________________ परिशिष्ट-२ 209 महोपाध्यायश्री यशोविजयजी महाराजके 'द्वात्रिंशत् द्रात्रिंशिका' प्रकरणमें प्रथम ‘दानबत्रीसी में ऐसा पाठ है : "यद्यपि जिनार्चादिकं भक्त्यनुष्ठानमेव, तथापि तस्य सम्यक्त्वशुद्ध्यर्थत्वात्तस्य चानुकंपालिंगकत्वात्तदर्थकत्वमप्यविरुद्धमेवेति // " ____ अर्थ : (अनुकंपा अनुष्ठानमें जिनपूजाका ग्रन्थकारने उदाहरण दिया है, अतः कोई शंका करें कि यह तो भक्ति अनुष्ठान है, अनुकंपा-अनुष्ठान नहीं, तो उसका समाधान देते हुए उपाध्यायजी महाराज कहते हैं / ) यद्यपि जिनपूजा आदि भक्ति अनुष्ठान ही है, फिर भी वह सम्यक्त्वशुद्धिके लिए है और सम्यक्त्वका अनुकंपा लिंग होनेसे 'जिनपूजा अनुकंपाके लिए है' ऐसा कहना भी अविरुद्ध है / . पंचलिंगी ग्रन्थमें भी इस प्रकारकी व्यवस्था बतायी है / अतः जिनपूजा सम्यक्त्वशुद्धि आदिके लिए भी है ही / प्रभुपूजा, तीर्थयात्रा आदि दर्शनाचारके आचार है / उनसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति-शुद्धि-स्थिरता प्राप्त होती है, ऐसी बातें अनेक शास्त्रोमें आती हैं / 'अष्ट द्रव्यशुं पूजो भावे, समकित मूल आधारा रे.....' 'तुम दरिसणथी समकित प्रगटे निजगुण ऋद्धि अपार रे......' आदि स्तवनकी पंक्तियाँ भी इस बात को स्पष्ट करती हैं / ____देवद्रव्यकी उपेक्षा-विनाश आदि और जिनमंदिर संबंधी आशातनाओंको सम्यग्दर्शन(दर्शनाचार)के अतिचारोंमें समाविष्ट की है / इससे भी स्पष्ट होता है कि देरासर-देरासरमें होनेवाली भक्ति, देवद्रव्यकी रक्षा- उससे होनेवाली प्रभुपूजा-जीणोद्धार आदि कार्य, सम्यग्दर्शनकी आराधना है और उससे विपरित, देरासरकी आशातना, देवद्रव्य विनाश आदि दर्शनाचारकी विराधनारूप है / इन तमाम बातोंसे सिद्ध होता है कि प्रभुपूजा सम्यग्दर्शनकी शुद्धिके लिए भी है ही / अतः यदि तथाविध परिस्थितिमें देवद्रव्यादिसे पूजा की जाय, और उससे इस लेखमें अन्यत्र कथनानुसार प्रसन्नता आदिका अनुभव हो तो सम्यक्त्वकी प्राप्ति-शुद्धि आदि क्यों न होने पाये? और तो फिर मिथ्यात्व नामक रोग मिट गया या मंद हो पाया ऐसा क्यों न कहा जाय ? और तो फिर, उस पूजाको व्यर्थ कैसे कहें ? अब दूसरी बात, आपने जो कहा कि 'देवद्रव्यसे पूजा कर लेनेमें अपने द्रव्यरूप परिग्रह रोग तो हमेशाके लिए रहेगा न / ' उसके बारेमें सोचें....... संमेलनने देवद्रव्यमेंसे केसर आदि सामग्री लानेकी छुट्टी मुख्यतया जिसके घा.वि. 14