________________ वि. सं. २०४४के गुरुद्रव्य व्यवस्था के संमेलनीय ठराव नं. 14 पर चिंतन पं. चन्दशेखरविजयजी गुरुपूजनका द्रव्य, शास्त्राधार पर श्रावक संघ, जीर्णोद्धार तथा गुरुके बाह्य परिभोगस्वरूप साधु साध्वियोंको पढानेका और वैद्यादिरूप कार्य और डोली आदि स्वरूप वैयावच्च कार्योंके लिए उपयोगमें लाया जाय / गुरु महाराजके पूजनके लिए बोली गयी, गुरुको कम्बल आदि बहोरानेकी बोली और दीक्षा निमित्त उपकरणोंकी बोली, इन सभीके द्वारा जो धन उपलब्ध हो उसका और पदप्रदान निमित्त बुलाये गये कंबलादि उपकरणोकी बोलीका धन शास्त्र-वचनानुसार श्रमणसंघ द्वारा गुरुवैयावच्चमें जमा करानेका निर्णय किया जाता है, लेकिन. दीक्षा तथा पदप्रदान प्रसंग पर पोथी; नवकारवाली, मंत्रपट, मंत्र पोथीकी बोलीके धनको ज्ञान-द्रव्यमें ले जानेके लिए ठराव किया जाता है / शास्त्रपाठः अर्थः विवरण अथ यतिद्रव्यपरिभोगे प्रायश्चित्तमाहमुहपत्ति - आसणाइसु भिन्नं जलन्नाईसु गुरू लहुगाइ / जइदव्वभोगि इय पुण वत्थाईसु देवदव्वं व // व्याख्या : मुखवस्त्रिकाआसनशयनादिषु, अर्थाद् गुरुयतिसत्केषु परिभुक्तेषु भिन्नम् / तथा जलन्नाईसु त्ति / यतिसत्के जले अन्ने आदिशब्दाद् वस्त्रादौ कनकादौ च / 'धर्मलाभ इति प्रोक्ते दूरादुच्छ्रितपाणये / सूरये सिद्धसेनाय, ददौ कोटिं नराधिपः / / ..इत्यादिप्रकारेण केनापि साधुनिश्रयाकृते लिगिसत्के वा परिभुक्ते सति 'गुरुलहुगाई 'त्तिक्रमण गुरुमासश्चतुर्लघ आदि शब्दाच्चतुर्गुरवः षड्लघवश्चस्युः / अयमर्थ: गुरुसत्के जले परिभुक्तेश अन्नजीही, वस्त्रादौठी कनका 56 चिप्रायश्चित्तानि भवन्ति / यतिद्रव्यंभोग 'इय' त्ति / एवं प्रकार प्रायश्चित्तविधिरागन्तव्या / अत्रापि पुनर्वस्त्रादौ देवद्रव्यवत् वक्ष्यमाणदेवद्रव्यविषयप्रकारवत् ज्ञेयम् / अयमर्थः यत्र गुरुद्रव्यं भुक्तं स्यात् तत्राऽन्यत्र वा साधुकार्ये वैद्याद्यर्थं बन्दिग्रहादिप्रत्यपायापगमाद्यर्थं वा तावन्मितवस्त्रादिप्रदानपूर्वकं प्रायश्चित्तं देयमिति गाथार्थः // 68 // (श्राद्धजितकल्पः मुद्रित पृ. 56)