________________ . 198 .. धार्मिक-वहीवट विचा निश्चित्त किये गये हों, उसे देवादिद्रव्य समझे / वृत्ति : ओहारणेति / अवधारणबुद्धया भक्त्यादिविशिष्टनियमबुद्धया। देवादिभ्यो यद् धनधान्यादिकं वस्तु यदा यत्कालावच्छेदेन प्रकल्पितं उचितत्वेन देवाद्यर्थं एवेदं अर्हदादिपरसाक्षिकं व्यापार्यं न तु मदाद्यर्थे इति प्रकृष्टधीविषयीकृतं निष्ठाकृतमिति यावत् तदा तदिह अत्र प्रकरणे तद्रव्यं तेषां देवानां द्रव्यं देवादिद्रव्यं ज्ञेयं बुधैरिति शेषः / / अर्थ : धनधान्यादि जो वस्तु जब 'योग्यरूपसे श्री अरिहंत आदि पर साक्षीमें इस वस्तुका उपयोग देवादिके लिए ही करे, मेरे अथवा अन्यके लिए नहीं / ' ऐसी प्रकृष्ट बुद्धिके भक्ति आदिसे विशिष्ट निश्चय द्वारा विषयरूप बनाने में आयी हो, उस चीजको तब प्राज्ञपुरुष देवादिद्रव्य स्वरूप समझें / केसर-चन्दन आदि सामग्रीके चढावे से उत्पन्न द्रव्य भी नियमपूर्वक प्रभुजीकी भक्तिमें ही उपयोग करनेका निर्णय-निश्चित है, अत: चढावेके समय जितना द्रव्य निश्चित हुआ हो, वह उसी समयसे देवद्रव्य बन गया है / यदि देवद्रव्यसे जिनपूजा हो सकती न हो तो इस द्रव्यसे कैसे होगी ? उपरान्त, 'स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए, देवद्रव्यसे नहीं।' ऐसा आग्रह 'श्राद्धविधि' ग्रंथके एक अधूरे वाक्यसे ग्रहण करनेसे पूर्व उसी ग्रंथमें अन्यत्र जो कहा गया है कि (पृ. 53.) यत्र च ग्रामादौ आदानादिद्रव्यागमोपायो नास्ति तत्राक्षतबल्यादिद्रव्येणैव प्रतिमाः पूज्यमानाः सन्ति / अर्थ :- जिस ग्राम आदिमें आदानादि द्रव्य प्राप्तिके साधन नहीं वहाँ अक्षत-बलि आदिके (विक्रयसे प्राप्त) द्रव्यसे प्रतिमापूजन हो रहा है, उसका विरोध न हो, उस प्रकार अर्थघटन करना शास्त्रानुसारी कहा जाय / / श्राद्धविधिके इस पाठमें, यत्र च ग्रामादौ स्वद्रव्यसंभवो नास्ति तत्राक्षत...(जिस गाँव आदिमें स्वद्रव्यका संभव नहीं, वहाँ अक्षत.....) आदि कहा नहीं लेकिन 'यत्र च ग्रामादौ आदानादि द्रव्यागमोपायो नास्ति... (जो गाँव आदिमें आदानादि द्रव्यप्राप्तिका संभव न हो वहाँ...) इत्यादि कहा है / इससे प्रतीत होता है कि जहाँ आदानादि द्रव्यप्राप्ति संभवित हो वहाँ, उस द्रव्यसे पूजा करनेमें कोई दोष नहीं / जहाँ उसका संभव न हो वहाँ निर्माल्य द्रव्यके विक्रयसे प्राप्त द्रव्यसे पूजा हो सकती है / उपरान्त, श्राद्धविधिके इस पाठमें 'आदानादि' शब्दसे पूजाद्रव्य सूचित किया गया है / उसके अभाव में