________________ परिशिष्ट-१ 159 अस्थाने है / उपरान्त, पूज्यपाद आगमोद्धारक सागरानंद सूरीश्वरजी महाराज साहबके 'आगमज्योत' पुस्तक दूसरा पृष्ठक्रमांक 26-27 पर तो उस महाशयने उस मतलबका उल्लेख स्पष्ट किया है कि - "जिनमंदिरके पूजारीको किसी गृहस्थके बेटेको उठाकर घूमानेके लिए रखा नहीं / यदि उसे जिनभक्ति के लिए नियुक्त किया गया हो तो उसे देवद्रव्यमेंसे (कल्पित) वेतन दिया जाय, क्योंकि जिनभक्तिके लिए जो एकत्र किया (कल्पित) द्रव्य है, उसमेंसे जिनभक्ति करनेवाले पूजारीको वेतन देने में देवद्रव्यके भक्षणका प्रश्न नहीं उठता / यदि जिनभक्तिके लिए बनाये जानेवाले चैत्यके आरस, हीरा, मोती, ईंट, चूना आदिकी खरीदीमें देवद्रव्यकी रकम दी जाती है तो माली, पूजारी को क्यों न दी जाय ? ऐसी बाबतमें 'देवद्रव्यको आप पूजारीके द्वारा भक्षण कराते हैं / ' ऐसा कहनेवाले कितने मृषावादी माने जाय ?' इस प्रकार दो महापुरुषों के विचारोंसे यह फलित होता है कि स्वप्नादिकी उछामनीकी रकम पूजा देवद्रव्यमें जमा न कर कल्पित देवद्रव्यमें ही ले जानी चाहिए / कई लोग तो ऐसा कहते हैं कि इस रकमको पूजा निर्माल्य और कल्पित दोनोंमेंसे किसीमें भी जमा न कर 'बोली देवद्रव्य' नामक चतुर्थ उपविभाग खड़ाकर, उसमें जमाकर देनी चाहिए / यह बात ठीक नहीं / क्योंकि ऐसा करनेके लिए इनके पास शास्त्रपाठ नहीं / उपरान्त ऐसा करनेमें गौरवदोष भी उपस्थित होता है / कई कहते हैं कि बोलीकी रकमको पूजा देवद्रव्यमें जमा करनी चाहिए / ठीक है...... ऐसा किया जाय तो भी उसके लिए प्रमाण रूपमें शास्त्रपाठ भी तो देना होगा न ? . इस प्रस्तावका जो विरोध कर रहे हैं, उनकी ओरसे ऐसा प्रचार किया जाता है कि 'इस प्रकार यदि स्वप्नादि बोलीकी आमदनीका उपयोग पूजारीके वेतनमें और केसरादिमें होने लगेगा तो जीर्णोद्धारके कार्य बंद हो जायेंगे / .. यह भय कितना बेबुनियाद है. ? पूजारी आदिको वेतनमें वर्षमें क्या करोड रूपये दे दिये जायेंगे ? या मुसीबतसे लाखोंकी आवश्यकता /