________________ 208 धार्मिक-वहीवट विचा उपाश्रय आदिके कार्यों में भी जो द्रव्य उपयोगमें लाया जा सकता हो, उसे साधारण द्रव्य कहा जाय ऐसा विरोधी वर्ग भी अच्छी तरह जानता है, फिर भी ये लोग तो देवद्रव्यको साधारण विभागमें घसीट गये' ऐसा जो आक्षेप करते हैं, उसके पीछे क्या हो रहा है, उसका प्रत्येक सुज्ञ जिज्ञासु व्यक्ति- श्रावक तटस्थतासे विचार करें / पक्षपात एक ओर रखकर सोचनेकी तत्परता, वह माध्यस्थ्य है, वही जीवको आत्मकल्याणके मार्ग पर आगे बढा सकता है / शक्ति और शक्यता पूर्णरूपसे होने पर भी, अन्य सभी बातोंको सुननेकी या सोचनेकी कोई तैयारी ही होने न दे, ऐसी किसी भी पक्षकी अत्याग्रहिता आत्महितकी बाधक है, ऐसा सूरिपुरदर श्री हरिभद्रसूरि महाराज, महोपाध्यायश्री यशोविजयजी महाराज आदि शास्त्रकारोंका स्पष्ट अभिप्राय है / इस बातका प्रत्येक आत्महितेच्छु ध्यान रखें / प्रस्तुत लेखको भी किसी भी पक्षके आत्यंतिक आग्रहके सिवा शान्तचित्तसे माध्यस्थ्यपूर्वक सर्व आत्महितेच्छु सोचे-पढ़े ऐसा विशेष आग्रह-प्रार्थना है / शंका - . ___ महोपाध्यायश्री यशोविजयजी विरचित सवासौ गाथाके स्तवनकी 8 वें ढालकी अन्तिम गाथा ऐसी है : 'तो मुनिने नहीं किम पूजना, एम तुं शुं चित्ते शुभ मना ? रोगीने औषध सम एह, निरोगी छे मुनिवर देह / ' इसका अर्थ ऐसा है कि - गृहस्थको परिग्रहका रोग लगा है / मुनिको वैसा रोग नहीं, अतः परिग्रहका रोग निकालनेके लिए द्रव्यपूजा गृहस्थके लिए आवश्यक है / अब यदि देवद्रव्यसे पूजा की जाय तो अपने द्रव्यरूप परिग्रह रोग तो कायमी ही बन जायेगा न ? यह रोग तभी ही दूर होगा, यदि स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा की जाय / समाधान : जिनपूजा वह द्रव्यस्तव है और वह भावस्तव(चारित्र)की प्राप्तिके लिए है, ऐसा शास्त्रोमें अनेक स्थल पर उल्लेख हैं / चारित्रमें परिग्रहसे विरमण भी होता है ही / अतः परिग्रहका रोग हटानेके लिए जिनपूजा है, यह मान्य ही है, लेकिन 'इस रोगको मिटानेके लिए ही है / उसका अन्य कोई प्रयोजन नहीं है, ऐसी यदि मान्यता हो तो, उसे शास्त्राभ्वास की अपूर्णता ही मानी जायेगी /