________________ परिशिष्ट-२ 189 . करना है, लेकिन जिस प्रकार भावोल्लासवृद्धि द्वारा ज्ञानादि गुणोंका अधिकाधिक विकास हो, उस प्रकारकी योग्य व्यवस्थाके अनुसार उसका उपयोग होना चाहिए / (एच) द्रव्यसप्ततिका (पृ. 28) 'चैत्यादिद्रव्यविनाशे विवक्षितपूजादिलोपः, ततः तद्धेतुकप्रमोदप्रभावनाप्रवचनवृद्धेरभावः ततो वर्धमानगुणशुद्धेरोधः, ततो मोक्षमार्गव्याघातः, ततो मोक्षव्याघातः / ' अर्थ : चैत्यादि द्रव्यका विनाश किया जाय तो विवक्षित (ग्रंथमें पहले कही गयी) पूजा आदि रूक जाय / उसके बंध होनेसे उसके निमित्त होनेवाले प्रमोद, (शासन) प्रभावना, प्रवचनवृद्धि आदि रूक जाते हैं / उसके रूक जानेसे, उन प्रमोदादिसें जो गुणोंकी शुद्धि वर्धन होनेवाली थी, उसमें रुकावट आती है, उसकी रुकावटसे मोक्षमार्गका व्याघात होनेसे मोक्ष (मोक्षप्राप्तिका) व्याघात होता है / . जैसे, देवद्रव्यका नाश होनेसे पाठशालाका लोप नहीं होता; क्योंकि देवद्रव्यसे पाठशाला चलायी नहीं जाती / उसी प्रकार यदि देवद्रव्यसे पूजा आदि भी हो न सकते हो तो देवद्रव्यका नाश होने में पूजा आदिका लोप होनेका कारण ग्रन्थकार बताते नहीं / लेकिन बताया है, अतः मालूम होता है कि देवद्रव्यसे पूजा आदि हो सकता है / उपरान्त, जैसे देवद्रव्य नष्ट होनेसे पूजादि न होनेके कारण मोक्षप्राप्तिमें अंतराय तकके दोष विद्यमान हैं, वैसे देवद्रव्य होने पर भी पूजादि कार्य न होते हो तो भी मोक्षप्राप्तिमें अंतराय तकके दोष उपस्थित होते हैं, यह स्पष्ट समझा जाता है अतः उपरोक्त दर्शनशुद्धिके पाठानुसार ही इस पाठसे भी संघकृतव्यवस्था अनुसार देवद्रव्यादिका पूजा आदिमें उपयोग करना चाहिए / - (आई) वसुदेव हिंडी (प्रथम खंड) __ 'जेण चेइयदव्वं विणासिअं तेण जिणबिम्बपूआईसणआणंदितहिययाणंभवसिद्धियाणं सम्मइंसण-सुअओहि-मणपज्जव-केवलनाण-निव्वाणलाभा पडिरुद्धा / ' . अर्थ : जो चैत्यद्रव्यका विनाश करता है वह जिन प्रतिमाकी पूजा देखकर आनंदित हृदयवाले होनेवाले भव्य जीवोंको उसके द्वारा होनेवाली, सम्यग्दर्शन-श्रुत अवधि-मनःपर्यव-केवलज्ञान और यावत् निर्वाण-मोक्षकी