________________ परिशिष्ट-२ . 195 कर प्राप्त रकमसे या भगवानको चढ़ाये फूल आदिसे, क्योंकि ऐसा करनेमें पूर्वोक्त दोष लगता है / इसी ग्रंथाधिकारमें, लोगोंमें व्यर्थकी अपनी प्रशंसा आदि होनेसे अपनेको दोष लगनेका पूर्वे सूचित किया है / अतः पूर्वोक्तदोषके रूपमें वह दोष विवक्षित है / उस (अपने घरदेरासरके) नैवेद्य आदिको बेचकर प्राप्त हुए द्रव्य, कि जो देवद्रव्य है, उससे बडे देरासरमें भगवानकी भक्ति करे. तो लोगोंको उसका पता न होनेसे प्रशंसा करते हैं कि- 'ये श्रावक कैसे भक्तिवाले हैं / स्वद्रव्य का कितना सारा सद्व्यय कर भगवानकी सुंदर भक्ति करते हैं ?' इत्यादि, तो श्रावकको वृथा प्रशंसादिसे वह दोष लगे, यह स्पष्ट इस ग्रंथाधिकारसे निम्न बातें स्पष्ट होती है : (1) यह पाठ स्वद्रव्यसे ही पूजा करनेका जो विधान करता हैं, वह गृह मंदिरवाले श्रावकोंके लिए बड़े देरासरमें करनेकी पूजाके बारेमें है, लेकिन सामान्यतया सभी श्रावक संघमंदिर आदिमें जो पूजा करते हैं, उसके बारेमें नहीं / इसके सिवा दूसरा कोई पाठ तो नहीं मिलता / अतः व्यापक रूपसे सभी श्रावकोंको लागू हो उस प्रकार 'स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए' ऐसा कोई भी शास्त्र निर्देश नहीं देता और उससे अन्य शास्त्राधिकार देवद्रव्यसे भी जिनपूजा होनेकी बातें बतातें हैं, उसके साथ कोई विरोध नहीं रहता / (2) 'प्रागुक्तदोषसंभवात्' ऐसा कहने द्वारा, गृहचैत्यवाला श्रावक उक्त द्रव्यसे मुख्य देरासरमें पूजा करे तो उसे वृथा प्रशंसादिके कारण दोष होनेका संभव बताया है, लेकिन देवद्रव्यभक्षणका दोष बताया नहीं / यह द्रव्य. गृहमंदिरमें समर्पित होनेसे देवद्रव्य तो हो ही गया है / इस देवद्रव्यसे मुख्यमंदिरमें पूजा करनेसे यदि देवद्रव्यभक्षण-देवद्रव्यनाशका दोष लगता हो तो ग्रंथकारने उस दोषका उल्लेख यहीं किया होता, क्योंकि वह बड़ा भारी दोष है / इसी लिए मालूम होता है कि देवद्रव्यसे संपादित सामग्री द्वारा जिनपूजा करने में देवद्रव्यभक्षण, देवद्रव्यनाशका दोष तो लगता ही नहीं / अतः एव 'द्रव्यसप्ततिका के इस ग्रंथाधिकारमें पहले भी कह गये हैं कि 'स्वगृहचैत्यढौकितचोक्षपूगीफलनैवेद्यादिविक्रयोत्थं पुष्पभोगादि स्वगृहचैत्ये न व्यापार्य, नापि चैत्ये स्वयमारोप्यं, किन्तु सम्यक्स्वरूपमुकत्वाऽर्चकादेः पार्थात् तद्योगाभावे सर्वेषां स्फुटं स्वरूपमुक्त्वा स्वयमारोपयेत् / अयापा