________________ धार्मिक-वहीवट विचार . तीसरा गुरुद्रव्य, लूंछन क्रिया-प्रयुक्त है / हाथमें धन रखकर उस हाथको तीन बार गुरु भगवंतके सामने गोलाकारमें (आवर्तरूपमें) घुमाएँ और बादमें चरणोंमें उस धनको समर्पित कर दे, उसे लूंछनरूप गुरुद्रव्य कहा जाता है / ___धनस्वरूपमें गुरुचरणोंमें रखे गये पूजार्ह गुरुद्रव्यका उपयोग कहाँ हो सके ? इस प्रश्नका जवाब यह है कि 'श्राद्धजितकल्प' गाथा 68 में ऐसे गुरुद्रव्यको चोरी करनेवाले के लिए जो प्रायश्चित्त बताया गया है, उसमें यह सूचित किया है कि ऐसे चोरे हुए धनको साधुओंकी वैयावच्च करनवाले वैद्यको वस्त्रादि दान रूपमें अर्पित करें अथवा बंदी के रूपमें गिरफ्तार हुए साधुकी मुक्तिके लिए खर्चे / यह पाठ स्पष्ट सूचित करता है कि पूजार्ह गुरुद्रव्यका उपयोग गुरु-वैयावच्च खातेमें हो सकता है। उपरान्त, द्रव्य-सप्ततिका' ग्रन्थमें इस द्रव्यका उपयोग, गौरवार्ह स्थानमें एवं जीर्णोद्धार तथा नव्य चैत्यकरणादिमें करने के लिए कहा है / साधु-साध्वी गौरवाह स्थानरूप है, अत: उपरान्त यहाँ आदि शब्दसे वैयावच्च खाता ऐसा समझें, क्योंकि वह गौरवाह स्थान है / यदि यहाँ, आदि' शब्दसे केवलं देवद्रव्य लिया जाय तो 'श्राद्धजित कल्प'के प्रायश्चित्त पाठके साथ विरोध उपस्थित हो। . उपरान्त विक्रमराजा आदिने गुरुचरणोंमें अर्पित द्रव्यका उपयोग जीर्णोद्धारमें या अन्य महात्माओं द्वारा साधारणके खातेमें या गरीबोंको ऋणमुक्त करानेके कार्यमें किया था, ऐसे अनेक शास्त्रपाठ हैं / उपरान्त आग्रामें उपाध्याय यशोविजयजी म० के चरणोमें समर्पित रूपयोंका उपयोग,शालाके बच्चोंको किताबें ला देनेमें करनेका आदेश दिया है / यदि गुरुद्रव्य केवल देवद्रव्यमें उपयुक्त बनता हो तो, ये द्रष्टान्त सुसंगत कैसे बन पाते ? इन सारी बातों से ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि गुरुद्रव्य, साधु-वैयावच्चों उपयुक्त हो, यही विहित है / उसे केवल देवद्रव्यमें ले जानेकी बात जीर्णोद्धारादिके द्रष्टान्तों से अत्र-तत्र चालू हुई हो, तो उसका कोई बाध नहीं; क्योंकि निम्नस्थानके द्रव्यका, उपरिस्थानमें आवश्यकतानुसार उपयोग किया जाय तो, उसमें शास्त्रबाध नहीं है। आज दोनों प्रकारके व्यवहार चलते हुए द्रष्टिगोचर होते हैं / कई समुदायके साधु गुरुद्रव्यको वैयावच्च खातेमें ले जाने को कहते हैं, जबकि कई साधु देवद्रव्य खातेमें लेना सूचित करते है /