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________________ 188 धार्मिक-वहीवट विचार (एफ) द्रव्यसप्ततिका - (पृ. 25) सति देवादिद्रव्ये प्रत्यहं चैत्यादिसमारचन-महापूजा-सत्कार सन्मानावष्टंभादिसम्भवात् / अर्थ : देवद्रव्य आदि हो तो प्रतिदिन चैत्य समारचन महापूजा - सत्कार सन्मानादिको अवष्टंभ (समर्थन-पुष्टि) प्राप्त होना संभवित होता है। इन चारों पाठोंसे यह स्पष्ट होता है कि देवद्रव्यसे जैसे देरासरका सुधार कार्य (जीर्णोद्धार) हो सकता है, उसी प्रकार भगवानकी पूजा आदि भी हो सकता है / यदि देवद्रव्यसे पूजा आदि संभवित न होते हो तो देवद्रव्यकी विद्यमानतामें पूजा आदिका संभव बताते नहीं / जैसे कि, देवद्रव्यसे ग्रन्थ प्रकाशन आदि शक्य न होनेसे, ‘देवद्रव्य हो तो ग्रन्थप्रकाशनादि संभवित पाये / ' ऐसा कह नहीं सकते, उसी प्रकार देवद्रव्यसे पूजा आदि भी संभवित न हो तो, 'देवद्रव्य हो तो पूजा आदि संभवित बने / ' ऐसा भी कहा नहीं जा सकता, लेकिन स्थान स्थान पर ग्रन्थोंमें उस प्रकार कहा गया है उससे प्रतीत होता है कि 'देवद्रव्यमेंसे पूजा आदि हो सकता है / ' जैसे देवद्रव्यका दुरुपयोग न हो, वैसे उसका सदुपयोग भी करना चाहिए / जो देवकार्य हो, उसमें देवद्रव्यका उपयोग करें, यह उसका सदुपयोग हैं / 'देवद्रव्यकी वृद्धि करे' उस शास्त्रवाक्यका अर्थ ऐसा तो नहीं निकाला जा सकता है कि देवद्रव्यका सदुपयोग भी न कर, केवल उसकी वृद्धि करते रहे / ' (जी) दर्शनशुद्धि (पृ. 252) .. तथा तेन पूजा-महोत्सवादिषु श्रावकैः क्रियमाणेषु ज्ञान-दर्शनचारित्र- गुणाश्च दीप्यन्ते / अर्थ : और उससे (देवद्रव्यसे) श्रावक पूजा, महोत्सव आदि करते हो तो ज्ञान दर्शन-चारित्र गुणा देदीप्यमान हो उठते हैं / इस शास्त्रवचनका विचार करने पर तो ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि संपन्नता न होना आदि कारणसे जहाँ स्वद्रव्यसे पूजा महोत्सवादि न होते हो, लेकिन लाखोंका देवद्रव्य विद्यमान हो, तो उस देवद्रव्यसे भी पूजा-महोत्सवादि करने चाहिए / 'देवद्रव्यमेंसे पूजा आदि हो न सके ऐसा मानकर उसे न करनेवाले स्वपर के ज्ञानादि गुणोंकी ज्यादा विशदतासे वंचित रह जाते हैं / अलबत्त, देवद्रव्यका इसमें बिना सोचे-समझे दुर्व्यय नहीं
SR No.004379
Book TitleDharmik Vahivat Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekharvijay
PublisherKamal Prakashan
Publication Year1996
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size22 MB
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