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________________ परिशिष्ट-२ 201 हो तो किसीको अन्य प्रकारके अनुष्ठानसे होता है / अत: एकको प्राप्त लाभसे सभी एक ही प्रकारका अनुष्ठान करें, ऐसा नियम बद्धमूल बना दिया नहीं जाता / अन्यथा, परद्रव्यसे सुकृत करने में कोई फायदा नहीं ही होता ऐसी मान्यता जमनेसे अन्य शास्त्रप्रसिद्ध दृष्टांत असंगत हो जानेका बडा भारी दोष उपस्थित होगा / मूलशुद्धि प्रकरणमें पृ. २०३से २०९में जो द्रोणकाख्यान दिया है, उसमें उल्लेख किया है कि 'जब चार मित्र अपने भोजनद्रव्य द्वारा अपनेसेवक द्रोणकको साधुओं को भिक्षादान करनेके लिए कहते हैं तब द्रोणक अत्यंत भक्ति-श्रद्धासे भार्वार्द्र होकर रोमांचित बनकर वहोराता है / इस दानके प्रभावसे वो कुरुदेशमें राजपुरनगरमें कुरुचंद्र नामक राजपुत्र बनता है और भविष्यमें राजा होता है / जब स्वद्रव्यका दान करानेके प्रभावसे, उन चार मित्रों में से दो श्रेष्ठीपुत्र बनते. हैं और दो श्रेष्ठीपुत्रियाँ बनती हैं / अन्तमें राजा और वे चारों दीक्षा ग्रहणकर सद्गति प्राप्त करते हैं और क्रमशः मोक्षप्राप्ति करेंगे ऐसा उस दृष्टान्तमें व्यक्त किया गया है / परद्रव्यसे किये सुकृतका लाभ प्राप्त न होता तो द्रोणकको उस दानकार्यसे राज्य, सद्गति और परंपरासे मोक्षकी प्राप्ति न होती / मुख्य बात यह है कि प्रभुभक्ति आदि करनेकी सद्बुद्धि, भक्तिपूर्ण हृदय आदि महत्वके हैं / ये देवगुरुआदिकी भक्तिके अनुष्ठान परद्रव्यसे करनेके लिए भी, तद्विषय शुभभावनाएँ होनी चाहिए / वे जैसे जैसे प्रगट होती जाती हैं, वैसे अधिकाधिक लाभ प्राप्त होता है / आखिरमें तो द्रव्यकी अपेक्षा भाव ही अधिक महत्त्वके हैं / बिना द्रव्य, भाव उत्पन्न ही नहीं हो सकते, ऐसी मान्यता श्वेताम्बरोंकी नहीं हैं. दिगंबरोकी है, यह ध्यानमें रखे / दूसरेके द्रव्यसे सद्-अनुष्ठान करनेवालेको यदि कोई लाभ प्राप्त न हो तो, उनके भावोंको ध्यानमें रखकर भी लाभमें तरतमताका कोई अन्तर नहीं आना चाहिए, क्योंकि लाभ ही नहीं होता / श्रावकोंके कई नौकर साधुओंको अपनी पूरी श्रद्धा - भक्तिके साथ वहोराते हैं, जबकि कई नौकर अपनी ड्यूटी है ऐसा समझ कर सामान्य ढंगसे वहोराते हैं, फिर भी क्या उनके लाभमें कोई अन्तर नहीं होगा ? परद्रव्यसे संपन्न क्रियासे कोई लाभ ही न होनेवाला हो तो कपिलादासी अन्य दासियोंकी अपेक्षा, दान देनेके विषयमें अलग न पडती और फिर विशेष प्रकारसे उसका जो उल्लेख हुआ है, वह न हो पाता / "
SR No.004379
Book TitleDharmik Vahivat Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekharvijay
PublisherKamal Prakashan
Publication Year1996
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size22 MB
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