________________ 197 परिशिष्ट-२ आदिने निम्नानुसार प्रस्ताव किया है कि (एम) जिनप्रतिमाकी नियमित पूजा करनेके लिए, पूजाके उपकरणोंकी दुरस्तीके लिए और नवीनीकरणके लिए, एवं चैत्योंके जीर्णोद्धारके लिए देवद्रव्यकी वृद्धि और उसकी सुरक्षा बनाये रखे / देवद्रव्यकी सुरक्षा और उसकी वृध्धि देवाधिदेव परमात्माकी भक्ति निमित्त ही की जाती है / ' इस प्रस्ताव पर पू. आ. श्री रामचंद्रसूरिजी महाराजने भी हस्ताक्षर किये हैं, यह ध्यानमें रखा जाय / / बाकी, 'स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए / ' ऐसा एकान्त-वाद शास्त्रकारोंको सर्वथा अमान्य है / सेनप्रश्नमें (पृ. 28) कहा गया है कि (एन ) ज्ञानद्रव्यं देवकार्ये उपयोगी स्यान्नवा ? यदि स्यात्तदा देवपूजायां प्रासादादौ वा इति प्रश्नः उत्तर:..... एतदनुसारेण ज्ञानद्रव्यं देवपूजायां प्रासादादौ चोपयोगी भवतीति / . अर्थ : प्रश्न : ज्ञानद्रव्य देवकार्योंमें उपयुक्त किया जाय या नहीं ? यदि किया जाय तो देवपूजामें या जिनमंदिरादिमें ? उत्तर : ....इस अनुसार ज्ञानद्रव्य देवपूजा और जिनमंदिरादि कार्यों में उपयोगी होता है। ज्ञानद्रव्य यह स्वद्रव्य न होने पर भी उसका जिनपूजामें उपयोग बताया है / उपरान्त, जो लोग ‘स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए' ऐसा आग्रह रखते हैं, उन्हींकी निश्रामें अनेक संघोंमें केसर-चन्दन आदिके वार्षिक चढ़ावे या साधारणके चढ़ावे करके उसमेंसे केसर-चन्दन आदि सामग्री लाने में उपयोग किया जाता है / जिससे अनेक श्रावक पूजा आदि करते हैं / उपरान्त, देवद्रव्यकी व्याख्याका सूक्ष्मतासे विचार किया जाय तो इस केसरचन्दन आदिके चढ़ावेसे प्राप्त द्रव्य भी देवद्रव्य बन जानेसे 'स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए,' ऐसे विधानका अर्थ देवद्रव्यभिन्न द्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए, लेकिन देवद्रव्यसे नहीं / ' ऐसा करनेसे भी बचनेका कोई उपाय हस्तगत नहीं होता / देखें, द्रव्यसंप्ततिका में देवद्रव्यकी दी हुई व्याख्या : (ओ) ओहारणबुद्धिए देवाईणं पकप्पि च जया / जं धणधन्नप्पमुहं तं तद्व्वं इहं णेयं // 2 // अर्थ : नियमबुद्धिसे देवादिकके लिए जो धन-धान्य आदि जिस समय