________________ 222 धार्मिक-वहीवट विचार - उत्तर : आपका कहने का आशय यह है कि यहाँ देवद्रव्यविषयत्वेन साजात्य सादृश्य गृहीत है लेकिन यह आशय उचित नहीं, क्योंकि नूतनचैत्यकरण जो निर्दिष्ट किया गया है, वह देवद्रव्यका विषय नहीं / 'देवद्रव्यमेंसे जिनमुर्तिकी हर प्रकारकी भक्ति हो सकती है' ऐसे विज्ञापित अनेक विधान हैं, लेकिन किसी भी शास्त्रमें ऐसा विधान दृष्टिगोचर नहीं हुआ है कि देवद्रव्यमेंसे नूतन जिनालय बनाया जा सके / (अभी प्रायः सर्वत्र यही प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है, यह एक अलग बात है / यहाँ उसका विचार करना आवश्यक नहीं, क्योंकि प्रवृत्ति क्या चलती है, उसकी यहाँ चर्चा नहीं, लेकिन शास्त्र क्या कहते हैं उसकी चर्चा हे / ) उपरान्त, जैसे श्रा. जी. वृत्तिमें 'वस्त्रादौ कनकादौ च' ऐसा कनकादिका पृथग् उल्लेख किया है उससे, उन दोनोंमें कुछ भिन्नत्व हो, ऐसा आप भी मानते हैं, ऐसा प्रस्तुतमें 'नव्यचैत्यकरणादौ'का जीर्णोद्धारसे अलग उल्लेख किया है, यह बताता है कि जीर्णोद्धारके तुल्य प्रकारसे देवद्रव्यविषयभूत नहीं है। अन्यथा उसका भी देवद्रव्य विषय रूपसे ही यहाँ समावेश करनेका अभिप्राय होता तो ग्रन्थकार 'जीर्णोद्धारादौ' इतना ही कहते / / . प्रश्र : इस प्रकार यहाँ यदि देवद्रव्य विषयत्वेन साथ सादृश्य नहीं तो किस रूपमें है ? उत्तर : द्रव्यसप्ततिकाकारने जिसका अन्यत्र स्पष्ट उल्लेख किया है, उसका गौरवार्हस्थानत्वेन सादृश्य ग्रहण करनेका शास्त्रकारोंको मान्य है / जीर्णोद्धार और नूतन चैत्य जैसे गौरवार्ह स्थान है, वैसे गुरुवैयावच्च भी गौरवाह स्थान हैं / अत: उनको भी 'आदि' शब्द द्वारा ग्राह्य बननेमें कोई आपत्ति नहीं है / प्रश्र : जीर्णोद्धार और नूतन चैत्यकरण, वे दोनों यदि गौरवार्ह स्थान हैं तो दोनोंका अलग उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तर : मात्र ‘जीर्णोद्धारादौ' लिखकर छोड़ दें तो किसीको ऐसा भ्रम हो जाय कि यहाँ देवद्रव्य विषयके रूपमें उल्लेख होगा और उससे 'आदि' शब्दसे भी ऐसी ही चीजोंका ग्रहण करे, ऐसा भ्रम उपस्थित न हो उसके लिए नूतन चैत्यकरणका पृथग् उल्लेख किया हो तो उसमें कोई अनुचित नहीं / (3) 'भोगार्ह गुरुद्रव्य रूपमें सुवर्णादिका निषेध ही सूचित करता