________________ .152 धार्मिक-वहीवट विचार सचमुच तो ऐसा विचार भूतकालमें भी गीतार्थ महापुरुषोंने उस समयके विषम बने देश-कालादिके कारण किया ही था / पूज्यपाद आगमोद्धारक आ. देव श्रीमद सागरानंदसूरीश्वरजी म. साहब तथा पूज्यपाद सिद्धान्तमहोदधि आ. देव श्रीमद् प्रेमसूरीश्वरजी म. साहब ( पू. पाद व्याख्यानवाचस्पति स्व. आ. देव श्रीमद् रामचंद्रसूरीश्वरजी म. साहबके गुरुदेवश्री) मुख्य थे / अतः यह कोई नया यकायक आ धमका विचार नहीं / उपरान्त, अन्तिम कई दशकोंसे संमेलनें एकत्र हुए आचार्यादि श्रमणोंने अनेक स्थलोंमें देखा कि पूजारी आदिको जो वेतन आदि दिया जाता है, वह देवद्रव्यमें से ही (भंडारकी आमदनी आदि रूप निर्माल्य रूप आदि तीनों प्रकारके देवद्रव्यमेंसे) दिया जाता है / स्वयं आणंदजी कल्याणजी पीढी समग्र भारतके अपने संचालन क्षेत्रोंमें, इसी प्रकार अन्तिम कई दशकोंसे करती आयी दूसरी ओर, शास्त्र-पाठानुसार देवद्रव्यके तीन उपविभागोंको सोचते हए, उसमें जो कल्पित देवद्रव्य है, उसकी रकममेंसे वेतन आदि देनेकी सुविधा स्पष्ट रूपसे देखने मिली / अतः प्रथम दो प्रकारके देंवद्रव्यमेंसे पूजारी आदिको वेतन बंद हो जाय उसके लिए कल्पित देवद्रव्यमेंसे उन वेतन आदि कार्योंकी व्यवस्था करनेके लिए प्रस्ताव पारित किया गया है / शास्त्रपाठ : अर्थ और विवरण सातवीं शताब्दीका ग्रंथ : संबोध प्रकरण लेखक : आ. हरिभद्रसूरिजी गाथा विषय : देवद्रव्यके तीन प्रकारोंका निरूपण चेईअदव्वं तिविहं, पूआ, निम्मल्ल, कप्पियं तत्थ / आयाणमाइ पूयादव्वं, जिणदेहपरिभोगं / / 1 / / अक्खयफलबलिवत्थाइसंतिअं जं पुणो दविणजायं / तं निम्मल्लं वुच्चइ, जिणगहकम्ममि उवओगं / / 2 / / दव्वंतरनिम्मवियं निम्मल्लं पि हु विभूसणाइहिं / तं पुण जिणसंसग्गि, ठविज्ज णण्णत्थ तं भया / / 3 / / रिद्धिजुअसम्मएहिं सद्धेहिं अहव अप्पणा चेव /