________________ 170 - धार्मिक-वहीवट विचार साधुके द्रव्यका गृहस्थ उपयोग करे तो उसे इस प्रकारका प्रायश्चित करना पडता है / __यदि साधुकी मुहपत्ति, आसन, शयनादिका उपयोग किया हो तो प्रायश्चित्त भिन्नमास आता है / यदि साधुके पानीका उपयोग किया हो, अन्नका उपयोग किया हो, वस्त्रादिका उपयोग किया, कनकादि आदिका उपयोग किया हो तो विविध प्रायश्चित्त करने पड़ते हैं / ... यहाँ मूलगाथामें जलन्नआइसु पद है / जल, अन्न, आदि, यहाँ आदि शब्दसे टीकाकारने वस्त्रादि और कनकादि गृहीत किये हैं / इस प्रकार दो लेनेका कारण यह है कि वस्त्र आदिकी मालिकी कर, गुरु उसका उपभोग कर सकते हैं, इसलिए वस्त्रादि ‘भोगार्ह गुरुद्रव्य' है / / जबकि सोना इत्यादिका उपभोग कंचन-कामिनीके त्यागी गुरु कर नहीं सकते, अतः सोना इत्यादि भोगार्ह गुरुद्रव्य नहीं, परंतु पूजार्ह गुरुकी उसके द्वारा पूजा करने योग्य-द्रव्य अवश्य है / अत: सोना आदिको पूजार्ह द्रव्यके रूपमें अलग लिये हैं / अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सोना आदिको यदि गुरु वस्त्रादिकी तरह अपनी निश्रामें (मालिकी) लेते न हों तो सोना आदि गुरु-द्रव्य ही न बन पाये तो सोना आदि गुरुद्रव्यका जो श्रावक उपयोग करे, उसे षड्लघुका प्रायश्चित्त करना पडे, ऐसा कैसे कहे ? . द्रव्यसप्ततिकाकारने गुरुद्रव्यके जो दो विभाग कर गुरुपूजनद्रव्य सुवर्णादि कहा है, यह उन्होंने अपनी बुद्धिसे कहा है / वास्तवमें तो पुरातन सभी शास्त्रकारोंने वस्त्रपात्रसे ही गुरुपूजनकी विधिका निर्देश किया है; लेकिन दृष्टान्तोंके बल पर जब अंगपूजन जोरोंसे चालू हो गया तब उपरोक्त दो विभागोंकी स्पष्टता करनी पड़ी / वास्तवमें गुरुपूजा किसी भी शास्त्रमें विहित नहीं है / अतः जब हीरसूरिजी म.के सामने यह प्रश्न उपस्थित हुआ, तब उन्होंने हेमचन्द्रसूरि महाराजकी सुवर्णकमलसे निष्पन्न पूजासे उसका (अंगपूजाका) समर्थन करना पड़ा / बादमें उसका द्रव्य किस विभागमें लिया जाय, ऐसा प्रश्न उपस्थित हुआ / अतः सिद्धसेनसूरि महाराजका उदाहरण लेकर हीरसूरि महाराज द्वारा जीर्णोद्धारादिमें (यहाँ आदि शब्द है यह न भूलें. आदि शब्दसे गुरु-वैयावच्च और ज्ञानको ही लेना पडेगा / ) उस समय ले जाया गया था, ऐसा विदित किया, लेकिन उस द्रव्यका निश्चित्त उपयोग कहाँ हो ?