________________ 196 धार्मिक-वहीवट विचा मुधा जनप्रशंसादिदोषः / अर्थ : अपने गृहमंदिरमें समर्पित चावल, सुपारी, नैवेद्य आदिके विक्रयसे प्राप्त पुष्पभोग आदिका अपने गृहचैत्यमें उपयोग न करें / उपरान्त दूसरे (संघके) देरासरमें आकर भी अपने आप उसे समर्पित न करें / लेकिन उसकी व्यवस्था सूचित कर चैत्यके पूजारी आदिके पास चढ़वान चाहिए / यदि ऐसा हो न सके तो सभीके सामने 'इस गृहमंदिरमें समर्पित चीजोंमें से प्राप्त हुए पुष्पभोग आदि है, मेरे अपने नये द्रव्यसे प्राप्त हुआ पुष्पभोग नहीं' इत्यादि स्पष्टरूपसे विज्ञापित कर अपने हाथों चढ़ाना चाहिए / नहीं तो लोगोंमें अपनी वृथा प्रशंसा आदि होनेसे स्वयं दोषभागी होना पड़े। यदि देवद्रव्य बनी चीजोंसे पूजा करनेसे देवद्रव्यभक्षणका दोष लगता होता तो, लोगोंमें उपरोक्त ढंगसे विज्ञापन करने पर भी, उस चीजका देवद्रव्यत्व दूर न होनेके कारण, देवद्रव्यभक्षणका दोष जैसाका वैसा बना रहता, तो फिर, वैसा विज्ञापनकर उस चीजको भगवानके चरणोंमें समर्पित करनेकी शास्त्रकार अनुझा न देते / (3) संघमंदिरमें जहाँ संघ द्वारा ही योग्य ढंगसे देवद्रव्यमेंसे केसर, चन्दन आदिकी व्यवस्था हो पायी हो, वहाँ कोई श्रावक उस केसर-चन्दनसे प्रभुपूजा करे, तो वहाँ संघ जानता ही है कि यह केसर- चन्दन देवद्रव्यका ही है, यह श्रावकका खुदका नहीं, अतः उसकी वृथा प्रशंसा आदि दोषोंकी संभावना नहीं रहती / तो फिर क्यों श्रावक उस द्रव्यसे पूजा आदि न कर पाये ? यह दोष न रहता हो तो, गृहमंदिरवाले श्रावकको भी उससे मुख्य मंदिरमें पूजा करनेका विधान है, तो सर्व श्रावकोंके लिए भी उस पूजाको विहित मानना ही होगा / इस प्रकार श्रावक स्वद्रव्यसे ही पूजा करें, ऐसी अपनी मान्यता को शास्त्रानुसारी सिद्ध करनेके लिए 'द्रव्यसप्ततिका' और 'श्राद्धविधि का जो पाठ दिया जाता है वही पाठ ही उनकी इस मान्यताको सिद्ध नहीं कर पाता, यह स्पष्ट हुआ / अतः देवद्रव्यसे जिनपूजा हो न सके, यह विधान क नहीं सकता / विरुद्ध पक्षमें उपरोक्त अनेक शास्त्रपाठ देवद्रव्यकी वृद्धिको जा आदिके लिए स्पष्ट रूपसे बताते है / अतः एव वि. सं. १९७६में 2 तमें पू. आ. श्री कमलसूरि म., पू. श्री दानसूरि म., पू. सागरजी म.