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________________ धार्मिक-वहीवट विचार गुण-हिंसा तो सबसे बढी हिंसा है / छोटीसी भी प्राणिदया गुणहिंसाको रोकती है / ये प्राणदयाका नक्कर फायदा है / जैनधर्मके किसी भी धार्मिक अनुष्ठानमें अनुकंपा शामिल होनी चाहिए / जिससे अजैन लोगोंको भी जैन धर्मके प्रति मान पैदा होता है / जैनधर्म की प्रशंसा, उन्हें आगामी भवमें जैनकुलमें जन्मदात्री सिद्ध होती है / इस प्रकार बिना धर्मपरिवर्तन कराये, जैनोंकी संख्या वृद्धि होती रहेती है / . कुल खर्चके हिसाबमेंसे अनुकंपाके लिए योग्य रकम निर्धारित * करनी चाहिए / जैन धर्मकी निन्दा न हो, उसके लिए भी जैनलोगोंको अपना औचित्य समझकर, अनुकंपाके कार्य करते रहना चाहिए / गरीबोंके लिए गरमीमें छाशकेन्द्र, जाडे में कम्बलवितरण पोलियो केम्प, जयपुर फूट केम्प, नेत्रयज्ञ, खिचडी घर, सस्ते अनाजकी दूकानें, मुफ्त अन्नवितरण, स्कूलकी पुस्तकोंका वितरण, मुफ्तमें गृहदान, धंधा रोजगारकी व्यवस्था, त्योहारके दिनोंमें मिष्टान्न भोजन अथवा अनाथाश्रम आदिमें भोजनदान आदि बहुत अनुकंपा कार्य किये जा सकते हैं। बेशक गरीबीके कारणोंको ही दूर करना, यह सबसे बड़ी और सही अनुकंपा है / उपर्युक्त अनुकंपा तो, गरीबी के कारणोंको दूर करने के प्रति उपेक्षावाली हो तो केवल मलमपट्टी जैसी है / फिर भी उस बातको मनमें जीवित रख कर अनुकंपा करें, क्योंकि स्थूलबुद्धिके जीव तो तत्काल दया की अपेक्षा-आशा रखते हैं / अत: उसके सिवा कोई चारा नहीं रहता / अन्यथा शक्तिमान जैनोंको तो गरीबी, बेकारी, बीमारी और महेंगाईके कारणरूप यन्त्रवाद, मेकोलेशिक्षण, हुंडियामणकी लालच आदिको दूर करने के लिए प्रयत्न करने चाहिए / इन बातोंने समग्र भारतीय प्रजाको बीमार, बिस्मार, भिखारी, बरबाद और सत्त्वहीन बना दीया है / ये बातें यादि दर न की जायँ तो गरीबों को अन्नदान, औषधदान, धनदान आदि हास्यास्पद बन जाती हैं / फिर भी इसके करनेके सिवा और कोई चारा नहीं है / अतः कुवृष्टिन्यायानुसार भी इस कामको करें / अन्यथा जैन धर्मकी भारी निंदा होगी / ज्ञानी लोगोंने इस निंदाको भारी पाप बताया है / फौडेके दर्दीके लिये दोनों काम किये जायँ / फोडों पर मलमपट्टी लगायी जाय, साथ ही भीतरमें उपद्रव करनेवाले रक्तविकारको जडमूलसे दूर करना चाहिए / दीनदुःखीयोंके प्रति अनुकंपा, द्रव्य अनुकंपा हो सकती है और भाव अनुकंपा
SR No.004379
Book TitleDharmik Vahivat Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekharvijay
PublisherKamal Prakashan
Publication Year1996
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size22 MB
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