________________ परिशिष्ट-२ 207 पंडितको वेतन दिया जाय, या ग्रन्थ प्रकाशन किया जाय तो उसका सदुपयोग कहा जाता है, क्योंकि यही उसका प्रयोजन है / उसी प्रकार देवद्रव्यमेंसे प्रभुभक्ति हो तो उसे भी उसका सदुपयोग क्यों माना न जाय ? वह भी उसका ही प्रयोजन ये तो आगे कहे गये अनेक शास्त्रपाठ एकमतसे जनाते है / उपरान्त, जैसे साधुको पढ़ानेवाले अजैन पंडितको ज्ञानविभागमेंसे वेतन देने पर, 'यदि इस प्रकार उसमेंसे वेतन दोगे तो ग्रन्थप्रकाशन आदि रूक जायेगा, अतः उसे न दिया जाय' ऐसा कहकर उसे रोका नहीं जाता, क्योंकि ऐसा वेतन देना, यह भी एक प्रयोजन है, अन्यथा इन साधु-साध्वीजीके पढ़ानेका काम रूक जानेसे नुकसान होगा उसी प्रकार 'यदि इस प्रकार देवद्रव्यमेंसे, जहाँ अन्य रूपसे व्यवस्था संभवित नहीं, वहाँ केसर-चंदन आदिकी व्यवस्था कर दी जाय तो जीर्णोद्धार आदि काम रूक जायेगा, आदि कहकर उस व्यवस्थाको रोकी नहीं जाती / अन्यथा प्रभुभक्ति न होनेका नुकसान होगा, जो उचित नहीं / (7) 'देवद्रव्यमेंसे केसर-चन्दन आदि लाया जाय ऐसी संमति देना अर्थात् देवद्रव्यको साधारणमें ले जाना / ' ऐसा कथन तो बेहद हास्यास्पद है और बोलनेवालोंकी मनोवृत्तिके बारेमें शंका पैदा करनेवाला है / जिनमेंसे श्रीजिनेश्वरदेवकी भक्ति आदि कार्य तो हो ही सकता है, लेकिन ग्रन्थप्रकाशनादि ज्ञानकार्य, साधु-साध्वीजी महाराजकी भक्ति-वैयावच्च, पौषधशाला संबंधी खर्च, साधर्मिक भक्ति आदि भी हो सके उस द्रव्यको 'साधारण द्रव्य के रूपमें संघमें प्रसिद्धि मिली है, उसे प्रायः सभी जानते हैं / क्या संमेलनने स्वप्नद्रव्य आदिको इन सभी कार्योमें उपयुक्त करनेकी छुट्टी दे रखी है कि जिससे देवद्रव्यको साधारणमें ले जानेका आरोप किया जाय ? संमेलनने तो मात्र, जहाँ आवश्यकता हो वहाँ, भगवानकी भक्तिके लिए ही केसर-चंदन आदि सामग्री या पुजारीका वेतन आदि उसमेंसे दिया जाय, ऐसा कहा है / श्री जिनेश्वरदेवकी भक्तिके अलावा अन्य किसी भी काममें देवद्रव्यका उपयोग करनेका संमेलनने स्पष्ट रूपसे विरोध किया है / जहाँ पूजारी ही उपाश्रयका भी काम करता हो, वहाँ उतना वेतन साधारणखातेमेंसे ही देना चाहिए, एसा दबदबाकर संमेलनमें सम्मति देनेवाले आचार्य भगत निवेदित करते हैं /