________________ परिशिष्ट-१ 165 / इस संमेलनमें भी स्वप्नादि द्रव्य को देवद्रव्यमें ही ले जानेका निश्चित किया है / हाँ, उस देवद्रव्यका विशेषभेद १९९०के संमेलनने किया न था, उसके लिए इस संमेलनने उसे 'कल्पित देवद्रव्य' कहकर वह ठराव पारित किया है / वास्तवमें तो 1990 के संमेलनमें इस ठराव पर जो सर्वसंमति प्राप्त हुई है वह उस ठरावके 'योग्य मालूम होता है' उन शब्दोंसे, उस समय खोखली सर्वसंमति प्राप्त होनेका सूचन होता है / 2044 के संमेलनने तो पूरी स्पष्टता की है / संमेलनके विरोधी कहते हैं स्वप्नद्रव्य या केसरादिकी बोली चढावेके द्रव्यसे देवपूजाकी सामग्री लायी न जाय और पूजारी आदि को वेतन दिया न जाय / ये ही महानुभावो स्थान स्थान पर 'जिनभक्ति साधारण' के नाम फंड एकत्र कराते हैं / बारह मासके केसर, अगरबत्ती आदिका लाभ उठानेके लिए केसर आदिकी बोली बुलवाते हैं / इस प्रकार जो धन इकट्ठा होता है, उसमेंसे बाहरसे आये यात्रिकों को केसर आदि पूजासामग्री सुलभ की जाती है और पूजारीको वेतन भी दिया जाता है / / __क्या यह उन्नित है ? परमात्माके (देवके) निमित्ते बोली गयी केसर आदिकी उछामनी देवद्रव्य ही बन जाती है / अब आप 'जिनभक्ति साधारण' ऐसा नाम देकर उसमेंसे पूजासामग्री ला सको और पूजारीको वेतन भी दे सको तो केसरपूजा या स्वप्न आदिके उसी बोली-चढावे को हम 'कल्पित देवद्रव्य' रूपमें लेकर उसमेंसे शास्त्रसंमत रूपसे पूजारीका खर्च निकालनेके लिए रखें तो उसे उत्सूत्र कैसे माना जाय ? ___ यदि आप जिनके निमित्तसे बोलियोंकी रकमको देवद्रव्य न कहकर 'जिनभक्ति साधारण' कहते हैं तो संमेलनके ठरावमें इससे अलग क्या सोचा गया है ? ___ वस्तुतः स्वप्न या उपधाननिमित्तकी बोलियाँ, साक्षात् देवके निमित्त बोलियाँ नहीं होती / जबकि बारह मासके केसरपूजादिके लाभकी बोलियाँ तो साक्षात् जिन (जिनमूर्ति)के निमित्त ही होती हैं, फिर भी यदि ये बोलियाँ जिनभक्ति साधारण (देवकु साधारण) कही जायँ तो स्वप्नादिके निमित्त जिनमंदिरके सर्व कार्योंका निर्वाह करनेके लिए प्रचारित की गई बोलीकी प्रथासे प्राप्त होनेवाला धन भी देवकु साधारण (कल्पित देवद्रव्य) क्यों माना न जाय ?