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________________ 203 परिशिष्ट-२ शास्त्रोंमें दृष्टिगोचर होते हैं, वे न होने पाते / 'पांच कोडिना.....' तो व्यक्ति विशेषको इस प्रकार भारी लाभ प्राप्त हो गया यह सूचित करनार वाक्य है, सभीको उद्देशकर हुआ यह कोई सामान्य विधान नहीं / (4) भगवानकी पूजा यह श्रावकका कर्तव्य है, भगवानको स्वयं अपनी पूजाकी आवश्यकता नहीं' उस बातमें तो किसी विवादको स्थान ही नहीं, क्योंकि भगवान वीतराग है, लेकिन उतनेसे ही भगवानकी पूजा 'भगवानका कार्य (देवकार्य) नहीं।' ऐसा नहीं कहा जाता, क्योंकि पूर्वाचार्योंने उसे स्वशास्त्रोंमें देवकार्यके रूपमें माना है / देखें धर्मसंग्रह (पृष्ठ - 168) __(पी) उचितानि चैत्यसंबंधीयोग्यकार्याणि एतच्चेत्यप्रदेशसंमार्जनचैत्यभूमिप्रमार्जन-पूजोपकरणसमारचन-प्रतिमापरिकरादिनैर्मल्यापादनविशिष्ट-पूजा-प्रदीयादिशोभाविर्भावन-प्रभुतीनि / अर्थ : चैत्यके . प्रदेशको साफ रखें, मंदिरकी भूमि पर झाडू लगाये, पूजाके उपकरणका समाचरन करें, प्रतिमा-परिकर आदिको स्वच्छ . रखें, विशिष्ट पूजा करें, दीपक आदिकी रोशनीसे शोभा बढाये आदि चैत्यसंबंधी (चैत्यसे) उचित कार्य हैं / (एन) में सेनप्रश्नका जो अधिकार दिया है, उसमें भी देवकार्यके रूपमें देवकी पूजा और मंदिर, उन दोनोंका स्पष्ट उल्लेख किया है / __उपरान्त, उपर्युक्त अनेक शास्त्रपाठोंमें देवद्रव्यवृद्धिके प्रयोजनके रूपमें जिनमंदिरके जीर्णोद्धारके साथ साथ जिनपूजा आदिका निर्देश किया है / वह भी पूजाको देवकार्यके रूपमें निर्णीत करता है / उपरान्त, जिनपूजाकी तरह जिनमंदिर भी श्रावकका ही कर्तव्य है / भगवान जैसे अपनी पूजा स्वयं नहीं चाहते, उसी प्रकार अपना मंदिर-उस मंदिरकी शोभा-भव्यता भी नहीं चाहते / फिर भी, यदि वह देवकार्य है, तो पूजा क्यों नहीं ? नूतन जिनालय निर्माण देवद्रव्यमेंसे हो सके ऐसा निर्देश करनेवाला एक भी शास्त्रपाठ दृष्टिगोचर नहीं हुआ, फिर भी अनेक स्थलोंमें देवद्रव्यमेंसे वह होता है और सभी पूजनीय आचार्य भगवंत, उसे मान्य रखते हैं, जब देवद्रव्यमेंसे जिनपूजा करनेके उल्लेख तो स्थान स्थान पर शास्त्रोमें नजर आते हैं, उसीका विरोध क्यों किया जाता है ?
SR No.004379
Book TitleDharmik Vahivat Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekharvijay
PublisherKamal Prakashan
Publication Year1996
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size22 MB
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