________________ परिशिष्ट क्रमांक-४ - ले. आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म. साहब प्रश्न :- 'द्रव्य सप्ततिका' तथा 'श्राद्धविधि' ग्रन्थके आधार पर कई ऐसा प्रस्थापित करना चाहते हैं कि 'स्वद्रव्यसे ही पूजा करनी चाहिए / परद्रव्य या देवद्रव्यसे पूजा हो ही नहीं सकती।' इस विषयमें स्पष्ट अभिप्राय देनेकी कृपा करें / उत्तर : 'स्वद्रव्यसे ही पूजा करनेका' 'द्रव्यसप्ततिका' और 'श्राद्धविधि' ग्रन्थमें जो कहा गया है, वह गृहमंदिरकी व्यवस्थाके विषयके वर्णनसे संबंधित है, लेकिन उससे देवद्रव्यसे भी पूजा करनेका निषेध नहीं लेकिन विधान होता है / गृहमंदिर व्यवस्थाका वर्णन करते समय, उसमें जो विधान किये गये हैं, उनका अच्छी तरह गौर करने पर, इस बातका पता चलेगा / देखें :'गृहचैत्यनैवेद्यापि चारामिकस्य प्रागुक्तमासदेयस्थाने नाj, आदावेव नैवेद्यार्पणेन मासदेयोक्तौ तु न दोषः / / मुख्यवृत्त्या तु मासदेयं पृथगेव कार्यम् / ' अर्थ : मालीको माहभरकी (फूल आदिकी निश्चित की गयी) 'श्राविधि' दी जानेवाली रकमके स्थान पर घरचैत्यके नैवेद्यापि न दे, लेकिन पहलेसे ही नैवेद्यादि अर्पण करनेके साथ मासिक देय रकम निश्चित की हो तो कोई दोष नहीं / मुख्यवृत्तिसे मासिक देय रकम अलग ही देनी चाहिए / ' यहाँ मुख्यवृत्तिसे मालीको मासिक रकमके स्थान पर नैवेद्यादि देनेका निषेध करने पर भी, पहले निश्चित किया हो तो दोष नहीं ऐसा निर्दिष्ट किया गया है / ___ यदि देवद्रव्यसे पूजा करनेमें देवद्रव्यके उपभोगका दोष लगता हो अथवा देवद्रव्यमें से पूजा हो ही नहीं सकती हो तो नैवेद्यादिके विक्रयसे प्राप्त पुष्प प्रभुको कैसे समर्पित किये जाय ? क्योंकि नैवेद्यादि तो प्रभुके पास घरमंदिरके देवद्रव्यसे अर्पित किया जाता है / फिर भी दोष नहीं,