________________ 212 धार्मिक-वहीवट विचार जिनपूजा करनेमें श्रावकको अधिक लाभ प्राप्त होता है' यह स्पष्ट ही है, लेकिन जहाँ वैसी शक्यता न हो और साधारण विभागमेंसे भी उसकी शक्यता न हो, वहाँ स्वप्रकी बोली आदिसे प्राप्त हुए द्रव्यसे भी सामग्रीकी व्यवस्था कर जिनभक्ति हो सकती है, ऐसा संमेलनने जो निर्णय किया है, वह शास्त्रसे अविरुद्ध है कि 'जिनभक्ति स्वद्रव्यसे ही होनी चाहिए, देवद्रव्यसे हो ही नहीं सकती / ' ऐसा जो प्रचार होता है, वह शास्त्र से अविरुद्ध है ? उसका जिज्ञासुलोग योग्य निर्णय कर सके, उसके लिए यह लेख है। (2) संमेलनने स्वप्न उछामनी आदिसे प्राप्त हुए कल्पित देवद्रव्यमें से केसर-चन्दनकी सामग्री आदिका प्रबंध करनेकी अनुशा दी है, जिसमें तो विवाद का कोई अवकाश ही नहीं / क्योंकि देवद्रव्यके 3 विभागोंका संबोध प्रकरणमें जो निरूपण किया है, उसीमें कल्पित-देवद्रव्यका उपयोग देरासर संबंधी सर्वप्रकारके कार्योंके लिए सूचित है / ____फिर भी, मैंने इस लेखमें, कल्पित देवद्रव्य ऐसे विशेष विभागकी मुख्यतया बिना विवक्षा रखे ही सामान्य देवद्रव्यमेंसे भी केसरं आदिकी व्यवस्था की जा सकती है, ऐसा जो प्रतिपादन किया है, उसमें निम्नानुसार कारण समझें :___ संमेलनके प्रस्तावके बारेमें उतना प्रश्न हो सकता है कि स्वप्न आदिकी उछामनीका द्रव्य कल्पित देवद्रव्य है या नहीं. ? इस प्रश्नके समाधानके लिए किसी शास्त्रका स्पष्ट शब्दोंमें आधार मिल नहीं पाता, क्योंकि ये सपनाकी उछामनी आदि प्रथाएँ मुख्यतया बादमें शुरु हुई है / इसी लिए इस परिस्थितिमें, संविज्ञ गीतार्थ आचार्य भगवंतोका अभिप्राय ही आधार बन सके / 'इस उछामनी आदिका द्रव्य कल्पित देवद्रव्य समझें' ऐसा निर्णय आचार्य भगवंतोंने संमेलनमें किया ही है / जो पक्ष 'यह निर्णय हमें मान्य नहीं' ऐसा कहकर इसका विरोध करता है / उस पक्षके ही मान्य स्व. आ. श्री रविचन्द्र सू. म. साहबने 'कल्याण के जुलै-अगस्त १९८३के अंकमें 'प्रश्नोत्तर विभाग में कहा है कि 'सुखी श्रावकों द्वारा या किसी एक व्यक्ति द्वारा जिनभक्ति निमित्त जो आचरण किया गया हो, उसे कल्पित देवद्रव्य कहा जाय / जैसे अष्टप्रकारी पूजा