________________ 158 धार्मिक-वहीवट विचार की उसीके फलस्वरूप उनकी योग्य वेतनरूपमें और कमसंख्याके नौकरोंको कल्पित देवद्रव्यमेंसे पगार देनेमें संमति दी है / __ यह बात एकदम स्पष्ट होती है / __ यहाँ उस महापुरुष द्वारा मध्यस्थ बोर्डको लिखे गये पत्रोंमेंसे कुछ महत्त्वके अंश पेश किये जाते हैं : "(6.) देवद्रव्यमेंसे बिनजरूरी बड़े बड़े ऊँचे वेतन देकर, जो अनावश्यक कार्यकर्तागण रखा जाता है, वह अनुचित है और देवद्रव्यमेंसे वेतनभोगी स्टाफके मनुष्योंका उपयोग; मूर्ति, मंदिर या उसकी द्रव्य व्यवस्थाके अलावाकी बातोंके लिए करना, उसे देवद्रव्यका दुरुपयोग माना जायेगा / उपरान्त, अनावश्यक स्टाफ रखना यह भी देवद्रव्यको हानि पहुंचानेवाला काम होगा / "आपके प्रस्ताव को ध्यानमें लेकर सोचनेसे पहले मुख्य बात यह है कि 'संबोध प्रकरण के सूचनानुसार तीन अलग विभाग होने चाहिए ___ (1) प्रथम क्रममें आदान द्रव्य अर्थात् प्रभुपूजादिके निमित्त दिये गये द्रव्य / प्रभुकी अर्थात् प्रभुप्रतिमाकी भक्तिके मुकुट, अंगरचना, केसर, चंदन, बरास, कस्तुरी आदि कार्यों में उपयोगमें लाया जा सकता है / ... (2) निर्माल्य द्रव्यका उपयोग मंदिरके कार्योमें हो सकता है और द्रव्यान्तर द्वारा प्रभुके आभूषण भी बनवाये जा सकते हैं / (3) कल्पित (आचरित) द्रव्य, मूर्ति और मन्दिर, दोनोंके कार्यों में उपर्युक्त हो सकता है / 'संबोध' प्रकरण अनसार देवद्रव्यके ऐसे शास्त्रीय तीन विभाग अलग न रखनेसे देखें कि कैसी हालत खडी होती है ? आदान द्रव्यका मंदिरमें और निर्माल्य द्रव्यका प्रभुपूजामें उपयुक्त होनेकी परिस्थिति उपस्थित होती है / ' उदाहरणार्थ आदान द्रव्यका मंदिर कार्यमें और जीर्णोद्धारमें उपयोग होनेकी हालत पैदा होती है / तब निर्माल्य द्रव्य भी एक ही देवद्रव्यके विभागमें जमा करानेसे वो प्रभुके अंग पर चढ़नेकी परिस्थिति पैदा होती इस प्रकार जब दो महागीतार्थ स्वर्गस्थ आचायोंकी जो स्वप्नादिकी बोली आदिकी रकम देवद्रव्यके विभागमें ले जानेमें स्पष्ट मंजूरी मिली है तो संमेलन द्वारा पारित इस ठरावमें शास्त्रविरुद्ध कुछ होनेकी संभावना ही