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________________ परिशिष्ट-१ उठाना चाहिए और वैसी भावना भी बनाये रखनी चाहिए / उन्हें तो अपने व्यवसाय क्षेत्रके मनुष्योंको जैसे वेतन दिया जाता है, वैसे पूजारियोंको भी अपने स्वद्रव्यमेंसे वेतन देना चाहिए / और स्वव्यसे ही जिनपूजाकी सारी सामग्री खरीदनी चाहिए / इस बातका जिक्र, प्रस्तावके आरंभमें ही संक्षिप्त शब्दोमें किया गया है / उसकी ओर सभी लोग ध्यान दें, बादमें प्रस्तावका पश्चाद्वर्ती भाग पढना चाहिए / संमेलनने जिनमंदिरके संबंधमें आनेवाले जिनभक्तिके सर्वकार्योंमें कल्पित देवद्रव्यकी रकमका उपयोग करनेके लिए सूचित किया है / अर्थात् 'जिनभक्ति साधारण' विभागमें (जिसका दूसरा नाम 'देवकु साधारण' कहा जाता है, उस विभागमें) उपयोग करनेका सूचित किया है, न कि पूर्वोक्त सात क्षेत्रोंके साधारण या सर्वसाधारणमें / सवाल यह भी होता है कि यदि स्वप्न, उपाधानादि बोली-चढ़ावेकी रकमको कल्पित देवद्रव्य विभागमें गिनी-मानी न जाय तो क्या पूजा देवद्रव्यमें मानी जाय ? यदि वैसा हो तो वैसा कोई शास्त्रपाठ है क्या ? यदि कोई शास्त्रोपाठका वैसा अर्थघटनकर उक्त बोली चढ़ावेकी रकमका उपयोग पूजाद्रव्यमें करनेके लिए कहा जाता हो तो अब यह निर्णय कौन करेगा कि उक्त बोलीके द्रव्यको पूजा-देवद्रव्यमें ले जाय या कल्पित देवद्रव्यमें ? (हमारे मतानुसार पूजादि कार्यों के लिए भेंटमें प्राप्त रकम, पूजा देवद्रव्य है और जिनमंदिरके निर्वाहके लिये साधनों द्वारा या सीधी भेंट रूपमें प्राप्त रकम या उछामनीकी रकम कल्पित देवद्रव्य है / ) इस विवादके निर्णायकके रूपमें इस विषयमें दो महागीतार्थ महात्मा हैं, जो दोनों स्वप्रादिके बोली चढ़ावेके द्रव्यको कल्पित देवद्रव्यमें ले जानेका स्पष्ट सूचित करते हैं पूज्यपाद स्वर्गस्थ आगमोद्धारक सागरानन्द सूरीश्वरजी महाराजा साहब, कि जिन्होंने इस बातको स्पष्ट रूपसे सुरतके आगममंदिरके संविधान (बंधारण)में बतायी है, जिसका मुसद्दा निम्नानुसार है : "ट्रस्टियोंको उचित लगे, तदनुसार वे निम्नानुसार जैनशास्त्रके मुताबिक इस संस्थाके अधिकृत एवं अन्य जैन देरासरोंके बारेमें इस संस्थाकी रकमोंका उपयोग कर सकेगें / लोगों द्वारा इस संस्थाको सहायता प्राप्त हो और इसके निर्वाहफंडके रू. 2,50,000 इकट्ठे हुए और बोली इत्यादि निम्नानुसार देवद्रव्यमें रू. 2,50,000 एकत्र हुए, उसके बाद संचालन खर्चको बाद कर जो बचा
SR No.004379
Book TitleDharmik Vahivat Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekharvijay
PublisherKamal Prakashan
Publication Year1996
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size22 MB
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