________________ 153 परिशिष्ट-१ जिणभत्तीइ निमित्तं जं चरियं सव्वमुवओगि / / 4 / / अर्थ : देवद्रव्यके तीन प्रकार हैं :(1) पूजा देवद्रव्य (2) निर्माल्य देवद्रव्य (3) कल्पित देवद्रव्य (1) पूजा देवद्रव्य : पूजा देवद्रव्य वह आदान (किराया) आदि स्वरूप माना जाता है / उससे प्राप्त होनेवाली रकमका उपयोग जिनेश्वर देवके देहके बारेमें किया जाता है / अर्थात् इस पूजा द्रव्यका उपयोग केसर, चंदन आदि प्रभुके अंगो पर चढनेवाले पदार्थोंके लिए किया जाता है। अंगपूजाकी तरह अग्रपूजाके द्रव्योमें भी इस पूजाद्रव्यका उपयोग हो सकता है / (2) निर्माल्य देवद्रव्य : प्रभुजी को समर्पित अक्षत, फल, नेवेद्य, वस्त्र, आदिके विक्रयसे प्राप्त होनेवाली रकमको निर्माल्य देवद्रव्य कहा जाता इस निर्माल्य देवद्रव्यका उपयोग प्रभुजीकी अंगपूजाके कार्यमें किया नहीं जाता / लेकिन उसका चैत्य संबंधी अन्य कार्यों में उपयोग किया जाता है / उपरान्त निर्माल्य द्रव्यको आभूषण आदिके रूपमें परिवर्तित किया गया हो तो, उन आभूषणों द्वारा प्रभुजीका श्रृंगार किया जा सकता है / इस प्रकार इस निर्माल्यदेवद्रव्यके विषयमें विकल्प हुआ कि निर्माल्यदेव द्रव्यका उपयोग प्रभुजीके शरीर पर केसर आदिके रूपमें नहीं किया जा सकता लेकिन आभूषणादि रूपमें किया जाय / ___ (3) कल्पित देवद्रव्य : धनवान श्रावकोंने अथवा संघमान्य श्रावकोंने जिन्होंने स्वद्रव्यसे जिनालय बनवाया है, उन्होंने जिनभक्तिका निर्वाह हो सके उसके लिए निश्चय कर स्थायी फंडके रूपमें जो निधि एकत्र किया जाय, उसे कल्पित देवद्रव्य कहा जाता है / यह कल्पित देवद्रव्य, देरासरजीविषयक किसी भी (सर्व) कार्यमें उपयुक्त हो सकता है / विशेष विचार : शास्त्रकारोंने उपर निर्देशानुसार देवद्रव्यके विभागमें तीन उपविभाग बताये हैं / भारत समग्रके किसी भी जैनसंघके संचालनमें इस प्रकार देवद्रव्यके तीन विभागों द्वारा संचालन किया जाता न होगा, ऐसा ख्याल है / इसी कारण कई विवाद उठ खडे हुए हैं ऐसा महसूस होता है / जैसे सात क्षेत्रोंकी एक ही मंजूषा रखी न जाय, वैसे देवद्रव्यके तीन विभागोंकी भी एक ही मंजूषा नहीं रखी जाती / ऐसा करनेसे ही सारी मुसीबतें उठ खड़ी होती हैं /