________________ 154 धार्मिक-वहीवट विचार . जैसे तीनमेंसे किसी भी प्रकारके देवद्रव्यका उपयोग ज्ञानविभागमें, साधु-वैयावच्च विभागमें या व्याकुल साधर्मिक विभागमें हो ही नहीं सकता / (अर्थात् देवद्रव्यका उपयोग साधारण - सर्वसाधारण, पाठशाला, आयंबिल विभाग आदिमें भी हो नहीं सकता / ) वैसे देवद्रव्यके जो उपर्युक्त तीन उपविभाग हैं, उनमें भी शास्त्रनीतिसे विरुद्ध, एकका दूसर विभागमें उपयोग नहीं हो सकता / विगन्धि निर्माल्य देवद्रव्यका उपयोग, प्रभुजीकी अंगपूजामें नहीं हो सकता, वैसे पूजा-देवद्रव्यका उपयोग, कल्पित देवदंव्यकी तरह जिनमंदिरविषयक सभी कार्यो में हो नहीं सकता / ___क्योंकि कल्पित देवद्रव्यमें ही देरासरविषयक सर्व कार्योंमें उपयोग करनेका निर्देश किया है / पूजा देवद्रव्यमें ऐसा विधान नहीं है / यदि देवद्रव्यके तीन उपविभागोंको संचालनके खाताबहियों में ही विभक्त किये जायँ, तो इस विषयके सभी विवाद शान्त हो जायँ / / अब विवादकी मुख्य बातको देखें, जो कल्पित देवद्रव्यके बारे में हैं / एक बातका सभी ध्यान रखें कि देवद्रव्यका निरूपण करनेवाली जो चार गाथाएँ उपर सूचित की गयी हैं, वह ग्रंथ सातवीं सदीका है / उस समय श्रावक जिनालयके सर्व प्रकारके कार्य भविष्यमें हमेशाके लिए चलते रहे, उसके लिए रिजर्व फंड (अमानत रकम) रखते थे / उसके पीछे उनकी मान्यता यह थी कि इस धनसे मंदिरविषयक तमाम कार्योंका निर्वाह हो सके / अतः ऐसी निर्वाहकी कल्पनासे रखे गये धन को कल्पित धन कहा जाता - कल्पित देवद्रव्य माना जाता / स्वप्नादिककी उछामनी आदि शास्त्रीय आचरणोंसे उत्पन्न द्रव्यको कल्पित देवद्रव्य कहा जाता है / क्योंकि वह जिनभक्तिके निमित्तसे- आचरणसेउत्पन्न हुआ है / गाथामें 'जिनभत्तीई निमित्तं जं चरियं' शब्दों द्वारा इसका स्पष्ट उल्लेख किया है / संमेलनके श्रमणोंने इस प्रकार, स्वप्न उपधानादिकी बोली-चढ़ावेसे प्राप्त होनेवाले द्रव्यको कल्पित देवद्रव्यमें समाविष्टकर, उसके द्वारा पूजारी चौकीदार आदिको वेतन देनेका अथवा आवश्यकता पड़ने पर केसरादि भी लानेका जो सूचित किया है, वह भी ऐसे ही संयोगमें ज्ञापित है कि जहाँ जैन संघ या जैन श्रावक (श्राविका)को स्वद्रव्यसे ही ये सारे कार्य करनेका संभव न हो / जो ऐसी शक्तिसंपन्न हों, उन्हें स्वद्रव्यसे ही पूजादि करनेका लाभ