________________ 114 .. धार्मिक-वहीवट विचार लोन दी जा सकती है ? उत्तर : नही, चाहे उतना लाभ हो तो भी वैसा नहीं हो सकता, क्योंकि जैन श्रावकों का दिल उससे व्यथित होगा / उससे सतत ऐसा संताप होता रहेगा कि 'मैं देवद्रव्यका उपयोग करता हूँ / कितना अधम हूँ / ' उपरान्त, यदि भाग्यवश रकम पूरी वापस न कर पाये तो वह सपरिवार बरबाद हो जाय / उसका अनंत संसार हो जाय / ऐसी स्थितिमें उदार चरित श्रीमंतोको अग्रेसर होना चाहिए / दोसौ-पांचसौ रूपयोंकी मदद करनेकी बजाय आजीविकाका कायमी हल ढूंढ दे ऐसा व्यवसाय आदि करनेके लिए बिना कर्जकी लोन दी जाय, तो अच्छा होगा, जिसके हफ्ते बहुत छोटी रकमके हों / ऐसा होनेसे वह श्रावक गौरवपूर्वक दुनियाके सामने खड़ा रहेगा / श्रीमंतोंको, ऐसी लोन वापस प्राप्त करनेके बारेमें जरा भी उपेक्षा न रखे / आजकल तो कई प्रकारके गृहउद्योग जारी हैं / उसके बारेमें धनिकवर्ग सोच सकता है / प्रश्न : (100) जिन गाँवोमें कोई जैन नहीं, वहाँ जैन परिवारोंको बसाकर, विहारमें आनेवाले साधु-साध्वीजियोंके गोचरी आदि प्रश्नोंका हल निकाला जा सकता है ? उत्तर : इस प्रकार प्रश्नोंका हल निकलेगा या नहीं, उसके पहले इतना जान लेना चाहिए कि अब जैन परिवार गाँवोमें निवास करनेके लिए तत्पर नहीं है / उसके मुख्य कारण ये हैं : (1) गाँवकी लडकीको (जड़ समझी जानेके कारण) वरको पाना मुश्किल बन जाता है और वरको कन्याप्राप्ति आसान नहीं होती / (2) बच्चोंको अच्छी शिक्षा प्राप्त नहीं होती / (3) बनियोंकी कौमको बी.सी. आदि लोग कई प्रकारसे परेशान करते हैं / उधार ले जाते हैं / बीलोंकी रकम जमा नहीं कराते / मारपीट करते हैं इत्यादि / (4) अच्छे साधर्मिकोंका सहवास प्राप्त नहीं होता / (5) धंधा-रोजगार पतनोन्मुख बन जाते हैं / (6) भारी बीमारीमें डाक्टरोंकी सुविधा नहीं मिल पाती / प्रश्न : (101) जैनोंको आर्थिक रूपसे अधिकाधिक सहायक बनने का उपदेश जैन श्रीमंतोको देना नहीं चाहिए ? - उत्तर : भाई, प्रत्येक वस्तुकी मर्यादा होती है / वर्तमानमें चारों ओर