________________ 14. धार्मिक-वहीवट विचार इस जिनप्रतिमा और जिनमंदिरके दो खातोंकी रकम, देवद्रव्य कही जाती है / ऐसा शास्त्रीय नियम है कि सात क्षेत्रोमें, उपरवालें क्षेत्रकी रकम नीचेके क्षेत्रमें जा नहीं सकती, लेकिन नीचेके क्षेत्रोंकी रकम, उपरवालें क्षेत्रोमें उपयोगमें ली जा सकती है / (यहाँ साधु - साध्वीका तथा श्रावक-श्राविका का एक-एक क्षेत्र समझना चाहिए / ) इस नियमके अनुसार तो पहले जिनप्रतिमा के क्षेत्रकी रकम, दूसरे जिनमंदिर क्षेत्रमें उपयोगमें लायी न जा सके; परन्तु हालमें प्राय; सभी जैनाचार्य, इन दो क्षेत्रों के देवद्रव्यको एक ही खातेका देवद्रव्य समझने लगे हैं अथवा उस प्रकार अमल किया जा रहा हो तो, विरोध नहीं करते / देवद्रव्यके तीन प्रकार संबोधप्रकरण आदि ग्रन्थोमें देवद्रव्यके तीन विभाग बताये गये हैं :(1) पूजा देवद्रव्य (2) निर्माल्य देवद्रव्य (3) कल्पित देवद्रव्य पूजा देवद्रव्य जिनेश्वरदेवके देहकी पूजाके लिए, प्राप्त होनेवाला धन पूजा देवद्रव्य कहा जाता है / जिनप्रतिमाके देहकी केसर आदिसे होनेवाली पूजा-निमित्त यह द्रव्य है किन्तु वह वृद्धिंगत हो तो प्रभुजीके गेह (मंदिर)में उसका उपयोग किया जाय वह स्वाभाविक है / इस प्रकार जिनके देहके अंग और अग्रपूजाके लिए और वृद्धिबढावा होने पर जिनमंदिरके जिर्णोद्धार (और नूतन मंदिरके निर्माण)में इस द्रव्यका विनियोग किया जाय, यह बात निश्चित हुई / निर्माल्य देवद्रव्य प्रभुजीके अंगसे उतारे गये वरख आदिके विक्रयसे जो रकम प्राप्त हो, उसे निर्माल्य देवद्रव्यके खातेमें जमा की जाय / यह बरख आदि चीजें थोडे ही समयमें दुर्वासित होने लगते हैं, अतः उन्हें 'विगन्धि' द्रव्य माने जाते हैं। प्रभुजीके समक्ष रखे गये बादाम आदि पदार्थ दुर्गंधपूर्ण नहीं बनते, लेकिन वे ही पदार्थ उतारनेके बाद पुनः अर्पण नहीं किये जा सकते, अत: उन्हे अविगन्धि निर्माल्य देवद्रव्य कहे जाते हैं / उनके विक्रयसे मिलनेवाली रकम निर्माल्य देवद्रव्यके खातेमें जमा की जाय /