________________ 172 धार्मिक-वहीवट विचार - अब यहाँ इस प्रकारसे गुरुद्रव्य बन गया / तो यह गुरुद्रव्य अथवा किसी शिथिलाचारीकी निश्रामें पडा सोना आदि गुरुद्रव्य-उसका कोई गृहस्थ उपयोग करे तो उसे विविध प्रकारके प्रायश्चित्त करना पडे / ऐसा कहकर उपरकी गाथाके उत्तरार्धमें कहा कि साधुके द्रव्यका उपभोग करनेवालेको इस प्रकारको प्रायश्चित्तविधि समझें / अब गाथाके उत्तरार्धमें जो कहा है कि 'पुण वत्थाइसु देवद्रव्वंव' उसका संस्कृतमें रूपान्तर कर टीकाकारने लिखा है कि 'अत्रापि पुनः बस्त्रादिषु देवद्रव्यवत् / ' टीकाकार कहते हैं कि जैसे आगे देवद्रव्यका उपभोग करनेवाले श्रावकके लिए हम जो प्रायश्चित्त बतानेवाले हैं, यही पद्धति यहाँ भी समझें / अर्थात् जैसे देवद्रव्यका उपभोग करनेवालेको तप स्वरूप प्रायश्चित्त करानेके साथ हम कहनेवाले हैं कि देवद्रव्यका जितना उपभोग किया हो, उतना पुनः देवद्रव्यमें वापस जमा करा दें / (केवल तप प्रायश्चित्तसे काम नहीं होगा / ) उसी प्रकार यहाँ भी गुरुके वस्त्रादि (तथा कनकादि) का उपभोग जितनी मात्रामें किया हो, उसे उपर निर्दिष्ट जल, अन्न, वस्त्रादि और कनकादिका सूचित तप प्रायश्चित्त तो करना ही चाहिए लेकिन साथ साथ उस वस्त्रादि (तथा कनकादि)का जितना मूल्य होता हो, उतने मूल्यका वस्त्रादि प्रदान साधुकार्यमें-वैद्यके लिए या कारावास आदिमें पकडे गये या किसी आपत्तिमें फँसे हुए साधुको बचानेके लिए- उस स्थान पर या अन्यत्र-प्रदान करें / संक्षेपमें उतने द्रव्यका वस्त्रादिदान भी तपप्रायश्चित्तके साथ साथ करें / इस श्राद्धजितकल्पके शास्त्रपाठसे स्पष्ट होता है कि गरुद्रव्य साधवैयावच्चमें लिया जा सकता है / यदि गुरुद्रव्य देवद्रव्यमें ही जाता हो तो प्रायश्चित्त दाता गुरु, उस श्रावकसे कहते कि 'तुमने जितने मूल्यके वस्त्रादि या कनदादिका उपभोग किया हो, उतनी रकमका उपयोग जीर्णोद्धारमें करो / ' लेकिन ऐसा न कहकर गुरुकी वैयावच्चके वैद्यादि कार्यों में उस रकमका उपयोग करनेके लिए कहा है, इससे निश्चित होता है कि गुरुद्रव्य साधुवैयावच्च विभागका द्रव्य है / विरोध करनेवालोंका इस विषयमें जो कहना है कि "इस पाठकी टीकामें वस्त्रादिके उपभोगका ही प्रायश्चित्त 'वस्त्रादिदान' है; लेकिन कनकादिके