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________________ परिशिष्ट-२ विधान भी करते हैं, यह स्पष्ट है / अतः ‘देवद्रव्यमेंसे पूजा आदि हो न सके, यह बात शास्त्रमान्य नहीं है, यह भी स्पष्ट है / ' फिर भी, 'श्राद्धविधि' तथा 'द्रव्यसप्ततिका के पाठमें देवमंदिरमें देवपूजा भी स्वद्रव्यसे ही की जानी चाहिए, ऐसा निर्देश करनेवाले घरदेरासरविषयक वाक्यांशका आधार पकडकर, इन सभी शास्त्रपाठोंकी ओर उपेक्षा बताकर, 'भगवानकी पूजा तो स्वद्रव्यसे ही संपन्न हो तभी उस पूजाका लाभ प्राप्त होगा, देवद्रव्यसे भगवानकी पूजा करने में तो देवद्रव्यके भक्षणका बड़ा भारी दोष लगेगा' इत्यादि निरूपण करना, उसे सिद्धान्तकी योग्य प्ररूपणा मानी न जायेगी / ता. १४-१२-१९३८के जैन प्रवचनमें कहा गया है कि 'सिद्धान्तके दो बाजु - प्रत्येक सिद्धान्तके दो विभाग-हैं / सिद्धान्तके एक पक्ष या विभागको पकड़ा नहीं जाता / ' प्रस्तुतमें, जिनपूजा स्वद्रव्यसे ही करनी चाहिए / ' यह एक पक्ष है, केवल उसे पकडकर ही चला न जाय / उसे पकड़ लेनेसे एकान्तवादी बन जायेंगे, जो भारी हानिकारक है / ता. १६-१२-१९३९के जैन प्रवचनमें कहा गया है कि ___ 'ऐकान्तवादियोंका कथन कदमकदम पर वदतोव्याघातके दोषसे भरा है / स्याद्वादके विरोधियोंकी सारी बातें 'माता मे वन्ध्या' आदि जैसी ही होती है / ऐसे लोग सन्मार्गके नाशक और उन्मार्गके प्रचारक बने, उसमें सौम्यबुद्धिवालेको लेशमात्र शंका ही नहीं / ' ___ और सचमुच, 'जिनपूजा स्वद्रव्यसे ही की जाय, परद्रव्यसे करनेमें स्वयं कोई लाभ नहीं होता, ऐसा एकान्तवादके ग्राहकको ऐसे दोष लागू हो जाते हैं / 'जिनपूजा स्वद्रव्यसे ही हो / ' ऐसा कहनेवाले पुनः ऐसा भी कहते हैं कि 'साधुके अग्निसंस्कारकी आमदनीमेंसे पूजा महोत्सवादि ए क्यां अपने ही वचनको अपना ही अन्य वचनसे नष्ट करनेका दोष नहीं ? . ऐ हो सके एकान्तवादको पकडनेवाले वर्गको मान्य स्व. आ. श्री रविचंद्र सू. महाराजने भी जुलै-अगस्त १९८३के कल्याण के अंकमें प्रश्नोत्तरविभागमें कहा है कि :. 'सुखी श्रावकों अथवा किसी एक व्यक्ति द्वारा जिनभक्ति निमित्त जो आचरण किया गया हो, उसे कल्पित देवद्रव्य कहा जाय; जैसे अष्टप्रकारी घा.वि. 13
SR No.004379
Book TitleDharmik Vahivat Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekharvijay
PublisherKamal Prakashan
Publication Year1996
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size22 MB
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