________________ परिशिष्ट-२ 211 उपरकी उसकी मूर्छाका, उसके भावोल्लासानुसार न्यूनाधिक रूपसे नाश करेगा' ऐसा मानना ही चाहिए / ऐसे लोभोदयके कारण, कोई लोभी अपनी संपत्ति परकी मूर्छा का त्याग नहीं कर सकता, लेकिन उसे मूर्छाकी भयंकरता समझमें आयी होनेके कारण मूर्छा खटकती है / उससे मुक्ति पानेकी उसकी तीव्र इच्छा है, लेकिन लोभोदयके कारण, साथ साथ कायरता भी मिलीझुली है / लेकिन साथमें ऐसी प्रबल श्रद्धा भी है कि इस भगवानकी भक्ति मेरी मुर्छाको अवश्य चकनाचूर कर देगी / ऐसी प्रबल श्रद्धाके साथ वह अन्य द्रव्यसे प्रभुपूजा करे तो क्या उस प्रभुपूजामें उसकी मूर्छा तोडनेका सामर्थ्य नहीं ? "भले, स्वद्रव्य उपरकी मूर्छा तोडनेकी इच्छा, वैसी श्रद्धापूर्वक प्रबल होती हो, फिरभी यदि स्वद्रव्यको जैसाका वैसा बनाये रख, परद्रव्यसे प्रभुपूजा की जाय, तो वह प्रभुपूजा उसकी मूर्छाको तोड नहीं सकती / " ऐसा जो समझते हों, उन्हें प्रभुपूजाका कैसा अचिन्त्य महिमा है, उसकी जानकारी नहीं है, ऐसा खेदपूर्वक कहना पडता है / जैसे अपने क्रोध पर काबू पानेमें जो कायर है फिर भी क्रोध से मुक्त होनेके लिए जो प्रभुको शरणमें आता है और प्रभुपूजा करता है, उसके क्रोधको नष्ट करनेकी क्षमता प्रभुपूजामें है, जैसे अपनी कामवासनाको थोडी-सी भी कम करनेका सामर्थ्य, जिसे अपनेमें दीख नहीं पडता, फिर भी कामवासनाको तिलांजलि देनेके लिए जो प्रभुशरणमें आकर भक्ति करता है, उसकी कामवासनाको शान्त करनेका सामर्थ्य प्रभुपूजामें है / वैसे अपने लोभको जरा भी दूर न कर सकनेवाला, उसे छोडनेके लिए प्रभुशरणमें आकर प्रभुपूजा करे तो उसके लोभको तोडनेका अचिन्त्य माहात्म्य प्रभुपूजामें है, है ओर है ही..... 'प्रभुपूजा क्रोधीके क्रोधको दूर करती है....... कामीके कामको शान्त करती है.... लोभीके लोभको खत्म करती है...... यही देवाधिदेवका अनेकोंमेंसे एक अचिन्त्य माहात्म्य है / उसे प्रत्येक जन अपने दिलमें बनाये रखे / / - सावधान- (1) स्वद्रव्यसे होनेवाली जिनपूजाको यह लेख गौण स्थान देता है, ऐसा वक्र अर्थ कोई भूलसे भी न निकाले / 'स्वद्रव्यसे