________________ परिशिष्ट-२ 187 (ए) 'उपदेशपद में 'संकाश श्रावक के दृष्टान्तमें आता है कि (पृ. 228) 'भणितं च केवलिना यथा चैत्यद्रव्यस्य जिनभवन-बिम्बयात्रा-स्नात्रादिप्रवृत्तिहेतोः हिरण्यादिरुपस्य वृद्धिरूपचयरूपोचिता कर्तुमिति // 807- 5 // अर्थ : केवली भगवंतने कहा कि जिनमंदिर, जिनप्रतिमाकी यात्रा (अट्ठाई महोत्सव), स्नात्र आदि प्रवृत्तियोंको चालू रखनेमें कारणभूत सुवर्ण आदि रूप चैत्यद्रव्य (देवद्रव्य)की वृद्धि करना, यह उचित है / (बी) श्री देवेन्द्रसूरिकृत श्राद्धदिनकृत्य में संकाश श्रावकके दृष्टान्तमें भी यही बात है कि (पृ. 269) चैत्यद्रव्यस्य जिनभवनबिम्बयात्रास्नात्रादि-प्रवृत्तिहेतोर्हिरण्यार्देवृद्धिः कर्तुमुचिता / अर्थ : जिनमंदिर-जिनप्रतिमाकी यात्रा, स्नात्र आदि प्रवृत्तियों को चालू रहनेमें कारणभूत सुवर्ण आदि रूप चैत्य- द्रव्यकी वृद्धि करना उचित है। इन दोनों शास्त्रपाठोंमें देवद्रव्यको स्नात्रपूजा, अट्ठाई महोत्सव आदिके कारणके रूपमें सूचित किया है / यदि देवद्रव्यमेंसे स्नात्रपूजा आदि हो सकते न हों तो उसके कारणके रूपमें बताया न जाता / उपरान्त स्नात्रपूजा आदि हो सके उस प्रयोजनसे उसकी वृद्धि करनेके लिए न कहते / (सी) श्राद्धदिनकृत्य (पृ. 275) सति हि देवद्रव्ये प्रत्यहं जिनायतने पूजासत्कारसंभवः / अर्थ : देवद्रव्य हो तो प्रतिदिन देरासरमें भगवानकी पूजा, सत्कार हो सके / ..' (डी) श्राद्धविधि (पृ. 74) सति हि देवद्रव्ये प्रत्यहं चैत्यसमारचन-महापूजा-सत्कारसंभवः / अर्थ : देवद्रव्य हो तो प्रतिदिन चैत्य समारचन (सुधार कार्य), महापूजा, सत्कार संभवित बने / (ई) धर्मसंग्रह - (पृ. 167) सति हि देवद्रव्ये प्रत्यहं चैत्यसमारचन - पूजासत्कार-संभवः / .. अर्थ :- देवद्रव्य हो तो प्रतिदिन चैत्य समारचन, पूजा, सत्कारका संभव है /