________________ 108 धार्मिक-वहीवट विचार विधान किया है / प्रश्न : (91) कई साधु - साध्वी अपने सीधे प्रभुत्ववाले उपाश्रय बनाकर कायमी स्थिर वास करते हैं / वे साधु-साध्वी अत्यन्त शिथिल बन न पाये इस लिए ऐसा महसूस नहीं होता कि क्रियोद्धारकी आवश्यकता है ? उत्तर : क्रियोद्धार जैसा महान कार्य तो कोई युगपुरुष जैसे महात्मा ही कर सकते हैं, लेकिन जब तक ऐसे महापुरुष संपूर्ण क्रियोद्धार न करे तब तक जिनमें जितनी शक्ति हो, उसके अनुसार क्रियोद्धारके लिये पुरुषार्थ करते रहे, यही इच्छनीय है / हालमें तो जैन संघ भयानक यादवा- स्थलीमें डूबा हुआ है / उसमें से यदि कोई संघको मुक्त कराये, एकसूत्रता पैदा कराये, तो भी पर्याप्त है / संसारत्यागीने घरका त्याग किया है / उसे नया घर बसाना नहीं रहता, लेकिन जो वृद्ध हुए हैं, या निकट भविष्यमें वृद्ध होनेवाले हैं, वे सोचते हैं कि- मेरे उस समयके स्थिरवासके लिए मैं एकाध घर (फ्लेट)की सुविधा कर लूँ, जिसके पर मेरा पूरा आधिपत्य रहे / ट्रस्ट बनाऊँ / ट्रस्टी मंडलकी नियुक्ति करूँ, लेकिन यह सब मेरे प्रभुत्वमें / ऐसी भावनामेंसे अपनी मालिकियत जैसे घरों (उपाश्रय)का सर्जन होता है / जैन संघोंके उपाश्रयोमें ट्रस्टी लोग स्थिरवास करने चाहते त्यागियोंको निवास नहीं करने देते, क्योंकि वेसा करें तो अन्य साधु-साध्वी, उस स्थान पर चातुर्मास करनेका स्पष्ट इन्कार कर देते हैं / अब ऐसी हालतमें वृद्ध साधु-साध्वी कहाँ रहे ? भूतकालमें जिस-तिस गाँव या नगरमें वैसे साधु-साध्वी स्थिर निवास करते थे / प्रत्येक गाँवके हिस्से में दो-तीन वृद्ध आ पाते थे / जिससे उनकी आजीवन सेवा गाँवके लोग आसानीसे कर पाते थे / लेकिन अब गाँव टूटे / व्यापार तुटने पर जैन लोग भी तुटे / अतः वे लोग देखभाल कर सके ऐसी हालत न रही / __ इसी कारण 'घर' बसानेकी कमजोर मनोवृत्तिका स्थान-स्थान पर प्रकटीकरण हुआ / इसमें सबसे भारी नुकसान, उन वृद्धोंके साथ सहायकके रूपमें रहनेवाले साधु-साध्वीको अति संसक्त वसतिके कारण होता है / जिस फ्लेटमें वे रहते हों, वहाँ स्थंडिल, मात्रु आदिका त्याग किया न जाय,