________________ 272 धार्मिक-वहीवट विचार ऐसा शास्त्रकारने बताया है / जो सूचित करता है कि देवद्रव्यमेंसे पूजा करनेमें देवद्रव्यके उपभोगका दोष नहीं लगता / और भी आगे गौर करें : 'स्वगृहचैत्यढौकितचोक्षपूगीफलनैवेद्यादिविक्रयोत्थं पुष्पभोगादि स्वगृहचैत्ये न व्यापार्यम् / नापि चैत्ये स्वयमारोप्यं किन्तु सम्यग् स्वरूपमुक्त्वाऽर्चकादेः पार्थात् तद् योगाभावे तु सर्वेषां स्फुटं स्वरूपमुक्त्वा स्वयमप्यारोपयेत् / अन्यथा मुधाजन प्रशंसादि दोषः।' अर्थ : गृहमंदिरमें रखे गये अक्षत, सुपारी, नैवेद्यादिके विक्रयसे उत्पन्नअर्जित द्रव्यसे प्राप्त पुष्पादि स्वगृहचैत्यमें उपयुक्त न करें, लेकिन संघमंदिरमें सम्यक्स्वरूप कहकर दूसरे अर्चकादि (पूजा करेनेवाले आदि)के पास रखवा दें / वैसे अर्चकादिका योग न हो तो दूसरोंके आगे स्पष्ट स्वरूप कहकर (कि इस गृहमंदिरके चावल आदिके विक्रयसे अर्जित द्रव्यके पुष्प आदि हैं) स्वयं आरोपण करें, अन्यथा व्यर्थका जनप्रशंसादिका दोष लगेगा / यहाँ देखें, गृहमंदिरके देवद्रव्यके पुष्प आदि, दूसरे पूजा करनेवालेके पास समर्पित कराये तो अन्य व्यक्तिको देवद्रव्यसे पूजा संपन्न हुई या नहीं ? उपरान्त, दूसरे न हों अथवा दूसरे इन्कार करें तो स्वयं भी ये मेरे द्रव्यसे खरीदे हुए नहीं है लेकिन गृहमंदिरके देवद्रव्यके हैं ऐसी स्पष्टता कर पुष्प आदि भगवानको समर्पित करें, तो यह देवद्रव्यसे सम्पन्न की गयी पूजा मानी न जायेगी ? इस गृहमंदिरके देवद्रव्यमेंसे खरीदे गये पुष्पादि हैं, ऐसी बिना स्पष्टता किये स्वयं समर्पित करे तो व्यर्थ जनप्रशंसादि दोष बताया गया है, लेकिन देवद्रव्यके उपभोगका दोष कहा नहीं, यह विशेष ध्यानयोग्य बाते हैं / उपरोक्त स्पष्टताके साथ तो समर्पित करनेका विधान किया है / और भी आगे पाठ पर सोचविचार करें : 'गृहचैत्य नैवेद्य चोक्षादि तु स्वगृहे मोच्यमन्यथा गृहचैत्यद्रव्येणैव गृहचैत्यं पूजितं स्यान्नतु स्वद्रव्येण तथा चानादरावज्ञादि दोषः / न चैवं युक्तं स्वदेहगृहकुटुम्बाद्यर्थ भूयसोऽपि व्ययस्य गृहस्थेन करणात् / ' अर्थ : गृहचैत्यके नैवेद्य, अक्षत आदि (या उसके विक्रयसे अर्जित