________________ परिशिष्ट-३ 241 है / पूजा निमित्त हाथ धोना या तिलक करना, इत्यादिमें दोष उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि अभी उसी प्रकार होता है, और उसमें भक्ति विशेष रूपसे महसूस होती है / दोषरूप भास नहीं होता / पत्रमें उल्लिखत इस बात का जिक्र ऊँटनीके प्रसंगमें किया गया है / (श्राद्धविधि पृ. 173) वहाँ देवद्रव्यका स्वकार्यमें उपभोग करनेवाला आत्मा ऊँटनीके रूपमें अवतरित हुआ था ऐसा विज्ञापित कर, देरासरमें प्रवेश करते समयके केसर और जल यदि देरासरमें प्रवेश करना आदिके लिए ही उपयोगमें लाये जायँ तो कोई हर्ज नहीं, परंतु यदि स्वकार्यके लिए उसका उपयोग हो तो आपत्ति है, ऐसा कहनेका तात्पर्य है। विशेषमें द्रव्यसप्ततिका पृ. 15 पर 'यथासंभवदेवादिसंबंधिगृहात् क्षेत्रवाटिका पाषाणे.....श्रीखंडकेसरभोग पुष्पादि........स्वपरकार्ये किमपि न व्यापार्यं / देवभोगद्रव्यवत् तदुपभोग स्यापिदुष्टत्वात् / इस प्रकार लिखा गया है अत: स्वपर गृहकार्यके लिए निषेध समझा जाता है / देवकार्यके लिए निषेध नहीं लेकिन विधान हो तभी ऐसा उल्लेख किया गया हो / खंभातके निर्णयमें 'जिनप्रतिमाकी नियमित पूजा होनेके लिए, पूजाके उपकरणोंके सुधार के लिए एवं नूतनीकरणके लिए आदि स्पष्ट लिखा गया है / उपरान्त, देवद्रव्यकी सुरक्षा और वृद्धि, देवाधिदेव परमात्माकी भक्तिके लिए ही की जाय, ऐसा निर्दिष्ट किया है / अब पूजाके लिए सात प्रकारकी शुद्धिमें 'न्यायद्रव्य विधि शुद्धता' आदि आता है, उसमें न्यायोपार्जित द्रव्य द्वारा अष्टप्रकारी आदि पूजा करे ऐसा सूचित किया है / ९वें षोडशकमें श्लोक 4 तथा श्लोक 9 इस बातका जिक्र है / योगशास्त्र प्रकाश 3, श्लोक 119 की टीकामें पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, फूल, नैवेद्य, घृत आदि द्वारा जिनपूजा करनेवाले गृहस्थोंको परमपदकी प्राप्ति बतायी गयी है / 'पंचकोडी ना फूलडे' आदि उक्तियाँ द्वारा भी स्वल्प ऐसे स्वद्रव्य द्वारा हुई पूजाकी महत्ता बतायी गयी है / ये सभी पाठ व्यक्तिगत उपदेशोंके लक्ष्य कर दिये गये मालूम होते हैं, क्योंकि उसमें जिनपूजाकी तरह जिनमंदिर, ज्ञान आदिकी भक्तिमें, स्वद्रव्यका व्यय करनेवाले गृहस्थको श्रावक धर्मका आराधक बनकर, चारित्रधर्म आदिका अधिकारी होता है, ऐसा सूचित किया है / अष्टकजीमें भी तीसरे अष्टकमें 'शुद्धागमैर्यथालाभं' आदि शब्दों द्वारा न्यायार्जित वित्तसे प्राप्त पुष्पपूजाका महत्त्व वर्णित है /