________________ '16 - धार्मिक-वहीवट विचार संभावना बढ़ जाती है / जिसका शास्त्रकारोंने निषेध किया है / अतः ऐसी तीन थैलियाँ निश्चित की जायँ और कल्पित देवद्रव्यमेंसे पूजारीको वेतन दिया जाय, जिनपूजाकी सामग्री लाए तो शास्त्रव्यवस्थाका पालन-आचरण बना रहे / - यहाँ एक बात अवश्य ध्यानमें रखें कि देवद्रव्य या कल्पित देवद्रव्यमें कोई जिनपूजा करे तो, वह एकान्त पापका भागी बनता है, ऐसा कहा नहीं जा सकता है। ___क्योंकि, पूजा देवद्रव्य, पूजाका ही खाता है / उपरान्त, कल्पित देवद्रव्य भी व्यापक बनकर पूजा करनेकी रकम लेनेकी अनुमति देता ही है / इस प्रकार पूजा करनेमें एकान्त पापका भागी नहीं बनता / प्रभुभक्ति करनेके लिये देवद्रव्यकी रकममेंसे पूजादि कार्य न कर, स्वद्रव्यका उपयोग कर पूजा करें तो धनमूर्छा उतारने का सबसे बडा लाभ उन्हें सविशेष प्राप्त होता है / उपरान्त, स्वद्रव्यकी जिनपूजामें भावोल्लासकी वृद्धिका भी संभव विशेष रहता है। __यदि देवद्रव्यमेंसे देरासरका निर्माण हो सकता है और उसका सुखी भक्त उपयोग कर सकते हैं तो उसी देवद्रव्यमेंसे देरासरजीमें बिराजमान परमात्माकी पूजादिविधि क्यों न हो सके ? उसमें पापबंधका संभव ही कहाँ ? . जिनपूजा करनेकी सामग्री, गाँवके या बाहर गाँवसे आये जैनोंको यथासमय उचितढंगसे प्राप्त होती रहे, उसके लिए 'जिनभक्ति साधारण भंडार' स्थापित कर, उस पर-द्रव्यसे वे लोग जिनपूजा कर सके और उसमें यदि दोष द्रष्टिगोचर न होता ही तो स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनेका एकान्त आग्रह क्यों रखा जाय? ___ 'द्रव्य सप्ततिका' ग्रंथमें 'श्रावकों को स्वद्रव्यसे ही पूजा करनी चाहिए।' ऐसा जो उल्लेख किया गया हे वह घर देरासरके मालिक श्रावकके लिए ही है / वहाँ उसीका विषय है / उसमें ऐसा जिक्र किया गया है कि 'गृहदेरासरमें रखे गये चावल, फल आदि द्वारा संघदेरासरमें वह श्रावक पूजा नहीं कर सकता; क्योंकि वैसा करने पर, लोंगो द्वारा उसे अनावश्यक मान-संमान प्राप्त होनेकी संभावना है / (यहाँ देवद्रव्यसे पूजा करनेका दोष लगने की बातका तो जिक्र नहीं किया गया / ) ऐसा अनावश्यक मान प्राप्त न हो, उसके लिए, उसे बडे देरासरमें स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनी चाहिए। इस प्रकार उस पाठका मनन किया जाय तो स्पष्ट होगा कि स्वद्रव्यसे ही जिनपूजा करनेका सभी श्रावक-श्राविकाओंके लिए शास्त्रवेत्ताओंका आत्यन्तिक