद प्रेमसूरिजी म. सा. परका पत्रक्रमांक - 2 सुरत, कार्तिक कृष्णा-९ परमाराध्यपाद प्रात:स्मरणीय परमकृपालु आचार्य देव श्रीमद विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजके पुनीत चरणारविंदमें सेवक भद्रंकरकी कोटिशः वंदनावलि / आपके द्वारा भेजे गये देवद्रव्यसंबंधी पाठ और श्राद्धविधि, पृ. 40 से 110 तथा द्रव्यसप्ततिका पृ. १से 25 तक देखें हैं / दर्शन-शुद्धि, श्राद्धदिन कृत्य, उपदेशपद, धर्मसंग्रह, श्राद्धविधि तथा द्रव्यसप्ततिका इन छह ग्रंथोंमें 'सति हि देव द्रव्ये' यह पाठ उपलब्ध होता है / अतः देवद्रव्य द्वारा चैत्यादि समारचनकी तरह जिनबिम्ब पूजा-सत्कार-सन्मानादि हो सके, उस विषयमें सभी एकमत हैं / उपरान्त, सेनप्रश्नमें ज्ञानद्रव्य, देवप्रसादकी तरह देवपूजामें भी उपयोग हो सकता है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख है तथा धोतियां आदि देरासरमें समर्पित किये गये हों तो वह भी अथवा उसके विक्रयसे उत्पन्न पुष्पादिका उपयोग करनेमें दोष नहीं बताया गया / वसुदेव हिंडीका पाठ द्रव्यसप्ततिका पृ. 28-29 पर दिया गया है / उसमें चैत्यद्रव्यका विनाश करनेवाला जिनबिम्बकी पूजादर्शनसे आनंदित होनेवाले भवसिद्धिक जीवोंके सम्यग्दर्शनसे लेकर निर्वाण पर्यन्तके लाभका नाश करनेवाला है, ऐसा कहा है / इसी लिए भी देवद्रव्य द्वारा जिनबिम्ब पूजा विहित होनी चाहिए ऐसा विदित होता है / ___ अब द्रव्यसप्ततिकाका पृ. 14 तथा श्राद्धविधि पृ. ८०-२में (देवगृहे पूजापि स्वद्रव्येणैव यथाशक्ति कार्या, न तु स्वगृहढौकितनैवेद्यादि विक्रयोत्थ द्रव्येण देवसत्कपुष्पादिना वा, प्रागुक्तदोषात् / उस प्रकार स्वद्रव्य द्वारा पूजा न करनेवालेको अनादर-अवज्ञादि दोष कहा है / वह गृहचैत्यके द्रव्यसे गृहचैत्य या संघचैत्यकी पूजा करनेवालेके लिए हो, ऐसा मालूम होता है / श्राद्धविधि पृ. ७९की पहली पंक्ति पर 'अतो देवदीपे लेखा न वाच्यन्ते ।.....देवश्रीखण्डेन तिलकं न क्रियते स्वललाटादौ / देवलजेन करौ न प्रक्षाल्यौ / " आदि पूजा निमित्तके सिवा हो, ऐसा मालूम होता Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ 241 है / पूजा निमित्त हाथ धोना या तिलक करना, इत्यादिमें दोष उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि अभी उसी प्रकार होता है, और उसमें भक्ति विशेष रूपसे महसूस होती है / दोषरूप भास नहीं होता / पत्रमें उल्लिखत इस बात का जिक्र ऊँटनीके प्रसंगमें किया गया है / (श्राद्धविधि पृ. 173) वहाँ देवद्रव्यका स्वकार्यमें उपभोग करनेवाला आत्मा ऊँटनीके रूपमें अवतरित हुआ था ऐसा विज्ञापित कर, देरासरमें प्रवेश करते समयके केसर और जल यदि देरासरमें प्रवेश करना आदिके लिए ही उपयोगमें लाये जायँ तो कोई हर्ज नहीं, परंतु यदि स्वकार्यके लिए उसका उपयोग हो तो आपत्ति है, ऐसा कहनेका तात्पर्य है। विशेषमें द्रव्यसप्ततिका पृ. 15 पर 'यथासंभवदेवादिसंबंधिगृहात् क्षेत्रवाटिका पाषाणे.....श्रीखंडकेसरभोग पुष्पादि........स्वपरकार्ये किमपि न व्यापार्यं / देवभोगद्रव्यवत् तदुपभोग स्यापिदुष्टत्वात् / इस प्रकार लिखा गया है अत: स्वपर गृहकार्यके लिए निषेध समझा जाता है / देवकार्यके लिए निषेध नहीं लेकिन विधान हो तभी ऐसा उल्लेख किया गया हो / खंभातके निर्णयमें 'जिनप्रतिमाकी नियमित पूजा होनेके लिए, पूजाके उपकरणोंके सुधार के लिए एवं नूतनीकरणके लिए आदि स्पष्ट लिखा गया है / उपरान्त, देवद्रव्यकी सुरक्षा और वृद्धि, देवाधिदेव परमात्माकी भक्तिके लिए ही की जाय, ऐसा निर्दिष्ट किया है / अब पूजाके लिए सात प्रकारकी शुद्धिमें 'न्यायद्रव्य विधि शुद्धता' आदि आता है, उसमें न्यायोपार्जित द्रव्य द्वारा अष्टप्रकारी आदि पूजा करे ऐसा सूचित किया है / ९वें षोडशकमें श्लोक 4 तथा श्लोक 9 इस बातका जिक्र है / योगशास्त्र प्रकाश 3, श्लोक 119 की टीकामें पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, फूल, नैवेद्य, घृत आदि द्वारा जिनपूजा करनेवाले गृहस्थोंको परमपदकी प्राप्ति बतायी गयी है / 'पंचकोडी ना फूलडे' आदि उक्तियाँ द्वारा भी स्वल्प ऐसे स्वद्रव्य द्वारा हुई पूजाकी महत्ता बतायी गयी है / ये सभी पाठ व्यक्तिगत उपदेशोंके लक्ष्य कर दिये गये मालूम होते हैं, क्योंकि उसमें जिनपूजाकी तरह जिनमंदिर, ज्ञान आदिकी भक्तिमें, स्वद्रव्यका व्यय करनेवाले गृहस्थको श्रावक धर्मका आराधक बनकर, चारित्रधर्म आदिका अधिकारी होता है, ऐसा सूचित किया है / अष्टकजीमें भी तीसरे अष्टकमें 'शुद्धागमैर्यथालाभं' आदि शब्दों द्वारा न्यायार्जित वित्तसे प्राप्त पुष्पपूजाका महत्त्व वर्णित है / Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 धार्मिक-वहीवट विचार - योगशास्त्र प्र. 3, श्लोक १२०में लिखा है कि, 'यः सद् बाह्यमनित्यं च क्षेत्रेषु न धनं वपेत् / कथं वराकश्चारित्रं दुश्वरं स समाचरेत् // ' जो मनुष्य अनित्य एसे द्रव्य भी क्षेत्रके विषयमें उपयोगमें न ला सके, वह कृपण दुश्वर चारित्रका आचरण कैसे कर पाये ? ऐसा कहकर स्वद्रव्य द्वारा क्षेत्रभक्ति करने पर जोर दिया है, क्योंकि वह. चारित्र, मोहनीय क्षीण करने में परम निमित्त बनता है / श्राद्धविधि पृ. 49-1 ‘स्वपुष्पचन्दनादिभिः' / पृ. 53-2 'थूआकया सुविवहेण' / पृ. 58-1 पूअं पि पुष्फामिरू जहासत्तीए कुज्जा / " इत्यादि पाठ, स्वद्रव्य द्वारा पूजाका समर्थन करतें हैं / . इससे यह मालूम होता है कि, जिनपूजारूपी द्रव्यस्तवके दो प्रयोजन हैं / एक तो परिग्रहारंभरूपी रोगका औषध और दूसरा सम्यग्दर्शनकी निर्मलता। उन प्रयोजनोंको लक्ष्यमें रखकर जिनपूजाका उपदेश दिया गया है / 'सति देवद्रव्ये' उन पाठों द्वारा, पूजाके लिए होनेवाला जिनद्रव्यका व्यय, यह समक्तिशुद्धिका अंग है ही / उसमें भी स्वद्रव्य द्वारा होनेवाली जिनपूजा यह समकित और चारित्र उभयशुद्धिका अंग है / दोनों प्रकारसे होनेवाली जिनपूजा एकांत लाभदायक हैं / उसमें देवगव्य भक्षणका कोई दोष दृष्टिगोचर नहीं होता / वर्तमानमें स्व अथवा साधारणद्रव्य द्वारा अष्टप्रकारी आदि पूजा करनेका प्रचार है, वह भी शास्त्रोक्त ही है और वह चालू रहना चाहिए और उसके सभी लाभ बता देने चाहिए / महापूजादि भी श्रावक स्वद्रव्य द्वारा करे, तो विशेष लाभ होता है, लेकिन करनेवाला न मिले तो पर्वके दिनों आदिमें देवद्रव्य द्वारा पूजा हो तो शास्त्रविहित है और उससे भी अनेक जीवोंको बोधिलाभ का संभव है / जहाँ पूजाके साधारणमें घाटा है आर नया उत्पन्न हो ऐसा संभव नहीं, वहाँ देवद्रव्य द्वारा उस घाटेकी पूर्ति हो तो उसमें भी कोई बाधा नहीं और वैसा करना यह वर्तमान राजनैतिक परिस्थिति आदिको ध्यानमें रखते हुए समयोचित मालूम होता है / अब केवल प्रश्न यह है कि संबोध प्रकरणमें पूजा, निर्माल्य और कल्पित इस प्रकार तीन भेद किये हैं / उसमें कल्पित अथवा आचरित द्रव्यमें किस द्रव्यकी गणना करे, उसका उल्लेख नहीं / बोली या उछामनीका द्रव्य कल्पित या आचरित माना जाय, ऐसा पाठ दूसरे किसी ग्रन्थमें आया Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 243 परिशिष्ट-३ है या नहीं ? उसका यदि आपको पता हो तो सूचित करनेकी कृपा करें / उपरके विचार मेरी अल्पमतिके आधार पर पेश किये हैं / उसमें कई गलतियाँ होनेकी संभावना है / आपश्रीकी आज्ञा होने पर जितने पाठ मैंने देखे उनका पूर्वापर संबंध सोचने पर जो स्फुरित हुआ, वही लिखा है / उसमें कोई सुधारकी आवश्यकता हो तो आप मुझे अवश्य विदित करें / Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 धार्मिक वहीवट विचार. પૂ. પંન્યાસજી ભદ્રંકરવિ.મ.નો પૂજ્યપાદ પ્રેમસૂરિજી મ.સા. ઉપરનો પત્ર 120, 1-22 22 // 2 / Tritin: सर Mri १५८पुर 121817 Aug 24 सी. P4x7ne 205 मि. 126 // ut ng201+ :41.47 4. +1+647. 16 44 4 02/ LAHR 11. 12. 102, 2 4-11 2596 7 เน. f016, siltrat24,612354 441 , Mp4:12 Anni 2 w/ne 4taim .via24) 2 21 / 25A M0 तार 4tain 502ahan: 46. that __01. सल५ un_307 12:01. tain tig! 4.5 11.+14, मर) 242-4009.6 रेरेर यी 95. 591 5+ 15. (7241 4.21 ah 4 4183 1.. 2000 270 4 02R .. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 3 245 s ni . 245 Rara ampicion you nieprachencara -- 11 मिRom400 25/Share148 nal Gimoda de treind .. 47 mc. you arned hinarsso, ah fuss AMAVावीच्य annasiatuhegre/E4 (1844115 1 1 19831 - लि 4146/2 7/2074 27व्या १५सत्यारा 41Y. लापार/ 24 -4472nn. fats 13 Paero+8 Meta एसस लना yon+2012424 __MAAY-2002 देसी लरथा 5 ........ARA43- तिल कि बललाई 35ndroin y morn लि.42,247600d.rnar दीप+6++Partianm2. htt225158. nak rngmaite. Rayamin 8. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 धामिक वहावट विचार . वि. AiRanant-11052 Cu4 4.64/4 min. कापणे....... रडत रोy. ...... 152 2 ५.र. भो24142Rein' Pune.28.21नर 16IKEachalan Am18:02. ... viminal ro Grauis myanenin 2/nain5.4t, zmaragni14. ne z dnoroastracnial and? 2426 4.01. 27ARMER 12 4 creen MANAMAnni hinkat any 1 2 .1. Aparn ... Anan 4782500 rundes g. cchi कोर१148) *r. Rare it. RLPiyp. 341-twwantr65majala 52 5 . harne s s?5.nanata 447 Mind .nenta. ६.५01087हा नानाला much m; Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 247 पर्गिशष्ट 3 farmins amir ouratimGori R +2012 22 mrat 6 .2.6+chdaiRExam /6. hn and, A d. inhi L6 / anmms+4: 12ला' 4,27/12.21ATrant heri (30. . .22/un5-3 847-120 + G ot4 : 2066/6HAN - 165 कम 64kutri ____ AAR Aj05 16 Para 1.521.1.2, 2/ get anRam 344414 2711) At4 4 ) 1mmm t25 तार244704166TH पार करना11/१५८ 52aina htra 5 4914-05, 4. 5 1 : 13||' 5-586/1 पु स ..... 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Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 धार्मिक-वहीवट विचार पू. पंन्यासजी भद्रंकरविजयजी म. सा. का पूज्यपाद प्रेमसूरिजी म. सा. परका पत्रक्रमांक - 3 कार्तिक कृष्ण - 13, सूरत परमाराध्यपाद परमकृपालु परम गुरुदेवश्रीके चरणारवंदमें कोटिशः वंदनावलि सह निवेदन है कि, कृष्ण 12 का कृपापत्र मिला / आलोयणकी चिट्ठियाँ प्राप्त हुई / इसके साथ बाकी रही भेजी हैं / ___'चेईय वंदण महाभाष्य'की गाथा 203 देखी है / उपरकी 4 गाथाओंके साथ उसका संबंध है / उसमें वस्त्र, अलंकार, विलेपन, सुगंधि पुष्प, धूप, पुष्प, पंचामृत आदि वस्तुओंका अंगपूजामें समावेश किया है / उन सभीके लिए क्षमता न हो तो उसका भाव रखनेका बताया है / गाथा २०६में लिखा है कि, _ 'सावजणस्स नियमा उचियं सामग्गीसब्भावे / ' सामग्रीके सद्भावमें श्रावकजनके लिए ये दोनों पूजाएँ उचित है, साधुजनको नहीं / इसमें किसी जगह 'स्वद्रव्यसे' ऐसा शब्द नहीं, लेकिन स्वशक्ति और सामर्थ्य (क्षमता) शब्द है / वह सामर्थ्य द्रव्यका भी माना जाय और दूसरी सुविधाओंका भी माना जाय / पूरी सामग्री न हो तो, थोडी सामग्री द्वारा स्वशक्ति अनुसार करे, ऐसा अर्थ किया जाय तो संगति हो सकती है / उसकी टिका नहीं है / अतः इस प्रकारके पाठ, दूसरी जगह जहाँ हो, वहाँ देखना चाहिए / सेवक भद्रंकरके वंदन / Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ 251 5. पंन्यास भवि .म.नी . પૂજ્યપાદ પ્રેમસૂરિજી મ.સા. ઉપરનો પત્ર 121,51-1-13 HALLRLE74 t584125 2424085.2MR32214 पर भीaama 461 nagn: 21 स. 1M. ndioned araa 141.2 nani minutnite .. ___9441 Aunti 20-23/ 6.6.2017 211414920. स Hri x, int, NE4, Fi/665 12 पारे कीm. 85.50/8/14 Ma 2865/adv. . . harey. - 14th AEHIYAanpreet 2. 10athi hut xnn 14 6fANJ, hugandme. thitivoritte210422 2056 5NGantant Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 धार्मिक वहीवट विचार an evjF4.incipig. tantseein. Carnegathan स140 पी014) remain 2015 2047 251ton+2 पास 14tiniano . 81. AR,Annu caci shinigriesh ___Ratnimatkaarhal izreen and apucaici ont used R1-2.3 METANTRAL *22 841Mmjureent> mical qed nainen fora vene ___ AFTER Therming 242. 51elmmam nium-20 - trat mitzarican iदार 56. an-41-427 mMR.R Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ 253 पू. पं. कनकविजयजी आदि म. सा. का पूज्यपाद प्रेमसूरिजी म. सा. परका पत्रक्रमांक - 1 कृष्ण - 4, नरशीकेशवजीकी धर्मशाला, पालीताणा. पूज्यपाद, परमकारुणिक, परमाराध्यपाद, परम करुणासागर, परम गुरुदेव आचार्यदेवश्रीकी पुनीतसेवामें, ले. पादरेणु कृपाकांक्षी सेवक कनक, सुबुद्धि, महिमा आदिकी कोटिशः वंदनाश्रेणि स्वीकारनेका अनुग्रह करें / ___ आपश्रीका कृपापत्र प्राप्त हुआ। आपश्री द्वारा रवाना किया हुआ देवद्रव्यसंबंधी पाठवाला रजि. पत्र प्राप्त हुआ / सबकुछ पूरी लगनसे देखापढ़ा / इन सारे उल्लेखोंसे स्पष्ट होता है कि महोत्सवादि क्रिया भी जब देवद्रव्यसे करनेमें शास्त्रसंगति है तो पूजा आदिके लिए तो कहना ही क्या होगा ? - इन सारे उल्लेखोंके पाठोंवाली तमाम नोंध सविस्तृत तैयार करना आवश्यक हैं / अन्यथा इसमें हेतुपूर्वक अज्ञान श्रावकोंको व्यूदग्राहित किये गये हैं और व्यवस्थित ढंगसे गलत प्रचार किया जा रहा है / : सत्य और शास्त्रीय बात क्या है ? उसमें समझनेके लिए बिल्कुल तैयारी नहीं और व्यर्थका ऊहापोह किया जा रहा है / इसमें साधु लोग भी कई जगह शामिल हुए हैं / - कृपादृष्टिमें वृद्धि करें / Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 धार्मिक वहीवट विचार 1 น. $$az2 หe u.au.ral પૂજ્યપાદ પ્રેમસૂરિજી મ.સા. ઉપરનો પત્ર 42วเ: 013) มหตุ) 4ที่มา: weer: ชด.4, 234 หanra/6498 หง7 53277213. 937334e4 เทเตรตก42 x 2 1าทเท ( 42 183424 รฯs:6) ที่หอ 5.yelin) 12 : 1921) 082! กงขะ 48 49): .4: ว!หวย เvy าท ; ny424) มว 4,200 27.) มวปกมน3004; and otyA) ( 29) ทฯ 23nxxro: : 2วงๆ ดฯ,229 23ทฯห์ 30 (1 . ศ390 3มฯynt” โai224) ตุy7gv4 20 4 เรท : เก หงก 2%, nyshot nilz & 04) 9442 448cq anno/ 16:9 เ: 22, y ne2. 2g" na na & เดฯ 6 ว่าฯ : : 14, Gen 22, 2 ร, ne448 , vg) ชุด3 309334 448 220 534" 272) 22 . ก ะศ) ทก กะ + 1 +1% 12, pp ฯ ? รว! ng, Geoฯตา? ? ? ? 42013 214 2158 14) . 52 - ท” ยม ย ร 5 กก) มจริง ยุ, & 0 31%m 2018, 6 มา ทาม 9413 21(200) ncy 54.5 4 0% 0 430% 24 : ? 720 11 เ: (6 หยว) ), 0 2122 6. ยหาย หย์ 3g 6. มาเท ้าขาMe ટલાક સ્થાને નખેત્રુ છે. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ 255 पू. पाद प्रेमसूरिजी म. सा. पर लिखा गया पू. कनकविजयजी म. सा. का पत्रक्रमांक - 2 भावनगर, सौराष्ट्र, कार्तिक शुक्ल-३ (2008) पूज्यपाद परमोपास्य प्रशमरसनिधि परमकारुणिक परमाराध्यपाद परम गुरुदेव आचार्य महाराज श्रीकी पुनीतसेवामें, ले. पादेरणु,सेवासमुत्सुक, कृपाकांक्षी सेवक, कनक, सुबुद्धि, महिमा आदिकी कोटिशः वंदनावलि स्वीकार करें / कृपानाथ ! आपश्रीमद्के पुण्य देहमें निराबाधा होगी / आपश्रीका कृपापत्र कल शाम प्राप्त हुआ / पढ़कर समाचार विदित हुए / इसके साथ पत्र भेजा है / आपश्रीकी सूचना ध्यानमें है / उपरान्त, आपको यदि निश्चितरूपसे यह महसूस होता हो तो यथासमय निर्भीकतासे प्रतिपादन करने में संकोच रखनेका कोई कारण मुझे दिखाई नहीं देता / मध्यस्थ संघविषयक प्रस्तावके बारेमें पूछनारके कह सकते हैं कि 'इसमें असंमत होनेमें शास्त्रीय दृष्टि से हमें कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता / ' इसमें सारी बातें आ जाती है अन्यथारूपमें तो खास प्रकारका मनोभेद ही इसमें विरोध करा रहा है / __ योग्यसेवा फरमायें / कृपादृष्टिमें वृद्धि करें / पत्रका प्रत्युत्तर दें / चातुर्मासके बाद घोघा, तलाजा आदिकी ओर यात्रार्थ जानेकी भावना है / / ले. पादरेणु कृपाकांक्षीसेवक कनककी कोटिशः वंदन श्रेणीका स्वीकार करें / ___ मुनिराज श्री पद्मविजयजीको अनुवंदना-सुखशाता / उनकी ग्रीवाकी तकलीफमें राहत होगी / मुनिश्री मित्रानंद विजयजीको अनुवंदना, सुखशांता / .. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 धार्मिक-वहीवट विचार પૂ. પાદ પ્રેમસૂરિજી મ.સા. ઉપર લખાએલો પૂ. કનકવિજ્યજી મ.સા. નો પત્ર જા વગર મૌત્ર ક - 8, કામશરૂવાજ, ઇને છે. 58 2ara maઝકિ જaa va ૪૩.aહેલ આ ઇavી x જેવા- સરહ વેઠ જેવજી કાકી એક સ્ત્રબુદ્ધિ જિન - દિની કોઈ વળી જવું હવા અ9 કરો કૃપાના પરદા પુરી દિવાળા વો?, મા જ. ગઈ» જે બrJ) ઝ સા ના ઝાથે જ રહે છે અને સૂચના અoછે બાકી કે દશે દિલ કam pકોએ પાછું મને કઈ - . તું 82. કા કે ઝઝ * m0 પ્ર શa), હોટ on 0 41જવું ... >> બધું છ૯) જીત ) 2 0 2 mજેદ 2 શ્રnt કરોધ. at ) રહયો છે. એજ, રુબા જશો ક8, " હુ હિત 4 2 . જને ન્યુ વાહક cice, nasion, anda ning nenire world એજ લીટ. જ૮25 જ કાકી એક કછૂક" ની કે કઈ છે અ a " જિa - 4. 49 વિજ00 29 -wam: તેn છે 8 or cછે ? અગ્નિી પર ઝિ , અતુ દ - ૩પર૦૦, 4 30 જ૮ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ 257 पू. प्रेमसूरिजी म. पर पू. कनक वि. म. सा. का पत्रक्रमांक - 3 भावनगर, आश्विन शुक्ला - 2 पूज्यपाद परमोपास्य प्रशमरसपाथोधि परमकारुणिक परमगुरुदेव आचार्यदेव श्रीमद विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजश्रीकी पुनीतसेवामें...... ले. पादरेणु कृपाकांक्षी सेवासमुत्सुक सेवक कनक, सुबद्धि, महिमा आदिकी कोटिशः वंदनावलि यथासमय स्वीकार करनेकी कृपा करें / कृपानाथ ! आपश्रीके पुण्य प्रभावसे हमें पूरी सुख-शात्म है / आपश्रीका कृपापत्र प्राप्त हुआ / आपश्रीके पुण्यदेहमें सुखशाता होगी / देवद्रव्यके तीन प्रकारके जो भेद हैं, उस परसे तो प्रभुजीकी पूजाके लिए उपयोगी वस्तुके लिए उसका उपयोग हो, वह स्वाभाविक है / कृपादृष्टिमें वृद्धि करें / योग्यसेवा फरमायें / ले. सेवक कनककी कोटिशः वंदनश्रेणीका स्वीकार करें / Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 धार्मिक-वहीवट विचार પૂ. પ્રેમસૂરિજી મ. ઉપર น. 818 ... น นนน[296 89 9.848 ## เผดุ3: เทา ซอง: ซvYt6 172% 424732x8 ซan-712are Tanya2 20tree 4)ngะ* ) อุเมะม24) x22 5ผnt - 42. ระแ24 (6) 29-09-234 235 25, 22g , nutr 2484) (244: 44:42 pend one34 4Yc42 n; great! 32xxx20 (04 set 24k 32) 23nrn, 61 22:42: revๆ อยู่ : 22xv ศ) 13942) 3210 รูมวย ? 2484 ก ก 221-24 1 v32) 20 vๆ 392 343) 29พ20 0.14 * 14:46 น. วษ : 442 4 42.in: 47:24: 42m4245, 0 4. 24 1) iss89 24982vQngxย 422ree) Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 259 परिशिष्ट-३ पूज्यपाद प्रेमसूरिजी म. साहबने "मध्यस्थ बोर्ड' को पेश किया हुआ खरडा परमाराध्यपाद, प्रातः स्मरणीय, सिद्धान्तमहोदधि आचार्यदेव श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजाकी आज्ञासे, श्री श्वे. मूर्तिपूजक मध्यस्थ संघ सभाके सदस्योंके लिए धर्मलाभके साथ विदित हो कि आपका पत्र प्राप्त हुआ था / हालमें कई स्थलों पर देवद्रव्यमेंसे उधार कर साधारणके खर्चमें ली गयी रकमें, ट्रस्ट एक्ट आदिकी विरुद्धमें आपके द्वारा व्यक्त की गयी तीव्र आलोचना उल्लेखनीय है / प्रभुशासनमें महा पवित्र माने गये देवद्रव्यकी रक्षा और शास्त्रानुसारी उपयोगके लिए उत्पन्न सावधानी, यह सचमुच जैनशासनके प्रति सुंदर प्रेम और वफादारीका प्रतीक है / आपमेंसे प्राय सभी कहीं न कहीं देरासर, उपाश्रय आदिके पुण्य संचालनका उत्तरदायित्व निभाते हैं कि जिस उत्तरदायित्वका ऊँचा पालन शासनकी सुरक्षा, प्रभावना तथा भव्यजीवोंको धर्म-सुविधा आदिमें अच्छा योगदान देनेके उपरान्त ठेठ तीर्थंकर नामकर्मके विशिष्ट लाभ प्राप्त कराने तक ले जाता है / आप महासौभाग्यसे प्राप्त हुए इस उत्तरदायित्वको, अनेक जीवोंको धर्ममें उन्नत करनेके साथ स्व-आत्माको उन्नत करनेमें सफल करें ऐसी संघ अपेक्षा रखे, यह स्वाभाविक है / - प्रस्तुतमें तुमारे द्वारा किये गये प्रस्तावके विषयमें तुमारी देवद्रव्यकी रक्षा करनेकी तत्परताके अनुसार पहले तो निम्न प्रदर्शित मुद्दे विशेष उल्लेखनीय हैं - (1) शास्त्राधार पर, प्रभुभक्ति निमित्तसे उद्घोषित द्रव्य, देवद्रव्यमें ही समाविष्ट हो सकता है, उसके बजाय अपनी अपनी बुद्धि अनुसार पूराका पूरा या आठआनी-दस आनी आदिके प्रमाणमें, सीधा साधारण विभागमें जमा किया जाता है, वह बिल्कुल अशास्त्रीय है, पापवाही है और संघका अपकर्ष करनेवाला है / (2) उपरान्त, ऐसे देवद्रव्यमेंसे जो उपाश्रय आदिके कार्यों में हजारोंकी तादादमें खर्च किया जाय वह, तथा (3) पर्युषणादिमें प्रभावनामें खर्च किये जाय वह, तथा (4) भाताखातेमें खर्च किया जाय वह, तथा (5) आयंबिल विभागमें रकम दी गयी है, ऐसा विदित हुआ है / वह यदि सही हो तो अति अनिच्छनीय और ट्रस्टीशीपके उत्तरदायित्वका विघातक है / Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 धार्मिक-वहीवट विचार ... (6) देवद्रव्यमेंसे अनावश्यक वेतन देकर जो अनावश्यक स्टाफ रखा जाता है, वह अनुचित है और देवद्रव्यमेंसे वेतनभोगी स्टाफके मनुष्योंका उपयोग मूर्ति, मंदिर या उसकी द्रव्य व्यवस्थाके अलावाकी बाबतोंके लिए करना, उसे देवद्रव्यका दुरुपयोग कहा जाता है / उपरान्त, अनावश्यक स्टाफ रखना, वह भी देवद्रव्यको हानि पहुँचानेवाला कार्य बन पाता है / (7) कई स्थानोंमें, देवद्रव्यकी अधिक आय चालू होने पर भी उसको बाहर जीर्णोद्धार आदिमें नहीं दिया जाता और अपने अधिकारके मंदिरके और प्रभुके भी आवश्यक उपयोगमें नहीं किया जाता और उससे केवल रकम ही बढायी जाती है, वह अत्यंत अनिच्छनीय है / / (8) कर्मादान आदि अयोग्यसे देवद्रव्यकी वृद्धिको भी शास्त्रने हेय मानी है, तो ऐसी वृद्धि और उपरोक्त अनुचित बातें, ये दोनों घोर पापकी कमाई करानेवाले और समस्त संघको नुकसान पहुँचानेवाले हैं / देरासर, उपाश्रयके ट्रस्टी लोग खास ध्यानमें रखें कि देवद्रव्य यह देवकी मालकियतका (देवभक्ति आदिके लिए). अति पवित्र द्रव्य है / अतः उसका उपयोग देव या देवके मंदिरके कार्यके सिवा अन्यत्र होना न चाहिए / अन्यथा, दूसरे क्षेत्रोमें देवद्रव्यका उपयोग करनेसे भयंकर पापका बंध होता है और देवद्रव्यकी व्यवस्था करनेवाला प्रत्येक ट्रस्टी उसका समर्थक तो हो ही नहीं सकता / देवद्रव्य, श्राद्धविधि आदि ग्रन्थोंके आधार पर पूजा, महापूजा, महोत्सव, जीर्णोद्धार आदि अनेक कार्यों में उपयोगमें लाया जाता है / उपर निर्देशानुसार देवद्रव्यके किये गये और किये जानेवाले अयोग्य संग्रह, अनुचित हवाले तथा दुरुपयोगकी जानकारीसे मेरे दिलमें पारावार दु:ख हो पाया है / अतः मेरी तुमसे भावपूर्वक प्रार्थना है कि बम्बईमें होनेवाली ये वस्तुएँ जैनसंघके कल्याण और अभ्युदयकी घातक हैं, उन्हें दूर करनी चाहिए / तुमारे प्रस्तावके अनुसार सोचविचार करने पर भी पहली बात यह है कि संबोध प्रकरणके हिसाबसे देवद्रव्यके तीन अलग विभाग होने चाहिए / (1) प्रथम विभागमें आदानं आदि द्रव्य / वह प्रभुपूजादिके लिए दिये गये द्रव्य प्रभुकी अर्थात् प्रभुप्रतिमाकी भक्तिके कार्यमें उपयोगी बन सकता हैं / Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ 261 (2) निर्माल्य द्रव्य, मंदिरके कार्यमें उपयोगी हो सकता है और द्रव्यान्तर कर, प्रभुके आभूषण भी उसमेंसे बनाये जा सके / / (3) कल्पित (आचरित) द्रव्य, मूर्ति और मंदिर दोनोंके कार्यों में उपयोगी हो सकता हैं / __ संबोध प्रकरण अनुसार, देवद्रव्यके ऐसे शास्त्रीय तीन विभाग अलग न रखनेसे, देखें कि कैसी परिस्थिति उपस्थित होती है ? आदान द्रव्यका मंदिरमें और निर्माल्यद्रव्यका प्रभुपूजामें खर्च करनेकी परिस्थिति खडी हो जाती है / उदा.के रूपमें आदान-द्रव्य मंदिर कार्यमें और जीर्णोद्धारमें खर्च करनेकी नौबत आती है, तब निर्माल्य द्रव्य भी एक ही देवद्रव्यके विभागमें जमा करनेसे प्रभुके अंग पर चढ़नेकी परिस्थिति उत्पन्न होती हैं / श्राद्धविधि आदिके अनुसार देवद्रव्यके दो विभाग है :(1) आदान द्रव्य . (2) निर्माल्य द्रव्य पूजाविधिके लिए, पंचासकजीमें स्वद्रव्यसे पूजा करनेका विधान है और श्राद्धविधि आदिके आधार पर ऐसा विधान है कि (1) ऋद्धिमान श्रावक सहपरिवार, आडम्बरके साथ, अपनी पूजाकी सामग्री लेकर पूजा करने जाय और (2) मध्यम श्रावक, सहकुटुंब अपना द्रव्य लेकर प्रभुपूजा करने जाय तब (3) गरीब श्रावक सामायिक लेकर प्रभुके देरासरमें जाय और वहाँ सामायिक परस्पर को फूल गूंफन आदि का कार्य हो तो करे / 'फूलपॅफन आदिका कार्य हो तो करे' खास नोंध : यह पत्रमें उपरोक्त उल्लिखित हकीकतकी ज्यादा स्पष्टताके लिए इसी पुस्तकके परिशिष्ट 2 में गणिश्री अभशेखरविजयजी द्वारा दिये गये 'देवद्रव्यके प्रस्तावके विषयमें 'चिंतन में सविस्तर य जानकारी देखना आवश्यक है। प्रथम विज्ञापित 1-2-3-4-5 क्रमांककी बातोंमें जो कुछ द्रव्य का घाटा बना रहे, तो उसके विषयमें लिखनेका यह कि योग्य रीतिसे उस घाटा को सम्हाला जाय, लेकिन देवद्रव्यमेंसे तो एक पैसा उन क्षेत्रोमें खर्च किया नहीं जाना चाहिए / सरकारके विचित्र कानून, धार्मिक विभागमें जो दखलंदाजी कर रहे हैं, उसके लिए अधिकारी संचालक लोग देवद्रव्यका उपयोग, नूतन मंदिर, . Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 धार्मिक-वहीवट विचार जीर्णोद्धार, जिनभक्ति आदिमें (शास्त्रीय रीति अनुसार उपदेश-पदादि ग्रन्थोंके आधार पर) खर्च कर देना चाहिए / (अच्छी तरह खर्च करते रहना ही चाहिए / ) विशेष : इस प्रकारकी वस्तुस्थिति तथा पूर्वोक्त आठ गंभीर मुद्दोंकी ओर किसी भी प्रकारका विचार न कर, प्रस्तावकी ओर खींचते गये हों, वह कितना विचारपूर्ण है, उसका स्वयं विचार करें / मुझे अनुभूत शास्त्रीय पद्धति अनुसार देवद्रव्यकी व्यवस्था और पूजाकी विधि आपको विदित की है / तो आप अन्य गीतार्थ आचार्यों की उसके बारेमें संमति प्राप्त करनी चाहिए कि जिससे जैनसंघमें व्यर्थका उहापोह या कलह उपस्थित हो न पाये / देवद्रव्य निमित्त प्रस्ताव करनेसे पहले उपरकी बाबतोंमें सुधार करना अत्यंत जरूरी है / वह न हो सके तब तक, उस मार्ग पर कुछ भी करनेसे देवद्रव्यका उपर निर्दिष्ट क्षेत्रोंमें उपयोग होनेका प्रबल भयस्थान उपस्थित होगा / धर्म साधनामें प्रोज्जवल बनें / पद्मविजयके धर्मलाभ / Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ 263 પૂજ્યપાદ પ્રેમસૂરિજી મું.સાહેબે “મધ્યસ્થ બોર્ડને મોકલેલો કાચો ખરડો કરનાર,પ૬ કાન મા રહય, સન્ન મારિ, અાજે મ ક મ મ %રકમરાન"h, - એ ર્તિપૂર્ણ મ ધ સભાના સભ્યો જે, ધભ સાથે જામ જ . vમ મ એ જે જલક ઉતને દેવે ઉધાર ન ખર્ચમાં લેવામાં આવે છે રકમ 22, મેના વિરૂદ્ધ તેને જ લment. ભુ કvનલા જ રહે અનેorg. બીપિ મ મ મગન રતન એ ખરેખર 21 જે 2 દરમિ અને અજવું મનાય . તેમણે લગભગ બધા કાને પામ ઉનકો મન કહે જી વ્હાબરી ધરાવે છે, જવા જ છેરજન વન હર જાન તજ ભવ્યજીવન ધર્મ 17 કિમ જ 'ફલો જેવા ઉn માજના વિશિષ્ટ લન્ગ પાક લઈ શકે છે તને મન ભાગે પ્રાપ્ત એજ જ બારી છે જોન માં ઉતારવા સાથે અન્યાને ઉજત કરવામાં જ . મા સંધ માર છે એ જ ભાવિ | gnકાં તમે ઠરાવ અને તમારી દેવા રાતના ગયા અનુસારો પહેલાં તો નિચે દરk 9 ક રસપાન જ - ' ' ત્યારે કબુભાતિ જાતે જ બે જ વ્યમાં, જઈ શકે છે એને બદલે પોતજજા બુદ્ધિ અનુસાર કું ખાવું. 3 જા જા રિ પ 6 છે, જો , નર એક છે નવા એ કેઆ કામ જજ Search rezice ca a rake Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 धार्मिक-वहीवट विचार 3 Yetri xn.mubi roinrwani indan v 20 Tore marr; {n arring meinindia सा infamount an55vent Nainari Mun. เริง 5Min ดุ 3 พิมพเนุน 247 2400 56.2 2042rghanise mt win aint Prerana am *5 551. Manis m saniy 24. Amerimarst t2.2.58 - - artin in 2 0 . .. Singer Taman nagingeni, 154 पोरे ah kej. at Timirmia ilke) niyagar ree 2476vani hargnanात्र ... (102 4 41 min minime. cilinon .mmnatrgengrave 2nd rentinatax-60m ngRA नमोर५.7.1.... .. nian it. Sund. * E094712- nir Lunni G55 5 15 (mfsanilijrivare 3gsวิต) (ดู : 32:59:31 Arun in a not unmaniracy. यो। 1.1 n vari6 5.50 AMRITam 0552-2.102 पर 20 RMERA avrt. /61. ganter a nituat arthop सं२८,2704 (511, ता .norenh Ingri Veer .11 : 4m 12 1700 Creamlanet Sumi ५५मा animanserre. n. Mutton a ssuman. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्गिशष्ट 3 ___ as रत 56yen unti 2652en feerazerni xeturn , 5 .ini aunty nygal m manga / y .ininjan .aun.seonl.... ____xgahexagon.MAfns: Harya 2 Fanferen it inlni GMusaram chUnregan mig59 59! Animesic, 3 सिल (माDिA AMATER 40145i62.. ___na . संकाRe P ani in Matrimon 03 1 44 31 -410 Gom , arian Largini ani Tarfereigyanti Aavam YAR-GM . .. 2714016 - अ efini mircaum NRNAG740 यारे fea geeve in ke rani win सपना 2006Y2 5411 Niad, A/16 4 4 47, रि . - n.05 ; 2 frica .. Yanfal 2 5541467 25 18215M 323 पिक infantan ६.से 16f a fit - winkal VE25.niu do.mmm 2012) ल/ 51 625 15 (2) run or aaj .605/xeg5 25 m5. 2 (3) 27271404/RDAS Hot Yoga. 2.17, 2017 Trips, कि 124 रे. .... n or(41. 2. 3.4. 1 m niwara dil Lehri 727 29 मा anjo 24 vi) mini: 59 6 . ) *( ini (1- 512 गोल.. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक वहीवट विचार 2115 ARMING ani diwani) 17 R u le 2+2147444. Triver in 66. mount: (Alt organ Gane tion ) in utanejrial __ना.. .HMM 198460 1Nong sima 3&rani res sidrer fane nie saai arria र 2 दि.२५ % Rem ल. ल...MP. Yefinwr 1 552- 3. ion areinod and 1000 tonnn nirmaan in Pranand S ani nita Gene HC Green 555R 14 { 25 20526 Gmurari 34 tujartion525 5 116 न. ivreturn A ny2060 amin Gvi... 14. Gmmun. 62.6... Gaon on aaornni Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ ..267 मोतीशा ट्रस्ट द्वारा किये गये प्रस्तावमें स्पष्ट है कि पहले देवद्रव्यमेंसे पूजारीको वेतन दिया जाता था तथा पूजाकी सामग्री लायी जाती थी। सेठ मोतीशा लालबाग जैन चेरिटीज पांजरापोल स्ट्रीट, बम्बई-४ (1) सेठ श्री जेठालाल चूनीलाल घीवाला . (2) सेठ श्री शान्तिलाल सोमचंद चोकसी (भाणाभाई) और (3) सेठ श्री केशवलाल मोतीलाल शाह की ओरसे दि. ३१-७-१९६५के दिन लिखा और हमारे ट्रस्टको प्राप्त दो पत्रोंकी जानकारीके अनुसार से. मोतीशा लालबाग जैन चेरिटीजकी ट्रस्टियोंकी दि. २४-८-१९६५की सभामें पारित प्रस्ताव निम्नानुसार है / 'उपरके दो पत्रोंमें निर्देशानुसार उनकी भावना और प्रार्थनाको ध्यानमें लेकर निम्नानुसार निश्चित किया जाता है / (1) उनकी ओरसे रू. 50,000 नगद उनके पत्रमें लिखनेके अनुसार दिये जाय तबसे हमेशाके लिए स्वप्नकी बोलीकी रकम देवद्रव्य विभागमें ले जानेका निश्चित किया जाता है / ___(2) उनकी इच्छानुसार वे केसर, चन्दन आदि विभागोंकी उपज तिधि आदिका आयोजन उनके पत्रमें किये निर्देशानुसार कर, उपरोक्त विभागोंके लिए रू. 1,25,000 कुल सवा लाख पूरे जमा होने पर, निर्दिष्ट विभागोंका किसी भी प्रकारका खर्च, कल्पित देवद्रव्यमेंसे न करनेका निर्णय किया गया _ . . (3) साधारण विभागमें घाटा रहे तो (1) सेठ श्री जेठालाल चुनीलाल (2) सेठ श्री केशवलाल मोतीलाल (3) सेठ श्री शान्तिलाल सोमचंद (भाणाभाई) को सचित करें और फिर भी यदि घाटा रहे तो कल्पित देवद्रव्यमेंसे खर्च करे / जैसे आगे खर्च किया जाता था, उसी प्रकार करें / सही जे. आर. मोतीशा दि. 8-1-1966 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक-वहीवट विचार 268 .Public Trust Reg. No. A 1630 of 1953 SHETH MOTISHAW LALBAUG JAIN CHARITIES 212-L, PANJRAPOLE STREET, BOMBAY-400 004. શેઠ મોતીશા લાલબાગ જૈન ચેરીટીઝ 212-1, પાંજરાપોળ ટ્રીટ, મુંબઈ-૪૦૦ 004, તા. 8 1 66 ના રોજ થયેલ ઠરાવ ની કોપી. - - () ડી ડાલાલ ચુનીલાલ ડીવાળા શેડી તલાલ સો મદ ચોકસી (ભાણાભ છે અળે, ડી દેadલાલ મોતીલાલ શાહ તP3 5 તા-31.95 ના રોજ લખેલ અને આપણા દ્વ* મળેલ બે પત્રોની વિગત મુજબ શેઠ મોત) લાલબણ જે ચેરીટીઝ ના ટ્રસ્ટીઓની ત, 24.86 ની મ0ા માં અવેલો ડવ નીચે મુજબ છે : " ઉપ2ના બે પત્રોમાં જણાવ્યા પ્રમાણે તેમને લાગેel) ... વિતી દયાળ માં લઈ નીચે પ્રમાણે હayવવામાં આવે છે . (1) તેમના તરફ 3, 50es, aોડા તેમના પક્ષમાં લખળ જખ આપવામં આવે છે કાયમ માટે ના ની બe) ની રકમ સ્વબળ પાસે લઈ જવા, ઈરાવવામાં આવે છે. છે તેમનો ઈ મુજબ તેઓ કેસન, સુખડ વિ. ખાતાઓ ની - ઉપજ તિથિ પા) ગોઠવણો તેમના પત્રમાં મenu મુજણ 2 સ૬૨ ખાતાઓ માટે રૂ. avo, અંકે રૂ. સવા લાખ BC જમા થતi સદર ખાતાઓનો કોઈપહો ખર્ચ કલ્પિ દેવકલ્પ બંધ ન કવાળો ડAવવામાં આવે છે . ) માયણ ખાતામાં તો રહે તો (1) શેડAAી રેડ, સાલ ચુનીલાલ ધન (2) શેડAી કેayવલાલ સોની હાલ (3) 20) સલાલ સો૬ (ાણા) ને જાવ અને તેમાં d એ તો હે તો કલ્પિત બ્ધિ - વાપરવું જેમ અગાઉ વાપરતા હતા તે રીતે જ વપત્રનું - - - ૧૯ઉં. fa Sheth Motishaw Lalbaug Jain Charitia અજબ - Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ 269 संवत १९७६में खंभातमें श्रमणसंमेलन __ द्वारा देवद्रव्यसंबंधी किये गये निर्णय खंभातमें पूज्यपाद जैनाचार्य श्रीमद् विजय कमलसूरीश्वरजी महाराज, श्रीमान् सागरानंद सूरीश्वरजी महाराज, पंन्यासजी महाराज श्रीमद् दानविजयजी गणि और पंन्यासजी महाराज श्रीमान् मणिविजयजी गणि आदि महात्मा एकत्र होकर हरिभद्रसूरिकृत उपदेशपद, आवश्यकवृत्ति, षोडशक और संबोधप्रकरण, श्रीमद् जिनेश्वरसूरिकृत अष्टकवृत्ति, बृहत् कल्पव्यवहार और निशीथभाष्यादि शास्त्रों के आधार पर देवद्रव्यकी वृद्धि और रक्षण-भक्षणका फल और उनकी आयमें परिवर्तन न हो, ऐसा निर्देश देनेवाला यह निर्णय लिखा / पृ. 20 (यह निर्णय जैनपत्रमें ता. २१-३-२०के दिन प्रसिद्ध किया / ) निर्णयके मुद्दे : (1) शास्त्र (साक्षात्-अनन्तर और परंपरारूप) बिना किसी भी जीवकी सिद्धि ही नहीं / (2) जिनेश्वर देवके स्थापना-निक्षेपाको माननेवालेको जिनचैत्यकी उसकी पूजाकी, उसके लिए आवश्यक उपकरणोंकी और उनमें कमी न आने पाये उसके लिए देवद्रव्यकी वृद्धि और उसके संरक्षणकी अनिवार्य आश्यकता है / . (3) शास्त्रोक्त रीतिसे देवद्रव्यके सूद आदि द्वारा वृद्धि और रक्षा करना, यह श्रावकोंके लिए महत्त्वके कार्यों में से एक है / अरे, संसारसे पार उतरनेका वह एक मार्ग भी है / (4) जैनोंसे भी न हों, ऐसे पापकार्योमें देवद्रव्यका व्यय नहीं होता / (5) पाँच सात मुख्य स्थानके अलावा अन्य स्थलोंमें देवद्रव्य और साधारण द्रव्य, दोनोंकी एक समान आवश्यकता है / (6) देवद्रव्यकी जो जो आमदनी मकानके किराये द्वारा, व्याज द्वारा, पूजा-आरती-मंगलदीप आदिके चढ़ावोंके द्वारा होती हो, उन तमाम मार्गोको बंद करनेका परिणाम, शास्त्रकारोंने संसार परिभ्रमण बताया है / (7) मालोद्घाटन, परिधापनिका मोचन और न्युछनकरण आदिमें चढ़ानेसे कार्य करनेकी रीति सैंकडों वर्ष पहलेसे चली आती हुई शास्त्रोंमें Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 धार्मिक-वहीवट विचार बतायी गयी है / देवद्रव्यकी वृद्धिके लिए ही माला धारण करना आदि कार्य सुज्ञ लोगोंको करने चाहिए ऐसा शास्त्रकार मानते हैं और इसी कारण उस द्रव्यको जिनाज्ञापालकोंसे तो अन्य विभागोंमे लिवाया नहीं ही जाता / (8) बोलियाँ कुसंपनिवारणके लिए कल्पित नहीं, लेकिन शास्त्रोक्त . विचार समीक्षा लेखक : मुनि श्री रामविजयजी (पू. आ. श्री रामचंद्रसूरीश्वरजी म. सा.) प्रकाशक : अहमदाबाद जैन विद्याशाला, सं. 1976 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट क्रमांक-४ - ले. आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म. साहब प्रश्न :- 'द्रव्य सप्ततिका' तथा 'श्राद्धविधि' ग्रन्थके आधार पर कई ऐसा प्रस्थापित करना चाहते हैं कि 'स्वद्रव्यसे ही पूजा करनी चाहिए / परद्रव्य या देवद्रव्यसे पूजा हो ही नहीं सकती।' इस विषयमें स्पष्ट अभिप्राय देनेकी कृपा करें / उत्तर : 'स्वद्रव्यसे ही पूजा करनेका' 'द्रव्यसप्ततिका' और 'श्राद्धविधि' ग्रन्थमें जो कहा गया है, वह गृहमंदिरकी व्यवस्थाके विषयके वर्णनसे संबंधित है, लेकिन उससे देवद्रव्यसे भी पूजा करनेका निषेध नहीं लेकिन विधान होता है / गृहमंदिर व्यवस्थाका वर्णन करते समय, उसमें जो विधान किये गये हैं, उनका अच्छी तरह गौर करने पर, इस बातका पता चलेगा / देखें :'गृहचैत्यनैवेद्यापि चारामिकस्य प्रागुक्तमासदेयस्थाने नाj, आदावेव नैवेद्यार्पणेन मासदेयोक्तौ तु न दोषः / / मुख्यवृत्त्या तु मासदेयं पृथगेव कार्यम् / ' अर्थ : मालीको माहभरकी (फूल आदिकी निश्चित की गयी) 'श्राविधि' दी जानेवाली रकमके स्थान पर घरचैत्यके नैवेद्यापि न दे, लेकिन पहलेसे ही नैवेद्यादि अर्पण करनेके साथ मासिक देय रकम निश्चित की हो तो कोई दोष नहीं / मुख्यवृत्तिसे मासिक देय रकम अलग ही देनी चाहिए / ' यहाँ मुख्यवृत्तिसे मालीको मासिक रकमके स्थान पर नैवेद्यादि देनेका निषेध करने पर भी, पहले निश्चित किया हो तो दोष नहीं ऐसा निर्दिष्ट किया गया है / ___ यदि देवद्रव्यसे पूजा करनेमें देवद्रव्यके उपभोगका दोष लगता हो अथवा देवद्रव्यमें से पूजा हो ही नहीं सकती हो तो नैवेद्यादिके विक्रयसे प्राप्त पुष्प प्रभुको कैसे समर्पित किये जाय ? क्योंकि नैवेद्यादि तो प्रभुके पास घरमंदिरके देवद्रव्यसे अर्पित किया जाता है / फिर भी दोष नहीं, Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 धार्मिक-वहीवट विचार ऐसा शास्त्रकारने बताया है / जो सूचित करता है कि देवद्रव्यमेंसे पूजा करनेमें देवद्रव्यके उपभोगका दोष नहीं लगता / और भी आगे गौर करें : 'स्वगृहचैत्यढौकितचोक्षपूगीफलनैवेद्यादिविक्रयोत्थं पुष्पभोगादि स्वगृहचैत्ये न व्यापार्यम् / नापि चैत्ये स्वयमारोप्यं किन्तु सम्यग् स्वरूपमुक्त्वाऽर्चकादेः पार्थात् तद् योगाभावे तु सर्वेषां स्फुटं स्वरूपमुक्त्वा स्वयमप्यारोपयेत् / अन्यथा मुधाजन प्रशंसादि दोषः।' अर्थ : गृहमंदिरमें रखे गये अक्षत, सुपारी, नैवेद्यादिके विक्रयसे उत्पन्नअर्जित द्रव्यसे प्राप्त पुष्पादि स्वगृहचैत्यमें उपयुक्त न करें, लेकिन संघमंदिरमें सम्यक्स्वरूप कहकर दूसरे अर्चकादि (पूजा करेनेवाले आदि)के पास रखवा दें / वैसे अर्चकादिका योग न हो तो दूसरोंके आगे स्पष्ट स्वरूप कहकर (कि इस गृहमंदिरके चावल आदिके विक्रयसे अर्जित द्रव्यके पुष्प आदि हैं) स्वयं आरोपण करें, अन्यथा व्यर्थका जनप्रशंसादिका दोष लगेगा / यहाँ देखें, गृहमंदिरके देवद्रव्यके पुष्प आदि, दूसरे पूजा करनेवालेके पास समर्पित कराये तो अन्य व्यक्तिको देवद्रव्यसे पूजा संपन्न हुई या नहीं ? उपरान्त, दूसरे न हों अथवा दूसरे इन्कार करें तो स्वयं भी ये मेरे द्रव्यसे खरीदे हुए नहीं है लेकिन गृहमंदिरके देवद्रव्यके हैं ऐसी स्पष्टता कर पुष्प आदि भगवानको समर्पित करें, तो यह देवद्रव्यसे सम्पन्न की गयी पूजा मानी न जायेगी ? इस गृहमंदिरके देवद्रव्यमेंसे खरीदे गये पुष्पादि हैं, ऐसी बिना स्पष्टता किये स्वयं समर्पित करे तो व्यर्थ जनप्रशंसादि दोष बताया गया है, लेकिन देवद्रव्यके उपभोगका दोष कहा नहीं, यह विशेष ध्यानयोग्य बाते हैं / उपरोक्त स्पष्टताके साथ तो समर्पित करनेका विधान किया है / और भी आगे पाठ पर सोचविचार करें : 'गृहचैत्य नैवेद्य चोक्षादि तु स्वगृहे मोच्यमन्यथा गृहचैत्यद्रव्येणैव गृहचैत्यं पूजितं स्यान्नतु स्वद्रव्येण तथा चानादरावज्ञादि दोषः / न चैवं युक्तं स्वदेहगृहकुटुम्बाद्यर्थ भूयसोऽपि व्ययस्य गृहस्थेन करणात् / ' अर्थ : गृहचैत्यके नैवेद्य, अक्षत आदि (या उसके विक्रयसे अर्जित Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ 273 द्रव्य) संघमंदिरमें अर्पित करें / अन्यथा गृहचैत्यके द्रव्यसे ही गृहचैत्यकी पूजा हो लेकिन स्वद्रव्यसे न हो, अतः अवज्ञा-अनादरादि दोष लगे, यह उचित नहीं, क्योंकि स्वदेह, घर, परिवार आदिके लिए गृहस्थ बहुत-सा धन-व्यय करता ही है / यहाँ गृहचैत्यके द्रव्यसे गृहचैत्यकी पूजा करनेका निषेध किया / स्वद्रव्यसे ही गृहमंदिरकी पूजा करनेकी बात बतायी, लेकिन कुटुम्बादिके लिए भारी खर्च करनेवाले गृहस्थके लिए स्वद्रव्यसे पूजा न करने पर अवज्ञा-अनादरादिका दोष निर्दिष्ट किया गया है / देवद्रव्यके भक्षणका नहीं / इस बातको भी ध्यानमें लें / देवगृहे देवपूजापि स्वद्रव्येणैव यथाशक्ति कार्या नतु स्वगृहढौ कितनै वेद्यादि विक्रयोत्थ द्रव्येण, देवसत्क पुष्पादिना वा प्रागुक्तदोषात् / अर्थ : संघमंदिरमें देवपूजा स्वद्रव्यसे ही यथाशक्ति करें, लेकिन निजी गृहमंदिरमें अर्पित नैवेद्यादिके विक्रयसे प्राप्त-उपार्जित द्रव्यसे या देवमंदिरके पुष्पादिसे न करें, क्योंकि पूर्वोक्त (मुधा प्रशंसादि अथवा अवज्ञादि) दोष लगे / यहाँ भी देवद्रव्यके उपभोगका दोष बताया नहीं है / यहाँ भी घरमंदिरके मालिकको ही संघ मदिरमें अपने गृहमंदिरके देवद्रव्यसे अथवा घरदेरासरके पुष्पादिसे पूजा करनेका निषेध किया है उससे देरासरमें देवद्रव्यके पुष्पोंसे पूजा भी होती हो, एसी संभावना है / देवद्रव्यके बाग-बगीचोंमें उत्पन्न पुष्पादि भगवानको समर्पित होते हो, तभी इस प्रकार 'देवसत्कपुष्पादि' कहा जाय, उसके सिवा किस प्रकार कहा जाय ? ... . इन सभी पाठोंका निष्कर्ष : - (1) माली आदिको मुख्यतया अलग वेतन दें / फिर भी नैवेद्य देकर (पुष्प आदिके लिए) मासिक रकम निश्चित की गयी हो तो वह दोषरूप नहीं / नैवेद्य तो देवद्रव्य स्वरूप ही है, अत्ः देवद्रव्यके कारण गृहमंदिरमें भी पुष्प समर्पित करनेका कार्य संपन्न हुआ / . (2) गृहचैत्यके नैवद्यादिसे उत्पन्न रकममेंसे खरीदे पुष्पादि, बड़े देरासरमें अन्य पूजा करनेवालेके द्वारा समर्पित करवायें / (3) दूसरे पूजकका योग न हो तो 'ये गृहमंदिरके देवद्रव्यसे Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 धार्मिक-वहीवट विचार गृहीत है', ऐसी स्पष्टताके साथ स्वयं चढाये / (4) गृहमंदिरके (नैवेद्य, अक्षत) या उसकी उपार्जित रकम संघमंदिर में अर्पित करें, परंतु गृहमंदिरमें पूजा स्वद्रव्यसे करें / गृहमंदिरके नैवेद्यादिके विक्रयसे प्राप्त रकममेंसे न करें, अन्यथा घरका भारी खर्च होने पर भी जिनपूजा स्वद्रव्यसे संपन्न न होने के कारण, अनादर-अवज्ञादिका दोप लगे। (5) गृहमंदिरका मालिक, संघमंदिरमें भी गृहमंदिरके द्रव्यसे पूजा न करे अथवा देवमंदिरके पुष्पादिसे भी न करें, किन्तु स्वद्रव्यसे ही करें। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि यह सारा अधिकार गृहमंदिर विषयक है / ये सारे विधान गृहमंदिरके मालिकके बारेमें हैं अतः गृहमंदिरके देवद्रव्यसे या संघमंदिरके पुष्पादिसे पूजा करनेकी मना फरमायी गयी लेकिन उसी घरमंदिरके द्रव्यके पुष्प दूसरोंके पास समर्पित करवाने अथवा स्वयं स्पष्टता कर चढ़ानेका जो विधान किया है, उससे स्पष्ट होता है कि देवद्रव्यसे भी पूजा करनेमें कोई दोष मालूम नहीं होता / यदि देवद्रव्यसे पूजादिका निषेध हो तो इस प्रकार दूसरेके पास अथवा स्वयं (गृहमंदिरके मालिक द्वारा) स्पष्टता कर देवद्रव्यके पुष्प कैसे समर्पित किये जायँ ? अस्तु, सुज्ञात्मा, शास्त्रपाठोंके गर्भित यथार्थ रहस्यको समझकर उचित बोध प्राप्त करे, यही शुभेच्छा / . क्या उछामनी (उद्यापन) आदिसे उपार्जित एवं भंडार आदिके सारे देवद्रव्यको, निर्माल्य द्रव्य माना जाय ? आजकल जो ऐसा कहते हैं कि देवद्रव्यका पूजादि कार्योंमें उपयोग किया न जाय, केवल नूतन जिनमंदिर, जीर्णोद्धार और आभूषणके रूपमें ही उपयोगमें लाया जाय अथवा जहाँ साधारण द्रव्यकी शक्ति न हो, ऐसे गाँव आदि स्थलोंमें ही पूजादि कार्योंमें किया जाय, वे क्या नहीं जानते कि शास्त्रकारने देवद्रव्यके पूजा-निर्माल्य-कल्पित ऐसे जो तीन अथवा कहीं पर पूजा और निर्माल्य ऐसे दो भेद विशिष्ट किये है वहाँ निर्माल्य द्रव्यका जिनमंदिर और जीर्णोद्धार एवं आभूषणमें उपयोग किया जाय, ऐसा कहा ___ 'यत्र च ग्रामादौ आदानादि' द्रव्यागमोपायो नास्ति, तंत्र अक्षतबल्यादि द्रव्येणैव प्रतिमा पूज्यमानाः सन्ति / ' - 'श्राद्धविधि' Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ . 275 जिन गाँवोमें आदान (पूजादि-आदिसे कल्पित) द्रव्यकी आमदानीका उपाय नहीं, वहाँ अक्षत, बलि (नैवेद्य) आदि द्रव्यसे ही प्रतिमाकी पूजा की जाती है / श्राद्धविधिके इस पाठमें जिन गाँवोमें पूजादि (कल्पित) द्रव्यकी उपार्जित रकमकी संभावना नहीं, वहाँ अक्षत, बलि (नैवेद्य) आदिके द्रव्यसे (निर्माल्य द्रव्यसे) ही पूजा सूचित की गयी है, तो यदि नूतन जिनमंदिर, जीर्णोद्धार और ऐसे गाँवोंमें ही देवद्रव्यसे पूजा करनेकी छुट्टी है, ऐसा कहनेवाले क्या समस्त देवद्रव्यको निर्माल्य द्रव्य ही समझते है ? पूजा-कल्पित आदि द्रव्यको भी निर्माल्य द्रव्यकी कक्षामें स्थापित करना, उन दोनों प्रकारके देवद्रव्यकी घोर आशातना नहीं होगी ? सुज्ञेषु किं बहुना ! Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट क्रमांक-५ देवद्रव्य-गुरुद्रव्य-विवाद (यह विवाद मुख्य तीन प्रश्नों पर आधारित है / यहां क्रमशः उन तीन प्रश्रोंके शास्त्राधारित समाधान दिये गये हैं / ) - पं. चन्द्रशेखर विजयजी प्रश्न : (1) क्या स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए ? (2) क्या परद्रव्य या देवद्रव्यसे खरीदे केसरादिसे जिनपूजा की जाय तो पाप (देवद्रव्यभक्षणका दोष) लगेगा ? उत्तर : 'स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिएं' ऐसा पाठ 'द्रव्यसप्ततिका और 'श्राद्धविधि में अवश्य आता है, परन्तु यह पाठ, गृहदेरासरमें रखे मौसंबी आदि द्रव्योंसे संघके बडे देरासरमें जिनपूजा करें तो लोग कहे कि भाई, कैसे बडे धर्मात्मा हैं कि अपने घरदेरासरमें तो स्वद्रव्यका उपयोग करते हैं, लेकिन बडे देरासरमें भी स्वद्रव्यका उपयोग करते हैं, ऐसी जो मुधा प्रशंसा हो, यह न हो उसके लिए घरदेरासरवाले जैनलोगोंको बड़े देरासरमें भी स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए, जिससे उसकी झूठी प्रशंसा होनेका दोष न लगे / अब इस घरदेरासरका पुराना संदर्भ छोडकर केवल इस वाक्यको उठा लेना-'स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए'-और उसे सभी जैनोंके लिए लागू कर देना, उसे उचित कैसे समझें ? यदि सभी जैनोंको झूठी प्रशंसा प्राप्त करनेका दोष लगता होता तो उनके लिए भी स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनेका विधान हो सकता था, लेकिन ऐसा तो हुआ नहीं / ___मुझे लगता है कि, 'सभी जैनोंको स्वद्रव्योंसे ही जिनपूजा करनी चाहिए' ऐसा आग्रह रखनेमें घरदेरासरविषयक संदर्भ भुला दिया गया है और इसी लिए यह आग्रह सभी जैनोंके लिये कराया जा रहा है / ___ अब रही दोष लगनेकी बात कि जो कोई जैन परद्रव्यसे या देवद्रव्यसे पूजा करे तो उसको दोष लगेगा ? इसका उत्तर नकारमें है कि दोष नहीं लगता / हाँ, इतना सही है Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 277 परिशिष्ट-५ कि यदि वह जैन स्वद्रव्यसे ही पूजा करनेके लिए शक्तिमान हो फिर भी अपने कृपण स्वभाव आदिके कारण वह दूसरेके दिये या संघ द्वारा की गयी व्यवस्था अनुसार अथवा देवद्रव्यमेंसे संघ द्वारा खरीदे केसरादिसे पूजा करे तो, उसे अपनी धनमूर्छा न उतरनेके कारण जो लाभ जिनपूजादि द्वारा होना जरूरी था, उसमें घाटा होगा, लेकिन सावधान, उसमें भी यदि जिनपूजा करते करते उसे अपनी कृपणताके निमित्त पश्चात्ताप हो अथवा जिनपूजा करते समय भावोल्लास हो तो उसमें धनमू के दोषके माइनसकी अपेक्षा ये सारे प्लस बेहद बढ़ जायेंगे / इस प्रकार अन्ततः उसे लाभ ही होगा / अब जो जैन अत्यंत गरीब हो, उनके पास जिनपूजाके लिये जरूरी स्वद्रव्य भी न हो, तो वे जब परद्रव्यसे या देवद्रव्यसे पूजा कर तो उसमें उसे धनमूर्छा उतारनेका सवाल पैदा नहीं होता / (धन ही नहीं हो तो धनमूर्छा उतारनेकी बात ही कहाँ ?) ऐसे गरीब जैनोंको कोई श्रीमंत जैन अपने केसरादिसे-परद्रव्यसे- उसके पास पूजा कराये अथवा देरासरमें संघ द्वारा तैयार करवाकर रखे गये कटोरेके केसरसे वह पूजा करे (हिर-प्रश्न आदि देखनेसे स्पष्ट मालूम होता है कि पहले सामान्यतः देवद्रव्यमेंसे पूजा होती रहती थी और पूजारीको वेतन दिया जाता था) तो उसे कोई दोष नहीं लगता / वे श्रीमंत भाई पूजा करवाते हैं, उसमें उस गरीब जैन भाईके लिए वह केसर परद्रव्यका हुआ और यदि देरासरके देवद्रव्यका केसर हो तो वह सीधा साफ देवद्रव्यका हुआ, तो भी उससे पूजा करनेवाले गरीब भाईको देवद्रव्यभक्षणका दोष नहीं लगता / (उस केसरका उपयोग घरके भोजनके श्रीखंडमें किया जाय तो अवश्य देवद्रव्यभक्षणका दोष लगता है, परन्तु देवपूजामें केसरका उपयोग करेनेसे देवद्रव्य भक्षणका दोष नहीं लगता / यदि भक्षणका ही दोष लगे तो उस देवद्रव्यमेंसे अपवादरूपमें ९०वें संमेलन द्वारा पारित प्रस्तावके अनुसार पूजारीको वेतन दिया नहीं जा सकता / ) यहाँ विपक्षीलोग कहते हैं कि गरीब जैनोंके पास स्वद्रव्य न हो तो उन्हें परद्रव्य या देवद्रव्यसे पूजा ही न करनी चाहिए / उन्हें पूजाका लाभ पाना हो तो जो श्रीमंत जैन केसर पूजा करता है, उसे केसर घिसकर दे अथवा उस श्रीमंतके फूलोंको गूंथकर अथवा देरासरका कूडा निकालकर, उस लाभको प्राप्त करें / ___ यह शास्त्रोक्त कथन बिना गहराईसे सोच-विचार किये कहा गया मालूम Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 धार्मिक-वहीवट विचार होता है / यदि दुसरेका केसर घिसा जा सकता है, दूसरेके फूलोंको गंथे जा सकते हैं, तो दूसरेके केसर द्वारा या फूलों द्वारा प्रभुके अंगकी पूजा क्यों नहीं की जा सकती ? उपरान्त, इस प्रकार गरीबोंको जिनपूजा करनेका निषेध करेंगे तो लाखों गरीब जैन, जिनपूजा से वंचित रह जायेंगे / दूसरंके दिये केसरसं या बारहमासके चढ़ावे बोलकर. प्राप्त केसरसे गरीब मनुष्य जिनपूजा करे उसे यदि परद्रव्यकी ही पूजा मानी जाय, उससे वह पूजा न हो सके तो उसे जिनपूजा करनेका लाभ प्राप्त प्रायः न होगा, क्योंकि उसके पास पूजाके लिए अतिरिक्त स्वद्रव्य प्राप्त करनेके अवसर कम हैं। उपरान्त, यदि इस प्रकार परद्रव्यसे किये जानेवाले धर्ममें 'धर्म' न हो तो उपधान, संघ, स्वामिवात्सल्य आदि बंद करने होंगे / क्योंकि अधिकांश जैन इसमें शामिल होकर परद्रव्यका ही उपभोग करते हैं / .. विपक्षके लोग अपनी बातके समर्थनमें 'अनुद्धिमान जैन' विषय पाठका उल्लेखकर कहते हैं कि 'उस पाठमें गरीब मनुष्यको, स्वद्रव्यसे पूजा करने आये श्रीमंत जैनके फूल गूंथने आदि बातें क्यों कही गयी है ?' . इसका उत्तर यह है कि उस गरीबके पास, उस स्थलं पर कोई मालिन आदि नहीं, वहाँ, फूलोंका बाग आदि भी नहीं / संक्षेपमें वहाँ पूजाकी सामग्रीका ही अभाव है / (पूजा सामग्री-अभावात्) इससे उस गरीब मनुष्यके पास वहाँ सामग्री ही उपलब्ध नहीं / अब उसे पूजाका लाभ लेनेकी इच्छा है, तो वह कैसे पूरी हो पायेगी ? उसका जवाब यह है कि वहाँ आये श्रीमंत जैनभाईके फूलोंका गूंथन आदि द्वारा उस इच्छाको पूरी करें ? यहाँ एक बात बतानी है कि यदि वह श्रीमंत जैन उस गरीब मनुष्यसे कहे कि, 'लो, तुम मेरे फूलोंसे पूजा करो' तो क्या वह फूलपूजा न करेगा ? अवश्य करेगा, 'लेकिन शास्त्रोक्त उस पाठस्थान पर श्रीमंत मनुष्यने ऐसी बात कही है ऐसा उसे बताया नहीं / हाँ, तो वहाँ माँग कर तो फूल लिये नहीं जाते, अतः वह गरीब मनुष्य, उसके फूल गंथनेमें ही संतोष मानता है।' सेन प्रश्न (पृ. २८)में ज्ञानद्रव्यसे जिनपूजा हो सकती है, ऐसा निर्दिष्ट किया है / क्या यह ज्ञानद्रव्य, परद्रव्य माना नहीं जायेगा ? उपरान्त, बारह मासके केसरादिके जो चढ़ावे बोले जाते हैं, वे भी कई पूजकोंके लिए परद्रव्य ही बन पाते हैं न / Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ 279 ___ (सभी कोई, उनके बदले अवेजमें उस खातेमें रूपये तो डालते नहीं / ) संक्षेपमें कहनेका तात्पर्य है कि शक्तिसंपन्न जैन लोग स्वद्रव्यसे पूजा करें, लेकिन कृपणतादिके कारण वे ऐसा न करें और - गरीब लौग स्वद्रव्य के अभावमें ऐसा कर न पाये तो वे दोनों परद्रव्य या देवद्रव्यसे जिनपूजा करें तो पापबंधन हो-देवद्रव्यका भक्षण रूप महापापबंध हो-ऐसा कह नहीं सकते / हाँ, शक्ति होने पर भी धनमूर्छा न उतारे तो रय श्रीमंतको बड़ा लाभ होनेकी अपेक्षा अल्पलाभ हो इतना अवश्य कह जा सकता प्रश्न :- 2 (1) कल्पित देवद्रव्य किसे कहा जाय ? ___ (2) उसका उपयोग क्या पूजारीको वेतन, जिन': की सामग्री आदिके लिए किया जा सकता है ? उत्तर : संबोध प्रकरण ग्रन्थमें पूज्यपाद हरिभद्रसूरिजी म. सा बने देवद्रव्यके तीन अवान्तर भेद बताये हैं / (1) पूजा देवद्रव्य (प्रभु समक्ष रखे गये भंडारमें डाला हुआ धन आदि) (2) निर्माल्य देवद्रव्य (उतारे गये वरख आदिके विक्रयसे प्राप्त धन आदि) (3) कल्पित देवद्रव्य (संमेलनीय प्रस्ताव अनुसार स्वप्नद्रव्य, उपाधानकी माला आदिकी उछामनियों द्वारा प्राप्त होनेवाला धन) तीसरा कल्पित देवद्रव्य है / जिनमंदिरके निभावके लिए जिस धनका संकल्प किया हो, उसे कल्पित देवद्रव्य कहा जाता है / इन तीन प्रकारके देवद्रव्यकी व्यवस्थाका, इस शतकमें हुए स्वर्गीय महागीतार्थ आचार्य-पूज्यपाद सागरनंद सूरीश्वरीजी म. सा., पूज्यपाद प्रेमसूरीश्वरजी म.सा., पूज्यपाद रविचंद्र -सूरीश्वरीजी म.सा. (उनकी प्रश्नोत्तरकर्णिका देखे) आदिने समर्थन किया है / उपरान्त, इ.स. १९७६में खंभातमें हुए संमेलनमें पू. कमलसूरीश्वरजी म.सा. आदि कई गीतार्थ आचार्योंने भी इसका समर्थन किया है / उन्होंने बताया है कि, ___अष्टप्रकारी पूजाकी बोली जानेवाली उछामनियाँ, स्वप्न, उपधान आदि मालाओंकी बोलियाँ, आदिको कल्पित देवद्रव्य कहा जाय / उसमेंसे जिनभक्तिके सभी कार्य किये जा सकते हैं / नहीं, अपवादरूपसे नहीं, परन्तु राजमार्ग से / (इस बातकी, स्वर्गगत पू. पाद प्रेमसूरीश्वरजी म. साहबने अपने पत्रमें -स्पष्टता की है / ) (देखें, इस पुस्तकके परिशिष्ट 3) Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 ___ धार्मिक-वहीवट विचार देरासरका ही काम करनेवाले गुरखे, पूजारी आदिका वेतन, जिनपूजाका केसर, घी आदि सामग्री, संघ द्वारा कल्पित देवद्रव्यमेसें देनेका राजमार्ग होने पर भी, यदि साधनसंपन्न जैनलोग स्वद्रव्यसे यह सारा लाभ उठाये तो वह अत्युत्तम बात है / इसका अमल हो, ऐसा बलवत्तर-प्रभावशाली उपदेश भी पुण्यशाली गीतार्थ' मुनिजनों को उन्हें देते रहना चाहिए / . कोई सवाल उठा सकता है कि सिद्धान्तकी वात. कौनसी है ? तो उसे जो शास्त्रोक्त विधान हो, उससे अवगत कराया जाय, यह आवश्यक है / शास्त्रवेत्ताओंने कल्पित देवद्रव्यमेंसे उपर्युक्त वेतन तथा पूजासामग्रीकी स्पष्ट छुट्टी दी है / उपरान्त, श्राद्धविधिग्रन्थमें देरासरके निभाव निमित्त आमदानियोंके साधनखेत, मकानोंके किराये आदि द्वारा प्राप्त होनेवाले धन(आदानादि द्रव्य) से जिनपूजा करनेका विधान किया है / यह सामान्य विधान है / अपवादरूप नहीं / उस बातको सब लोग अच्छी तरह समझ लें / कोई प्रश्न करेगा कि वह पूजारी और वह सामग्री तो हमारे लिये है, तो देवद्रव्यका उसमें उपयोग कैसे हो सकता है ? . इसका उत्तर यह होगा कि देवनिमित्त जो कार्य हो, उसमें देवद्रव्यका उपयोग किया जाय / हाँ, व्यक्तिगतरूपमें प्रत्येक जैनको स्वद्रव्यसे पूजादि करनी चाहिए / लेकिन संघशाही रूपसे संघ, देवद्रव्यसे भी पूजादिकी व्यवस्था कर सकता है / (देखें स्व. पूज्यपाद श्री प्रेमसूरिजी म.सा.का पत्र-परिशिष्ट३) उपरान्त, ऐसा प्रश्र करनेवालोंको मुझे यह पूछना है कि, देरासर किसके लिए बनवाया जाता है ? जवाब यही होगा कि पूजा करनेवालोंके लिए, क्योंकि, भगवंतको देरासरकी आवश्यकता नहीं है / अब मुझे यहाँ यह प्रश्न करना है कि पूजारीकी तरह देरासर भी अपने लिए है तो देरासरके बनवानेमें देवद्रव्यका उपयोग क्यों किया जाता है ? उसमें तो करोडों रूपयोंका उपयोग किया जाता है / पूजारी और पूजासामग्रीमें तो हजार रूपयोंका ही उपयोग किया जाता है / यदि हजारों रूपयोंके व्ययसे देवद्रव्यको घाटा पहुँचता हो तो करोडों रुपयोंके व्ययसे कितना सारा नुकसान होगा ? अब यदि देरासरों (नये-पुराने के निर्माणकार्यको 'देव'से संबंधित कार्य मानकर देवद्रव्यका उपयोग किया जाता है तो क्यों पूजारी और पूजासामग्रीको देव संबधित कार्य मानकर के कारण, उसमें देवद्रव्यका उपयोग किया न Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ 281 जाय ? आश्चर्य तो इस बातका है कि देरासरके पत्थरको शिल्पी घिसे तो उसको देवद्रव्य दिया जा सके और उस प्रतिमा (पत्थर)को पानीसे धोकर पूजारी साफ करे तो, उसे देवद्रव्य दिया नहीं जा सकता ? उपरान्त, कल्पित देवद्रव्यमेंसे पूजाकी सामग्री यदि लायी जा सके तो उसके कई सारे लाभ हैं / वे इस प्रकारके : एक बातको अच्छी तरह समझ लें कि यह देवद्रव्य है, मतलब कि बह देवके निमित्त द्रव्य है / अव शुद्ध साधारण विभागकी रकमें सामान्यतया कम होने के कारण शुद्ध बीके दीपक देरासरमें जलानेका काम खूब धनव्ययसे साध्य होनेके कारण, मुश्किल है। लेकिन कल्पित देवद्रव्यमेंसे इस रकमको मिलानेका काम बहुत सरल है / इस रकममेंसे बिजलीकी अत्यंत हानिकारक लाइटें जलायी जा सकती है ? लेकिन उसके स्थान पर कल्पित देवद्रव्यमेंसे रकम लेकर शुद्ध घीकी रोशनी की जाय तो उसमें परमात्माकी शोभामें कितनी वृद्धि होगी ? उस निमित्त कितने सारे जीव सम्यक्त्व आदि धर्म प्राप्त कर लें ! उस प्रकार जिनशासनकी अपूर्व प्रभावना हो, अनेक जीवोंको धर्मप्राप्त हो तो क्या देवनिमित्त द्रव्यका उपयोग ऐसे कार्योंके लिये भी न किया जाय ? क्या शुद्ध साधारण द्रव्यकी तद्दन सामान्य आँगीसे ही संतोष मनाना होगा ? ___ सभी याद रखें कि भूतकालमें 'घी'की बोली होती, उतने वजनका 'धी ही जमा किया जाता था / उस घीके दीपक ही देरासरोंमें जलाये जाते थे / अब आज उसी घीका मूल्य रूपयोंमें निश्चित किया गया है, तो उतने रूपयोंका घी लाकर, उसके दीपकोंसे रोशनी क्यों न की जाय ? ऐसा कर उन हिंसक लाईटोंको हमेशाके लिये क्यों न मिटा दी जायें ? उपरांत भव्य आंगीयोंसे भक्तोंकी भाववृद्धि भी कितनी बलवत्तर होगी ? उससे कितने सारे लाभ होंगे ? देवनिमित्त द्रव्य, देवकार्यमें भी उपयोगमें लाया न जाय, यह बात युक्तिसंगत मालूम नहीं होती / देवद्रव्यका दुरुपयोग न किया जाय, लेकिन इस प्रकार सदुपयोग तो अवश्य हो सकता है / सदुपयोग भी न करने द्वारा, देवद्रव्यकी वृद्धि करनेकी बात असंगत मालूम होती है। ___जो पूर्वमें जब पू. रामविजयजी म. सा. थे, वे पूज्यपाद रामचन्द्र सूरिजी म. साहबने उस समय आठ श्लोंकोंके अनुवादमें बताया था कि 'यदि देवद्रव्य Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 धार्मिक-वहीवट विचार होगा तो उसमें से आंगी, महापूजा अष्टाह्निका महोत्सव (यात्रा-त्रिक-रूप यात्रा) अच्छी तरह हो पायेंगे अतः देवद्रव्यकी वृद्धि करनी चाहिए / ' ये शब्द बताते हैं कि देवद्रव्यमेंसे-राजमार्गसे जीर्णोद्धारादिकी तरह पूजा आदि भी हो सकता है / (देखें-'विजयप्रस्थान' पुस्तक अथवा धा. वही. विचार परिशिष्टि 1) ___ प्रश्न : (3) गुरुपूजनकी रकम किस विभागमें जमा की जाय ? जीर्णोद्धार विभागमें या साधु-वैयावच्च विभागमें भी ? / उत्तर : गुरुको अन्नपान, वस्त्रादिदान चरणोंमें धनादि समर्पण, ये सारे कार्य गुरुद्रव्य कहे जाते हैं / उसके दो प्रकार हैं / अन्नपान, वस्त्रादि जो गुरुद्रव्य, वह गुरुके उपभोगमें आनेवाला गुरुद्रव्य होने से उसे भोगार्ह गुरुद्रव्य कहा जाता है, जबकि गुरुपूजन करनेके प्रसंग पर गुरुचरणोंमें समर्पित द्रव्य, गुरुके उपभोगमें नहीं, लेकिन केवल गुरुकी पूजाके उपयोगमें आनेसे पूजार्ह गुरुद्रव्य कहा जाता है / - जो विवाद उपस्थित हुआ है, वह गुरुचरणोंमें रखे पूजार्ह गुरु द्रव्यविषयक है कि वह द्रव्य केवल जीर्णोद्धारके उपयोगमें लिया जाय या गुरुवैयावच्चमें भी लाया जा सके ? इसका जवाब यह है कि उसका उपयोग गुरुवैयावच्चमें भी किया जाय / ___ (सात क्षेत्रोंमेंसे निम्न विभागके द्रव्यको उपरके विभागमें उपयोगमें लाया जा सकता है, उस सामान्य नियमसे गुरुवैयावच्चमें उपयोगमें आनेवाले गुरुपूजनका द्रव्य, उसके उपरके दो विभागों-ज्ञान विभाग और देवद्रव्य विभागमें अवश्य उपयोगमें लिया जाय / उस दो खातेमें उपयोग करनेमें कोई दोष ही नहीं / ) प्रश्न यह है कि क्या गुरुपूजनके द्रव्यको गुरुवैयावच्च विभागमें लिया जा सकता नही है ? उसका उत्तर यह है कि 'द्रव्यसप्ततिका' के एवं 'श्राद्धजिनकल्प के पाठोंके आधार पर यह बात निश्चित होती है कि उस द्रव्यका उपयोग गुरुवैयावच्च विभागमें किया जाय / विक्रमराजाके प्रसंगमें उस द्रव्यका उपयोग जीर्णोद्धारादि विभागमें करनेका तत्कालीन आचार्य सिद्धसेनदिवाकर सूरिजीने कहा है, ऐसा उल्लेख एक प्रबंधकथामें हुआ है / लेकिन उसी चरित्रका वर्णन करनेवाली अन्य Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ 283 प्रबंधकथाओंमें गरीबोंकी ऋणमुक्ति करना आदि बातोंका उल्लेख हुआ है / ऐसे विविध उल्लेखोंकी विविध परंपरामें जीर्णोद्धारका ही निर्णय कैसे किया जाय ? उपरान्त, यहाँ 'जीर्णोद्धार' शब्दके साथ 'आदि' पद जुडा हुआ है / तो आदिसे गुरुवैयावच्च क्यों गृहीत न किया जाय ? 'द्रव्यसप्ततिका' 'श्राद्धजिनकल्प' ग्रन्थके पाठ गुरुपूजनके गुरुद्रव्यको गुरुवैयावच्च विभागमें लिया जा सकता है एसा प्रायश्चित्तदान द्वारा बताते है। 'द्रव्य सप्ततिका में प्रश्न किया गया है कि गुरुद्रव्य किस विभागमें लिया जाय ? उसका उत्तर दिया गया है कि जीर्णोद्धार, नव्य चैत्यकरण आदि गौरवार्ह स्थानोंमें किया जाय / यहाँ 'आदि' शब्दसे गौरवार्हस्थान ग्रहण करना पडे / ('आदि' शब्दसे जिनकी अंगपूजामें ले जानेका वहीं प्रतिषेध फरमाया है / अतः वह गौरवार्ह स्थान होने पर भी अब 'आदि' शब्दसे उसका ग्रहण नहीं हो सकेगा) यह सवाल श्रावकोंका ही हो कि गुरुद्रव्यका उपयोग कहाँ हो ? उसके प्रत्युत्तरमें बताया है कि गौरवार्हस्थानमें / अब श्रावकोंके लिए गौरवके योग्य स्थान कौनसे है ? स्पष्ट मालूम होता है कि अपनेसे (श्रावकसे) उपरके विभाग-स्तर उनके लिए गौरव-भूत कहे जाय / श्रावक विभागसे उपरके स्थानोंमें साधु-साध्वी वैयावच्च और ज्ञानविभाग आदि ही स्वीकार्य हैं / ___इस पाठ परसे गुरुद्रव्यको गुरु-वैयावच्चमें ले जानेकी बातको स्वीकृति मिलती है / . 'श्राद्धजिनकल्प में गुरुद्रव्यकी चोरी करनेवालेके लिए प्रायश्चितोंका विधान है / वहाँ चार प्रकारके गुरुद्रव्योंका उल्लेख है : (1) मुहपत्ति-आसनादि (2) अन्न-जलादि (3) वस्त्रादि (4) धनादि / इस चोरीका क्रमशः गुरुमास, चतुर्लघु, चतुर्गुरु और षड्गुरु स्वरूप तप-प्रायश्चित्तरूपमें फरमाया है / उसके साथ उस चोरी हुई चीजोंका प्रत्यर्पण (वस्तु वापस लौटाना) करनेका कहा है / जिस साधुकी जिस वस्तु-मुहपत्ति आदि चोरे गये हो, उस प्रमाणका साधु वैयावच्च करनेवाले वैद्यादिको वस्त्रादि करनेके लिए कहा गया है / ___ यहां गुरुचरणमें रखे मुहपति आदि चारकी (सुवर्ण आदि) चोरी करनेवालको तप-प्रायश्चितके साथ साथ साधुकी वैयावच्च करनेवाले वैद्यको . उस रकमका वस्त्रदान आदि करनेका कहा है / Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 धार्मिक-वहीवट विचार यह प्रायश्चित्त स्पष्ट रूपसे बताता है कि गुरुद्रव्य, यह वैयावच्च विभागका द्रव्य है / अगर वह देवद्रव्य विभागका द्रव्य होता तो गुरु, उस चोरी हुई रकमके अनुपातमें वैद्यादिको वस्त्रादिदान करनेके लिए न कहते, लेकिन देरासरके देवद्रव्य-विभागमें जमा करवानेके लिए आदेश देते / उपरान्त, पू. सिद्धसूरीजी(वापजी) महाराज साहबने गुरुद्रव्यको गुरुवैयावच्चमें उपयोगमें लाया जाय, ऐसा सूचित किया है / .. अन्तमें इतनी बात अवश्य वताऊँगा कि शास्त्रपाठोंकी तो समीक्षा होनी ही चाहिए / शास्त्राधारके बिना किसीभी बातका सोचविचार भी किया नहीं जा सकता / उसके बाद प्ररूपणामें किस बात पर जोर दिया जाय, उस बातका अवश्य विचार करें और गीतार्थ भगवंत जैसा कहे, उसके अनुसार आचरण करना चाहिए / मैंने संक्षेपमें मुख्य तीन प्रश्नोंके उत्तर दिये / इस विषयमें विस्तारसे-शास्त्रपाठोंके साथ जानकारी प्राप्त करना चाहते हो, वे यह पुस्तक अवश्य पढ़ लें / इस पुस्तककी दूसरी आवृत्तिका परिमार्जन गीतार्थ आचार्यदेव-गच्छाधिपति पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् जयघोषसूरिजी म.सा., आ. श्री राजेन्द्रसूरिजी म.सा., आ. श्री हेमचन्द्रसूरिजी म.सा., पं. प्रवर श्री जयसुंदर विजयजी, पं. प्रवरश्री अभयशेखर विजयजीने किया है / अनेक आवश्यक शास्त्राधारोंसे इस पुस्तकको मंडित की है / ___ शास्त्रपाठोंका परिशिष्ट नोट - यहाँ प्रमाणरूपमें बताये शास्त्र पाठ यह पुस्तकमें अक्षरश: प्राप्त होंगे / मुख्य तीन विषयों पर के शास्त्रपाठ और विचारणाएँ 1. (1) 'स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करे / ' द्रव्यसप्ततिका और 'श्राद्धविधि' ग्रंथमें ऐसा जो पाठ है, वह केवल घरदेरासरके मालिकोंके लिए है, सभीके लिए नहीं है / सभीके लिए ऐसा पाठ एक भी, कहीं भी दिख नहीं पडता / (धा. वही. विचार (गुजराती) पृ. 203) अलबत्ता, साधन-संपन्ना जैन स्वद्रव्यसे पूजा करे वह अत्यन्त उचित है / वैसा न करे तो धनमूर्छा उतारनेका लाभ उन्हें न मिले, लेकिन वे उससे अन्यथा करे तो देवद्रव्यभक्षणका पाप लगे, ऐसा निर्देश करनेवाला कोई शास्त्रपाठ है नहीं / उपरान्त, अन्य द्रव्यसे पूजा करने पर भी कृपणता Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ 285 पर पश्चात्ताप, सम्यग्दर्शनकी निर्मलता आदि गुणोंकी प्राप्तिका प्रतिषेध किया जा नहीं सकता / (धा.वही.विचार (गुजराती) पृ. 169, 196, 197, 218) (2) परद्रव्यसे जिनपूजादिधर्म _ 'परद्रव्यसे पूजा हो सके' विषयक शास्त्रपाठ (1) संघ द्वारा बुलायी अष्टप्रकारी पूजाके बारहमासी चढ़ावेके केसर आदि पदार्थ, पूजा करनेवाले गरीब आदि लोगोंके लिए परद्रव्य हैं / वे उस द्रव्यसे जिनपूजादि करते हैं / यदि परद्रव्यसे पूजादि हो ही नहीं सकती, तो ऐसी व्यवस्थाका विधान क्यों किया होगा ? (कई जैन लोग, उस पदार्थके बदलेमें उतनी रकम भंडारमें. रखते नहीं / अतः उस रूपमें वह स्वद्रव्य बनता नहीं / ) (2) पूजाकी सामग्री रहित तमाम गरीब या अमीर लोग पूजा कर सके इसलिए आवश्यक धन प्राप्त करनेके लिए, श्रीपालनगर तथा लालबागमें जिनभक्ति साधारण भंडार रखा गया हैं / इस भंडारके केसर आदि द्वारा पूजा करनेवाले परद्रव्यसे क्या पूजा नहीं करते ? (वे जिस गरीब श्रावकको फूल गूंथनेका पाठ देते है उस विषयकी विचारणा धा. वह. विचार पृ. 193 पर है / ) (3) पूजकके लिए ज्ञानद्रव्य यह परद्रव्य है / उससे जिनपूजा हो सके ऐसा ज्ञानद्रव्यं देवपूजायां प्रसादादौयोपयोगी / ' ऐसे सेन प्रश्नके पाठसे सिद्ध होता है / (धा. वही. विचार पृ. 205) .. ____परद्रव्यसे यदि जिनपूजारूप धर्म न होता हो तो परद्रव्यसे भी कोई धर्म न हो सके, तो फिर संघ और उपधान आदिमें या आयंबिल विभाग, स्वामिवात्सल्यमें कोई जैन जा नहीं पायेगा / क्योंकि वे सभी धर्मविभाग परद्रव्यके हैं अथवा उन्हें अपने भोजनादिके बदलेमें उतने रूपये जमा कर देने होंगे। क्या ऐसी कोई व्यवस्था विपक्षमें है / (4) उपरान्त, द्रोणक नामक अपने नौकर के पास, चार मुनियोंने मिष्टान्न आदि (द्रोणक के लिए परद्रव्य बने) वहोराये / तो उससे द्रोणक राजपुत्र बन गया ऐसा मूलशुद्धि प्रकरणमें बताया है / (धा.वही.विचार पृ. 209) (3) देवद्रव्यसे जिनपूजा हो, उसका शास्त्रपाठ (1) दर्शनशुद्धि, टीका, द्रव्यसप्ततिका, वसुदेवहिंडी, विचार समीक्षा, Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286. . धार्मिक-वहीवट विचार उपदेशपद, श्राद्धदिनकृत्य, धर्मसंग्रह, ग्रन्थोमें इस विषयके पाठ हैं / यदि देवद्रव्य होगा तो पूजा, आंगी, अष्टाह्निका महोत्सव, महापूजा, आदि होनेका निर्देश किया है। यहाँ कोई कहता है कि, 'यह पाठ देवद्रव्यकी व्यवस्थाका है, जिनपूजाविधिका नहीं / ' तो यह योग्य नहीं / दर्शनशुद्धिमें कहा है किइस देवद्रव्य पूजा तथा वैसे आंगी आदि द्वारा सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिसे लेकर मोक्षप्राप्ति तकके लाभ बताये है / (धा. वहीं. विचार गुजराती पृ. 169) (2) श्राद्धविधिग्रन्थमें 'यत्र आदानादि' द्रव्यागमोपायो नास्ति.... उस पाठ द्वारा देवद्रव्यमें पूजा होनेका स्पष्ट निर्देश है / आदानादि द्रव्य, वह पूजा द्रव्य है / उपरान्त, अक्षत, बलि आदिके विक्रयसे प्राप्त हुआ द्र' वह निर्माल्य-देवद्रव्य है / इन दोनों प्रकारके देवद्रव्योंसे पूजा होनेका यहां उल्लेख है / (धा. वही. विचार गुजराती पृ. 207) (यदि देवद्रव्यसे-अपने लिए जिनमंदिर बनाये जा सकते हैं, तो देवद्रव्यसे जिनपूजाकी सामग्री क्यों लायी नहीं जा सकती ? यह बात स्पष्ट है / ) .. . (3) मूलशुद्धि प्रकरणमें संकाश श्रावकका अधिकार है / उसमें देवद्रव्यसे जिनपूजाका स्पष्ट फलित द्रष्टिगोचर होता है / (धा. वही. विचार गुजराती पृ. 198) (4) सेनप्रश्न (१७६)में आचार्यके चरणोंकी-पाद-चिह्नोंकी पूजा देरासरके केसरसे करनेकी मना की है / उसमें उन केसरादि द्रव्योंसे देवद्रव्य माने हैं / वहाँ साधारण के द्रव्यसे पदचिह्नोंकी पूजा करनेकी छुट्टी दी है / यह बताता है कि राजमार्गसे देवद्रव्यके केसरसे पूजा हो सकती है / (5) घरदेरासरमें देवको समर्पित चावल, बांदाम आदिके विक्रयसे जो रकम प्राप्त हो, उसे देवद्रव्य कहा जाता है / उससे लायी गयी सामग्री द्वारा घरदेरासरका मालिक बड़े देरासरमें जिनपूजा कर सके ऐसा कहा है / हाँ, उस समय उसे स्वद्रव्यकी पूजा अपवादरूप नहीं तथा यहाँ देवद्रव्यभक्षणका पाप बताया नहीं / यदि ऐसा पाप होता तो वैसा ही कहते / लेकिन ऐसा न कहकर केवल मुफ्तमें-व्यर्थकी यशोप्राप्तिदोषके निवारण करने की ही केवल सूचना दी है / (6) श्राद्धविधि और श्राद्धदिन कृत्य ग्रन्थका पाठ देकर विपक्षी लोग कहते है कि - 'परद्रव्यसे पूजा हो नहीं सकती / ' उस पाठमें ऐसा बताया Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ 287 गया है कि गरीब श्रावक देरासर जाय तो, उसने सामायिक ग्रहण किया हो तो पारीको देरासरमें आये किसी श्रीमंतके स्वद्रव्यके फूलगूंथनका काम बताये अथवा उसके केसर घिस देनेका काम बताये / ' विपक्षका कहना है कि इस पाठमें ऐसा कहा गया कि- 'वह गरीब श्रावक, श्रीमंतके फूलोंसे या केसरसे-परद्रव्यसे पूजा करता है / ' विपक्षने इस पाठ पर उचित ध्यान नहीं दिया, ऐसा मुझे लगता है, उस पाठमें बताया गया है कि - पूजाकी जो सामग्री है, उसके अभावमें संघ या व्यक्तिंकी ओरसे किसी व्यवस्थाके अभावमें-गरीब श्रावक इस प्रकार दूसरोंके फूल गूंथे या केसर घिसे / अब यहाँ अगर पूजाकी सामग्रीका सद्भाव होता, अर्थात् वहाँ संघ द्वारा की गयी कोई व्यवस्था होती अथवा वह श्रीमंत श्रावक, अपने केसरसे या फूलसे उस गरीब श्रावकको पूजा करानेको कहता, तो वह श्रावक अवश्य उससे पूजा करता / वहाँ ऐसा तो सूचित नहीं किया है कि वह श्रावक फूलपूजा-केसरपूजा आदि पूजा करनेकी उसकी अनुकूलता हो तो भी इन्कार कर दे / पूजा करनेकी मना कर दे / और, केवल किसीके फूल गूंथे या केसर घिसे / नहीं, वहाँ ऐसा सूचित नहीं किया / यदि जो अन्यके हैं उन फूल, केसर आदि पदार्थों के गंथने-घिसनेसे जिनभक्ति हो सकती है तो दूसरेके उन फूल, केसर द्वारा पूजा करने स्वरूप जिनभक्ति क्यों न हो सके ? अन्यथा दूसरोंके फूल गूंथनेके कार्यमें फूल तो परद्रव्य ही हैं न ? तो परद्रव्यसे ऐसी जिनभक्ति भी नहीं होनी चाहिए / ___ 'पूजा सामग्री-अभावात् ऐसे स्थलके पाठको विपक्ष ध्यानमें ले, ऐसी मेरी बिनती है।' ___अब देवद्रव्यसे पूजादि हो, उसके बारेमें उन उन महापुरुषों आदिके समर्थन बताता-पेश करता हूँ :.. (7) पू.पाद रविचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. (प्रश्नोत्तरकर्णिका) (धा. वही. विचार गुजराती पृ. 202 तथा 222) .(8) सेनप्रश्र (842) में सवाल किया है कि देरासरके नौकर के ... पास अपनी निजी काम कराया जाय ? जवाब : न कराया जाय / (इसका अर्थ तो यही हुआ न कि नौकरको Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 धार्मिक-वहीवट विचार. देवद्रव्यका वेतन दिया जाता था) (9) हीरप्रश्नमें, तैल आदिकी बोली बोलकर, सूत्रोंका आदेश दिया जाय या नहीं ? ऐसा प्रश्न किया गया है / इस प्रश्रके जवाबको हकारमें देते हुए बताया है कि-यदि ऐसा न करें तो जिनमंदिर आदिका निर्वाह नहीं हो सकता / यह पाठ भी ज्ञानद्रव्यरूप परद्रव्यसे जिनमंदिर निर्वाह हो, ऐसा सूचित करता है / (ज्ञानद्रव्य, यह देवद्रव्य समान ही पवित्र द्रव्य है / यहाँ समझ लें कि. तैल, घी, चावल आदिसे जो बोली बोली जाय, उससे प्राप्त तेल आदिकी यदि जिनपूजामें आवश्यकता न हो तो उन तैल आदि पदार्थोंको धनादिमें रूपान्तर किया जाय / और उसमेंसे पूजारीको वेतन दिया जाय / ) उपरान्त, यदि अपने लिए निर्मित्त जिनमंदिरोंमें यदि देवद्रव्यका उपयोग किया जाय तो अपने लिये रखे गये पूजारी आदिके लिए देवद्रव्यका उपयोग क्यों किया न जाय ? 2. गुरुपूजनका द्रव्य गुरुवैयावच्चमें भी उपयोगमें लाया जायविषयक शास्त्रपाठ (1) 'श्राद्धजिनकल्प 'में गुरुपूजनरूप धनादिकी चोरीका प्रायश्चित्, उस धनमेंसे वस्त्रादि लाकर गुरुवैयावच्च करनेवाले वैद्यको देनेके रूपमें सूचित किया है / (धा. वही. विचार, गुजराती पृ. 22) (2) पू. सिद्धसेनसूरीजी महाराजके चरणोंमें समर्पित सवा करोड सोनामुहरोंके रूपमें गुरुद्रव्य, जीर्णोद्धार आदिके कार्यों में उपयोगमें लानेको कहा है / इस आदि शब्द गुरुवैयावच्चका ग्रहण करना चाहिए / (धा. वही. विचार, गुजराती पृ. 179) क्योंकि (3) 'द्रव्य सप्ततिका ग्रन्थमें गुरुद्रव्यका उपयोग कहां किया जाय' ? ऐसे प्रश्नके उत्तरमें जीर्णोद्धार, नूतन देरासरनिर्माण आदि गौरवशील स्थानोंमें गुरुद्रव्यका उपयोग करनेको कहा है / गुरुवैयावच्च, यह श्रावकोंके लिए गौरवास्पद स्थान है / अतः आदि शब्दसे गुरु-वैयावच्च ग्रहण करनेका है / (धा. वही. विचार गुजराती पृ. 231) (4) पू. बापजी म. साहबने (पू. सिद्धिसूरिजी म. साहबने) एक पत्रमें गुरूपूजनका द्रव्य गुरु वैयावच्चमें ले जानेका सूचन किया है / ये रहे वे शब्द : Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ . 289 (1) गुरुपूजनका द्रव्य साधुकी वैयावच्च करनेवाले अथवा विहारमें साथ रहनेवाले डाक्टरको फीसकी रकम दी जाय / (2) (गुरुके चरणोंमें रखा द्रव्य ज्ञान अथवा जीर्णोद्धार में उपयोगमें लाया जाय / ) - मृगांकविजयकी वंदना उपसंहार :- अन्तमें इतना कहूँगा कि पर्दूषण पर्वकी आराधना करानेके लिए प्रतिवर्ष पचास जितने केन्द्रोमें जानेवाले युवकोंको संघकी ओरसे संचालनके बारेमें पूछे जानेवाले प्रश्नोंके उत्तर देनेकी भारी समस्या होती थी / उसको दूर करनेके लिये मेंने यह पुस्तक लिखा उसमें जो देवद्रव्य और गुरुद्रव्यके संचालनकी बात आयी उसे वि.सं. २०४४में संपन्न मुनिसंमेलनने किये प्रस्तावोंको ध्यानमें रखकर विस्तृत की है / मैंने अपनी ओरसे उसमें कोई प्रक्षेप नहीं किया / मैंने कहीं शास्त्राज्ञा विरुद्ध कुछ लिखा नहीं / ऐसा करने में मुझे मेरा परभव बिगडनेका भय लगता है / उपरान्त, इस पुस्तक द्वारा जैनसंघमें 'झगडा' पैदा करनेका मेरा कोई इरादा नहीं था / बेशक, झगडा उठ खडा हुआ है, उसका इन्कार नहीं, परन्तु मेरा ऐसा कोई आशय न था / इसी लिये मैंने इन बातोंका अनेक संघोंमें विवरण प्रस्तुत किया है, लेकिन कहीं ऐसे प्रस्ताव पारित नहीं कराये और भविष्यमें इन बातों पर ही हठाग्रही बनकर प्रस्ताव कराने या ऐसा प्रचार कराना या संघोंके बीच मनमुटाव पैदा करानेका काम मुझसे होनेवाला नहीं / मेरे विरोधीयोंने इस प्रश्र पर विवाद खड़ा कर, उसे समाचारपत्रों द्वारा बातका बतंगड बनाकर, मेरी प्रतिष्ठाको युवा-पीढीके दिलोंमेंसे खत्म करनेका सु-आयोजित दाव लगाया है / अस्तु, उन्हें उससे आनंदप्राप्ति होती हो और उनका ध्येय पूर्ण होता हो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं / लेकिन इस सिद्धिको पानेके लिए भारतभरके संघोंके बीच घर्षण पैदा करना, यह मुझे उचित नहीं लगता / मैं इस अवसर पर विश्वास दिलाता हूँ कि मैं देवद्रव्यादिसे पूजा करनेका या पुजारीको वेतन देनेका कदाग्रह कभी करनेवाला नहीं / मुझे भी स्वद्रव्यसे पूजा हो, और पूजारीको वेतन दिया जाय, उसीमें रस है / (विरोध केवल, देवद्रव्यसे पूजा करनेवालेको देवद्रव्यभक्षणका पापबंध होता है, ऐसे प्रचारके बारेमें है / ) दोनों तपोवनोंके तमाम बालक जब वर्षों से स्वद्रव्यसे पूजा करते हों, Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 धार्मिक-वहीवट विचार जब पूजारियोंको 'सर्वसाधारण' के फंड द्वारा वेतन दिये जाते हों, नूतन तपोवन (साबरमती)में निर्माण होनेवाले देरासरमें स्वद्रव्यका पूर्णतया उपयोग किया जानेवाला हो और गुरुपूजन. देवद्रव्यमें ही ले जानेका हो, तब मेरे उपर अनधिकृत-अंटसंट आक्षेप कर उसका गोबेल्स पद्धतिसे प्रचार करना, यह विपक्षके लिए कितना उचित है ? वे उसका शान्तचित्तसे विचार करेंगे ? ___जिनाज्ञा विरुद्ध कहीं भी कुछ भी लिखा गया हो तो, अंत:करणसे 'मिच्छामि दुक्कडम् का प्रार्थी हूँ। लेखन ता. 16-7-95 , Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208853030 SHRESTINEERNET 888888888888 8859888 388888888883383838 80888 परिशिष्ट-६ - 5 मयसदर विचमनी प.पू. शासनप्रभावक पं. श्री चन्द्रशेखर विजयगणिवर ___ महाराजकी सेवामें कोटिशः वन्दना / सुखशातामें होंगे। (1) स्वर्गस्थ पूज्यपाद गुरुभगवंत श्रीने देवद्रव्यमेंसे भी पूजा होनी चाहिए, ऐसा अभिप्राय प्रायः तीस साल पहले, वि. सं. २०१९के दिव्यदर्शन वर्ष 12, अंक 4/5 (दशहरा और आश्विन कृष्ण-३)में जैन संघके उदयमें कतिपय अवरोधक तत्त्व (गुजराती) 'जैनसंघना उदयमां केटलांक अवरोधक तत्त्वों' ईन लेखोमें (1-2) व्यक्त किया है / इ.स. 1963) (2) मूलशुद्धिप्रकरणकी टीकामें पृ. 78 पर आचार्य देवचन्द्रसूरिजी (कलिकाल सवर्जके गुरुजी) निर्देश देते हैं कि / 'अथ चेत् सुगन्धि पुष्पाण्येव न संपद्यन्ते शक्तिर्वा न भवति, ततो तथा संभवमपि पूजा विधीयमाना गुणाय सम्पद्यते / ' (तथा पृ. ८२में बताया है कि 'ता पहाण पुप्फाईणमसंपत्तीह इयहेहि विश्व विहेज्जमाणा महाफला भवइ / संपतीए पुण पहणेहिं चेव कायव्वा / ) . ली. जयसुंदरविजयकी वंदना ___ मूल शुद्धिप्रकरण ग्रन्थके व्याख्याकार ऐसा विज्ञापित करना चाहते है कि भगवानकी पूजामें उत्तम सुगंधित पुष्पोंका उपयोग करना चाहिए / लेकिन यदि ऐसे अपेक्षित प्राप्त न होते हों / (अर्थात् पर्याप्त ताजे सुगंधी फूल उपलब्ध न हो) अथवा तो ऐसे उत्तम फूल प्राप्त होते हो परन्तु श्रावकोंकी, आर्थिक द्रष्टिसे ऐसे किंमती फूल खरीदकर भगवानकी पूजा करनेकी क्षमता न हो तो (उन्हें फूलपूजा करनी चाहिए या नहीं-उसके उत्तर रूपमें कहते हैं कि यथासम्भव की जानेवाली पूजा लाभकारक होती है / (अर्थात् शक्ति न हो तो पूजा न करें ऐसी बात यहाँ नहीं है / अतः ऐसा तात्पर्य फलित होता है कि शक्तिहीन श्रावक स्वद्रव्यसे पूजा न कर सके तो यथासंभव परद्रव्यसे या संघ द्वारा देवद्रव्य या साधारणमेंसे केसर-चन्दन-फूलकी व्यवस्था की गयी हो, उसमेंसे पूजा करे तो भी लाभ होगा-दोष न लगेगा / ) सारांश यह है कि शक्ति न हो तो पूजा न करें, ऐसा नहीं कहते, लेकिन जिस उचित ढंगसे पूजा ही संभावना हो, उस ढंगसे पूजा करनेका उपदेश देते हैं / Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सं. २०४४के श्रमण संमेलनमें 21 भवभीरु गीतार्थ सुविहित आचार्य भगवंतोने एकत्र होकर किये शास्त्राधारित प्रस्तावोंके आधार __पर लिखे गये / 'धार्मिक वहीवट विचार' पुस्तकके विषयमें भारतभरके जैन संघों को लक्ष्यकर जाहिर निवेदन .. प्रस्तुत पुस्तकके विषयमें विरोधी प्रचारसे कोई भी भ्रमित न हो / इस विषयमें जिज्ञासासे किसी को कुछ पूछना हो तो, हमसे प्रत्यक्ष मिलकर शास्त्राधार पर समाधान प्राप्त करना, यही योग्य-उचित पद्धति हैं / इससे शासनकी अपभ्रावना तथा संघके द्रव्यका दुर्व्यय न हो / इसके लिए समाचार पत्रोमें आमने सामने आनेकी हमारी इच्छा नहीं हैं / ले. आ. विजय जयघोषसूरि, अहमदाबाद. ' हा है / Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kaameer मूल्य 4. 35-00